"पाल वंश": अवतरणों में अंतर
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'''पाल वंश''' | '''पाल वंश''' का उद्भव बंगाल में लगभग 750 ई. में गोपाल से हुआ। इस वंश ने [[बिहार]] और [[अखण्डित बंगाल]] पर लगभग 750 से 1174 ई. तक शासन किया। इस वंश की स्थापना [[गोपाल प्रथम|गोपाल]] ने की थी, जो एक स्थानीय प्रमुख था। गोपाल आठवीं शताब्दी के मध्य में अराजकता के माहौल में सत्ताधारी बन बैठा। उसके उत्तराधिकारी [[धर्मपाल]] (शासनकाल, लगभग 770-810 ई.) ने अपने शासनकाल में साम्राज्य का काफ़ी विस्तार किया और कुछ समय तक [[कन्नौज]], [[उत्तर प्रदेश]] तथा उत्तर भारत पर भी उसका नियंत्रण रहा। | ||
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[[देवपाल]] (शासनकाल, लगभग 810-850 ई.) के शासनकाल में भी पाल वंश एक शक्ति बना रहा, उन्होंने देश के उत्तरी और प्राय:द्वीपीय [[भारत]], दोनों पर हमले जारी रखे, लेकिन इसके बाद से साम्राज्य का पतन शुरू हो गया। कन्नौज के [[गुर्जर प्रतिहार वंश]] के शासक [[महेन्द्र पाल]] (नौवीं शताब्दी के उत्तरार्ध्द से आरंभिक दसवीं शताब्दी) ने उत्तरी बंगाल तक हमले किए। 810 से 978 ई. तक का समय पाल वंश के इतिहास का पतन काल माना जाता है। इस समय के कमज़ोर एवं अयोग्य शासकों में विग्रहपाल की गणना की जाती है। [[भागलपुर]] से प्राप्त शिलालेख के अनुसार, नारायण पाल ने बुद्धगिरि ([[मुंगेर]]), | [[देवपाल]] (शासनकाल, लगभग 810-850 ई.) के शासनकाल में भी पाल वंश एक शक्ति बना रहा, उन्होंने देश के उत्तरी और प्राय:द्वीपीय [[भारत]], दोनों पर हमले जारी रखे, लेकिन इसके बाद से साम्राज्य का पतन शुरू हो गया। कन्नौज के [[गुर्जर प्रतिहार वंश]] के शासक [[महेन्द्र पाल]] (नौवीं शताब्दी के उत्तरार्ध्द से आरंभिक दसवीं शताब्दी) ने उत्तरी बंगाल तक हमले किए। 810 से 978 ई. तक का समय पाल वंश के इतिहास का पतन काल माना जाता है। इस समय के कमज़ोर एवं अयोग्य शासकों में विग्रहपाल की गणना की जाती है। [[भागलपुर]] से प्राप्त शिलालेख के अनुसार, नारायण पाल ने बुद्धगिरि ([[मुंगेर]]), [[तीरभुक्ति]] (तिरहुत) में शिव के मन्दिर हेतु एक गाँव दान दिया, तथा एक हज़ार मन्दिरों का निर्माण कराया। पाल वंश की सत्ता को एक बार फिर से [[महिपाल]], (शासनकाल, लगभग 978 -1030 ई.) ने पुनर्स्थापित किया। उनका प्रभुत्व [[वाराणसी]] (वर्तमान [[बनारस]], उत्तर प्रदेश) तक फैल गया, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद साम्राज्य एक बार फिर से कमज़ोर हो गया। पाल वंश के अंतिम महत्त्वपूर्ण शासक [[रामपाल]] (शासनकाल, लगभग 1075 -1120) ने बंगाल में वंश को ताकतवर बनाने के लिये बहुत कुछ किया और अपनी सत्ता को [[असम]] तथा [[उड़ीसा]] तक फैला दिया। | ||
==सेन वंश का उत्कर्ष== | ==सेन वंश का उत्कर्ष== | ||
'संध्याकर नंदी' द्वारा रचित ऐतिहासिक [[संस्कृत]] काव्य 'रामचरित' में रामपाल की उपलब्धियों का वर्णन है। रामपाल की मृत्यु के बाद [[सेन वंश]] की बढ़ती हुई शक्ति ने [[पाल साम्राज्य]] पर वस्तुत: ग्रहण लगा दिया, हालांकि पाल राजा दक्षिण बिहार में अगले 40 वर्षों तक शासन करते रहे। ऐसा प्रतीत होता है कि, पाल राजाओं की मुख्य राजधानी पूर्वी बिहार में स्थित 'मुदागिरि' ([[मुंगेर]]) थी। | '[[संध्याकर नंदी]]' द्वारा रचित ऐतिहासिक [[संस्कृत]] काव्य 'रामचरित' में रामपाल की उपलब्धियों का वर्णन है। रामपाल की मृत्यु के बाद [[सेन वंश]] की बढ़ती हुई शक्ति ने [[पाल साम्राज्य]] पर वस्तुत: ग्रहण लगा दिया, हालांकि पाल राजा दक्षिण बिहार में अगले 40 वर्षों तक शासन करते रहे। ऐसा प्रतीत होता है कि, पाल राजाओं की मुख्य राजधानी पूर्वी बिहार में स्थित 'मुदागिरि' ([[मुंगेर]]) थी। | ||
==बौद्ध धर्म का संरक्षण== | ==बौद्ध धर्म का संरक्षण== | ||
पाल नरेश बौद्ध मतानुयायी थे। | पाल नरेश बौद्ध मतानुयायी थे। उन्होंने ऐसे समय [[बौद्ध धर्म]] को संरक्षण दिया, जब [[भारत]] में उसका पतन हो रहा था। [[धर्मपाल]] द्वारा स्थापित [[विक्रमशिला विश्वविद्यालय]] उस समय [[नालन्दा विश्वविद्यालय]] का स्थान ग्रहण कर चुका था। इस काल के प्रमुख विद्वानों में 'सन्ध्याकर नन्दी' उल्लेखनीय हैं, जिन्होंने 'रामचरित' नामक ऐतिहासिक काव्यग्रन्थ की रचना की। इसमें पाल शासक [[रामपाल]] की जीवनी है। अन्य विद्वानों में 'हरिभद्र यक्रपाणिदत्त', 'ब्रजदत्त' आदि उल्लेखनीय है। चक्रपाणिदत्त ने चिकित्सासंग्रह तथा आयुर्वेदीपिका की रचना की। [[जीमूतवाहन]] भी पाल युग में ही हुआ। उसने 'दायभाग', 'व्यवहार मालवा' तथा 'काल विवेक' की रचना की। बौद्ध विद्वानों में कमलशील, राहलुभद्र, और दीपंकर श्रीज्ञान आतिश आदि प्रमुख हैं। | ||
वज्रदत्त ने 'लोपेश्वरशतक' की रचना की। [[कला]] के क्षेत्र में भी पाल शासकों का | वज्रदत्त ने 'लोपेश्वरशतक' की रचना की। [[कला]] के क्षेत्र में भी पाल शासकों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। स्मिथ ने पाल युग के दो महान् शिल्पकार 'धीनमान' तथा 'बीतपाल' का उल्लेख किया है। पाल वंश के शासकों ने बंगाल पर 750 से 1155 ई. तक तथा बिहार पर मुसलमानो के आक्रमण (1199 ई.) तक शासन किया। इस प्रकार पाल राजाओं का शासन काल उन राजवंशों में से एक है, जिसमें प्राचीन भारतीय इतिहास में सबसे लम्बे समय तक शासन किया। | ||
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13:59, 30 जून 2017 के समय का अवतरण
पाल वंश का उद्भव बंगाल में लगभग 750 ई. में गोपाल से हुआ। इस वंश ने बिहार और अखण्डित बंगाल पर लगभग 750 से 1174 ई. तक शासन किया। इस वंश की स्थापना गोपाल ने की थी, जो एक स्थानीय प्रमुख था। गोपाल आठवीं शताब्दी के मध्य में अराजकता के माहौल में सत्ताधारी बन बैठा। उसके उत्तराधिकारी धर्मपाल (शासनकाल, लगभग 770-810 ई.) ने अपने शासनकाल में साम्राज्य का काफ़ी विस्तार किया और कुछ समय तक कन्नौज, उत्तर प्रदेश तथा उत्तर भारत पर भी उसका नियंत्रण रहा।
उत्थान व पतन का क्रम
शासक | शासनकाल |
---|---|
गोपाल प्रथम | (लगभग 750 - 770 ई.) |
धर्मपाल | (लगभग 770 - 810 ई.) |
देवपाल | (लगभग 810 - 850 ई.) |
विग्रहपाल | (लगभग 850 - 860 ई.) |
नारायणपाल | (लगभग 860 - 915 ई.) |
गोपाल द्वितीय | (लगभग 940 - 957 ई.) |
महिपाल प्रथम | (लगभग 978 - 1030 ई.) |
नयपाल | (लगभग 1030 - 1055 ई.) |
महिपाल द्वितीय | (लगभग 1070 - 1075 ई.) |
रामपाल | (लगभग 1075 - 1120 ई.) |
गोपाल तृतीय | (लगभग 1145 ई.) |
मदनपाल | (लगभग 1144 - 1162 ई.) |
गोविन्द पाल | (लगभग 1162 - 1174 ई.) |
देवपाल (शासनकाल, लगभग 810-850 ई.) के शासनकाल में भी पाल वंश एक शक्ति बना रहा, उन्होंने देश के उत्तरी और प्राय:द्वीपीय भारत, दोनों पर हमले जारी रखे, लेकिन इसके बाद से साम्राज्य का पतन शुरू हो गया। कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार वंश के शासक महेन्द्र पाल (नौवीं शताब्दी के उत्तरार्ध्द से आरंभिक दसवीं शताब्दी) ने उत्तरी बंगाल तक हमले किए। 810 से 978 ई. तक का समय पाल वंश के इतिहास का पतन काल माना जाता है। इस समय के कमज़ोर एवं अयोग्य शासकों में विग्रहपाल की गणना की जाती है। भागलपुर से प्राप्त शिलालेख के अनुसार, नारायण पाल ने बुद्धगिरि (मुंगेर), तीरभुक्ति (तिरहुत) में शिव के मन्दिर हेतु एक गाँव दान दिया, तथा एक हज़ार मन्दिरों का निर्माण कराया। पाल वंश की सत्ता को एक बार फिर से महिपाल, (शासनकाल, लगभग 978 -1030 ई.) ने पुनर्स्थापित किया। उनका प्रभुत्व वाराणसी (वर्तमान बनारस, उत्तर प्रदेश) तक फैल गया, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद साम्राज्य एक बार फिर से कमज़ोर हो गया। पाल वंश के अंतिम महत्त्वपूर्ण शासक रामपाल (शासनकाल, लगभग 1075 -1120) ने बंगाल में वंश को ताकतवर बनाने के लिये बहुत कुछ किया और अपनी सत्ता को असम तथा उड़ीसा तक फैला दिया।
सेन वंश का उत्कर्ष
'संध्याकर नंदी' द्वारा रचित ऐतिहासिक संस्कृत काव्य 'रामचरित' में रामपाल की उपलब्धियों का वर्णन है। रामपाल की मृत्यु के बाद सेन वंश की बढ़ती हुई शक्ति ने पाल साम्राज्य पर वस्तुत: ग्रहण लगा दिया, हालांकि पाल राजा दक्षिण बिहार में अगले 40 वर्षों तक शासन करते रहे। ऐसा प्रतीत होता है कि, पाल राजाओं की मुख्य राजधानी पूर्वी बिहार में स्थित 'मुदागिरि' (मुंगेर) थी।
बौद्ध धर्म का संरक्षण
पाल नरेश बौद्ध मतानुयायी थे। उन्होंने ऐसे समय बौद्ध धर्म को संरक्षण दिया, जब भारत में उसका पतन हो रहा था। धर्मपाल द्वारा स्थापित विक्रमशिला विश्वविद्यालय उस समय नालन्दा विश्वविद्यालय का स्थान ग्रहण कर चुका था। इस काल के प्रमुख विद्वानों में 'सन्ध्याकर नन्दी' उल्लेखनीय हैं, जिन्होंने 'रामचरित' नामक ऐतिहासिक काव्यग्रन्थ की रचना की। इसमें पाल शासक रामपाल की जीवनी है। अन्य विद्वानों में 'हरिभद्र यक्रपाणिदत्त', 'ब्रजदत्त' आदि उल्लेखनीय है। चक्रपाणिदत्त ने चिकित्सासंग्रह तथा आयुर्वेदीपिका की रचना की। जीमूतवाहन भी पाल युग में ही हुआ। उसने 'दायभाग', 'व्यवहार मालवा' तथा 'काल विवेक' की रचना की। बौद्ध विद्वानों में कमलशील, राहलुभद्र, और दीपंकर श्रीज्ञान आतिश आदि प्रमुख हैं।
वज्रदत्त ने 'लोपेश्वरशतक' की रचना की। कला के क्षेत्र में भी पाल शासकों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। स्मिथ ने पाल युग के दो महान् शिल्पकार 'धीनमान' तथा 'बीतपाल' का उल्लेख किया है। पाल वंश के शासकों ने बंगाल पर 750 से 1155 ई. तक तथा बिहार पर मुसलमानो के आक्रमण (1199 ई.) तक शासन किया। इस प्रकार पाल राजाओं का शासन काल उन राजवंशों में से एक है, जिसमें प्राचीन भारतीय इतिहास में सबसे लम्बे समय तक शासन किया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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