कृष्ण जन्मभूमि
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विवरण | भगवान श्री कृष्ण की जन्मभूमि का ना केवल राष्द्रीय स्तर पर महत्त्व है, बल्कि वैश्विक स्तर पर जनपद मथुरा भगवान श्री कृष्ण के जन्मस्थान से ही जाना जाता है। पर्यटन की दृष्टि से विदेशों से भी भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए यहाँ प्रतिदिन दर्शनार्थी आते हैं। |
राज्य | उत्तर प्रदेश |
ज़िला | मथुरा |
प्रबंधक | श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रष्ट |
कैसे पहुँचें | मथुरा जंक्शन रेलवे स्टेशन पर अधिकांश रेल रुकती हैं। दिल्ली, आगरा, अलीगढ़, ग्वालियर से मथुरा के लिए बस सेवा भी उपलब्ध है। |
मथुरा जंक्शन, मथुरा छावनी | |
साईकिल रिक्शा, ऑटो रिक्शा, टैक्सी, लोकल रेल, बस | |
क्या देखें | द्वारिकाधीश मन्दिर, बांके बिहारी मन्दिर, रंगजी मन्दिर, मदन मोहन मन्दिर आदि। |
कहाँ ठहरें | होटल, धर्मशाला, अतिथि ग्रह |
एस.टी.डी. कोड | 0565 |
ए.टी.एम | लगभग सभी |
सावधानी | आतंकवादी गतिविधियों से सावधान, लावारिस वस्तुओं को ना छुएं, शीत ऋतु में कोहरे से और ग्रीष्म ऋतु में लू से बचाव करें। |
संबंधित लेख | मथुरा, मथुरा रिफ़ाइनरी, राजकीय संग्रहालय मथुरा, मथुरा होली चित्र वीथिका
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अद्यतन | 6:00, 11 जुलाई, 2011 (IST) |
भगवान श्री कृष्ण की जन्मभूमि का ना केवल राष्द्रीय स्तर पर महत्त्व है बल्कि वैश्विक स्तर पर जनपद मथुरा भगवान श्रीकृष्ण के जन्मस्थान से ही जाना जाता है। आज वर्तमान में महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जी की प्रेरणा से यह एक भव्य आकर्षण मन्दिर के रूप में स्थापित है। पर्यटन की दृष्टि से विदेशों से भी भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए यहाँ प्रतिदिन आते हैं। भगवान श्रीकृष्ण को विश्व में बहुत बड़ी संख्या में नागरिक आराध्य के रूप में मानते हुए दर्शनार्थ आते हैं।
भगवान केशवदेव का मन्दिर
भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी इहलौकिक लीला संवरण की। उधर युधिष्ठर महाराज ने परीक्षित को हस्तिनापुर का राज्य सौंपकर श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ को मथुरा मंडल के राज्य सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया। चारों भाइयों सहित युधिष्ठिर स्वयं महाप्रस्थान कर गये। महाराज वज्रनाभ ने महाराज परीक्षित और महर्षि शांडिल्य के सहयोग से मथुरा मंडल की पुन: स्थापना करके उसकी सांस्कृतिक छवि का पुनरूद्वार किया। वज्रनाभ द्वारा जहाँ अनेक मन्दिरों का निर्माण कराया गया, वहीं भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की जन्मस्थली का भी महत्त्व स्थापित किया। यह कंस का कारागार था, जहाँ वासुदेव ने भाद्रपद कृष्ण अष्टमी की आधी रात अवतार ग्रहण किया था। आज यह कटरा केशवदेव नाम से प्रसिद्व है। यह कारागार केशवदेव के मन्दिर के रूप में परिणत हुआ। इसी के आसपास मथुरा पुरी सुशोभित हुई। यहाँ कालक्रम में अनेकानेक गगनचुम्बी भव्य मन्दिरों का निर्माण हुआ। इनमें से कुछ तो समय के साथ नष्ट हो गये और कुछ को विधर्मियों ने नष्ट कर दिया।
प्रथम मन्दिर
ईसवी सन् से पूर्ववर्ती 80-57 के महाक्षत्रप सौदास के समय के एक शिला लेख से ज्ञात होता है कि किसी वसु नामक व्यक्ति ने श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर एक मंदिर तोरण द्वार और वेदिका का निर्माण कराया था। यह शिलालेख ब्राह्मी लिपि में है।
द्वितीय मन्दिर
दूसरा मन्दिर विक्रमादित्य के काल में सन् 800 ई॰ के लगभग बनवाया गया था। संस्कृति और कला की दृष्टि से उस समय मथुरा नगरी बड़े उत्कर्ष पर थी। हिन्दू धर्म के साथ बौद्ध और जैन धर्म भी उन्नति पर थे। श्रीकृष्ण जन्मस्थान के संमीप ही जैनियों और बौद्धों के विहार और मन्दिर बने थे। यह मन्दिर सन् 1017-18 ई॰ में महमूद ग़ज़नवी के कोप का भाजन बना। इस भव्य सांस्कृतिक नगरी की सुरक्षा की कोई उचित व्यवस्था न होने से महमूद ने इसे ख़ूब लूटा। भगवान केशवदेव का मन्दिर भी तोड़ डाला गया।
तृतीय मन्दिर
संस्कृत के एक शिला लेख से ज्ञात होता है कि महाराजा विजयपाल देव जब मथुरा के शासक थे, तब सन् 1150 ई॰ में जज्ज नामक किसी व्यक्ति ने श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर एक नया मन्दिर बनवाया था। यह विशाल एवं भव्य बताया जाता हैं। इसे भी 16 वीं शताब्दी के आरम्भ में सिकन्दर लोदी के शासन काल में नष्ट कर डाला गया था।
चतुर्थ मन्दिर
जहाँगीर के शासन काल में श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर पुन: एक नया विशाल मन्दिर निर्माण कराया ओरछा के शासक राजा वीरसिंह जू देव बुन्देला ने इसकी ऊँचाई 250 फीट रखी गई थी। यह आगरा से दिखाई देता बताया जाता है। उस समय इस निर्माण की लागत 33 लाख रुपये आई थी। इस मन्दिर के चारों ओर एक ऊँची दीवार का परकोटा बनवाया गया था, जिसके अवशेष अब तक विद्यमान हैं। दक्षिण पश्चिम के एक कोने में कुआ भी बनवाया गया था इस का पानी 60 फीट ऊँचा उठाकर मन्दिर के प्रागण में फ़व्वारे चलाने के काम आता था। यह कुआँ और उसका बुर्ज आज तक विद्यमान है। सन् 1669 ई॰ में पुन: यह मन्दिर नष्ट कर दिया गया और इसकी भवन सामग्री से ईदगाह बनवा दी गई जो आज विद्यमान है। जन्मस्थान की ऐतिहासिक झाँकी पिछले पृष्ठों में दी जा चुकी है। यहाँ वर्तमान मन्दिर के निर्माण का इतिहास देना आवश्यक है।
जन्मस्थान का पुनरुद्वार
सन 1940 के आसपास की बात है कि महामना पण्डित मदनमोहन जी का भक्ति-विभोर हृदय उपेक्षित श्रीकृष्ण जन्मस्थान के खण्डहरों को देखकर द्रवित हो उठा। उन्होंने इसके पुनरूद्वार का संकल्प लिया। उसी समय सन् 1943 के लगभग ही स्वर्गीय श्री जुगलकिशोर जी बिड़ला मथुरा पधारे और श्रीकृष्ण जन्म स्थान की ऐतिहासिक वन्दनीय भूमि के दर्शनार्थ गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने जो दृश्य देखा उससे उनका हृदय उत्यन्त दु:खित हुआ। महामना पण्डित मदनमोहन जी मालवीय ने इधर श्री जुगलकिशोर जी बिड़ला को श्रीकृष्ण-जन्मस्थान की दुर्दशा के सम्बन्ध में पत्र लिखा और उधर श्रीबिड़ला जी ने उनको अपने हृदय की व्यथा लिख भेजी। उसी के फलस्वरूप श्री कृष्ण जन्मस्थान के पुनरूद्वार के मनोरथ का उदय हुआ। इसके फलस्वरूप धर्मप्राण श्री जुगल किशोर जी बिड़ला ने 07 फ़रवरी 1944 को कटरा केशव देव को राजा पटनीमल के तत्कालीन उत्तराधिकारियों से खदीद लिया, परन्तु मालवीय जी ने पुनरूद्धार की योजना बनाई थी वह उनके जीवनकाल में पूरी न हो सकी। उनकी अन्तिम इच्छा के अनुसार श्री बिड़ला जी ने 21 फ़रवरी 1951 को श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रष्ट के नाम से एक ट्रष्ट स्थापित किया।
जन्मभूमि ट्रस्ट की स्थापना 1951 में हुई थी परन्तु उस समय मुसलमानों की ओर से 1945 में किया हुआ एक मुक़दमा इलाहाबाद हाईकोर्ट में निर्णयाधीन था इसलिए ट्रस्ट द्वारा जन्मस्थान पर कोई कार्य 7 जनवरी 1953 से पहले-जब मुक्दक़मा ख़ारिज हो गया-न किया जा सका।
उपेक्षित अवस्था में पड़े रहने के कारण उसकी दशा अत्यन्त दयनीय थी। कटरा के पूरब की ओर का भाग सन् 1885 के लगभग तोड़कर बृन्दावन रेलवे लाइन निकाली जा चुकी थी। बाक़ी तीन ओर के परकोटा की दीवारें और उससे लगी हुई कोठरियाँ जगह-जगह गिर गयी थीं और उनका मलबा सब ओर फैला पड़ा था। कृष्ण चबूतरा का खण्डहर भी विध्वंस किये हुए मन्दिर की महानता के द्योतक के रूप में खड़ा था। चबूतरा पूरब-पश्चिम लम्बाई में 170 फीट और उत्तर-दक्खिन चौड़ाई में 66 फीट है। इसके तीनों ओर 16-16 फीट चौड़ा पुश्ता था जिसे सिकन्दर लोदी से पहले कुर्सी की सीध में राजा वीरसिंह देव ने बढ़ाकर परिक्रमा पथ का काम देने के लिये बनवाया था। यह पुश्ता भी खण्डहर हो चुका था। इससे क़रीब दस फीट नीची गुप्त कालीन मन्दिर की कुर्सी है जिसके किनारों पर पानी से अंकित पत्थर लगे हुए हैं।
उत्तर की ओर एक बहुत बड़ा गढ्डा था जो पोखर के रूप में था। समस्त भूमि का दुरुपयोग होता था, मस्जिद के आस-पास घोसियों की बसावट थी जो कि आरम्भ से ही विरोध करते रहे हैं। अदालत दीवानी, फ़ौजदारी, माल, कस्टोडियन व हाईकोर्ट सभी न्यायालयों में एवं नगरपालिका में उनके चलायें हुए मुक़दमों में अपने सत्व एवं अधिकारों की पुष्टि व रक्षा के लिए बहुत कुछ व्यय व परिश्रम करना पड़ा। सभी मुक़दमों के निर्णय जन्मभूमि-ट्रस्ट के पक्ष में हुए।
मथुरा के प्रसिद्ध वेदपाठी ब्राह्मणों द्वारा हवन-पूजन के पश्चात् श्री स्वामी अखंडानन्द जी महाराज ने सर्वप्रथम श्रमदान का श्रीगणेश किया और भूमि की स्वच्छता का पुनीत कार्य आरम्भ हुआ। दो वर्ष तक नगर के कुछ स्थानीय युवकों ने अत्यन्त प्रेम और उत्साह से श्रमदान द्वारा उत्तर ओर के ऊँचे-ऊँचे टीलों को खोदकर बड़े गड्डे को भर दिया और बहुत सी भूमि समतल कर दी। कुछ विद्यालयों के छात्रो ने भी सहयोग दिया। इन्हीं दिनों उत्तर ओर की प्राचीर की टूटी हुई दीवार भी श्री डालमियाँ जी के दस हज़ार रुपये के सहयोग से बनवा दी गयी।
भूमि के कुछ भाग के स्वच्छ और समतल हो जाने पर भगवान कृष्ण के दर्शन एवं पूजन-अर्चन के लिए एक सुन्दर मन्दिर का निर्माण डालमिया-जैन ट्रस्ट के दान से सेठ श्रीरामकृष्ण जी डालमिया की स्वर्गीया पूज्या माताजी की पुण्यस्मृति में किया गया।
मन्दिर में भगवान के बल-विग्रह की स्थापना, जिसको श्री जुगल किशोर बिड़ला जी ने भेंट किया था, आषाढ़ शुक्ला द्वितीय सम्वत् 2014 दिनांक 29 जून सन् 1957 को हुई, और इसका उद्-घाटन भाद्रपद कृष्ण 8 सम्वत् 2015 दिनांक 6 सितंबर सन् 1958 को 'कल्याण' (गीता प्रेस) के यशस्वी सम्पादक संतप्रवर श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दार के कर-कमलों द्वारा हुआ। यह मन्दिर श्रीकेशव देव मन्दिर के नाम से प्रख्यात है।
श्रीकृष्ण-चबूतरे का जीर्णोद्धार
कटरा केशवदेव-स्थित श्रीकृष्ण-चबूतरा ही भगवान श्रीकृष्ण की दिव्य प्राक्ट्य-स्थली कहा जाता है। मथुरा-म्यूजियम के क्यूरेटर डा॰ वासुदेवशरण जी अग्रवाल ने अपने लेख में ऐतिहासिक तथ्य देकर इस अभिमत को सिद्ध किया है। इससे सिद्ध होता है कि मथुरा के राजा कंस के जिस कारागार में वसुदेव-देवकीनन्दन श्रीकृष्ण ने जन्म-ग्रहण किया था, वह कारागार आज कटरा केशवदेव के नाम से ही विख्यात है और 'इस कटरा केशवदेव के मध्य में स्थित चबूतरे के स्थान पर ही कंस का वह बन्दीगृह था, जहाँ अपनी बहन देवकी और अपने बहनोई वसुदेव को कंस ने कैद कर रखा था।' श्रीमद्भागवत में इस स्थल पर श्रीकृष्ण-जन्म के समय का वर्णन इस प्रकार है-
पित्रो: सम्पश्यतो सद्यो बभूव प्राकृत: शिशु:॥
ततश्च शौरिर्भगवत्प्रचोदित: सुतं समादाय स सूतकागृहात्।
यदा बहिर्गन्तुमियेष तर्ह्य जा या योगमायाजनि नन्द जायया॥
तया हृतप्रत्ययसर्ववृत्तिषु द्वा:स्थेषु पौरेष्वपि शायितेष्वथ।
द्वारस्तु सर्वा: पिहिता दुरत्यया बृहत्कपाटायसकीलश्रृंखलै: ॥
ता: कृष्णवाहे वसुदेव आगते स्वयं व्यवर्यन्त यथा तमो रवे:
(10।3।46-49)
अर्थात् 'पिता-माता' के देखते-देखते उन्होंने तुरन्त एक साधारण शिशु का रूप धारण कर लिया। तब वासुदेव जी ने भगवान की प्रेरणा से अपने पुत्र को लेकर सूतिका-गृह से बाहर निकलने की इच्छा की। उसी समय नन्द-पत्नी यशोदा के गर्भ से उस योगमाया का जन्म हुआ, जो भगवान की शक्ति होने के कारण उनके समान ही जन्मरहित है। उसी योगमाया ने द्वारपाल और पुरवासियों की समस्त इन्द्रियवृत्तियों की चेतना हर ली। वे सबके सब अचेत होकर सो गये। बंदीगृह के सभी दरवाज़े बन्द थे। उनमें बड़े-बड़े किवाड़, लोहे की जंजीरें और तोले जड़े हुये थे। उनके बाहर जाना बहुत कठिन था; परन्तु वसुदेव जी भगवान श्रीकृष्ण को गोद में लेकर ज्यों-ही उनके निकट पहुँचे, त्यों-ही वे सभी दरवाज़े आपसे-आप खुल गये। ठीक वैसे ही, जैसे सूर्योदय होते ही अन्धकार दूर हो जाता है।
श्रीवज्रनाभ ने अपने प्रपितामह की इसी जन्मस्थली पर उनका प्रथम स्मृति-मन्दिर बनवाया था और इसी स्थल पर उसके पश्चात् के मन्दिरों के गर्भ-गृह (जहाँ भगवान् का अर्चाविग्रह विराजमान किया जाता है, उसकों 'गर्भ-गृह कहते हैं।) भी निर्मित होते रहे। पुरातन कला-कृतियों में मुख्य मन्दिर की पादपीठिका (प्लिंथ) अष्ठप्रहरी (अठपहलू) हुआ करती थी, जिसे ऊँची कुर्सी देकर बनाया जाता था। इसीलिये अनेक मन्दिरों के ध्वंसावशेष और निर्माण के कारण यह स्थान 'श्रीकृष्ण-चत्वर' (चबूतरा) नाम ले प्रख्यात हुआ। इस स्थान पर ही श्री ओरछा-नरेश द्वारा निर्मित मन्दिर का गर्भ-गृह रहा, जो औरंगज़ेब द्वारा ध्वस्त मन्दिर के मलवे में दब गया। उस मन्दिर के पूर्व दिशावाले विशाल जगमोहन (दर्शक-गृह) के स्थान पर तो औंरगजेब ने एक ईदगाह खड़ी कर दी और पश्चिम में गर्भ-गृह अर्थात् सम्पूर्ण श्रीकृष्ण-चबूतरा बचा रहा।
श्री केशवदेव जी का प्राचीन विग्रह ब्रज के अन्य विग्रहों की भाँति आज भी सुरक्षित और पूजित है। औंरगजेब के शासनकाल में मुसलमानी फ़ौजें मन्दिरों को ध्वस्त करने के लिए जब कूँच किया करती थीं, तब गुप्त रूप से हिन्दुओं को यह सूचना मिल जाती थी कि मन्दिर तोड़ने के लिए सेना आ रही है। यह सूचना मिलते ही निष्ठावान भक्तजन मन्दिर-स्थित विग्रहों को हिन्दू राज्य एवं रजवाड़ो में ले जाते थे। इसी कारण श्री गोविन्ददेव जी का श्री विग्रह जयपुर में, श्री नाथ जी का श्री विग्रह नाथद्वारा (उदयपुर) में एवं री मदनमोहन जी का श्री विग्रह करौली में आज भी विराजमान है। श्रीकृष्ण-चबूतरे पर ओरछा नरेश वाले श्री विग्रह के सम्बन्ध में स्वर्गीय बाबा कृष्णदास द्वारा प्रकाशित 'ब्रजमण्डल-दर्शन' में उल्लेख है कि— 'जहाँगीर बादशाह के समय 1610 साल में ओरछा के राजा वीरसिंहदेव ने 33 लाख रुपया लगाकर आदिकेशव का मन्दिर बनवाया था, जो कि 1669 साल में औंरगजेब के द्वारा ध्वस्त होकर मसजिद के रूप में बन गया।'
जिस मन्दिर में आदिकेशव विराजमान हैं, वह मन्दिर 1850 ई॰ में ग्वालियर के कामदार के द्वारा निर्मित हुआ है। प्राचीन विग्रह अद्यापि राजधान ग्राम (ज़िला कानपुर में औरैया, इटावा से 17 मील) पर स्थित है। वहीं पास में 2 मील पर बुधौली ग्राम में श्री हरिदेव जी विराजते हैं।
प्राचीन केशव-मन्दिर के स्थान को 'केशव कटरा' कहते हैं। ईदगाह के तीन ओर की विशाल दीवारें ध्वस्त मन्दिर के पाषाण-खण्डों से बनी हुई हैं, जो ध्वंस किये गये प्राचीन मन्दिर की विशालता का मूक संदेश दे रही हैं। उपेक्षित रहने के कारण तीन शताब्दियों से भी अधिक समय तक यह स्थान मिट्टी-मलवे के टीलों में दब गया। उसी मलवे के नीचे से, जहाँ भगवान का अर्चा-विग्रह विराजमान किया जाता था, वह गर्भ-गृह प्राप्त हुआ।
उत्तरोत्तर श्रीकृष्ण-चबूतरे का विकास होता चला आ रहा है। श्री केशवदेव-मन्दिर के उपरान्त श्रीकृष्ण-चबूतरे के जीर्णोद्धार का कार्य सुप्रसिद्ध इंडियन एक्सप्रैस समाचार-पत्र-समूह-संचालक श्री रामनाथ जी गोयनका के उदार दान से उनकी धर्मपत्नी स्वर्गीय श्रीमती मूँगीबाई गोयनका की स्मृति में संवत 2019 में किया गया। गर्भ-गृह की छत के ऊपर संगमरमर की एक छत्री और एक बरामदा बनवाया गया। गर्भ-गृह की छत के फर्श पर भी सम्पूर्ण संगमरमर जड़वाया गया।
बड़े चमत्कार की बात है कि चबूतरे के ऊपर बरामदे की दीवार में लगी संगमरमर की शिलाओं पर श्रीकृष्ण की विभिन्न मुद्राओं में आकृतियाँ उभर आयी हैं, जिन्हें देखकर दर्शकगण विभोर हो जाते हैं। शरद पूर्णिमा की पूर्ण चन्द्र-निशा में इस चबूतरे का दूध-जैसा धवल-सौन्दर्य देखते ही बनता है।
प्राचीन गर्भ-ग्रह की प्राप्ति
जिस समय चबूतरे पर निर्मित बरामदे की नींव की खुदाई हो रही थी, उस समय श्रमिकों को हथौड़े से चोट मारने पर नीचे कुछ पोली जगह दिखाई दी। उसे जब तोड़ा गया तो सीढ़ियाँ और नीचे काफ़ी बड़ा कमरा-सा मिला, जो ओरछा-नरेश-निर्मित मन्दिर का गर्भ-गृह था। उसमें जिस स्थान पर मूर्ति विराजती थी, वह लाल पत्थर का सिंहासन ज्यों-का-त्यों मिला। उसे यथावत् रखा गया है तथा गर्भ-गृह की जर्जरित दीवारों की केवल मरम्मत कर दी गयी हैं। ऊपर चबूतरे पर से नीचे गर्भ-गृह में दर्शनार्थियों के आने के लिये सीढ़ियाँ बना दी गयी हैं। गर्भ-गृह के सिंहासन के ऊपर दर्शकों के लिये वसुदेव-देवकी सहित श्रीकृष्ण-जन्म की झाँकियाँ चित्रित की गयी हैं।
नीचे लाल पत्थर के पुराने सिंहासन पर जहाँ पहले कोई प्रतिमा रही होगी, श्रीकृष्ण की एक प्रतिमा भक्तों ने विराजमान कर दी है। पूर्व की दीवार में एक दरवाज़े का चिह्न था, जो ईदगाह के नीचे को जाता था। आगे काफ़ी अँधेरा था। उसके मुख को पत्थर से बन्द करवा दिया गया। कक्ष के फर्श पर भी पत्थर लगे हुए हैं। उत्तर की ओर सीढ़ियाँ हैं यह स्थान अति प्राचीन है। वेदी पर भक्तजन श्रद्धा पूर्वक माथा टेककर धन्य होते हैं। दक्षिण की ओर बाहर निकलने के लिये एक दरवाज़ा निकाल दिया गया।
चबूतरे के तीनों ओर जो पुश्ता के खंडहर थे, बड़ी कठिनाइयों से तोड़े गये। उनको तोड़कर नीचे की कुर्सी स्वच्छ बना दी गयी और उस पर माबरल चिप्स फर्श बना दिया गया है। इस कुर्सी से दो फीट निचाई पर ढालू और ऊँची-नीची दोनों ओर की जो भूमि थी, उसको समतल करके उसमें बाटिका लगा दी गयी। इस भूमि की खुदाइर में अनेक अवशेष निकले हैं, जो विध्वंस किये हुए मन्दिरों के हैं और पुरातत्त्व की दृष्टि से बड़े महत्त्व के हैं। इन सबको सुरक्षा की दृष्टि से मथुरा राजकीय संग्रहालय को दे दिया गया है।
भागवत-भवन
सन 1965 में शिलान्यास होने के उपरान्त-भवन की नींव की खुदाई का कार्य प्रारम्भ हो गया था। आरम्भ में वाराणसी के श्रीरामचरितमानस-मन्दिर के अनुसार भागवत-भवन-निर्माण की योजना भी 14-15 लाख रुपयों की थी, लेकिन बाद में पुराना मन्दिर जो आगरा से भी दिखलाई पड़ता था, उसकी ऊँचाई के अनुसार शिखर की ऊँचाई 250 फीट रखी गयी, जिसके लिए सब मिलकर 24-25 लाख रुपये के ख़र्च का अनुमान लगाया गया। अनेक कारणों से, जिनमें योजना की विशालता एवं बीच-बीच में आने वाली कठिनाइयाँ शामिल हैं, 1981 का वर्ष बीतते-बीतते श्रीकृष्ण-जन्मस्थान पर अकेले डालमिया-परिवार एवं उनसे सम्बन्धित ट्रस्टों, व्यापारिक संस्थानों तथा अन्याय प्रेमियों की सेवा राशि भागवत-भवन और जन्मस्थान के अन्य विकास-कार्यों पर सब मिलाकर एक करोड़ रुपयों से ऊपर पहुँच गयी। श्रीकृष्ण–जन्मस्थान के विकास के लिये उदारमना महानुभावों की एक हज़ार रुपये या इससे अधिक की सेवा-राशियों का विवरण भी भागवत-भवन के विवरण के अन्त में जन्मभूमि स्मारिका में दिया गया।
जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, इस भवन की नींव वाराणसी के रामचरितमानस-मन्दिर के अनुसार बन चुकी थी। जब नींव के ऊपर दीवारों का भूमि की सतह से 7-8 फीट ऊँचाई तक निर्माण हो गया, उस समय 250 फुट ऊँचाई तक शिखर ले जाने का निर्णय हुआ। ऊँचे शिखर के निर्णय के साथ भागवत-भवन की जो कुर्सी 7-8 फीट ऊँची रखनी थी, उसको 30-35 फीट ऊँचे ले जाने का निर्माण चलता रहा। उस समय किसी को भी यह खयाल नहीं आया कि इसके ऊपर बनने बाले 250 फुट ऊँचे शिखर का भार वहन करने योग्य नींव है या नहीं। लगभग 30 फीट की ऊँचाई तक निर्माण का कार्य पहुँचने पर विशाल दीवारों में जब कुछ दरारें पड़ने लगीं, उस समय निर्माणकर्त्ताओं को चिन्ता हुई। तब तक निर्माण-कार्य 36 फीट से भी ऊपर पहुँच चुका था। नीवं की इस कमचोरी ओर सबसे पहले सिविल इजीनियर ने ध्यान आकर्षित करवाया, जो चण्डीगढ़ में प्रैक्टिस करते थे तथा जिन्होंने कराँची एवं सवाई माधोपुर के डालमिया जी के सीमेंट कारख़ानों का निर्माण करवाया था। तत्पश्चात् इस संदेह की पुष्टि उड़ीसा सीमेंट के श्री पी0सी0 चटर्जी ने भी की। उसके बाद रूड़की इंजीनियरिंग यूनिवर्सिटी के श्री शमशेरप्रकाश एवं श्री गोपालरंजन द्वारा इसकी जाँच करवायी गयी, जिसकी रिपोर्ट उन्होंने फ़रवरी, 1974 में दी। इसकें बाद इस पर जून-जुलाई, सन् 1974 में मद्रास के प्रसिद्ध श्री जी0एस0 रामस्वामी से जब सलाह ली गयी, तब यही निर्णय हुआ कि नींव के ऊपर वज़न घटाना चाहिये और उसके लिए शिखर को हल्का बनाया गया एवं ऊँचाई भी घटाकर लगभग 130 फीट कर दी गयी। तब से डिजाइनिंग का सारा काम श्री पी0सी0 चटर्जी को सौंपा गया, जिन्होंने बड़ी लगन के साथ काम किया और वे नक्शे इतने साफ़ और विवरण के साथ भेजते थे कि काम करने वाले को सरलता रहे। इस प्रकार के स्पष्ट नक्शे कोई भी आर्किटैक्ट अथवा सिविल इंजीनियर नहीं देते। आवश्यकतानुसार वे कई बार मथुरा आकर भी काम की प्रगति देखते रहे। जन्मस्थान की सेवा में उन्होंने मन्दिर निर्माण की एवं भगवान के प्रति अपनी श्रद्धा के कारण ही इतना परिश्रम किया। इनकी धर्मपत्नी बहुत बीमार हो गयी, तब भी बिना विश्राम के ये काम करते रहे।
निर्माण के समय आयी इन सब रूकावटों के कारण 2-3 वर्ष निर्माण स्थगित रहा। बीच-बीच में सीमेंट के अभाव से भी काम रूकता रहा। इस प्रकार भागवत-भवन के निर्माण में शिलान्यास से लेकर मूर्ति-प्रतिष्ठा तक लगभग 17 वर्ष लग गये।
श्रीमद्भागवत का ताम्रपत्रों पर उत्कीर्णन
पूर्व योजना थी कि भागवत-भवन की दीवारों पर श्रीमद्भागवत के सम्पूर्ण श्लोको को संगमरमर की शिलाओं पर उत्कीर्ण करवाकर जड़वाया जाय। इसके लिए मन्दिर के सामने के जगमोहन को पर्याप्त बड़ा बनवाया गया, परन्तु प्रकाश के लिए खिड़कियाँ आदि छोड़ने के कारण जगह कम पड़ने लगी। अत: यह निर्णय हुआ कि श्रीमद्भागवत के सम्पूर्ण श्लोकों को ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण करवाकर लगवाया जाय, जिससे कि उनकी आयु अधिक रहे। कदाचित किसी भी कारण से विध्वस हो तो मकराने के पत्थर के लेखों से ताम्र पत्र के लेख कहीं अधिक टिकाऊ होगें और काग़ज़ों के ग्रन्थ भी नष्ट हो जायें तो भी ताम्र पत्र पर लिखे ग्रन्थ से श्रीमद्भागवत ग्रन्थ का पुनरूद्धार सरलता से हो सकता है। ताजमहल के संगमरमर में भी दाने (ग्रेंस) उभरने लगे हैं-ऐसा विशेषज्ञों का मत है मथुरा में बनी रिफाइनरी की गैस से ताजमहल की कलाकृति के नष्ट होने की सम्भावना पर भी समाचार-पत्रों में अनेक लोगों ने सरकार का ध्यान आकर्षित किया था।
ताम्रपत्र पर मौसम का केवल इतना ही प्रभाव पड़ता है कि ऊपर परत मैली हो जाती है, जो समय-समय पर चमकायी जा सकती है। अतएव ताम्रपत्रों पर श्रीमद्भागवत का मूल-पाठ अधिक काल तक सुरक्षित रह पाने के कारण श्रीमद्भागवत को ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण करवाकर भागवत भवन में लगवाया गया। कालान्तर में भूकम्प इत्यादि अथवा जीर्ण-शीर्णता की अवस्था में इमारत के ढह जाने से मलबे में दबे रहने पर भी इन ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण श्रीमद्भागवत का मूल-पाठ हज़ारों वर्षों तक सुरक्षित रह पायेगा, जबकि मकराने के संगमरमर पर श्रीमद्भागवत को खुदवाने से ऐसा सम्भव नहीं था। श्रीमद्भागवत का ताम्रपत्रों पर उत्खनन कार्य श्री व्यास नन्दन शर्मा की देखरेख में गांधीनगर, दिल्ली स्थिति राधा प्रेस में हुआ। श्रीमद्भागवत के कुल छ:सौ पैतीस ताम्रपत्र बने हैं, जो भागवत भवन के मुख्य मन्दिर का परिक्रमा की दीवारों पर लगवाये गये हैं।
भागवत-भवन एवं उनके मुख्य मंदिर
भागवत-भवन की कुर्सी को ऊँचा रखने के कारण नीचे के स्थान में विशाल कक्ष (हाल) निकाल दिये गये हैं। इस ऊँचाई को दो मजिलों में बाँट दिया गया है। जिनमें से पश्चिम के नीचे के तल्ले का उपयोग बालगोपाल शिक्षा-सदन नामक एक शिशु-विद्यालय के संचालनार्थ किया जा रहा है। ऊपर की मंज़िल में पश्चिम की ओर श्रीकृष्ण-शोधपीठ-पुस्तकालय स्थापित किया गया हैं, दक्षिण की ओर दर्शकों के लिए श्रीकृष्ण की एवं श्रीराम की लीलाओं से सम्बन्धित यन्त्र-चालित झाकियाँ स्थापित की गयी है। मुख्य भागवत भवन तक पहुँचने के लिये पश्चिमी दिशा में 100 फीट लम्बी विशाल सीढ़ियाँ बनवायी गयी हैं, जससे भीड़ के समय यात्रियों के चढ़ने एवं उतरने के लिए असुविधा न हो। अशक्त, अतिवृद्ध एवं विशिष्अ दर्शक गणों को मुख्य मन्दिर के धरातल तक ले जाने के लिये भागवत-भवन के पीछे की ओर उत्तर दिशा में ए लिफ्ट लग चुकी है, जो यात्रियों को परिक्रमा की छत तक ले जायेगी। वहाँ से लगभग 10 फीट ऊँचाई तक सीढ़ी से चढ़कर जाने पर सभा-मण्डप की छत पर पहुँचा जा सकता है। शिखर में ऊपर जाने को सीढ़ियाँ बनी हैं। शिखर के मध्य में बाहर चारों ओर चार छज्जे हैं। सबसे ऊपर की ऊँचाई पर उत्तर तरफ छज्जा है। इन छज्जों से समस्त मथुरा नगरी एवं सुदूर गोकुल, वृन्दावन आदि ब्रजस्थ तीर्थों का मनोरम प्राकृतिक दृश्य दिखायी पड़ता है।
भागवत-भवन के मुख्य सभा-मण्डप के छत की ऊंचाई लगभग 60 फीट है। सभा-मण्डप के उत्तर की ओर मध्य में मुख्य मन्दिर हैं, जिसमें श्रीराधा-कृष्ण के 6 फीट संगमरमर के विशाल विग्रह स्थापित किये गये हैं और उस मन्दिर के द्वार के ठीक सामने वाली दीवार पर एक निर्दिष्ट स्थान पर हाथ जोड़ी मुद्रा में पवनपुत्र श्री हनुमान जी का श्रीविग्रह स्थापित किया गया है। मुख्य मन्दिर के पश्चिम की ओर स्थित छाटे मन्दिर में श्री जगन्नाथपुरी से लाये गये श्रीजगन्नाथ जी, श्रीबलभद्र जी एवं श्रीसुभद्राजी के विग्रह स्थापित हैं। सभामण्डप के मध्य भाग में दो छोटे मन्दिर पूर्वी और दिशा की ओर वाले मन्दिर में शिव-परिवार की मूर्तियाँ एवं पारदलिंग विराजमान किये गये हैं। श्रीराधाकृष्ण के मन्दिर के सामने दक्षिण सिरे के पास श्री मालवीय जी महाराज की उनके दाहिनी ओर श्रीजुगलकिशोर जी विरला की एवं बाँयी ओर श्री हनुमानप्रसाद जी पोद्दार की हाथ जोड़े मूर्तियाँ हैं, जिनको भगवान श्री राधा-कृष्ण-विग्रह के दर्शन बिना बाधा के होते रहेंगे। सभा-मण्डप के पूर्व, पश्चिम और दक्षिण में तीन विशाल द्वार है। इन द्वारों के ऊपर की सजावट भारतीय शिल्प-शैली के आधार पर की गयी है। सभा-मण्डप के स्तम्भों के चारों ओर श्रीराधाकृष्ण के सखाओं, सखियों एवं संत-महात्माओं के चित्र संगमरमर पर उत्कीर्ण किये जा रहे हैं। सभा मण्डप के बाहर की छत पर से भी मथुरा-नगरी की विहंगम दृश्य बड़ा सुहावना लगता है। सभा-मण्डप की दीवारों पर खिड़कियों के बीच की जगह में भी चित्रकारी होती। सभा मण्डप की छत पर वृन्दावन के सुप्रसिद्ध चित्रकार श्री दम्पत्ति किशोर जी गोस्वामी से सुन्दर चित्रकारी करवायी गयी है।
भागवत-भवन के अत्तुग्डं शिखर वैसे तो यात्री को दूर से ही आकर्षित करते हैं, परन्तु वे जैसे ही सीढ़ियों से चढ़कर मुख्य सभा मण्डप के नीचे वाले प्लेटफार्म पर पहुँचते हैं तो वहाँ से भागवत भवन का बाहरी दृश्य उन्हें और भी आकर्षित करने लगता है। सभी द्वारों, गवाक्षों, छज्जों, द्वार शाखाओं एव शिखरस्थ सजावट का भारतीय संस्कृति एवं प्राचीन सांस्कृतिक शिल्प-शैली से शिल्पकारों ने ऐसा सजाया हे कि वे अति मनोरम लगती है। मुख्य मन्दिर का शिखर जन्मभूमि की सतह से लगभग 130 फीट ऊँचा है और छोटे मन्दिरों का शिखर लगभग 84 फीट ऊँचे जन्मभूमि की सतह सड़क से लगभग 20 फीट ऊँची है। अत: इन सबकी ऊँचाई से सड़क की सतह गिनी जाय तो लगभग 20 फीट और बढ़ जाती है। मुख्य मन्दिर के शिखर पर चक्र सहित छह फीट ऊँचे और मन्दिरों पर लगभग ढाई फीट ऊँचे स्वर्ण मण्डित कलश है।
- विग्रह-प्रतिष्ठा
जिस भागवत-भवन को आधार-शिला नित्यलीला लीन भाई जी श्री हनुमानप्रसादजी पोद्दार के कर कमलों द्वारा हुई थी, उसका विग्रह-प्रतिष्ठा-महोत्सव फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी, वि0स0 2038 शुक्रवार, दिनांक 12 फ़रवरी, 1982 को सम्पन्न हुआ। प्राण-प्रतिष्ठा महोत्सव में आचार्य थे वाराणसी के पण्डित श्री रामजीलाल जी शास्त्री एवं उनके अन्य सहयोगीगण। पण्डित श्रीरामजीलाल शास्त्री के आचार्यतत्त्व में ही इस भागवत-भवन का शिलान्यास नित्यलीला जीन पूज्य भाई जो श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार द्वारा सम्पन्न किया गया था।
पाँचों मन्दिरों के जो विग्रह हैं, उनमें से मुख्य मन्दिर के श्रीराधा-कृष्णजी के विग्रह श्रीराम, लक्ष्मण, सीता और हनुमान जी श्रीविग्रह एवं श्रीदुर्गाजी का श्रीविग्रह जयपुर में पाण्डेय मूर्ति म्यूजियम से मालिक श्री जगदीशनारायण जी पाण्डेय के द्वारा निर्मित हुए श्री जगन्नाथजी के श्रीविग्रह री जगन्नाथपुरी से वहाँ के पण्डित प्रवर श्री सदाशिवरथ शर्मा ने शास्त्रीय विधि से निर्मित करवाकर भेजे। पारद के शंकर श्री पारदेश्वरजी के लिंग का निर्माण बम्बई के श्री भाऊ साहेब कुलकर्णी से करवाया गया। वे वर्तमान में भारत के एकमात्र पारद-लिंग-निर्माता बतलाये जाते हैं। श्री मालवीयजी, श्री बिरलाजी एवं पोद्दारजी की मूर्तियों का निर्माण राजस्थान मूर्तकिला के श्रीरामेश्वरलालजी पाण्डेय द्वारा हुआ है।
प्रतिष्ठा-महोत्सव बुधवार, 3 फ़रवरी 1982 को गणेश-पूजन और नान्दीमुख-श्राद्ध द्वारा हुआ। माघ शूक्ल 13 शनिवार, 6 फ़रवरी 82 से लेकर माघ कृष्ण तृतीय बृहस्पतिवार 11 फ़रवरी 1982 तक पण्डित श्री रामजीलालजी शास्त्री के आचार्यत्व में प्रतिष्ठित किये जाने वाले सभी विग्रहों का अधिवास कार्य हुआ फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी, शुक्रवार, 12 फ़रवरी 1982 को प्रात: 1030 बजे के उपरान्त विग्रहों की प्राण-प्रतिष्ठा हुई।
इस प्रकार अनेकानेक शताब्दियाँ बीती और राज तथा ताज यथा इतिहास बदलते रहे, ऋतु चक्रों का सिलसिला चलता-बदलता रहा किन्तु भगवान केशवदेव की मान्यता और भक्ति गरिमा में कोई ठेस नहीं पहुँच सकी। आज यह स्थल अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व का दर्शनीय और रमणीय सांस्कृतिक तीर्थ है। समय की ख़ूबी है कि कटरा केशवदेव की तीन ओर अब सुन्दर-सुन्दर कालोनियाँ-जगन्नाथपुरी, महाविद्या कॉलोनी, गोविन्द नगर बस चुकी है। सड़कें हैं, बाज़ार है और अन्तर्राष्ट्रीय अतिथि ग्रह का निर्माण भी हो चुका है। प्रति वर्ष लाखों दर्शनार्थी यहाँ आते हैं। जन्मभूमि का अपना विशाल पुस्तकालय है, अपना प्रकाशन विभाग है। इसकी अपनी एक प्रबन्ध समिति है। जन्माष्टमी पर यहाँ विशेष कार्यक्रम होते हैं। दूर-दर्शन और आकाशवाणी से इनका सीधा प्रसारण होता है।
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वीथिका
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कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा
Krishna's Birth Place, Mathura -
कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा
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कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा
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कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा
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