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'''भाव मिश्र''' को प्राचीन भारतीय औषधिशास्त्र का अन्तिम आचार्य माना जाता है। उनकी जन्मतिथि और स्थान आदि के विषय में जानकारी का अभाव है, किन्तु इतना कहा जा सकता है कि संवत 1550 में वे [[वाराणसी]] में आचार्य थे और अपनी कीर्ति के शिखर पर विराजमान थे।<br />
'''भाव मिश्र''' को प्राचीन भारतीय औषधिशास्त्र का '''अन्तिम आचार्य''' माना जाता है। उनकी जन्मतिथि और स्थान आदि के विषय में जानकारी का अभाव है, किन्तु इतना कहा जा सकता है कि संवत् 1550 में वे [[वाराणसी]] में आचार्य थे और अपनी कीर्ति के शिखर पर विराजमान थे।<br />
*आचार्य भाव मिश्र ने 'भावप्रकाश' नामक [[आयुर्वेद]] के ग्रन्थ की रचना की थी। उन्होंने अपने पूर्व आचार्यों के ग्रन्थों से सार भाग ग्रहण कर अत्यन्त सरल [[भाषा]] में इस ग्रन्थ का निर्माण किया है।
*आचार्य भाव मिश्र ने 'भावप्रकाश' नामक [[आयुर्वेद]] के ग्रन्थ की रचना की थी। उन्होंने अपने पूर्व आचार्यों के ग्रन्थों से सार भाग ग्रहण कर अत्यन्त सरल [[भाषा]] में इस ग्रन्थ का निर्माण किया है।
*ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही भाव मिश्र ने यह बता दिया कि- 'यह [[मानव शरीर |शरीर]], [[धर्म]], अर्थ, काम तथा [[मोक्ष]], इन पुरुषार्थ चतुष्टक की प्राप्ति का मूल है; और जब यह शरीर निरोग रहेगा, तभी कुछ प्राप्त कर सकता है। इसलिए शरीर को निरोग रखना प्रत्येक व्यक्ति का पहला कर्तव्य है।'
*ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही भाव मिश्र ने यह बता दिया कि- 'यह [[मानव शरीर |शरीर]], [[धर्म]], अर्थ, काम तथा [[मोक्ष]], इन पुरुषार्थ चतुष्टक की प्राप्ति का मूल है; और जब यह शरीर निरोग रहेगा, तभी कुछ प्राप्त कर सकता है। इसलिए शरीर को निरोग रखना प्रत्येक व्यक्ति का पहला कर्तव्य है।'
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17:54, 18 सितम्बर 2020 के समय का अवतरण

भाव मिश्र को प्राचीन भारतीय औषधिशास्त्र का अन्तिम आचार्य माना जाता है। उनकी जन्मतिथि और स्थान आदि के विषय में जानकारी का अभाव है, किन्तु इतना कहा जा सकता है कि संवत् 1550 में वे वाराणसी में आचार्य थे और अपनी कीर्ति के शिखर पर विराजमान थे।

  • आचार्य भाव मिश्र ने 'भावप्रकाश' नामक आयुर्वेद के ग्रन्थ की रचना की थी। उन्होंने अपने पूर्व आचार्यों के ग्रन्थों से सार भाग ग्रहण कर अत्यन्त सरल भाषा में इस ग्रन्थ का निर्माण किया है।
  • ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही भाव मिश्र ने यह बता दिया कि- 'यह शरीर, धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष, इन पुरुषार्थ चतुष्टक की प्राप्ति का मूल है; और जब यह शरीर निरोग रहेगा, तभी कुछ प्राप्त कर सकता है। इसलिए शरीर को निरोग रखना प्रत्येक व्यक्ति का पहला कर्तव्य है।'
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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