हर सम्त परीशाँ तेरी आमद के क़रीने धोखे दिए क्या-क्या हमें बादे-सहरी ने हर मंज़िल-ए-ग़ुरबत पे गुमाँ होता है घर का बहलाया है हर गाम बहुत दर बदरी ने थे बज़्म में सब दूदे-सरे बज़्म से शादाँ बेकार जलाया हमें रौशन नज़री ने मयख़ाने में आजिज़ हुए आजुर्दा दिली से मस्जिद का न रक्खा हमें आशुफ़्ता-सरी ने यह जाम-ए-सद-चाक बदल लेने में क्या था मोहलत ही न दी फ़ैज़ कभी बख़िया गरी ने