विश्वनाथ काशीनाथ राजवाडे
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पूरा नाम | विश्वनाथ काशीनाथ राजवाडे |
जन्म | 24 जून, 1863 |
जन्म भूमि | रायगढ़, महाराष्ट्र |
मृत्यु | 31 दिसम्बर, 1926 |
मृत्यु स्थान | पुणे, महाराष्ट्र |
कर्म भूमि | भारत |
मुख्य रचनाएँ | 'भारतीय विवाह संस्थेचा इतिहास' |
भाषा | मराठी |
विद्यालय | डेक्कन कॉलेज |
प्रसिद्धि | इतिहासकार, लेखक, विद्वान, श्रेष्ठ वक्ता |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | 1894 में अनुवाद आधारित 'भाषांतर' नामक मराठी पत्रिका सम्पादित करने के अलावा 1910 में राजवाडे ने पुणे में 'भारत इतिहास संशोधक मण्डल' की स्थापना की और अपने ऐतिहासिक स्रोतों, कृतियों और स्वयं के ऐतिहासिक कायों को मण्डल के सुपुर्द कर दिया। |
अद्यतन | 14:55, 19 अप्रॅल 2017 (IST)
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इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
विश्वनाथ काशीनाथ राजवाडे (अंग्रेज़ी: Vishwanath Kashinath Rajwade, जन्म- 24 जून, 1863, महाराष्ट्र; मृत्यु- 31 दिसम्बर, 1926) प्रसिद्ध भारतीय लेखक, इतिहासकार, श्रेष्ठ वक्ता और विद्वान थे। उन्हें 'इतिहासाचार्य राजवाडे' के नाम से ख्याति प्राप्त थी। संस्कृत और व्याकरण के भी वे प्रकांड पंडित थे, जिसका प्रमाण उनकी सुप्रसिद्ध कृतियों 'राजवाडे धातुकोश' तथा 'संस्कृत भाषेचा उलगडा' आदि में दिखाई देता है। विश्वनाथ काशीनाथ राजवाडे ने 'भारतीय विवाह संस्था का इतिहास' नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ की रचना मराठी भाषा में की थी। ग्रन्थ इतिहासाचार्य राजवाडे के व्यापक अध्ययन और चिन्तन की एक अनूठी उपलब्धि है।
जन्म तथा शिक्षा
विश्वनाथ काशीनाथ राजवाडे का जन्म 24 जून, 1863 को महाराष्ट्र के रायगढ़ ज़िले के वरसई गाँव में हुआ था। जब वे तीन वर्ष के थे, उनके पिता का देहांत हो गया। आगे का लालन-पालन उनके ननिहाल वरसई में हुआ। बाद में वे अपने चाचा के पास पुणे के नज़दीक वडगाँव में आ गये। पुणे में राजवाडे का प्राथमिक शिक्षण शनिवार पेठ की पाठशाला में हुआ। बाबा गोखले की पाठशाला, विष्णुकांत चिपलूणकर के न्यू स्कूल और फिर बाद में मिशन स्कूल से उन्होंने माध्यमिक की शिक्षा पूरी की। 1882 में राजवाडे ने मैट्रिकुलेशन किया। आगे की शिक्षा के लिए बॉम्बे के एल्फ़िंस्टन कॉलेज में दाख़िला लिया, पर धनाभाव के कारण वे अध्ययन जारी नहीं रख पाये। बाद में पुणे में पब्लिक सर्विस सेकण्ड ग्रेड परीक्षा में बैठने वाले विद्यार्थियों को पढ़ा कर उन्होंने धनोपार्जन किया और डेक्कन कॉलेज में आगे की पढ़ाई के लिए नाम दर्ज कराया। यद्यपि कॉलेज के पाठ्यक्रम में लगी पाठ्यपुस्तकों से राजवाडे कभी संतुष्ट नहीं हुए, फिर भी रामकृष्ण गोपाल भंडारकर जैसे विद्वानों के सान्निध्य में उन्होंने काफ़ी कुछ सीखा। राजवाडे ने 1891 में बीए की परीक्षा उत्तीर्ण की।
लेखन की शुरुआत
प्राथमिक शिक्षा से लेकर कॉलेज तक की उच्च शिक्षा से संबंधित अपने अनुभव को राजवाडे ने 'ग्रंथमाला' मासिक पत्रिका में ‘कनिष्ठ, मध्यम व उच्च शालान्तीत स्वानुभव’[1] शीर्षक निबंध द्वारा प्रस्तुत किया। इस रचना में उन्होंने शिक्षा के व्यावसायिक हितों को सामाजिक उत्तरदायित्वों पर वरीयता देने की तत्कालीन परम्परा की कठोर आलोचना की। 1894 में अनुवाद आधारित 'भाषांतर' नामक मराठी पत्रिका सम्पादित करने के अलावा 1910 में उन्होंने पुणे में 'भारत इतिहास संशोधक मण्डल' की स्थापना की और अपने द्वारा इकट्ठे किये गये ऐतिहासिक स्रोतों, कृतियों और स्वयं द्वारा किये गये ऐतिहासिक कायों को मण्डल के सुपुर्द कर दिया।
इतिहास स्रोत सामग्री का संकलन
विश्वनाथ काशीनाथ राजवाडे का मानना था कि ग्रांट डफ़ सहित अन्य औपनिवेशिक इतिहासकारों द्वारा लिखित भारत का इतिहास विजेताओं द्वारा लिखित विजित देश का इतिहास है।
इसलिए उसमें सत्य का अभाव है और महत्त्वहीन घटनाओं को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया गया है। पूर्व-लिखित इतिहास की छानबीन के पश्चात् राजवाडे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सच्चे इतिहास को प्रकाश में लाये बिना राष्ट्र में स्वत्व की चेतना का न तो निर्माण ही हो पायेगा न ही विकास। इसी बीच अपने एक विद्यार्थी काका राव पण्डित को मिले कुछ स्रोतों की जानकारी मिलने पर राजवाडे उन स्रोतों को हस्तगत किया और दो माह के अविश्रांत परिश्रम द्वारा 1896 में 'मराठ्यांच्या इतिहासाची साधने'[2] शीर्षक पुस्तक का पहला खण्ड प्रकाशित हुआ। पानीपत के युद्ध से संबंधित 202 पत्र इसी खण्ड में हैं। इतिहास स्रोत-सामग्री जुटाने की इसी रीति के साथ राजवाडे ने दृढ़ और अनथक प्रयासों से पूरे महाराष्ट्र का दौरा किया। ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थानों के बार-बार निरीक्षण, वास्तुशास्त्रीय अध्ययन दृष्टि और पुरातात्त्विक साक्ष्यों की मदद से राजवाडे ने महाराष्ट्र के जनजीवन, वहाँ की भाषा, रीति-रिवाज़ों और साहित्य के मानवशास्त्रीय और समाजशास्त्रीय दृष्टि से अध्ययन के उपरांत जो निष्कर्ष निकाले, उसके फलस्वरूप मराठों के इतिहास की स्रोत सामग्री के बाईस खण्ड प्रकाशित हुए। उनकी मृत्यु के समय अर्थात् 1926 तक इससे भी ज़्यादा अप्रकाशित संग्रह राजवाडे के पास एकत्र हो चुका था।
राजवाडे ने शाहजी पर लिखे निबंध में मराठों के शक्ति-लोप को पुनर्स्थापित करने हेतु 'डायलेक्टिस ऑफ़ डिफ़ीट' अर्थात् हार के द्वंद्व पर चर्चा करते हुए बताया कि उत्तम, सुडौल तथा निश्चित हथियार बनाने की कला के विकास के लिए वैज्ञानिक ज्ञान की जो पूर्व तैयारी आवश्यक होती है, वह उस समय महाराष्ट्र में नहीं थी। भक्तिकालीन कवियों पर हमला बोलते हुए राजवाडे ने बताया कि जब[3] यूरोप में देकार्त, बेकन आदि विचारशील लोग, सृष्टि में रहने वाले विविध पदार्थों की खोज करने वालों को प्रोत्साहित कर रहे थे, उसी समय अपने यहाँ एकनाथ, तुकाराम, दासोपंत, निपटनिरंजन आदि संत-महात्मा पंच महाभूतों को नष्ट कर ब्रह्म साक्षात्कार का मार्ग दिखाने का प्रयास कर रहे थे। इनके उलट राजवाडे ने सत्रहवीं सदी के संत समर्थ गुरु रामदास की तत्त्व-मीमांसा का स्वागत किया, जिनकी कविताओं में मराठा शक्ति की पुनर्स्थापना की आकांक्षा समेटने वाली राजनीतिक गोलबंदी और मराठी राष्ट्रीयता के पुनरुत्थान की भावनाएँ व्यक्त होती थीं।
हिन्दूवाद के रक्षक तथा आलोचक
विश्वनाथ काशीनाथ राजवाडे हिंदूवाद के कद्दावर रक्षक होने के साथ-साथ उसके कट्टर आलोचक भी थे। हिंदूवाद को वे सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था मानते थे। शिवाजी जयंती के अवसर पर 1911 में लोकमान्य तिलक के पत्र 'केसरी' में लिखते हुए उन्होंने चातुर्वर्ण्य व्यवस्था का समर्थन किया और इसे सामाजिक संगठन का उत्तम रूप बतलाया। साथ ही उन्होंने मराठी समाज पर यह आरोप भी लगाया कि इस व्यवस्था का ठीक से पालन न करना ही उसके पतन का कारण बना। हिंदूवाद अथवा ब्राह्मणवाद की आड़ में राजवाडे ने हमेशा मराठी भाषा-भाषी लोगों के उत्तरदायित्व और कर्तव्यों को सामूहिक रूप से महाराष्ट्र धर्म के रूप में व्यक्त किया और उसकी उन्नति के लिए उस पर ज़ोर दिया।
भारतीय विवाह संस्था का इतिहास
सन 1920-1923 के दौरान विश्वनाथ काशीनाथ राजवाडे के 'भारतीय विवाह पद्धति' पर लिखे निबंध संकलित रूप में 'भारतीय विवाह संस्थेचा इतिहास' (भारतीय विवाह संस्था का इतिहास) के रूप में 1926 में प्रकाशित हुए। इसका पहला अध्याय ‘स्त्री-पुरुष समागम’ में कई अति प्राचीन आर्य प्रथाओं का ज़िक्र था। यह पहली बार 1923 की मई में पुणे की 'चित्रमयजगत' पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। इसमें वेद, संहिता, महाभारत और हरिवंशपुराण के उद्धरणों और साक्ष्यों द्वारा यह कहा गया था कि अत्यंत प्राचीन आर्य समाज में भाई-बहन और पिता-पुत्री के बीच शारीरिक संबंध होते थे। इन निर्बंध शारीरिक संबंधों का आगे किस प्रकार विकास हुआ, यही इस निबंध का विषय था। इस पुस्तक का दूसरा अध्याय ‘स्त्रियों की वंश-प्रवर्तक शक्ति और प्रजापति संस्था’ में उन्होंने यह दिखाया कि कैसे एक बालक को दूसरे से अलग पहचानने के लिए पिता की जगह मातृकुल का नाम दिया गया, क्योंकि तब स्त्री-पुरुष संबंध मिले-जुले होते थे। साथ ही राजवाडे इसमें यह भी दिखाते हैं कि प्रजापति संस्था से पूर्व वंशावतरण स्त्रियों के अधीन था और प्रजापति संस्था के प्राचीन आर्य समाज के रूप में विकसित होने के तीन परिणाम निकले।
इस ग्रंथ का तीसरा अध्याय ‘आतिथ्य की एक आर्य प्रथा’ में प्रमाणस्वरूप महाभारत के उद्योग पर्व के पैंतालीसवें अध्याय में वर्णित ‘इष्टान पुत्रान विभवान स्वान्श्च दारान’ अर्थात् ‘संकटकाल में अपनी स्त्री भी अपने मित्र को निर्मल अंतःकरण से अर्पित की जाए’ द्वारा राजवाडे ने यह बताया कि भारतीय ऐसा कभी नहीं मानते थे कि अपने मित्र को स्व-स्त्री सम्भोगार्थ देने में कोई नीतिभंग होता है। इसका समर्थन पाणिनि ने 'द्विगोर्लुगनपत्ये' (4-1- 88) सूत्र में ‘द्वायोर्मित्रयोरपत्यं द्वैमित्रि’ अर्थात् दो मित्रों के अपत्य या संतति को द्वैमित्रि कह कर किया है। इस स्थिति में पितृत्व दोनों ही मित्रों को मिलता है। इस ग्रंथ के चौथे अध्याय ‘अग्नि और यज्ञ’ में भारतीय विवाह संस्था के इतिहास और परम्परा का विस्तार से स्पष्टीकरण करने के लिए अग्नि का सामाजिक इतिहास बताते हुए राजवाडे ने यज्ञ की प्रक्रिया, फल-श्रुति और उनसे सम्बद्ध दंत कथाओं का उल्लेख किया है। साथ ही इसमें उन्होंने स्त्री-पुरुष के सामूहिक रूप से लैंगिक समागम में एकनिष्ठ विवाह पद्धति के ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया दर्शायी है। इस ग्रंथ में क्षेपक रूप में भारतीय विवाह संस्था के इतिहास विषय पर राजवाडे द्वारा लिखित टिप्पणियाँ ‘लग्नसंस्था ’ शीर्षक के अंतर्गत सम्मिलित की गयीं।
मृत्यु
महान अन्वेषक, वैयाकरण, मानवशास्त्री और इतिहासकार विश्वनाथ काशीनाथ राजवाडे का 31 दिसम्बर 1926 को पुणे में देहांत हुआ। 1926 में उनकी असामयिक मृत्यु के पश्चात् धुले-स्थित राजवाडे संशोधक मण्डल की स्थापना हुई और उनके कार्य और स्रोत सामग्रियाँ वहीं रखी गयीं। आज भी ये दोनों संस्थान अपने योगदान से भारतीय इतिहास और संस्कृति को समृद्ध करने में लगे हुए हैं। उनके सम्मान में भारतीय इतिहास कांग्रेस ने 'विश्वनाथ काशीनाथ राजवाडे अवार्ड' की संस्तुति की, जो भारतीय इतिहास के क्षेत्र में जीवन-पर्यंत योगदान के लिए दिया जाता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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