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*यह मिथिलावृत्तिकार उपस्कारकर्त्ता शंकर मिश्र से प्राचीन प्रतीत होते हैं, क्योंकि इस वृत्ति में प्रशस्तपाद, उदयनाचार्य, भासर्वज्ञ, मानमनोहरकार वादिवागीश्वर का नामग्रहणपूर्वक उल्लेख मिलता है। *यह वृत्ति शंकरकिंकराभिधान वादीन्द्रभट्टकृत कणादसूत्रनिबन्ध के साथ विषय और भाषा की दृष्टि से साम्य रखती है।  
*यह मिथिलावृत्तिकार उपस्कारकर्त्ता शंकर मिश्र से प्राचीन प्रतीत होते हैं, क्योंकि इस वृत्ति में प्रशस्तपाद, उदयनाचार्य, भासर्वज्ञ, मानमनोहरकार वादिवागीश्वर का नामग्रहणपूर्वक उल्लेख मिलता है। *यह वृत्ति शंकरकिंकराभिधान वादीन्द्रभट्टकृत कणादसूत्रनिबन्ध के साथ विषय और भाषा की दृष्टि से साम्य रखती है।  
*अत: ऐसा प्रतीत होता है कि यह वृत्ति वादीन्द्ररचित व्याख्याग्रन्थ का सार है।  
*अत: ऐसा प्रतीत होता है कि यह वृत्ति वादीन्द्ररचित व्याख्याग्रन्थ का सार है।  
*वादिवागीश्वर का समय आठवीं से बारहवीं शती के बीच माना जाता है।<balloon title="आड्यार; ब्रह्मविद्यापात्रिका, खण्ड-6, पृ. 35-40" style=color:blue>*</balloon> किन्तु कतिपय विद्वानों का यह मत है कि यह वृत्ति चन्द्रानन्दवृत्ति तथा उपस्कार से पूर्व की है।  
*वादिवागीश्वर का समय आठवीं से बारहवीं शती के बीच माना जाता है।<ref>आड्यार; ब्रह्मविद्यापात्रिका, खण्ड-6, पृ. 35-40</ref> किन्तु कतिपय विद्वानों का यह मत है कि यह वृत्ति चन्द्रानन्दवृत्ति तथा उपस्कार से पूर्व की है।  
*किसी निश्चित लेखक के नाम के अभाव में ग्रन्थमाला के आधार पर इसको मिथिलावृत्ति कहा जाता है।  
*किसी निश्चित लेखक के नाम के अभाव में ग्रन्थमाला के आधार पर इसको मिथिलावृत्ति कहा जाता है।  
*यह ज्ञातव्य है कि एक अन्य वृत्ति वल्लाल सेन (1158-1178 ई.) के समय में लिखी गई थीं इसमें भी अन्तिम अध्याय का आह्निकों में विभाजन नहीं है।  
*यह ज्ञातव्य है कि एक अन्य वृत्ति वल्लाल सेन (1158-1178 ई.) के समय में लिखी गई थीं इसमें भी अन्तिम अध्याय का आह्निकों में विभाजन नहीं है।  
 
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10:24, 21 मार्च 2011 के समय का अवतरण

अज्ञातकर्तृक मिथिलावृत्ति

  • वैशेषिक सूत्र पर अनेक वृत्तिग्रन्थ उपलब्ध होते हैं।
  • मिथिला विद्यापीठ ग्रन्थमाला (सं. 5) में नवम अध्याय के पहले आह्निक तक किसी अज्ञात व्यक्ति द्वारा लिखित एक वृत्ति उपलब्ध होती है।
  • इसमें केवल 333 सूत्र हैं, अत: यह अपूर्ण ही कही जा सकती है।
  • यह मिथिलावृत्तिकार उपस्कारकर्त्ता शंकर मिश्र से प्राचीन प्रतीत होते हैं, क्योंकि इस वृत्ति में प्रशस्तपाद, उदयनाचार्य, भासर्वज्ञ, मानमनोहरकार वादिवागीश्वर का नामग्रहणपूर्वक उल्लेख मिलता है। *यह वृत्ति शंकरकिंकराभिधान वादीन्द्रभट्टकृत कणादसूत्रनिबन्ध के साथ विषय और भाषा की दृष्टि से साम्य रखती है।
  • अत: ऐसा प्रतीत होता है कि यह वृत्ति वादीन्द्ररचित व्याख्याग्रन्थ का सार है।
  • वादिवागीश्वर का समय आठवीं से बारहवीं शती के बीच माना जाता है।[1] किन्तु कतिपय विद्वानों का यह मत है कि यह वृत्ति चन्द्रानन्दवृत्ति तथा उपस्कार से पूर्व की है।
  • किसी निश्चित लेखक के नाम के अभाव में ग्रन्थमाला के आधार पर इसको मिथिलावृत्ति कहा जाता है।
  • यह ज्ञातव्य है कि एक अन्य वृत्ति वल्लाल सेन (1158-1178 ई.) के समय में लिखी गई थीं इसमें भी अन्तिम अध्याय का आह्निकों में विभाजन नहीं है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आड्यार; ब्रह्मविद्यापात्रिका, खण्ड-6, पृ. 35-40

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