"कर्मभूमि उपन्यास भाग-5 अध्याय-9": अवतरणों में अंतर
व्यवस्थापन (वार्ता | योगदान) छो (Text replace - " खरीद" to " ख़रीद") |
आदित्य चौधरी (वार्ता | योगदान) छो (Text replacement - "आंखें" to "आँखें") |
||
(एक दूसरे सदस्य द्वारा किए गए बीच के 9 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 2: | पंक्ति 2: | ||
पठानिन की गिरफ्तारी ने शहर में ऐसी हलचल मचा दी, जैसी किसी को आशा न थी। जीर्ण वृध्दावस्था में इस कठोर तपस्या ने मृतकों में भी जीवन डाल दिया, भीई और स्वार्थ-सेवियों को भी कर्मक्षेत्र में ला खड़ा किया। लेकिन ऐसे निर्लज्जों की अब भी कमी न थी, जो कहते थे-इसके लिए जीवन में अब क्या धारा है- मरना ही तो है। बाहर न मरी, जेल में मरी। हमें तो अभी बहुत दिन जीना है, बहुत कुछ करना है, हम आग में कैसे कूदें- | पठानिन की गिरफ्तारी ने शहर में ऐसी हलचल मचा दी, जैसी किसी को आशा न थी। जीर्ण वृध्दावस्था में इस कठोर तपस्या ने मृतकों में भी जीवन डाल दिया, भीई और स्वार्थ-सेवियों को भी कर्मक्षेत्र में ला खड़ा किया। लेकिन ऐसे निर्लज्जों की अब भी कमी न थी, जो कहते थे-इसके लिए जीवन में अब क्या धारा है- मरना ही तो है। बाहर न मरी, जेल में मरी। हमें तो अभी बहुत दिन जीना है, बहुत कुछ करना है, हम आग में कैसे कूदें- | ||
संध्या का समय है। | संध्या का समय है। मज़दूर अपने-अपने काम छोड़कर, छोटे दूकानदार अपनी-अपनी दूकानें बंद करके घटना-स्थल की ओर भागे चले जा रहे हैं। पठानिन अब वहां नहीं है, जेल पहुंच गई होगी। हथियारबंद पुलिस का पहरा है, कोई जलसा नहीं हो सकता, कोई भाषण नहीं हो सकता, बहुत-से आदमियों का जमा होना भी खतरनाक है, पर इस समय कोई कुछ नहीं सोचता, किसी को कुछ दिखाई नहीं देता-सब किसी वेगमय प्रवाह में बहे जा रहे हैं। एक क्षण में सारा मैदान जन-समूह से भर गया। | ||
सहसा लोगों ने देखा, एक आदमी ईंटों के एक ढेर पर खड़ा कुछ कह रहा है। चारों ओर से दौड़-दौड़कर लोग वहां जमा हो गए-जन-समूह का एक विराट् सफर उमड़ा हुआ था। यह आदमी कौन है- लाला समरकान्त जिनकी बहू जेल में है, जिनका लड़का जेल में है। | सहसा लोगों ने देखा, एक आदमी ईंटों के एक ढेर पर खड़ा कुछ कह रहा है। चारों ओर से दौड़-दौड़कर लोग वहां जमा हो गए-जन-समूह का एक विराट् सफर उमड़ा हुआ था। यह आदमी कौन है- लाला समरकान्त जिनकी बहू जेल में है, जिनका लड़का जेल में है। | ||
पंक्ति 14: | पंक्ति 14: | ||
'सुनो, सुनो ।' | 'सुनो, सुनो ।' | ||
'वह दिन आएगा, जब इसी जगह | 'वह दिन आएगा, जब इसी जगह ग़रीबों के घर बनेंगे और जहां हमारी माता गिरफ्तार हुई हैं, वहीं एक चौक बनेगा और उसके बीच में माता की प्रतिमा खड़ी की जाएगी। बोलो माता पठानिन की जय ।' | ||
दस हज़ार गलों से 'माता की जय ।' की ध्वनि निकलती है, विकल, उत्ताप्त, गंभीर मानो | दस हज़ार गलों से 'माता की जय ।' की ध्वनि निकलती है, विकल, उत्ताप्त, गंभीर मानो ग़रीबों की हाय संसार में कोई आश्रय न पाकर आकाशवासियों से फरियाद कर रही है। | ||
'सुनो, सुनो ।' | 'सुनो, सुनो ।' | ||
पंक्ति 24: | पंक्ति 24: | ||
शोर मचता है-हड़ताल, हड़ताल । | शोर मचता है-हड़ताल, हड़ताल । | ||
'हां, हड़ताल कीजिए मगर वह हड़ताल, एक या दो दिन की न होगी, वह उस वक्त तक रहेगी, जब तक हमारे नगर के विधाता हमारी आवाज़ न सुनेंगे। हम | 'हां, हड़ताल कीजिए मगर वह हड़ताल, एक या दो दिन की न होगी, वह उस वक्त तक रहेगी, जब तक हमारे नगर के विधाता हमारी आवाज़ न सुनेंगे। हम ग़रीब हैं, दीन हैं, दुखी हैं लेकिन बड़े आदमी अगर जरा शांतचित्त होकर ध्यान करेंगे, तो उन्हें मालूम हो जाएगा कि दीन-दुखी प्राणियों ही ने उन्हें बड़ा आदमी बना दिया है। ये बड़े-बड़े महल जान हथेली पर रखकर कौन बनाता है- इन कपड़े की मिलों में कौन काम करता है- प्रात: काल द्वार पर दूध और मक्खन लेकर कौन आवाज़ देता है- मिठाइयां और फल लेकर कौन बड़े आदमियों के नाश्ते के समय पहुंचता है- सफाई कौन करता है, कपड़े कौन धोता है- सबेरे अखबार और चिट्ठीयां लेकर कौन पहुंचता है- शहर के तीन-चौथाई आदमी एक-चौथाई के लिए अपना रक्त जला रहे हैं। इसका प्रसाद यही मिलता है कि उन्हें रहने के लिए स्थान नहीं एक बंगले के लिए कई बीघे ज़मीन चाहिए। हमारे बड़े आदमी साफ-सुथरी हवा और खुली हुई जगह चाहते हैं। उन्हें यह खबर नहीं है कि जहां असंख्य प्राणी दुर्गंधा और अंधकार में पड़े भंयकर रोगों से मर-मरकर रोग के कीड़े फैला रहे हों, वहां खुले हुए बंगले में रहकर भी वह सुरक्षित नहीं हैं यह किसकी ज़िम्मेदारी है कि शहर के छोटे-बड़े, अमीर-गरीब सभी आदमी स्वस्थ रह सकें- अगर म्युनिसिपैलिटी इस प्रधान कर्तव्य को नहीं पूरा कर सकती, तो उसे तोड़ देना चाहिए। रईसों और अमीरों की कोठियों के लिए, बगीचों के लिए, महलों के लिए, क्यों इतनी उदारता से ज़मीन दे दी जाती है- इसलिए कि हमारी म्युनिसिपैलिटी ग़रीबों की जान का कोई मूल्य नहीं समझती। उसे रुपये चाहिए, इसलिए कि बड़े-बड़े अधिकारियों को बड़ी-बड़ी तलब दी जाए। वह शहर को विशाल भवनों से अलंकृत कर देना चाहती है, उसे स्वर्ग की तरह सुंदर बना देना चाहती है पर जहां की अंधेरी दुर्गंधपूर्ण गलियों में जनता पड़ी कराह रही हो, वहां इन विशाल भवनों से क्या होगा- यह तो वही बात है कि कोई देह के कोढ़ को रेशमी वस्त्रों में छिपाकर इठलाता फिरे। सज्जनो अन्याय करना जितना बड़ा पाप है, उतना ही बड़ा अन्याय सहना भी है। आज निश्चय कर लो कि तुम यह दुर्दशा न सहोगे। यह महल और बंगले नगर की दुर्बल देह पर छाले हैं, मसवृध्दि हैं। इन मसवृध्दियों को काटकर फेंकना होगा। जिस ज़मीन पर हम खड़े हैं वहां | ||
कम-से-कम दो हज़ार छोटे-छोटे सुंदर घर बन सकते हैं, जिनमें कम-से-कम दस हज़ार प्राणी आराम से रह सकते हैं। मगर यह सारी ज़मीन चार-पांच बंगलों के लिए बेची जा रही है। म्युनिसिपैलिटी को दस लाख रुपये मिल रहे हैं। इसे वह कैसे छोड़े- शहर के दस हज़ार | कम-से-कम दो हज़ार छोटे-छोटे सुंदर घर बन सकते हैं, जिनमें कम-से-कम दस हज़ार प्राणी आराम से रह सकते हैं। मगर यह सारी ज़मीन चार-पांच बंगलों के लिए बेची जा रही है। म्युनिसिपैलिटी को दस लाख रुपये मिल रहे हैं। इसे वह कैसे छोड़े- शहर के दस हज़ार मज़दूरों की जान दस लाख के बराबर भी नहीं।' | ||
एकाएक पीछे के आदमियों ने शोर मचाया-पुलिस पुलिस आ गई। | एकाएक पीछे के आदमियों ने शोर मचाया-पुलिस पुलिस आ गई। | ||
पंक्ति 31: | पंक्ति 31: | ||
कुछ लोग भागे, कुछ लोग सिमटकर और आगे बढ़ आए। | कुछ लोग भागे, कुछ लोग सिमटकर और आगे बढ़ आए। | ||
लाला समरमकान्त बोले-भागो मत, भागे मत, पुलिस मुझे गिरफ्तार करेगी। मैं उसका अपराधी हूं और मैं ही क्यों, मेरा सारा घर उसका अपराधी है। मेरा लड़का जेल में है, मेरी बहू और पोता जेल में हैं। मेरे लिए अब जेल के सिवा और कहां ठिकाना है- मैं तो जाता हूं। (पुलिस से) वहीं ठहरिए साहब, मैं खुद आ रहा हूं। मैं तो जाता हूं, मगर यह कहे जाता हूं कि अगर लौटकर मैंने यहां | लाला समरमकान्त बोले-भागो मत, भागे मत, पुलिस मुझे गिरफ्तार करेगी। मैं उसका अपराधी हूं और मैं ही क्यों, मेरा सारा घर उसका अपराधी है। मेरा लड़का जेल में है, मेरी बहू और पोता जेल में हैं। मेरे लिए अब जेल के सिवा और कहां ठिकाना है- मैं तो जाता हूं। (पुलिस से) वहीं ठहरिए साहब, मैं खुद आ रहा हूं। मैं तो जाता हूं, मगर यह कहे जाता हूं कि अगर लौटकर मैंने यहां ग़रीब भाइयों के घरों की पांतियां फूलों की भांति लहलहाती न देखी, तो यहीं मेरी चिता बनेगी। | ||
लाला समरकान्त कूदकर ईंटों के टीले से नीचे आए और भीड़ को चीरते हुए जाकर पुलिस कप्तान के पास खड़े हो गए। लारी तैयार थी, कप्तान ने उन्हें लारी में बैठाया। लारी चल दी। | लाला समरकान्त कूदकर ईंटों के टीले से नीचे आए और भीड़ को चीरते हुए जाकर पुलिस कप्तान के पास खड़े हो गए। लारी तैयार थी, कप्तान ने उन्हें लारी में बैठाया। लारी चल दी। | ||
पंक्ति 51: | पंक्ति 51: | ||
'सुनो सुनो!' | 'सुनो सुनो!' | ||
'प्यारे भाइयो, लाला समरकान्त जैसा योगी जिस सुख के लोभ से चलायमान हो गया, वह कोई बड़ा भारी सुख होगा फिर मैं तो औरत हूं, और औरत लोभिन होती ही है। आपके शास्त्र-पुराण सब यही कहते हैं। फिर मैं उस लोभ को कैसे रोकूं- मैं धनवान् की बहू, धनवान की स्त्री, भोग-विलास में लिप्त रहने वाली, भजन-भाव में मगन रहने वाली, मैं क्या जानूं | 'प्यारे भाइयो, लाला समरकान्त जैसा योगी जिस सुख के लोभ से चलायमान हो गया, वह कोई बड़ा भारी सुख होगा फिर मैं तो औरत हूं, और औरत लोभिन होती ही है। आपके शास्त्र-पुराण सब यही कहते हैं। फिर मैं उस लोभ को कैसे रोकूं- मैं धनवान् की बहू, धनवान की स्त्री, भोग-विलास में लिप्त रहने वाली, भजन-भाव में मगन रहने वाली, मैं क्या जानूं ग़रीबों को क्या कष्ट है, उन पर क्या बीतती है। लेकिन इस नगर ने मेरी लड़की छीन ली, मेरी जायदाद छीन ली, और अब मैं भी तुम लोगों ही की तरह ग़रीब हूं। अब मुझे इस विश्वनाथ की पुरी में एक झोंपडा बनवाने की लालसा है। आपको छोड़कर मैं और किसके पास मांगने जाऊं। यह नगर तुम्हारा है। इसकी एक-एक अंगुल ज़मीन तुम्हारी है। तुम्हीं इसके राजा हो। मगर सच्चे राजा की भांति तुम भी त्यागी हो। राजा हरिश्चन्द्र की भांति अपना सर्वस्व दूसरों को देकर, भिखारियों को अमीर बनाकर, तुम आज भिखारी हो गए हो। जानते हो वह छल से खोया हुआ राज्य तुमको कैसे मिलेगा- तुम डोम के हाथों बिक चुके। अब तुम्हें रोहितास और शैव्या को त्यागना पड़ेगा। तभी देवता तुम्हारे ऊपर प्रसन्न होंगे। मेरा मन कह रहा है कि देवताओं में तुम्हारा राज्य दिलाने की बातचीत हो रही है। आज नहीं तो कल तुम्हारा राज्य तुम्हारे अधिकार में आ जाएगा। उस वक्त मुझे भूल न जाना। मैं तुम्हारे दरबार में अपना प्रार्थना-पत्र पेश किए जा रही हूं।' | ||
सहसा पीछे से शोर मचा फिर पुलिस आ गई । | सहसा पीछे से शोर मचा फिर पुलिस आ गई । | ||
'आने दो। उनका काम है अपराधिायों को पकड़ना। हम अपराधी हैं। गिरफ्तार न कर लिए गए, तो आज नगर में डाका मारेंगे, चोरी करेंगे, या कोई षडयंत्र रचेंगे। मैं कहती हूं, कोई संस्था जो जनता पर न्यायबल से नहीं, पशुबल से शासन करती है, वह लुटेरों की संस्था है। जो | 'आने दो। उनका काम है अपराधिायों को पकड़ना। हम अपराधी हैं। गिरफ्तार न कर लिए गए, तो आज नगर में डाका मारेंगे, चोरी करेंगे, या कोई षडयंत्र रचेंगे। मैं कहती हूं, कोई संस्था जो जनता पर न्यायबल से नहीं, पशुबल से शासन करती है, वह लुटेरों की संस्था है। जो ग़रीबों का हक लूटकर खुद मालदार हो रहे हैं, दूसरों के अधिकार छीनकर अधिकारी बने हुए हैं, वास्तव में वही लुटेरे हैं। भाइयो, मैं तो जाती हूं, मगर मेरा प्रार्थना-पत्र आपके सामने है। इस लुटेरी म्युनिसिपैलिटी को ऐसा सबक दो कि फिर उसे ग़रीबों को कुचलने का साहस न हो। जो तुम्हें रौंदे, उसके पांव में कांटे बनकर चुभ जाओ। कल से ऐसी हड़ताल करो कि धनियों और अधिकारियों को तुम्हारी शक्ति का अनुभव हो जाय, उन्हें विदित हो जाय कि तुम्हारे सहयोग के बिना वे न धन को भोग सकते हैं, न अधिकार को। उन्हें दिखा दो कि तुम्हीं उनके हाथ हो, तुम्हीं उनके पांव हो, तुम्हारे बगैर वे अपंग हैं।' | ||
वह टीले से नीचे उतरकर पुलिस-कर्मचारियों की ओर चलीं तो सारा जन-समूह, हृदय में उमड़कर आंखों में रूक जाने वाले आंसुओं की भांति, उनकी ओर ताकता रह गया। बाहर निकलकर मर्यादा का उल्लंघन कैसे करें- वीरों के आंसू बाहर निकलकर सूखते नहीं, वृक्षों के रस की भांति भीतर ही रहकर वृक्ष को पल्लवित और पुष्पित कर देते हैं। इतने बड़े समूह में एक कंठ से भी जयघोष नहीं निकला। क्रिया-शक्ति अंतर्मुखी हो गई थी मगर जब रेणुका मोटर में बैठ गईं और मोटर चली, तो श्रध्दा की वह लहर मर्यादाओं को तोड़कर एक पतली गहरी, वेगमयी धारा में निकल पड़ी। | वह टीले से नीचे उतरकर पुलिस-कर्मचारियों की ओर चलीं तो सारा जन-समूह, हृदय में उमड़कर आंखों में रूक जाने वाले आंसुओं की भांति, उनकी ओर ताकता रह गया। बाहर निकलकर मर्यादा का उल्लंघन कैसे करें- वीरों के आंसू बाहर निकलकर सूखते नहीं, वृक्षों के रस की भांति भीतर ही रहकर वृक्ष को पल्लवित और पुष्पित कर देते हैं। इतने बड़े समूह में एक कंठ से भी जयघोष नहीं निकला। क्रिया-शक्ति अंतर्मुखी हो गई थी मगर जब रेणुका मोटर में बैठ गईं और मोटर चली, तो श्रध्दा की वह लहर मर्यादाओं को तोड़कर एक पतली गहरी, वेगमयी धारा में निकल पड़ी। | ||
पंक्ति 67: | पंक्ति 67: | ||
'वाह, इतना भी नहीं पहचानते- डॉक्टर साहब हैं।' | 'वाह, इतना भी नहीं पहचानते- डॉक्टर साहब हैं।' | ||
'डॉक्टर साहब भी आ गए- अब तो | 'डॉक्टर साहब भी आ गए- अब तो फ़तह है ।' | ||
'कैसे-कैसे शरीफ़ आदमी हमारी तरफ से लड़ रहे हैं- पूछो, इन बेचारों को क्या लेना है, जो अपना सुख-चैन छोड़कर, अपने बराबरवालों से दुश्मनी मोल लेकर, जान हथेली पर लिए तैयार हैं।' | 'कैसे-कैसे शरीफ़ आदमी हमारी तरफ से लड़ रहे हैं- पूछो, इन बेचारों को क्या लेना है, जो अपना सुख-चैन छोड़कर, अपने बराबरवालों से दुश्मनी मोल लेकर, जान हथेली पर लिए तैयार हैं।' | ||
'हमारे ऊपर अल्लाह का रहम है। इन डॉक्टर साहब ने पिछले दिनों जब प्लेग का रोग फैला था, | 'हमारे ऊपर अल्लाह का रहम है। इन डॉक्टर साहब ने पिछले दिनों जब प्लेग का रोग फैला था, ग़रीबों की ऐसी खिदमत की कि वाह जिनके पास अपने भाई-बंद तक न खड़े होते थे, वहां बेधाड़क चले जाते थे और दवा-दारू, रुपया-पैसा, सब तरह की मदद तैयार हमारे हाफिजजी तो कहते थे, यह अल्लाह का फरिश्ता है।' | ||
'सुनो, सुनो, बकवास करने को रात-भर पड़ी है।' | 'सुनो, सुनो, बकवास करने को रात-भर पड़ी है।' | ||
'भाइयो पिछली बार जब हड़ताल की थी, उसका क्या नतीजा हुआ- अगर वैसी ही हड़ताल हुई, तो उससे अपना ही नुकसान होगा। हममें से कुछ चुन लिए जाएंगे, बाकी आदमी मतभेद हो जाने के कारण आपस में लड़ते रहेंगे और असली उद्देश्य की किसी को सुधा न रहेगी। सरगनों के हटते ही पुरानी अदावतें निकाली जाने लगेंगी, गड़े मुरदे उखाड़े जाने लगेंगे न कोई संगठन रह जाएगा, न कोई ज़िम्मेदारी। सभी पर आतंक छा जाएगा, इसलिए अपने दिल को टटोलकर देख लो। अगर उसमें कच्चापन हो, तो हड़ताल का विचार दिल से निकाल डालो। ऐसी हड़ताल से दुर्गंध और गंदगी में मरते जाना कहीं अच्छा है। अगर तुम्हें विश्वास है कि तुम्हारा दिल भीतर से मज़बूत है उसमें हानि सहने की, भूखों मरने की, कष्ट झेलने की सामर्थ्य है, तो हड़ताल करो। प्रतिज्ञा कर लो कि जब तक हड़ताल रहेगी, तुम अदावतें भूल जाओगे नफे-नुकसान की परवाह न करोगे। तुमने कबड्डी तो खेली ही होगी। कबड्डी में अक्सर ऐसा होता है कि एक तरफ से सब गुइयां मर जाते हैं केवल एक खिलाड़ी रह जाता है मगर वह एक खिलाड़ी भी उसी तरह | 'भाइयो पिछली बार जब हड़ताल की थी, उसका क्या नतीजा हुआ- अगर वैसी ही हड़ताल हुई, तो उससे अपना ही नुकसान होगा। हममें से कुछ चुन लिए जाएंगे, बाकी आदमी मतभेद हो जाने के कारण आपस में लड़ते रहेंगे और असली उद्देश्य की किसी को सुधा न रहेगी। सरगनों के हटते ही पुरानी अदावतें निकाली जाने लगेंगी, गड़े मुरदे उखाड़े जाने लगेंगे न कोई संगठन रह जाएगा, न कोई ज़िम्मेदारी। सभी पर आतंक छा जाएगा, इसलिए अपने दिल को टटोलकर देख लो। अगर उसमें कच्चापन हो, तो हड़ताल का विचार दिल से निकाल डालो। ऐसी हड़ताल से दुर्गंध और गंदगी में मरते जाना कहीं अच्छा है। अगर तुम्हें विश्वास है कि तुम्हारा दिल भीतर से मज़बूत है उसमें हानि सहने की, भूखों मरने की, कष्ट झेलने की सामर्थ्य है, तो हड़ताल करो। प्रतिज्ञा कर लो कि जब तक हड़ताल रहेगी, तुम अदावतें भूल जाओगे नफे-नुकसान की परवाह न करोगे। तुमने कबड्डी तो खेली ही होगी। कबड्डी में अक्सर ऐसा होता है कि एक तरफ से सब गुइयां मर जाते हैं केवल एक खिलाड़ी रह जाता है मगर वह एक खिलाड़ी भी उसी तरह क़ानून-कायदे से खेलता चला जाता है। उसे अंत तक आशा बनी रहती है कि वह अपने मरे गुइयों को ज़िला लेगा और सब-के-सब फिर पूरी शक्ति से बाज़ी जीतने का उद्योग करेंगे। हरेक खिलाड़ी का एक ही उद्देश्य होता है-पाला जीतना। इसके सिवा उस समय उसके मन में कोई भाव नहीं होता। किस गुइयां ने उसे कब गाली दी थी, कब उसका कनकौआ फाड डाला था, या कब उसको घूंसा मारकर भागा था, इसकी उसे जरा भी याद नहीं आती। उसी तरह इस समय तुम्हें अपना मन बनाना पड़ेगा। मैं यह दावा नहीं करता कि तुम्हारी जीत ही होगी। जीत भी हो सकती है, हार भी हो सकती है। जीत या हार से हमें प्रयोजन नहीं। भूखा बालक भूख से विकल होकर रोता है। वह यह नहीं सोचता कि रोने से उसे भोजन मिल ही जाएगा। संभव है माँ के पास पैसे न हों, या उसका जी अच्छा न हो लेकिन बालक का स्वभाव है कि भूख लगने पर रोए इसी तरह हम भी रो रहे हैं। हम रोते-रोते थककर सो जाएंगे, या माता वात्सल्य से विवश होकर हमें भोजन दे देगी, यह कौन जानता है- हमारा किसी से बैर नहीं, हम तो समाज के सेवक हैं, हम बैर करना क्या जानें!' | ||
उधर पुलिस कप्तान थानेदार को डांट रहा था-जल्द लारी मंगवाओ। तुम बोलता था, अब कोई आदमी नहीं है। अब यह कहां से निकल आया- | उधर पुलिस कप्तान थानेदार को डांट रहा था-जल्द लारी मंगवाओ। तुम बोलता था, अब कोई आदमी नहीं है। अब यह कहां से निकल आया- | ||
पंक्ति 85: | पंक्ति 85: | ||
डॉक्टर शान्तिकुमार कह रहे थे : | डॉक्टर शान्तिकुमार कह रहे थे : | ||
'हमारा किसी से बैर नहीं है। जिस समाज में | 'हमारा किसी से बैर नहीं है। जिस समाज में ग़रीबों के लिए स्थान नहीं, वह उस घर की तरह है जिसकी बुनियाद न हो कोई हल्का-सा धक्का भी उसे ज़मीन पर गिरा सकता है। मैं अपने धनवान् और विद्वान् और सामर्थ्यवान् भाइयों से पूछता हूं, क्या यही न्याय है कि एक भाई तो बंगले में रहे, दूसरे को झोंपड़े भी नसीब न हों- क्या तुम्हें अपने ही जैसे मनुष्यों को इस दुर्दशा में देखकर शर्म नहीं आती- तुम कहोगे, हमने बुद्धि-बल से धन कमाया है, क्यों न उसका भोग करें- इस बुद्धि का नाम स्वार्थ-बुद्धि है, और जब समाज का संचालन स्वार्थ-बुद्धि के हाथ में आ जाता है न्याय-बुद्धि गद़दी से उतार दी जाती है, तो समझ लो कि समाज में कोई विप्लव होने वाला है। गर्मी बढ़ जाती है, तो तुरंत ही आंधी आती है। मानवता हमेशा कुचली नहीं जा सकती। समता जीवन का तत्व है। यही एक दशा है, जो समाज को स्थिर रख सकती है। थोड़े-से धनवानों को हरगिज यह अधिकार नहीं है कि वे जनता की ईश्वरदत्ता वायु और प्रकाश का अपहरण करें। यह विशाल जनसमूह उसी अनधिकार, उसी अन्याय का रोषमय रूदन है। अगर धनवानों की आँखें अब भी नहीं खुलतीं, तो उन्हें पछताना पड़ेगा। यह जागृति का युग है। जागृति अन्याय को सहन नहीं कर सकती। जागे हुए आदमी के घर में चोर और डाकू की गति नहीं?' | ||
इतने में टैक्सी आ गई। पुलिस कप्तान कई थानेदारों और कांस्टेबलों के साथ समूह की तरफ चला। | इतने में टैक्सी आ गई। पुलिस कप्तान कई थानेदारों और कांस्टेबलों के साथ समूह की तरफ चला। | ||
पंक्ति 93: | पंक्ति 93: | ||
शान्तिकुमार ने ईंट-मंच पर खड़े-खड़े कहा-मैं अपनी खुशी से तो गिरफ्तार होने न आऊंगा, आप जबरदस्ती गिरफ्तार कर सकते हैं। और फिर अपने भाषण का सिलसिला जारी कर दिया। | शान्तिकुमार ने ईंट-मंच पर खड़े-खड़े कहा-मैं अपनी खुशी से तो गिरफ्तार होने न आऊंगा, आप जबरदस्ती गिरफ्तार कर सकते हैं। और फिर अपने भाषण का सिलसिला जारी कर दिया। | ||
'हमारे धनवानों को किसका बल है- पुलिस का। हम पुलिस ही से पूछते हैं, अपने कांस्टेबल भाइयों से हमारा सवाल है, क्या तुम भी | 'हमारे धनवानों को किसका बल है- पुलिस का। हम पुलिस ही से पूछते हैं, अपने कांस्टेबल भाइयों से हमारा सवाल है, क्या तुम भी ग़रीब नहीं हो- क्या तुम और तुम्हारे बाल-बच्चे सड़े हुए, अंधेरे, दुर्गंधा और रोग से भरे हुए बिलों में नहीं रहते- लेकिन यह जमाने की खूबी है कि तुम अन्याय की रक्षा करने के लिए, अपने ही बाल-बच्चों का गला घोंटने के लिए तैयार खड़े हो?' | ||
कप्तान ने भीड़ के अंदर जाकर शान्तिकुमार का हाथ पकड़ लिया और उन्हें साथ लिए हुए लौटा। सहसा नैना सामने से आकर खड़ी हो गई। | कप्तान ने भीड़ के अंदर जाकर शान्तिकुमार का हाथ पकड़ लिया और उन्हें साथ लिए हुए लौटा। सहसा नैना सामने से आकर खड़ी हो गई। | ||
पंक्ति 103: | पंक्ति 103: | ||
'नहीं, कहीं ऐसा अनर्थ न करना। सब कुछ तुम्हारे ही ऊपर है।' | 'नहीं, कहीं ऐसा अनर्थ न करना। सब कुछ तुम्हारे ही ऊपर है।' | ||
नैना ने कुछ जवाब न दिया। कप्तान डॉक्टर को लिए हुए आगे बढ़ गया। उधर सभा में शोर मचा हुआ था। अब उनका क्या कर्तव्य है, इसका निश्चय वह लोग न कर पाते थे। उनकी दशा पिघली हुई धातु की-सी थी। उसे जिस तरफ चाहे मोड़ सकते हैं। कोई भी चलता हुआ आदमी उनका नेता बनकर उन्हें जिस तरफ चाहे ले जा सकता था-सबसे ज्यादा आसानी के साथ शांतिभंग की ओर। चित्त की उस दशा में, जो इन ताबड़तोड़ गिरफतारियों से शांतिपथ-विमुख हो रहा था, बहुत संभव था कि वे पुलिस पर जाकर पत्थर फेंकने लगते, या | नैना ने कुछ जवाब न दिया। कप्तान डॉक्टर को लिए हुए आगे बढ़ गया। उधर सभा में शोर मचा हुआ था। अब उनका क्या कर्तव्य है, इसका निश्चय वह लोग न कर पाते थे। उनकी दशा पिघली हुई धातु की-सी थी। उसे जिस तरफ चाहे मोड़ सकते हैं। कोई भी चलता हुआ आदमी उनका नेता बनकर उन्हें जिस तरफ चाहे ले जा सकता था-सबसे ज्यादा आसानी के साथ शांतिभंग की ओर। चित्त की उस दशा में, जो इन ताबड़तोड़ गिरफतारियों से शांतिपथ-विमुख हो रहा था, बहुत संभव था कि वे पुलिस पर जाकर पत्थर फेंकने लगते, या बाज़ार लूटने पर आमादा हो जाते। उसी वक्त नैना उनके सामने जाकर खड़ी हो गई। वह अपनी बग्घी पर सैर करने निकली थी। रास्ते में उसने लाला समरकान्त और रेणुकादेवी के पकड़े जाने की खबर सुनी। उसने तुरंत कोचवान को इस मैदान की ओर चलने को कहा, और दौड़ी चली आ रही थी। अब तक उसने अपने पति और ससुर की मर्यादा का पालन किया था। अपनी ओर से कोई ऐसा काम न करना चाहती थी कि ससुराल वालों का दिल दुखे, या उनके असंतोष का कारण हो। लेकिन यह खबर पाकर वह संयत न रह सकी। मनीराम जामे से बाहर हो जाएंगे, लाला धानीराम छाती पीटने लगेंगे, उसे गम नहीं। कोई उसे रोक ले, तो वह कदाचित आत्म-हत्या कर बैठे। वह स्वभाव से ही लज्जाशील थी। घर के एकांत में बैठकर वह चाहे भूखों मर जाती, लेकिन बाहर निकलकर किसी से सवाल करना उसके लिए असाध्य था। रोज जलसे होते थे लेकिन उसे कभी कुछ भाषण करने का साहस नहीं हुआ। यह नहीं कि उसके पास विचारों का अभाव था, अथवा वह अपने विचारों को व्यक्त न कर सकती थी। नहीं, केवल इसलिए कि जनता के सामने खड़े होने में उसे संकोच होता था। या यों कहो कि भीतर की पुकार कभी इतनी प्रबल न हुई कि मोह और आलस्य के बंधनो को तोड़ देती। बाज ऐसे जानवर भी होते हैं, जिनमें एक विशेष आसन होता है। उन्हें आप मार डालिए। पर आगे क़दम न उठाएंगे। लेकिन उस मार्मिक स्थान पर उंगली रखते ही उनमें एक नया उत्साह, एक नया जीवन चमक उठता है। लाला समरकान्त की गिरफ्तारी ने नैना के हृदय में उसी मर्मस्थल को स्पर्श कर लिया। वह जीवन में पहली बार जनता के सामने खड़ी हुई, निशंक, निश्चल, एक नई प्रतिभा, एक नई प्रांजलता से आभासित। पूर्णिमा के रजत प्रकाश में ईंटों के टीले पर खड़ी जब उसने अपने कोमल किंतु गहरे कंठ-स्वर से जनता को संबोधित किया, तो जैसे सारी प्रकृति नि:स्तब्धा हो गई। | ||
'सज्जनो, मैं लाला समरकान्त की बेटी और लाला धानीराम की बहू हूं। मेरा प्यारा भाई जेल में है, मेरी प्यारी भावज जेल में हैं, मेरा सोने-सा भतीजा जेल में है, मेरे पिताजी भी पहुंच गए।' | 'सज्जनो, मैं लाला समरकान्त की बेटी और लाला धानीराम की बहू हूं। मेरा प्यारा भाई जेल में है, मेरी प्यारी भावज जेल में हैं, मेरा सोने-सा भतीजा जेल में है, मेरे पिताजी भी पहुंच गए।' | ||
पंक्ति 109: | पंक्ति 109: | ||
जनता की ओर से आवाज़ आई-रेणुकादेवी भी । | जनता की ओर से आवाज़ आई-रेणुकादेवी भी । | ||
'हां, रेणुकादेवी भी, जो मेरी माता के तुल्य थीं। लड़की के लिए वही मैका है, जहां उसके मां-बाप, भाई-भावज रहें। और लड़की को मैका जितना प्यारा होता है, उतनी ससुराल नहीं होती। सज्जनो, इस ज़मीन के कई टुकड़े मेरे ससुरजी ने ख़रीदे हैं। मुझे विश्वास है, मैं आग्रह करूं तो वह यहां अमीरों के बंगले न बनवाकर | 'हां, रेणुकादेवी भी, जो मेरी माता के तुल्य थीं। लड़की के लिए वही मैका है, जहां उसके मां-बाप, भाई-भावज रहें। और लड़की को मैका जितना प्यारा होता है, उतनी ससुराल नहीं होती। सज्जनो, इस ज़मीन के कई टुकड़े मेरे ससुरजी ने ख़रीदे हैं। मुझे विश्वास है, मैं आग्रह करूं तो वह यहां अमीरों के बंगले न बनवाकर ग़रीबों के घर बनवा देंगे, लेकिन हमारा उद्देश्य यह नहीं है। हमारी लड़ाई इस बात पर है कि जिस नगर में आधो से ज्यादा आबादी गंदे बिलों में मर रही हो, उसे कोई अधिकार नहीं है कि महलों और बंगलों के लिए ज़मीन बेचे। आपने देखा था, यहां कई हरे-भरे गांव थे। म्युनिसिपैलिटी ने नगर निर्माण-संघ बनाया। गांव के किसानों की ज़मीन कौड़ियों के दाम छीन ली गई, और आज वही ज़मीन अशर्फियों के दाम बिक रही है इसलिए कि बड़े आदमियों के बंगले बनें। हम अपने नगर के विधाताओं से पूछते हैं, क्या अमीरों ही के जान होती है- ग़रीबों के जान नहीं होती- अमीरों ही को तंदुरूस्त रहना चाहिए- ग़रीबों को तंदुरूस्ती की ज़रूरत नहीं- अब जनता इस तरह मरने को तैयार नहीं है। अगर मरना ही है, तो इस मैदान में खुले आकाश के नीचे, चन्द्रमा के शीतल प्रकाश में मरना बिलों में मरने से कहीं अच्छा है लेकिन पहले हमें नगर-विधाताओं से एक बार और पूछ लेना है कि वह अब भी हमारा निवेदन स्वीकार करेंगे, या नहीं- अब भी सिध्दांत को मानेंगे, या नहीं- अगर उन्हें घमंड हो कि वे हथियार के ज़ोर से ग़रीबों को कुचलकर उनकी आवाज़ बंद कर सकते हैं, तो यह उनकी भूल है। ग़रीबों का रक्त जहां गिरता है, वहां हरेक बूंद की जगह एक-एक आदमी उत्पन्न हो जाता है। अगर इस वक्त नगर-विधाताओं ने ग़रीबों की आवाज़ सुन ली तो उन्हें संत का यश मिलेगा, क्योंकि ग़रीब बहुत दिनों तक ग़रीब नहीं रहेंगे और वह जमाना दूर नहीं, जब ग़रीबों के हाथ में शक्ति होगी। विप्लव के जंतु को छेड़-छेड़कर न जगाओ। उसे जितना ही छेड़ोगे, उतना ही झल्लाएगा और वह उठकर जम्हाई लेगा और ज़ोर से दहाड़ेगा, तो फिर तुम्हें भागने की राह न मिलेगी। हमें बोर्ड के मेंबरों को यही चेतावनी देनी है। इस वक्त बहुत ही अच्छा अवसर है। सभी भाई म्युनिसिपैलिटी के दफ़्तर चलें। अब देर न करें, मेंबर अपने-अपने घर चले जाएंगे। हड़ताल में उपद्रव का भय है, इसलिए हड़ताल उसी हालत में करनी चाहिए, जब और किसी तरह काम न निकल सके।' | ||
नैना ने झंडा उठा लिया और म्युनिसिपैलिटी के दफ़्तर की ओर चली। उसके पीछे बीस-पच्चीस हज़ार आदमियों का एक सफर-सा उमड़ा हुआ चला और यह दल मेलों की भीड़ की तरह अऋंखलाल नहीं, फ़ौज की कतारों की तरह ऋंखलाब' था। आठ-आठ आदमियों की असंख्य पंक्तियां गंभीर भाव से एक विचार, एक उद्देश्य, एक धारणा की आंतरिक शक्ति का अनुभव करती हुई चली जा रही थीं, और उनका तांता न टूटता था, मानो भूगर्भ से निकलती चली आती हों। सड़क के दोनों ओर छज्जों और छतों पर दर्शकों की भीड़ लगी हुई थी। सभी चकित थे। उगर्िाेह कितने आदमी हैं। अभी चले ही आ रहे हैं। | नैना ने झंडा उठा लिया और म्युनिसिपैलिटी के दफ़्तर की ओर चली। उसके पीछे बीस-पच्चीस हज़ार आदमियों का एक सफर-सा उमड़ा हुआ चला और यह दल मेलों की भीड़ की तरह अऋंखलाल नहीं, फ़ौज की कतारों की तरह ऋंखलाब' था। आठ-आठ आदमियों की असंख्य पंक्तियां गंभीर भाव से एक विचार, एक उद्देश्य, एक धारणा की आंतरिक शक्ति का अनुभव करती हुई चली जा रही थीं, और उनका तांता न टूटता था, मानो भूगर्भ से निकलती चली आती हों। सड़क के दोनों ओर छज्जों और छतों पर दर्शकों की भीड़ लगी हुई थी। सभी चकित थे। उगर्िाेह कितने आदमी हैं। अभी चले ही आ रहे हैं। | ||
पंक्ति 147: | पंक्ति 147: | ||
सेन बाबू भी अपने लड़के के नाम से उस ब्लाक के एक भाग के ख़रीददार थे। जल उठे-अगर बोर्ड में अपने पास किए हुए प्रस्तावों पर स्थिर रहने की शक्ति नहीं है, तो उसे इस्तीफा देकर अलग हो जाना चाहिए। | सेन बाबू भी अपने लड़के के नाम से उस ब्लाक के एक भाग के ख़रीददार थे। जल उठे-अगर बोर्ड में अपने पास किए हुए प्रस्तावों पर स्थिर रहने की शक्ति नहीं है, तो उसे इस्तीफा देकर अलग हो जाना चाहिए। | ||
मि. शफीक ने, जो यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और डॉ. शान्तिकुमार के मित्र थे, सेन को आड़े हाथों लिया-बोर्ड के फैसले खुदा के फैसले नहीं हैं। उस वक्त बेशक बोर्ड ने उस ब्लाक को छोटे-छोटे प्लाटों में नीलाम करने का फैसला किया था, लेकिन उसका नतीजा क्या हुआ- आप लोगों ने वहां जितना इमारती सामान जमा किया, उसका कहीं पता नहीं है। हज़ार आदमी से ज्यादा रोज रात को वहीं सोते हैं। मुझे यकीन है कि वहां काम करने के लिए | मि. शफीक ने, जो यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और डॉ. शान्तिकुमार के मित्र थे, सेन को आड़े हाथों लिया-बोर्ड के फैसले खुदा के फैसले नहीं हैं। उस वक्त बेशक बोर्ड ने उस ब्लाक को छोटे-छोटे प्लाटों में नीलाम करने का फैसला किया था, लेकिन उसका नतीजा क्या हुआ- आप लोगों ने वहां जितना इमारती सामान जमा किया, उसका कहीं पता नहीं है। हज़ार आदमी से ज्यादा रोज रात को वहीं सोते हैं। मुझे यकीन है कि वहां काम करने के लिए मज़दूर भी राजी न होगा। मैं बोर्ड को खबरदार किए देता हूं कि अगर अपनी पालिसी बदल न दी, तो शहर पर बहुत बड़ी आफत आ जाएगी। सेठ समरकान्त और शान्तिकुमार का शरीक होना बतला रहा है कि यह तहरीक बच्चों का खेल नहीं है। उसकी जड़ बहुत गहरी पहुंच गई है और उसे उखाड़ फेंकना अब क़रीब-क़रीब गैरमुमकिन है। बोर्ड को अपना फैसला रप्र करना पड़ेगा। चाहे अभी करे या सौ-पचास जनों की नजर लेकर करे। अब तक का तरजबा तो यही कह रहा है कि बोर्ड की सख्तियों का बिलकुल असर नहीं हुआ बल्कि उल्टा ही असर हुआ। अब जो हड़ताल होगी, वह इतनी खौफनाक होगी कि उसके खयाल से रोंगटे खड़े होते हैं। बोर्ड अपने सिर पर बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी ले रहा है। | ||
मि. हामिदअली कपड़े की मिल के मैनेजर थे। उनकी मिल घाटे पर चल रही थी। डरते थे, कहीं लंबी हड़ताल हो गई, तो बधिया ही बैठ जाएगी। थे तो बेहद मोटे मगर बेहद मेहनती। बोले-हक को तस्लीम करने में बोर्ड को क्यों इतना पसोपेश हो रहा है, यह मेरी समझ में नहीं आता। शायद इसलिए कि उसके गईर को झुकना पड़ेगा। लेकिन हक के सामने झुकना | मि. हामिदअली कपड़े की मिल के मैनेजर थे। उनकी मिल घाटे पर चल रही थी। डरते थे, कहीं लंबी हड़ताल हो गई, तो बधिया ही बैठ जाएगी। थे तो बेहद मोटे मगर बेहद मेहनती। बोले-हक को तस्लीम करने में बोर्ड को क्यों इतना पसोपेश हो रहा है, यह मेरी समझ में नहीं आता। शायद इसलिए कि उसके गईर को झुकना पड़ेगा। लेकिन हक के सामने झुकना कमज़ोरी नहीं, मज़बूती है। अगर आज इसी मसले पर बोर्ड का नया इंतखाब हो, तो मैं दावे से कह सकता हूं कि बोर्ड का यह रिजोल्यूशन हर्गे ग़लत की तरह मिट जाएगा। बीस-पचीस हज़ार ग़रीब आदमियों की बेहतरी और भलाई के लिए अगर बोर्ड को दस-बारह लाख का नुकसान उठाना और दस-पांच मेंबरों की दिलशिकनी करनी पड़े तो उसे... | ||
फिर टेलीफौन की घंटी बजी। हाफिज हलीम ने कान लगाकर सुना और बोले-पच्चीस हज़ार आदमियों की फ़ौज हमारे ऊपर धावा करने आ रही है। लाला समरकान्त की साहबजादी और सेठ धानीराम साहब की बहू उसकी लीडर हैं। डी. एस. पी. ने हमारी राय पूछी है, और यह भी कहा है कि फायर किए बगैर जुलूस पीछे हटने वाला नहीं। मैं इस मुआमले में बोर्ड की राय जानना चाहता हूं। बेहतर है कि वोट ले लिए जायं, जाब्ते की पाबंदियों का मौक़ा नहीं है, आप लोग हाथ उठाएं-गॉर- | फिर टेलीफौन की घंटी बजी। हाफिज हलीम ने कान लगाकर सुना और बोले-पच्चीस हज़ार आदमियों की फ़ौज हमारे ऊपर धावा करने आ रही है। लाला समरकान्त की साहबजादी और सेठ धानीराम साहब की बहू उसकी लीडर हैं। डी. एस. पी. ने हमारी राय पूछी है, और यह भी कहा है कि फायर किए बगैर जुलूस पीछे हटने वाला नहीं। मैं इस मुआमले में बोर्ड की राय जानना चाहता हूं। बेहतर है कि वोट ले लिए जायं, जाब्ते की पाबंदियों का मौक़ा नहीं है, आप लोग हाथ उठाएं-गॉर- | ||
पंक्ति 185: | पंक्ति 185: | ||
जुलूस उधर से नैना की अर्थी लिए चला आ रहा है। एक शहर में इतने आदमी कहां से आ गए- मीलों लंबी घनी कतार है शांत, गंभीर, संगठित जो मर मिटना चाहती है। नैना के बलिदान ने उन्हें अजेय, अभे? बना दिया है। | जुलूस उधर से नैना की अर्थी लिए चला आ रहा है। एक शहर में इतने आदमी कहां से आ गए- मीलों लंबी घनी कतार है शांत, गंभीर, संगठित जो मर मिटना चाहती है। नैना के बलिदान ने उन्हें अजेय, अभे? बना दिया है। | ||
उसी वक्त बोर्ड के पचीसों मेंबरों ने सामने आकर अर्थी पर फूल बरसाए और हाफिज सलीम ने आगे बढ़कर, ऊंचे स्वर में कहा-भाइयो आप म्युनिसिपैलिटी के मेंबरों के पास जा रहे हैं, मेंबर खुद आपका इस्तिकबाल करने आए हैं। बोर्ड ने आज इत्तिफाक राय से पूरा प्लाट आप लोगों को देना मंजूर कर लिया। मैं इस पर बोर्ड को मुबारकबाद देता हूं, और आपको भी। आज बोर्ड ने तस्लीम कर लिया कि | उसी वक्त बोर्ड के पचीसों मेंबरों ने सामने आकर अर्थी पर फूल बरसाए और हाफिज सलीम ने आगे बढ़कर, ऊंचे स्वर में कहा-भाइयो आप म्युनिसिपैलिटी के मेंबरों के पास जा रहे हैं, मेंबर खुद आपका इस्तिकबाल करने आए हैं। बोर्ड ने आज इत्तिफाक राय से पूरा प्लाट आप लोगों को देना मंजूर कर लिया। मैं इस पर बोर्ड को मुबारकबाद देता हूं, और आपको भी। आज बोर्ड ने तस्लीम कर लिया कि ग़रीब की सेहत, आराम और ज़रूरत को वह अमीरों के शौक, तकल्लुफ और हविस से ज्यादा लिहाज़ के काबिल समझता है। उसने तस्लीम कर लिया कि ग़रीबों का उस पर उससे कहीं ज्यादा हक है, जितना अमीरों का । हमने तस्लीम कर लिया कि बोर्ड रुपये की निस्बत रिआया की जान की ज्यादा कद्र करती है। उसने तस्लीम कर लिया कि शहर की जीनत बड़ी-बड़ी कोंठियों और बंगलों से नहीं, छोटे-छोटे आरामदेह मकानों से है, जिनमें मज़दूर और थोड़ी आमदनी के लोग रह सकें। मैं खुद उन आदमियों में हूं जो इस वसूल की तस्लीम न करते थे। बोर्ड का बड़ा हिस्सा मेरे ही खयाल के आदमियों का था लेकिन आपकी कुरबानियों ने और आपके लीडरों की जांबाजियों ने बोर्ड पर फ़तह पाई और आज मैं उस फ़तह पर आपको मुबारकबाद देता हूं, और इस फ़तह का सेहरा उस देवी के सिर है, जिसका जनाजा आपके कंधो पर है। लाला समरकान्त मेरे पुराने रफीक हैं। उनका सपूत बेटा मेरे लड़के का दिली दोस्त है। अमरकान्त जैसा शरीफ़ नौजवान मेरी नजर से नहीं गुजरा। उसी की सोहबत का असर है कि आज मेरा लड़का सिविल सर्विस छोड़कर जेल में बैठा हुआ है। नैनादेवी के दिल में जो कशमकश हो रही थी, उसका अंदाजा हम और आप नहीं कर सकते। एक तरफ बाप और भाई और भावज जेल में कैद, दूसरी तरफ शौहर और ससुर मिलकियत और जायदाद की धुन में मस्त। लाला धानीराम मुझे मुआफ करेंगे। मैं उन पर फिकरा नहीं कसता। जिस हालत में वह गिरफ्तार थे, उसी हालत में हम, आप और सारी दुनिया गिरफ्तार है। उनके दिल पर इस वक्त एक ऐसे गम की चोट है, जिससे ज्यादा दिलशिकन कोई सदमा नहीं हो सकता। हमको, और मैं यकीन करता हूं, आपको भी उनसे कमाल की हमदर्दी है। हम सब उनके गम में शरीक हैं। नैनादेवी के दिल में मैका और ससुराल की यह लड़ाई शायद इस तहरीक के शुरू होते ही शुरू हुई और आज उसका यह हसरतनाक अंजाम हुआ। मुझे यकीन है कि उनकी इस पाक कुरबानी की यादगार हमारे शहर में उस वक्त तक क़ायम रहेगी, जब तक इसका वजूद क़ायम रहेगा मैं बुतपरस्त नहीं हूं, लेकिन सबसे पहले मैं तजवीज करूंगा कि उस प्लाट पर जो मोहल्ला आबाद हो, उसके बीचों-बीच इस देवी की यादगार नस्ब की जाय, ताकि आने वाली नसलें उसकी शानदार कुरबानी की याद ताजा करती रहें- | ||
दोस्तो, मैं इस वक्त आपके सामने कोई तकरीर नहीं करता हूं। यह न तकरीर करने का मौक़ा है, न सुनने का। रोशनी के साथ तारीकी है, जीत के साथ हार, और खुशी के साथ गम। तारीकी और रोशनी का मेल सुहानी सुबह होती है, और जीत और हार का मेल सुलह। यह खुशी और गम का मेल एक नए दौर की आवाज़ है और खुदा से हमारी दुआ है कि यह दौर हमेशा क़ायम रहे, हममें ऐसे ही हक पर जान देने वाली पाक ईहें पैदा होती रहें क्योंकि दुनिया ऐसी ही ईहों की हस्ती से क़ायम है। आपसे हमारी गुजारिश है कि इस जीत के बाद हारने वालों के साथ वही बर्ताव कीजिए, जो बहादुर दुश्मन के साथ किया जाना चाहिए। हमारी इस पाक सरजमीन में हारे हुए दुश्मनों को दोस्त समझा जाता था। लड़ाई खत्म होते ही हम रंजिश और गुस्से को दिल से निकाल डालते थे और दिल खोलकर दुश्मन से गले मिल जाते थे। आइए, हम और आप गले मिलकर उस देवी की देह को खुश करें, जो हमारी सच्ची रहनुमा, तारीकी में सुबह का पैग़ाम लाने वाली सुद्वी थी। खुदा हमें तौफीक दे कि इस सच्चे शहीद से हम हकपरस्ती और खिदमत का सबक हासिल करें। | दोस्तो, मैं इस वक्त आपके सामने कोई तकरीर नहीं करता हूं। यह न तकरीर करने का मौक़ा है, न सुनने का। रोशनी के साथ तारीकी है, जीत के साथ हार, और खुशी के साथ गम। तारीकी और रोशनी का मेल सुहानी सुबह होती है, और जीत और हार का मेल सुलह। यह खुशी और गम का मेल एक नए दौर की आवाज़ है और खुदा से हमारी दुआ है कि यह दौर हमेशा क़ायम रहे, हममें ऐसे ही हक पर जान देने वाली पाक ईहें पैदा होती रहें क्योंकि दुनिया ऐसी ही ईहों की हस्ती से क़ायम है। आपसे हमारी गुजारिश है कि इस जीत के बाद हारने वालों के साथ वही बर्ताव कीजिए, जो बहादुर दुश्मन के साथ किया जाना चाहिए। हमारी इस पाक सरजमीन में हारे हुए दुश्मनों को दोस्त समझा जाता था। लड़ाई खत्म होते ही हम रंजिश और गुस्से को दिल से निकाल डालते थे और दिल खोलकर दुश्मन से गले मिल जाते थे। आइए, हम और आप गले मिलकर उस देवी की देह को खुश करें, जो हमारी सच्ची रहनुमा, तारीकी में सुबह का पैग़ाम लाने वाली सुद्वी थी। खुदा हमें तौफीक दे कि इस सच्चे शहीद से हम हकपरस्ती और खिदमत का सबक हासिल करें। |
05:16, 4 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
इस लेख का पुनरीक्षण एवं सम्पादन होना आवश्यक है। आप इसमें सहायता कर सकते हैं। "सुझाव" |
पठानिन की गिरफ्तारी ने शहर में ऐसी हलचल मचा दी, जैसी किसी को आशा न थी। जीर्ण वृध्दावस्था में इस कठोर तपस्या ने मृतकों में भी जीवन डाल दिया, भीई और स्वार्थ-सेवियों को भी कर्मक्षेत्र में ला खड़ा किया। लेकिन ऐसे निर्लज्जों की अब भी कमी न थी, जो कहते थे-इसके लिए जीवन में अब क्या धारा है- मरना ही तो है। बाहर न मरी, जेल में मरी। हमें तो अभी बहुत दिन जीना है, बहुत कुछ करना है, हम आग में कैसे कूदें-
संध्या का समय है। मज़दूर अपने-अपने काम छोड़कर, छोटे दूकानदार अपनी-अपनी दूकानें बंद करके घटना-स्थल की ओर भागे चले जा रहे हैं। पठानिन अब वहां नहीं है, जेल पहुंच गई होगी। हथियारबंद पुलिस का पहरा है, कोई जलसा नहीं हो सकता, कोई भाषण नहीं हो सकता, बहुत-से आदमियों का जमा होना भी खतरनाक है, पर इस समय कोई कुछ नहीं सोचता, किसी को कुछ दिखाई नहीं देता-सब किसी वेगमय प्रवाह में बहे जा रहे हैं। एक क्षण में सारा मैदान जन-समूह से भर गया।
सहसा लोगों ने देखा, एक आदमी ईंटों के एक ढेर पर खड़ा कुछ कह रहा है। चारों ओर से दौड़-दौड़कर लोग वहां जमा हो गए-जन-समूह का एक विराट् सफर उमड़ा हुआ था। यह आदमी कौन है- लाला समरकान्त जिनकी बहू जेल में है, जिनका लड़का जेल में है।
'अच्छा, यह लाला हैं भगवान् बुद्धि दे, तो इस तरह। पाप से जो कुछ कमाया, वह पुण्य में लुटा रहे हैं।'
'है बड़ा भागवान्।'
'भागवान् न होता, तो बुढ़ापे में इतना जस कैसे कमाता ।'
'सुनो, सुनो ।'
'वह दिन आएगा, जब इसी जगह ग़रीबों के घर बनेंगे और जहां हमारी माता गिरफ्तार हुई हैं, वहीं एक चौक बनेगा और उसके बीच में माता की प्रतिमा खड़ी की जाएगी। बोलो माता पठानिन की जय ।'
दस हज़ार गलों से 'माता की जय ।' की ध्वनि निकलती है, विकल, उत्ताप्त, गंभीर मानो ग़रीबों की हाय संसार में कोई आश्रय न पाकर आकाशवासियों से फरियाद कर रही है।
'सुनो, सुनो ।'
'माता ने अपने बालकों के लिए प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। हमारे और आपके भी बालक हैं। हम और आप अपने बालकों के लिए क्या करना चाहते हैं, आज इसका निश्चय करना होगा।'
शोर मचता है-हड़ताल, हड़ताल ।
'हां, हड़ताल कीजिए मगर वह हड़ताल, एक या दो दिन की न होगी, वह उस वक्त तक रहेगी, जब तक हमारे नगर के विधाता हमारी आवाज़ न सुनेंगे। हम ग़रीब हैं, दीन हैं, दुखी हैं लेकिन बड़े आदमी अगर जरा शांतचित्त होकर ध्यान करेंगे, तो उन्हें मालूम हो जाएगा कि दीन-दुखी प्राणियों ही ने उन्हें बड़ा आदमी बना दिया है। ये बड़े-बड़े महल जान हथेली पर रखकर कौन बनाता है- इन कपड़े की मिलों में कौन काम करता है- प्रात: काल द्वार पर दूध और मक्खन लेकर कौन आवाज़ देता है- मिठाइयां और फल लेकर कौन बड़े आदमियों के नाश्ते के समय पहुंचता है- सफाई कौन करता है, कपड़े कौन धोता है- सबेरे अखबार और चिट्ठीयां लेकर कौन पहुंचता है- शहर के तीन-चौथाई आदमी एक-चौथाई के लिए अपना रक्त जला रहे हैं। इसका प्रसाद यही मिलता है कि उन्हें रहने के लिए स्थान नहीं एक बंगले के लिए कई बीघे ज़मीन चाहिए। हमारे बड़े आदमी साफ-सुथरी हवा और खुली हुई जगह चाहते हैं। उन्हें यह खबर नहीं है कि जहां असंख्य प्राणी दुर्गंधा और अंधकार में पड़े भंयकर रोगों से मर-मरकर रोग के कीड़े फैला रहे हों, वहां खुले हुए बंगले में रहकर भी वह सुरक्षित नहीं हैं यह किसकी ज़िम्मेदारी है कि शहर के छोटे-बड़े, अमीर-गरीब सभी आदमी स्वस्थ रह सकें- अगर म्युनिसिपैलिटी इस प्रधान कर्तव्य को नहीं पूरा कर सकती, तो उसे तोड़ देना चाहिए। रईसों और अमीरों की कोठियों के लिए, बगीचों के लिए, महलों के लिए, क्यों इतनी उदारता से ज़मीन दे दी जाती है- इसलिए कि हमारी म्युनिसिपैलिटी ग़रीबों की जान का कोई मूल्य नहीं समझती। उसे रुपये चाहिए, इसलिए कि बड़े-बड़े अधिकारियों को बड़ी-बड़ी तलब दी जाए। वह शहर को विशाल भवनों से अलंकृत कर देना चाहती है, उसे स्वर्ग की तरह सुंदर बना देना चाहती है पर जहां की अंधेरी दुर्गंधपूर्ण गलियों में जनता पड़ी कराह रही हो, वहां इन विशाल भवनों से क्या होगा- यह तो वही बात है कि कोई देह के कोढ़ को रेशमी वस्त्रों में छिपाकर इठलाता फिरे। सज्जनो अन्याय करना जितना बड़ा पाप है, उतना ही बड़ा अन्याय सहना भी है। आज निश्चय कर लो कि तुम यह दुर्दशा न सहोगे। यह महल और बंगले नगर की दुर्बल देह पर छाले हैं, मसवृध्दि हैं। इन मसवृध्दियों को काटकर फेंकना होगा। जिस ज़मीन पर हम खड़े हैं वहां कम-से-कम दो हज़ार छोटे-छोटे सुंदर घर बन सकते हैं, जिनमें कम-से-कम दस हज़ार प्राणी आराम से रह सकते हैं। मगर यह सारी ज़मीन चार-पांच बंगलों के लिए बेची जा रही है। म्युनिसिपैलिटी को दस लाख रुपये मिल रहे हैं। इसे वह कैसे छोड़े- शहर के दस हज़ार मज़दूरों की जान दस लाख के बराबर भी नहीं।'
एकाएक पीछे के आदमियों ने शोर मचाया-पुलिस पुलिस आ गई।
कुछ लोग भागे, कुछ लोग सिमटकर और आगे बढ़ आए।
लाला समरमकान्त बोले-भागो मत, भागे मत, पुलिस मुझे गिरफ्तार करेगी। मैं उसका अपराधी हूं और मैं ही क्यों, मेरा सारा घर उसका अपराधी है। मेरा लड़का जेल में है, मेरी बहू और पोता जेल में हैं। मेरे लिए अब जेल के सिवा और कहां ठिकाना है- मैं तो जाता हूं। (पुलिस से) वहीं ठहरिए साहब, मैं खुद आ रहा हूं। मैं तो जाता हूं, मगर यह कहे जाता हूं कि अगर लौटकर मैंने यहां ग़रीब भाइयों के घरों की पांतियां फूलों की भांति लहलहाती न देखी, तो यहीं मेरी चिता बनेगी।
लाला समरकान्त कूदकर ईंटों के टीले से नीचे आए और भीड़ को चीरते हुए जाकर पुलिस कप्तान के पास खड़े हो गए। लारी तैयार थी, कप्तान ने उन्हें लारी में बैठाया। लारी चल दी।
'लाला समरकान्त की जय!' की गहरी, हार्दिक वेदना से भरी हुई ध्वनि किसी बंधुए पशु की भांति तड़पती, छटपटाती ऊपर को उठी, मानो परवशता के बंधन को तोड़कर निकल जाना चाहती हो।
एक समूह लारी के पीछे दौड़ा अपने नेता को छुड़ाने के लिए नहीं, केवल श्रध्दा के आवेश में, मानो कोई प्रसाद, कोई आशीर्वाद पाने की सरल उमंग में। जब लारी गर्द में लुप्त हो गई, तो लोग लौट पड़े।
'यह कौन खड़ा बोल रहा है?'
'कोई औरत जान पड़ती है।'
'कोई भले घर की औरत है।'
'अरे यह तो वही हैं, लालाजी का समधि, रेणुकादेवी।'
'अच्छा जिन्होंने पाठशाले के नाम अपनी सारी जमा-जथा लिख दी।'
'सुनो सुनो!'
'प्यारे भाइयो, लाला समरकान्त जैसा योगी जिस सुख के लोभ से चलायमान हो गया, वह कोई बड़ा भारी सुख होगा फिर मैं तो औरत हूं, और औरत लोभिन होती ही है। आपके शास्त्र-पुराण सब यही कहते हैं। फिर मैं उस लोभ को कैसे रोकूं- मैं धनवान् की बहू, धनवान की स्त्री, भोग-विलास में लिप्त रहने वाली, भजन-भाव में मगन रहने वाली, मैं क्या जानूं ग़रीबों को क्या कष्ट है, उन पर क्या बीतती है। लेकिन इस नगर ने मेरी लड़की छीन ली, मेरी जायदाद छीन ली, और अब मैं भी तुम लोगों ही की तरह ग़रीब हूं। अब मुझे इस विश्वनाथ की पुरी में एक झोंपडा बनवाने की लालसा है। आपको छोड़कर मैं और किसके पास मांगने जाऊं। यह नगर तुम्हारा है। इसकी एक-एक अंगुल ज़मीन तुम्हारी है। तुम्हीं इसके राजा हो। मगर सच्चे राजा की भांति तुम भी त्यागी हो। राजा हरिश्चन्द्र की भांति अपना सर्वस्व दूसरों को देकर, भिखारियों को अमीर बनाकर, तुम आज भिखारी हो गए हो। जानते हो वह छल से खोया हुआ राज्य तुमको कैसे मिलेगा- तुम डोम के हाथों बिक चुके। अब तुम्हें रोहितास और शैव्या को त्यागना पड़ेगा। तभी देवता तुम्हारे ऊपर प्रसन्न होंगे। मेरा मन कह रहा है कि देवताओं में तुम्हारा राज्य दिलाने की बातचीत हो रही है। आज नहीं तो कल तुम्हारा राज्य तुम्हारे अधिकार में आ जाएगा। उस वक्त मुझे भूल न जाना। मैं तुम्हारे दरबार में अपना प्रार्थना-पत्र पेश किए जा रही हूं।'
सहसा पीछे से शोर मचा फिर पुलिस आ गई ।
'आने दो। उनका काम है अपराधिायों को पकड़ना। हम अपराधी हैं। गिरफ्तार न कर लिए गए, तो आज नगर में डाका मारेंगे, चोरी करेंगे, या कोई षडयंत्र रचेंगे। मैं कहती हूं, कोई संस्था जो जनता पर न्यायबल से नहीं, पशुबल से शासन करती है, वह लुटेरों की संस्था है। जो ग़रीबों का हक लूटकर खुद मालदार हो रहे हैं, दूसरों के अधिकार छीनकर अधिकारी बने हुए हैं, वास्तव में वही लुटेरे हैं। भाइयो, मैं तो जाती हूं, मगर मेरा प्रार्थना-पत्र आपके सामने है। इस लुटेरी म्युनिसिपैलिटी को ऐसा सबक दो कि फिर उसे ग़रीबों को कुचलने का साहस न हो। जो तुम्हें रौंदे, उसके पांव में कांटे बनकर चुभ जाओ। कल से ऐसी हड़ताल करो कि धनियों और अधिकारियों को तुम्हारी शक्ति का अनुभव हो जाय, उन्हें विदित हो जाय कि तुम्हारे सहयोग के बिना वे न धन को भोग सकते हैं, न अधिकार को। उन्हें दिखा दो कि तुम्हीं उनके हाथ हो, तुम्हीं उनके पांव हो, तुम्हारे बगैर वे अपंग हैं।'
वह टीले से नीचे उतरकर पुलिस-कर्मचारियों की ओर चलीं तो सारा जन-समूह, हृदय में उमड़कर आंखों में रूक जाने वाले आंसुओं की भांति, उनकी ओर ताकता रह गया। बाहर निकलकर मर्यादा का उल्लंघन कैसे करें- वीरों के आंसू बाहर निकलकर सूखते नहीं, वृक्षों के रस की भांति भीतर ही रहकर वृक्ष को पल्लवित और पुष्पित कर देते हैं। इतने बड़े समूह में एक कंठ से भी जयघोष नहीं निकला। क्रिया-शक्ति अंतर्मुखी हो गई थी मगर जब रेणुका मोटर में बैठ गईं और मोटर चली, तो श्रध्दा की वह लहर मर्यादाओं को तोड़कर एक पतली गहरी, वेगमयी धारा में निकल पड़ी।
एक बूढ़े आदमी ने डांटकर कहा-जय-जय बहुत कर चुके। अब घर जाकर आटा-दाल जमा कर लो। कल से लंबी हड़ताल करनी है।
दूसरे आदमी ने समर्थन किया-और क्या यह नहीं कि यहां तो गला फाड-फाड चिल्लाएं और सबेरा होते ही अपने-अपने काम पर चल दिए।
'अच्छा, यह कौन खड़ा हो गया?'
'वाह, इतना भी नहीं पहचानते- डॉक्टर साहब हैं।'
'डॉक्टर साहब भी आ गए- अब तो फ़तह है ।'
'कैसे-कैसे शरीफ़ आदमी हमारी तरफ से लड़ रहे हैं- पूछो, इन बेचारों को क्या लेना है, जो अपना सुख-चैन छोड़कर, अपने बराबरवालों से दुश्मनी मोल लेकर, जान हथेली पर लिए तैयार हैं।'
'हमारे ऊपर अल्लाह का रहम है। इन डॉक्टर साहब ने पिछले दिनों जब प्लेग का रोग फैला था, ग़रीबों की ऐसी खिदमत की कि वाह जिनके पास अपने भाई-बंद तक न खड़े होते थे, वहां बेधाड़क चले जाते थे और दवा-दारू, रुपया-पैसा, सब तरह की मदद तैयार हमारे हाफिजजी तो कहते थे, यह अल्लाह का फरिश्ता है।'
'सुनो, सुनो, बकवास करने को रात-भर पड़ी है।'
'भाइयो पिछली बार जब हड़ताल की थी, उसका क्या नतीजा हुआ- अगर वैसी ही हड़ताल हुई, तो उससे अपना ही नुकसान होगा। हममें से कुछ चुन लिए जाएंगे, बाकी आदमी मतभेद हो जाने के कारण आपस में लड़ते रहेंगे और असली उद्देश्य की किसी को सुधा न रहेगी। सरगनों के हटते ही पुरानी अदावतें निकाली जाने लगेंगी, गड़े मुरदे उखाड़े जाने लगेंगे न कोई संगठन रह जाएगा, न कोई ज़िम्मेदारी। सभी पर आतंक छा जाएगा, इसलिए अपने दिल को टटोलकर देख लो। अगर उसमें कच्चापन हो, तो हड़ताल का विचार दिल से निकाल डालो। ऐसी हड़ताल से दुर्गंध और गंदगी में मरते जाना कहीं अच्छा है। अगर तुम्हें विश्वास है कि तुम्हारा दिल भीतर से मज़बूत है उसमें हानि सहने की, भूखों मरने की, कष्ट झेलने की सामर्थ्य है, तो हड़ताल करो। प्रतिज्ञा कर लो कि जब तक हड़ताल रहेगी, तुम अदावतें भूल जाओगे नफे-नुकसान की परवाह न करोगे। तुमने कबड्डी तो खेली ही होगी। कबड्डी में अक्सर ऐसा होता है कि एक तरफ से सब गुइयां मर जाते हैं केवल एक खिलाड़ी रह जाता है मगर वह एक खिलाड़ी भी उसी तरह क़ानून-कायदे से खेलता चला जाता है। उसे अंत तक आशा बनी रहती है कि वह अपने मरे गुइयों को ज़िला लेगा और सब-के-सब फिर पूरी शक्ति से बाज़ी जीतने का उद्योग करेंगे। हरेक खिलाड़ी का एक ही उद्देश्य होता है-पाला जीतना। इसके सिवा उस समय उसके मन में कोई भाव नहीं होता। किस गुइयां ने उसे कब गाली दी थी, कब उसका कनकौआ फाड डाला था, या कब उसको घूंसा मारकर भागा था, इसकी उसे जरा भी याद नहीं आती। उसी तरह इस समय तुम्हें अपना मन बनाना पड़ेगा। मैं यह दावा नहीं करता कि तुम्हारी जीत ही होगी। जीत भी हो सकती है, हार भी हो सकती है। जीत या हार से हमें प्रयोजन नहीं। भूखा बालक भूख से विकल होकर रोता है। वह यह नहीं सोचता कि रोने से उसे भोजन मिल ही जाएगा। संभव है माँ के पास पैसे न हों, या उसका जी अच्छा न हो लेकिन बालक का स्वभाव है कि भूख लगने पर रोए इसी तरह हम भी रो रहे हैं। हम रोते-रोते थककर सो जाएंगे, या माता वात्सल्य से विवश होकर हमें भोजन दे देगी, यह कौन जानता है- हमारा किसी से बैर नहीं, हम तो समाज के सेवक हैं, हम बैर करना क्या जानें!'
उधर पुलिस कप्तान थानेदार को डांट रहा था-जल्द लारी मंगवाओ। तुम बोलता था, अब कोई आदमी नहीं है। अब यह कहां से निकल आया-
थानेदार ने मुंह लटकाकर कहा-हुज़ूर, यह डॉक्टर साहब तो आज पहली ही बार आए हैं। इनकी तरफ तो हमारा गुमान भी नहीं था। कहिए तो गिरफ्तार करके तांगे पर ले चलूं-
'तांगे पर सब आदमी तांगे को घेर लेगा हमें फायर करना पड़ेगा। जल्दी दौड़कर कोई टैक्सी लाओ।'
डॉक्टर शान्तिकुमार कह रहे थे :
'हमारा किसी से बैर नहीं है। जिस समाज में ग़रीबों के लिए स्थान नहीं, वह उस घर की तरह है जिसकी बुनियाद न हो कोई हल्का-सा धक्का भी उसे ज़मीन पर गिरा सकता है। मैं अपने धनवान् और विद्वान् और सामर्थ्यवान् भाइयों से पूछता हूं, क्या यही न्याय है कि एक भाई तो बंगले में रहे, दूसरे को झोंपड़े भी नसीब न हों- क्या तुम्हें अपने ही जैसे मनुष्यों को इस दुर्दशा में देखकर शर्म नहीं आती- तुम कहोगे, हमने बुद्धि-बल से धन कमाया है, क्यों न उसका भोग करें- इस बुद्धि का नाम स्वार्थ-बुद्धि है, और जब समाज का संचालन स्वार्थ-बुद्धि के हाथ में आ जाता है न्याय-बुद्धि गद़दी से उतार दी जाती है, तो समझ लो कि समाज में कोई विप्लव होने वाला है। गर्मी बढ़ जाती है, तो तुरंत ही आंधी आती है। मानवता हमेशा कुचली नहीं जा सकती। समता जीवन का तत्व है। यही एक दशा है, जो समाज को स्थिर रख सकती है। थोड़े-से धनवानों को हरगिज यह अधिकार नहीं है कि वे जनता की ईश्वरदत्ता वायु और प्रकाश का अपहरण करें। यह विशाल जनसमूह उसी अनधिकार, उसी अन्याय का रोषमय रूदन है। अगर धनवानों की आँखें अब भी नहीं खुलतीं, तो उन्हें पछताना पड़ेगा। यह जागृति का युग है। जागृति अन्याय को सहन नहीं कर सकती। जागे हुए आदमी के घर में चोर और डाकू की गति नहीं?'
इतने में टैक्सी आ गई। पुलिस कप्तान कई थानेदारों और कांस्टेबलों के साथ समूह की तरफ चला।
थानेदार ने पुकारकर कहा-डॉक्टर साहब, आपका भाषण तो समाप्त हो चुका होगा। अब चले आइए, हमें क्यों वहां आना पड़े-
शान्तिकुमार ने ईंट-मंच पर खड़े-खड़े कहा-मैं अपनी खुशी से तो गिरफ्तार होने न आऊंगा, आप जबरदस्ती गिरफ्तार कर सकते हैं। और फिर अपने भाषण का सिलसिला जारी कर दिया।
'हमारे धनवानों को किसका बल है- पुलिस का। हम पुलिस ही से पूछते हैं, अपने कांस्टेबल भाइयों से हमारा सवाल है, क्या तुम भी ग़रीब नहीं हो- क्या तुम और तुम्हारे बाल-बच्चे सड़े हुए, अंधेरे, दुर्गंधा और रोग से भरे हुए बिलों में नहीं रहते- लेकिन यह जमाने की खूबी है कि तुम अन्याय की रक्षा करने के लिए, अपने ही बाल-बच्चों का गला घोंटने के लिए तैयार खड़े हो?'
कप्तान ने भीड़ के अंदर जाकर शान्तिकुमार का हाथ पकड़ लिया और उन्हें साथ लिए हुए लौटा। सहसा नैना सामने से आकर खड़ी हो गई।
शान्तिकुमार ने चौंककर पूछा-तुम किधर से नैना- सेठजी और देवीजी तो चल दिए, अब मेरी बारी है।
नैना मुस्कराकर बोली-और आपके बाद मेरी।
'नहीं, कहीं ऐसा अनर्थ न करना। सब कुछ तुम्हारे ही ऊपर है।'
नैना ने कुछ जवाब न दिया। कप्तान डॉक्टर को लिए हुए आगे बढ़ गया। उधर सभा में शोर मचा हुआ था। अब उनका क्या कर्तव्य है, इसका निश्चय वह लोग न कर पाते थे। उनकी दशा पिघली हुई धातु की-सी थी। उसे जिस तरफ चाहे मोड़ सकते हैं। कोई भी चलता हुआ आदमी उनका नेता बनकर उन्हें जिस तरफ चाहे ले जा सकता था-सबसे ज्यादा आसानी के साथ शांतिभंग की ओर। चित्त की उस दशा में, जो इन ताबड़तोड़ गिरफतारियों से शांतिपथ-विमुख हो रहा था, बहुत संभव था कि वे पुलिस पर जाकर पत्थर फेंकने लगते, या बाज़ार लूटने पर आमादा हो जाते। उसी वक्त नैना उनके सामने जाकर खड़ी हो गई। वह अपनी बग्घी पर सैर करने निकली थी। रास्ते में उसने लाला समरकान्त और रेणुकादेवी के पकड़े जाने की खबर सुनी। उसने तुरंत कोचवान को इस मैदान की ओर चलने को कहा, और दौड़ी चली आ रही थी। अब तक उसने अपने पति और ससुर की मर्यादा का पालन किया था। अपनी ओर से कोई ऐसा काम न करना चाहती थी कि ससुराल वालों का दिल दुखे, या उनके असंतोष का कारण हो। लेकिन यह खबर पाकर वह संयत न रह सकी। मनीराम जामे से बाहर हो जाएंगे, लाला धानीराम छाती पीटने लगेंगे, उसे गम नहीं। कोई उसे रोक ले, तो वह कदाचित आत्म-हत्या कर बैठे। वह स्वभाव से ही लज्जाशील थी। घर के एकांत में बैठकर वह चाहे भूखों मर जाती, लेकिन बाहर निकलकर किसी से सवाल करना उसके लिए असाध्य था। रोज जलसे होते थे लेकिन उसे कभी कुछ भाषण करने का साहस नहीं हुआ। यह नहीं कि उसके पास विचारों का अभाव था, अथवा वह अपने विचारों को व्यक्त न कर सकती थी। नहीं, केवल इसलिए कि जनता के सामने खड़े होने में उसे संकोच होता था। या यों कहो कि भीतर की पुकार कभी इतनी प्रबल न हुई कि मोह और आलस्य के बंधनो को तोड़ देती। बाज ऐसे जानवर भी होते हैं, जिनमें एक विशेष आसन होता है। उन्हें आप मार डालिए। पर आगे क़दम न उठाएंगे। लेकिन उस मार्मिक स्थान पर उंगली रखते ही उनमें एक नया उत्साह, एक नया जीवन चमक उठता है। लाला समरकान्त की गिरफ्तारी ने नैना के हृदय में उसी मर्मस्थल को स्पर्श कर लिया। वह जीवन में पहली बार जनता के सामने खड़ी हुई, निशंक, निश्चल, एक नई प्रतिभा, एक नई प्रांजलता से आभासित। पूर्णिमा के रजत प्रकाश में ईंटों के टीले पर खड़ी जब उसने अपने कोमल किंतु गहरे कंठ-स्वर से जनता को संबोधित किया, तो जैसे सारी प्रकृति नि:स्तब्धा हो गई।
'सज्जनो, मैं लाला समरकान्त की बेटी और लाला धानीराम की बहू हूं। मेरा प्यारा भाई जेल में है, मेरी प्यारी भावज जेल में हैं, मेरा सोने-सा भतीजा जेल में है, मेरे पिताजी भी पहुंच गए।'
जनता की ओर से आवाज़ आई-रेणुकादेवी भी ।
'हां, रेणुकादेवी भी, जो मेरी माता के तुल्य थीं। लड़की के लिए वही मैका है, जहां उसके मां-बाप, भाई-भावज रहें। और लड़की को मैका जितना प्यारा होता है, उतनी ससुराल नहीं होती। सज्जनो, इस ज़मीन के कई टुकड़े मेरे ससुरजी ने ख़रीदे हैं। मुझे विश्वास है, मैं आग्रह करूं तो वह यहां अमीरों के बंगले न बनवाकर ग़रीबों के घर बनवा देंगे, लेकिन हमारा उद्देश्य यह नहीं है। हमारी लड़ाई इस बात पर है कि जिस नगर में आधो से ज्यादा आबादी गंदे बिलों में मर रही हो, उसे कोई अधिकार नहीं है कि महलों और बंगलों के लिए ज़मीन बेचे। आपने देखा था, यहां कई हरे-भरे गांव थे। म्युनिसिपैलिटी ने नगर निर्माण-संघ बनाया। गांव के किसानों की ज़मीन कौड़ियों के दाम छीन ली गई, और आज वही ज़मीन अशर्फियों के दाम बिक रही है इसलिए कि बड़े आदमियों के बंगले बनें। हम अपने नगर के विधाताओं से पूछते हैं, क्या अमीरों ही के जान होती है- ग़रीबों के जान नहीं होती- अमीरों ही को तंदुरूस्त रहना चाहिए- ग़रीबों को तंदुरूस्ती की ज़रूरत नहीं- अब जनता इस तरह मरने को तैयार नहीं है। अगर मरना ही है, तो इस मैदान में खुले आकाश के नीचे, चन्द्रमा के शीतल प्रकाश में मरना बिलों में मरने से कहीं अच्छा है लेकिन पहले हमें नगर-विधाताओं से एक बार और पूछ लेना है कि वह अब भी हमारा निवेदन स्वीकार करेंगे, या नहीं- अब भी सिध्दांत को मानेंगे, या नहीं- अगर उन्हें घमंड हो कि वे हथियार के ज़ोर से ग़रीबों को कुचलकर उनकी आवाज़ बंद कर सकते हैं, तो यह उनकी भूल है। ग़रीबों का रक्त जहां गिरता है, वहां हरेक बूंद की जगह एक-एक आदमी उत्पन्न हो जाता है। अगर इस वक्त नगर-विधाताओं ने ग़रीबों की आवाज़ सुन ली तो उन्हें संत का यश मिलेगा, क्योंकि ग़रीब बहुत दिनों तक ग़रीब नहीं रहेंगे और वह जमाना दूर नहीं, जब ग़रीबों के हाथ में शक्ति होगी। विप्लव के जंतु को छेड़-छेड़कर न जगाओ। उसे जितना ही छेड़ोगे, उतना ही झल्लाएगा और वह उठकर जम्हाई लेगा और ज़ोर से दहाड़ेगा, तो फिर तुम्हें भागने की राह न मिलेगी। हमें बोर्ड के मेंबरों को यही चेतावनी देनी है। इस वक्त बहुत ही अच्छा अवसर है। सभी भाई म्युनिसिपैलिटी के दफ़्तर चलें। अब देर न करें, मेंबर अपने-अपने घर चले जाएंगे। हड़ताल में उपद्रव का भय है, इसलिए हड़ताल उसी हालत में करनी चाहिए, जब और किसी तरह काम न निकल सके।'
नैना ने झंडा उठा लिया और म्युनिसिपैलिटी के दफ़्तर की ओर चली। उसके पीछे बीस-पच्चीस हज़ार आदमियों का एक सफर-सा उमड़ा हुआ चला और यह दल मेलों की भीड़ की तरह अऋंखलाल नहीं, फ़ौज की कतारों की तरह ऋंखलाब' था। आठ-आठ आदमियों की असंख्य पंक्तियां गंभीर भाव से एक विचार, एक उद्देश्य, एक धारणा की आंतरिक शक्ति का अनुभव करती हुई चली जा रही थीं, और उनका तांता न टूटता था, मानो भूगर्भ से निकलती चली आती हों। सड़क के दोनों ओर छज्जों और छतों पर दर्शकों की भीड़ लगी हुई थी। सभी चकित थे। उगर्िाेह कितने आदमी हैं। अभी चले ही आ रहे हैं।
तब नैना ने यह गीत शुरू कर दिया, जो इस समय बच्चे-बच्चे की जबान पर था-
हम भी मानव तनधारी हैं...'
कई हज़ार गलों का संयुक्त, सजीव और व्यापक स्वर गफन में गूंज उठा-
हम भी मानव तनधारी हैं ।'
नैना ने उस पद की पूर्ति की-
क्यों हमको नीच समझते हो-'
कई हज़ार गलों ने साथ दिया-
क्यों हमको नीच समझते हो-'
नैना-क्यों अपने सच्चे दासों पर-
जनता-क्यों अपने सच्चे दासों पर-
नैना-इतना अन्याय बरतते हो ।
जनता-इतना अन्याय बरतते हो ।
उधर म्युनिसिपैलिटी बोर्ड में यही प्रश्न छिड़ा हुआ था।
हाफिज हलीम ने टेलीफौन का चोगा मेज पर रखते हुए कहा-डॉक्टर शान्तिकुमार भी गिरफ्तार हो गए।
मि. सेन ने निर्दयता से कहा-अब इस आंदोलन की जड़ कट गई। डॉक्टर साहब उसके प्राण थे।
पृं ओंकारनाथ ने चुटकी ली-उस ब्लाक पर अब बंगले न बनेंगे। शगुन कह रहे हैं।
सेन बाबू भी अपने लड़के के नाम से उस ब्लाक के एक भाग के ख़रीददार थे। जल उठे-अगर बोर्ड में अपने पास किए हुए प्रस्तावों पर स्थिर रहने की शक्ति नहीं है, तो उसे इस्तीफा देकर अलग हो जाना चाहिए।
मि. शफीक ने, जो यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और डॉ. शान्तिकुमार के मित्र थे, सेन को आड़े हाथों लिया-बोर्ड के फैसले खुदा के फैसले नहीं हैं। उस वक्त बेशक बोर्ड ने उस ब्लाक को छोटे-छोटे प्लाटों में नीलाम करने का फैसला किया था, लेकिन उसका नतीजा क्या हुआ- आप लोगों ने वहां जितना इमारती सामान जमा किया, उसका कहीं पता नहीं है। हज़ार आदमी से ज्यादा रोज रात को वहीं सोते हैं। मुझे यकीन है कि वहां काम करने के लिए मज़दूर भी राजी न होगा। मैं बोर्ड को खबरदार किए देता हूं कि अगर अपनी पालिसी बदल न दी, तो शहर पर बहुत बड़ी आफत आ जाएगी। सेठ समरकान्त और शान्तिकुमार का शरीक होना बतला रहा है कि यह तहरीक बच्चों का खेल नहीं है। उसकी जड़ बहुत गहरी पहुंच गई है और उसे उखाड़ फेंकना अब क़रीब-क़रीब गैरमुमकिन है। बोर्ड को अपना फैसला रप्र करना पड़ेगा। चाहे अभी करे या सौ-पचास जनों की नजर लेकर करे। अब तक का तरजबा तो यही कह रहा है कि बोर्ड की सख्तियों का बिलकुल असर नहीं हुआ बल्कि उल्टा ही असर हुआ। अब जो हड़ताल होगी, वह इतनी खौफनाक होगी कि उसके खयाल से रोंगटे खड़े होते हैं। बोर्ड अपने सिर पर बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी ले रहा है।
मि. हामिदअली कपड़े की मिल के मैनेजर थे। उनकी मिल घाटे पर चल रही थी। डरते थे, कहीं लंबी हड़ताल हो गई, तो बधिया ही बैठ जाएगी। थे तो बेहद मोटे मगर बेहद मेहनती। बोले-हक को तस्लीम करने में बोर्ड को क्यों इतना पसोपेश हो रहा है, यह मेरी समझ में नहीं आता। शायद इसलिए कि उसके गईर को झुकना पड़ेगा। लेकिन हक के सामने झुकना कमज़ोरी नहीं, मज़बूती है। अगर आज इसी मसले पर बोर्ड का नया इंतखाब हो, तो मैं दावे से कह सकता हूं कि बोर्ड का यह रिजोल्यूशन हर्गे ग़लत की तरह मिट जाएगा। बीस-पचीस हज़ार ग़रीब आदमियों की बेहतरी और भलाई के लिए अगर बोर्ड को दस-बारह लाख का नुकसान उठाना और दस-पांच मेंबरों की दिलशिकनी करनी पड़े तो उसे...
फिर टेलीफौन की घंटी बजी। हाफिज हलीम ने कान लगाकर सुना और बोले-पच्चीस हज़ार आदमियों की फ़ौज हमारे ऊपर धावा करने आ रही है। लाला समरकान्त की साहबजादी और सेठ धानीराम साहब की बहू उसकी लीडर हैं। डी. एस. पी. ने हमारी राय पूछी है, और यह भी कहा है कि फायर किए बगैर जुलूस पीछे हटने वाला नहीं। मैं इस मुआमले में बोर्ड की राय जानना चाहता हूं। बेहतर है कि वोट ले लिए जायं, जाब्ते की पाबंदियों का मौक़ा नहीं है, आप लोग हाथ उठाएं-गॉर-
बारह हाथ उठे।
'अगेंस्ट?'
दस हाथ उठे। लाला धानीराम निउट'ल रहे।
'तो बोर्ड की राय है कि जुलूस को रोका जाय, चाहे फायर करना पड़े?'
सेन बोले-क्या अब भी कोई शक है-
फिर टेलीफौन की घंटी बजी। हाफिजजी ने कान लगाया। डी. एस. पी. कह रहा था- बड़ा गजब हो गया। अभी लाला मनीराम ने अपनी बीवी को गोली मार दी।
हाफिजजी ने पूछा-क्या बात हुई-
'अभी कुछ मालूम नहीं। शायद मिस्टर मनीराम गुस्से में भरे हुए जुलूस के सामने आए और अपनी बीवी को वहां से हट जाने को कहा। लेडी ने इंकार किया। इस पर कुछ कहा-सुनी हुई। मिस्टर मनीराम के हाथ में पिस्तौल थी। फौरन शूट कर दिया। अगर वह भाग न जायं, तो धाज्जियां उड़ जायं। जुलूस अपने लीडर की लाश उठाए फिर म्युनिसिपल बोर्ड की तरफ जा रहा है।'
हाफिजजी ने मेंबरों को यह खबर सुनाई, तो सारे बोर्ड में सनसनी दौड़ गई। मानो किसी जादू से सारी सभा पाषाण हो गई हो।
सहसा लाला धानीराम खड़े होकर भर्राई हुई आवाज़ में बोले-सज्जनो, जिस भवन को एक-एक कंकड़ जोड़-जोड़कर पचास साल से बना रहा था, वह आज एक क्षण में ढह गया, ऐसा ढह गया है कि उसकी नींव का पता नहीं। अच्छे-से-अच्छे मसाले दिए, अच्छे-से-अच्छे कारीगर लगाए, अच्छे-से-अच्छे नक्शे बनवाए, भवन तैयार हो गया था, केवल कलश बाकी था। उसी वक्त एक तूफान आता है और उस विशाल भवन को इस तरह उड़ा ले जाता है, मानो ठ्ठस का ढेर हो। मालूम हुआ कि वह भवन केवल मेरे जीवन का एक स्वप्न था। सुनहरा स्वप्न कहिए, चाहे काला स्वप्न कहिए पर था स्वप्न ही। वह स्वप्न भंग हो गया-भंग हो गया।
यह कहते हुए वह द्वार की ओर चले।
हाफिज हलीम ने शोक के साथ कहा-सेठजी, मुझे और मैं उम्मीद करता हूं कि बोर्ड को आपसे कमाल की हमदर्दी है।
सेठजी ने पीछे फिरकर कहा-अगर बोर्ड को मेरे साथ हमदर्दी है, तो इसी वक्त मुझे यह अख्तियार दीजिए कि जाकर लोगों से कह दूं, बोर्ड ने तुम्हें वह ज़मीन दे दी, वरना यह आग कितने ही घरों को भस्म कर देगी, कितनों ही के स्वप्नों को भंग कर देगी।
बोर्ड के कई मेंबर बोले-चलिए, हम लोग भी आपके साथ चलते हैं।
बोर्ड के बीस सभासद उठ खड़े हुए। सेन ने देखा कि यहां कुल चार आदमी रहे जाते हैं तो वह भी उठ पड़े, और उनके साथ उनके तीनों मित्र भी उठे। अंत में हाफिज हलीम का नंबर आया।
जुलूस उधर से नैना की अर्थी लिए चला आ रहा है। एक शहर में इतने आदमी कहां से आ गए- मीलों लंबी घनी कतार है शांत, गंभीर, संगठित जो मर मिटना चाहती है। नैना के बलिदान ने उन्हें अजेय, अभे? बना दिया है।
उसी वक्त बोर्ड के पचीसों मेंबरों ने सामने आकर अर्थी पर फूल बरसाए और हाफिज सलीम ने आगे बढ़कर, ऊंचे स्वर में कहा-भाइयो आप म्युनिसिपैलिटी के मेंबरों के पास जा रहे हैं, मेंबर खुद आपका इस्तिकबाल करने आए हैं। बोर्ड ने आज इत्तिफाक राय से पूरा प्लाट आप लोगों को देना मंजूर कर लिया। मैं इस पर बोर्ड को मुबारकबाद देता हूं, और आपको भी। आज बोर्ड ने तस्लीम कर लिया कि ग़रीब की सेहत, आराम और ज़रूरत को वह अमीरों के शौक, तकल्लुफ और हविस से ज्यादा लिहाज़ के काबिल समझता है। उसने तस्लीम कर लिया कि ग़रीबों का उस पर उससे कहीं ज्यादा हक है, जितना अमीरों का । हमने तस्लीम कर लिया कि बोर्ड रुपये की निस्बत रिआया की जान की ज्यादा कद्र करती है। उसने तस्लीम कर लिया कि शहर की जीनत बड़ी-बड़ी कोंठियों और बंगलों से नहीं, छोटे-छोटे आरामदेह मकानों से है, जिनमें मज़दूर और थोड़ी आमदनी के लोग रह सकें। मैं खुद उन आदमियों में हूं जो इस वसूल की तस्लीम न करते थे। बोर्ड का बड़ा हिस्सा मेरे ही खयाल के आदमियों का था लेकिन आपकी कुरबानियों ने और आपके लीडरों की जांबाजियों ने बोर्ड पर फ़तह पाई और आज मैं उस फ़तह पर आपको मुबारकबाद देता हूं, और इस फ़तह का सेहरा उस देवी के सिर है, जिसका जनाजा आपके कंधो पर है। लाला समरकान्त मेरे पुराने रफीक हैं। उनका सपूत बेटा मेरे लड़के का दिली दोस्त है। अमरकान्त जैसा शरीफ़ नौजवान मेरी नजर से नहीं गुजरा। उसी की सोहबत का असर है कि आज मेरा लड़का सिविल सर्विस छोड़कर जेल में बैठा हुआ है। नैनादेवी के दिल में जो कशमकश हो रही थी, उसका अंदाजा हम और आप नहीं कर सकते। एक तरफ बाप और भाई और भावज जेल में कैद, दूसरी तरफ शौहर और ससुर मिलकियत और जायदाद की धुन में मस्त। लाला धानीराम मुझे मुआफ करेंगे। मैं उन पर फिकरा नहीं कसता। जिस हालत में वह गिरफ्तार थे, उसी हालत में हम, आप और सारी दुनिया गिरफ्तार है। उनके दिल पर इस वक्त एक ऐसे गम की चोट है, जिससे ज्यादा दिलशिकन कोई सदमा नहीं हो सकता। हमको, और मैं यकीन करता हूं, आपको भी उनसे कमाल की हमदर्दी है। हम सब उनके गम में शरीक हैं। नैनादेवी के दिल में मैका और ससुराल की यह लड़ाई शायद इस तहरीक के शुरू होते ही शुरू हुई और आज उसका यह हसरतनाक अंजाम हुआ। मुझे यकीन है कि उनकी इस पाक कुरबानी की यादगार हमारे शहर में उस वक्त तक क़ायम रहेगी, जब तक इसका वजूद क़ायम रहेगा मैं बुतपरस्त नहीं हूं, लेकिन सबसे पहले मैं तजवीज करूंगा कि उस प्लाट पर जो मोहल्ला आबाद हो, उसके बीचों-बीच इस देवी की यादगार नस्ब की जाय, ताकि आने वाली नसलें उसकी शानदार कुरबानी की याद ताजा करती रहें-
दोस्तो, मैं इस वक्त आपके सामने कोई तकरीर नहीं करता हूं। यह न तकरीर करने का मौक़ा है, न सुनने का। रोशनी के साथ तारीकी है, जीत के साथ हार, और खुशी के साथ गम। तारीकी और रोशनी का मेल सुहानी सुबह होती है, और जीत और हार का मेल सुलह। यह खुशी और गम का मेल एक नए दौर की आवाज़ है और खुदा से हमारी दुआ है कि यह दौर हमेशा क़ायम रहे, हममें ऐसे ही हक पर जान देने वाली पाक ईहें पैदा होती रहें क्योंकि दुनिया ऐसी ही ईहों की हस्ती से क़ायम है। आपसे हमारी गुजारिश है कि इस जीत के बाद हारने वालों के साथ वही बर्ताव कीजिए, जो बहादुर दुश्मन के साथ किया जाना चाहिए। हमारी इस पाक सरजमीन में हारे हुए दुश्मनों को दोस्त समझा जाता था। लड़ाई खत्म होते ही हम रंजिश और गुस्से को दिल से निकाल डालते थे और दिल खोलकर दुश्मन से गले मिल जाते थे। आइए, हम और आप गले मिलकर उस देवी की देह को खुश करें, जो हमारी सच्ची रहनुमा, तारीकी में सुबह का पैग़ाम लाने वाली सुद्वी थी। खुदा हमें तौफीक दे कि इस सच्चे शहीद से हम हकपरस्ती और खिदमत का सबक हासिल करें।
हाफिजजी के चुप होते ही 'नैनादेवी की जय' की ऐसी श्रध्दा में डूबी हुई ध्वनि उठी कि आकाश तक हिल उठा। फिर हाफिज हलीम की भी जय-जयकार हुई और जुलूस गंगा की तरफ रवाना हो गया। बोर्ड के सभी मेंबर जुलूस के साथ थे। सिर्फ हाफिज म्युनिसिपैलिटी के दफ़्तर में जा बैठे और पुलिस के अधिकारियों से कैदियों की रिहाई के लिए परामर्श करने लगे।
जिस संग्राम को छ: महीने पहले एक देवी ने आरंभ किया था, उसे आज एक दूसरी देवी ने अपने प्राणों की बलि देकर अंत कर दिया।