"तुलसीदास": अवतरणों में अंतर

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[[हिन्दी]] साहित्य के आकाश के परम नक्षत्र गोस्वामी तुलसीदास (जन्म- 1532 ई. - मृत्यु- 1623 ई.) [[भक्तिकाल]] की सगुण धारा की रामभक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि है। तुलसीदास एक साथ कवि, भक्त तथा समाज सुधारक इन तीनो रूपों में मान्य है। अपने विश्वविख्यात ग्रंथ [[रामचरितमानस]] के महाकवि के रूप में प्रख्यात महात्मा तुलसीदास का जन्म निर्धन [[ब्राह्मण]] कुल में हुआ था।
'''गोस्वामी तुलसीदास''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Goswami Tulsidas'', जन्म- 1532 ई. - मृत्यु- 1623 ई.) [[हिन्दी साहित्य]] के आकाश के परम नक्षत्र, [[भक्तिकाल]] की सगुण धारा की रामभक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि थे। तुलसीदास एक साथ [[कवि]], [[भक्त]] तथा समाज सुधारक तीनों रूपों में मान्य है। [[श्रीराम]] को समर्पित ग्रन्थ '[[रामचरितमानस|श्रीरामचरितमानस]]' '[[वाल्मीकि रामायण]]' का प्रकारान्तर से ऐसा अवधी भाषान्तर है, जिसमें अन्य भी कई कृतियों से महत्वपूर्ण सामग्री समाहित की गयी थी। श्रीरामचरितमानस को समस्त [[उत्तर भारत]] में बड़े भक्तिभाव से पढ़ा जाता है। इसके बाद [[विनय पत्रिका]] तुलसीदासकृत एक अन्य महत्वपूर्ण [[काव्य]] है।
==जीवन परिचय==
==जीवन परिचय==
====जन्म और बचपन====
तुलसीदासजी का जन्म [[संवत]] 1589 को [[उत्तर प्रदेश]] (वर्तमान [[बाँदा ज़िला]]) के राजापुर नामक [[गाँव]] में हुआ था। इनके [[पिता]] का नाम आत्माराम दुबे तथा [[माता]] का नाम हुलसी था। इनका [[विवाह]] दीनबंधु पाठक की पुत्री रत्नावली से हुआ था। अपनी पत्नी रत्नावली से अत्याधिक प्रेम के कारण तुलसी को रत्नावली की फटकार "लाज न आई आपको दौरे आएहु नाथ" सुननी पड़ी, जिससे इनका जीवन ही परिवर्तित हो गया। पत्नी के उपदेश से तुलसी के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया। इनके गुरु बाबा नरहरिदास थे, जिन्होंने इन्हें दीक्षा दी। इनका अधिकाँश जीवन [[चित्रकूट]], [[काशी]] तथा [[अयोध्या]] में बीता।<ref name="sk">{{cite web |url=http://www.hindikunj.com/2009/05/blog-post_29.html |title=गोस्वामी तुलसीदास : एक परिचय |accessmonthday=31 मई |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=हिन्दी कुंज  |language=[[हिन्दी]]}}</ref> [[चित्र:Tulsidas-2.jpg|thumb|left|तुलसीदास]] तुलसी का बचपन बड़े कष्टों में बीता। माता-पिता दोनों चल बसे और इन्हें भीख मांगकर अपना पेट पालना पड़ा था। इसी बीच इनका परिचय राम-भक्त साधुओं से हुआ और इन्हें ज्ञानार्जन का अनुपम अवसर मिल गया। पत्नी के व्यंग्यबाणों से विरक्त होने की लोकप्रचलित कथा को कोई प्रमाण नहीं मिलता। तुलसी भ्रमण करते रहे और इस प्रकार समाज की तत्कालीन स्थिति से इनका सीधा संपर्क हुआ। इसी दीर्घकालीन अनुभव और अध्ययन का परिणाम तुलसी की अमूल्य कृतियां हैं, जो उस समय के भारतीय समाज के लिए तो उन्नायक सिद्ध हुई ही, आज भी जीवन को मर्यादित करने के लिए उतनी ही उपयोगी हैं। तुलसीदास द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या 39 बताई जाती है। इनमें [[रामचरित मानस]], [[कवितावली]], [[विनयपत्रिका]], [[दोहावली]], [[गीतावली]], [[जानकीमंगल]], [[हनुमान चालीसा]], [[बरवै रामायण]] आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
तुलसीदासजी का जन्म संवत 1589 को [[उत्तर प्रदेश]] (वर्तमान बाँदा ज़िला) के राजापुर नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम आत्माराम दुबे तथा माता का नाम हुलसी था। इनका विवाह दीनबंधु पाठक की पुत्री रत्नावली से हुआ था। अपनी पत्नी रत्नावली से अत्याधिक प्रेम के कारण तुलसी को रत्नावली की फटकार " लाज न आई आपको दौरे आएहु नाथ" सुननी पड़ी जिससे इनका जीवन ही परिवर्तित हो गया । पत्नी के उपदेश से तुलसी के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया। इनके गुरु बाबा नरहरिदास थे, जिन्होंने इन्हे दीक्षा दी। इनका अधिकाँश जीवन [[चित्रकूट]], [[काशी]] तथा [[अयोध्या]] में बीता।<ref name="sk">{{cite web |url=http://www.hindikunj.com/2009/05/blog-post_29.html |title=गोस्वामी तुलसीदास : एक परिचय |accessmonthday=31 मई |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=हिन्दी कुंज  |language=[[हिन्दी]]}}</ref> तुलसी का बचपन बड़े कष्टों में बीता। माता-पिता दोनों चल बसे और इन्हें भीख मांगकर अपना पेट पालना पड़ा था। इसी बीच इनका परिचय राम-भक्त साधुओं से हुआ और इन्हें ज्ञानार्जन का अनुपम अवसर मिल गया। पत्नी के व्यंग्यबाणों से विरक्त होने की लोकप्रचलित कथा को कोई प्रमाण नहीं मिलता। तुलसी भ्रमण करते रहे और इस प्रकार समाज की तत्कालीन स्थिति से इनका सीधा संपर्क हुआ। इसी दीर्घकालीन अनुभव और अध्ययन का परिणाम तुलसी की अमूल्य कृतियां हैं, जो उस समय के भारतीय समाज के लिए तो उन्नायक सिद्ध हुई ही, आज भी जीवन को मर्यादित करने के लिए उतनी ही उपयोगी हैं। तुलसीदास द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या 39 बताई जाती है। इनमें [[रामचरित मानस]], [[कवितावली]], [[विनयपत्रिका]], [[दोहावली]], [[गीतावली]], [[जानकीमंगल]], [[हनुमान चालीसा]], [[बरवै रामायण]] आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
 
====शिष्य परम्परा====
====शिष्य परम्परा====
गोस्वामीजी श्रीसम्प्रदाय के आचार्य [[रामानंद‎|रामानन्द]] की शिष्यपरम्परा में थे। इन्होंने समय को देखते हुए लोकभाषा में 'रामायण' लिखा। इसमें ब्याज से वर्णाश्रमधर्म, अवतारवाद, साकार उपासना, सगुणवाद, गो-ब्राह्मण रक्षा, देवादि विविध योनियों का यथोचित सम्मान एवं प्राचीन संस्कृति और [[वेद|वेदमार्ग]] का मण्डन और साथ ही उस समय के विधर्मी अत्याचारों और सामाजिक दोषों की एवं पन्थवाद की आलोचना की गयी है।  गोस्वामीजी पन्थ वा सम्प्रदाय चलाने के विरोधी थे। उन्होंने व्याज से भ्रातृप्रेम, स्वराज्य के विद्धान्त , रामराज्य का आदर्श, अत्याचारों से बचने और शत्रु पर विजयी होने के उपाय; सभी राजनीतिक बातें खुले शब्दों में उस कड़ी जासूसी के जमाने में भी बतलायीं, परन्तु उन्हें राज्याश्रय प्राप्त न था। लोगों ने उनको समझा नहीं। रामचरितमानस का राजनीतिक उद्देश्य सिद्ध नहीं हो पाया। इसीलिए उन्होंने झुँझलाकर कहा:
गोस्वामीजी श्रीसम्प्रदाय के आचार्य [[रामानंद‎|रामानन्द]] की शिष्यपरम्परा में थे। इन्होंने समय को देखते हुए लोकभाषा में 'रामायण' लिखा। इसमें ब्याज से वर्णाश्रमधर्म, [[अवतारवाद]], साकार उपासना, सगुणवाद, गो-ब्राह्मण रक्षा, देवादि विविध योनियों का यथोचित सम्मान एवं प्राचीन संस्कृति और [[वेद|वेदमार्ग]] का मण्डन और साथ ही उस समय के विधर्मी अत्याचारों और सामाजिक दोषों की एवं पन्थवाद की आलोचना की गयी है।  गोस्वामीजी पन्थ सम्प्रदाय चलाने के विरोधी थे। उन्होंने व्याज से भ्रातृप्रेम, स्वराज्य के सिद्धान्त , रामराज्य का आदर्श, अत्याचारों से बचने और शत्रु पर विजयी होने के उपाय; सभी राजनीतिक बातें खुले शब्दों में उस कड़ी जासूसी के जमाने में भी बतलायीं, परन्तु उन्हें राज्याश्रय प्राप्त न था। लोगों ने उनको समझा नहीं। रामचरितमानस का राजनीतिक उद्देश्य सिद्ध नहीं हो पाया। इसीलिए उन्होंने झुँझलाकर कहा:
 
[[चित्र:Tulsidas-1.jpg|thumb|left|गोस्वामी तुलसीदास]]
<poem>"रामायण अनुहरत सिख, जग भई [[भारत]] रीति।
<poem>"रामायण अनुहरत सिख, जग भई भारत रीति।
तुलसी काठहि को सुनै, कलि कुचालि पर प्रीति।"</poem>
तुलसी काठहि को सुनै, कलि कुचालि पर प्रीति।"</poem>
 
====आदर्श सन्त कवि====
उनकी यह अद्भुत पोथी इतनी लोकप्रिय है कि मूर्ख से लेकर महापण्डित तक के हाथों में आदर से स्थान पाती है। उस समय की सारी शंक्काओं का रामचरितमानस में उत्तर है। अकेले इस ग्रन्थ को लेकर यदि गोस्वामी तुलसीदास चाहते तो अपना अत्यन्त विशाल और शक्तिशाली सम्प्रदाय चला सकते थे।  यह एक सौभाग्य की बात है कि आज यही एक ग्रन्थ है, जो साम्प्रदायिकता की सीमाओं को लाँघकर सारे देश में व्यापक और सभी मत-मतान्तरों को पूर्णतया मान्य है। सबको एक सूत्र में ग्रथित करने का जो काम पहले शंकराचार्य स्वामी ने किया, वही अपने युग में और उसके पीछे आज भी गोस्वामी तुलसीदास ने किया। रामचरितमानस की कथा का आरम्भ ही उन शंकाओं से होता है जो [[कबीर|कबीरदास]] की साखी पर पुराने विचार वालों के मन में उठती हैं।
उनकी यह अद्भुत पोथी इतनी लोकप्रिय है कि मूर्ख से लेकर महापण्डित तक के हाथों में आदर से स्थान पाती है। उस समय की सारी शंक्काओं का [[रामचरितमानस]] में उत्तर है। अकेले इस ग्रन्थ को लेकर यदि गोस्वामी तुलसीदास चाहते तो अपना अत्यन्त विशाल और शक्तिशाली सम्प्रदाय चला सकते थे।  यह एक सौभाग्य की बात है कि आज यही एक ग्रन्थ है, जो साम्प्रदायिकता की सीमाओं को लाँघकर सारे देश में व्यापक और सभी मत-मतान्तरों को पूर्णतया मान्य है। सबको एक सूत्र में ग्रंथित करने का जो काम पहले [[शंकराचार्य]] स्वामी ने किया, वही अपने [[युग]] में और उसके पीछे आज भी गोस्वामी तुलसीदास ने किया। रामचरितमानस की कथा का आरम्भ ही उन शंकाओं से होता है जो [[कबीर|कबीरदास]] की [[साखी]] पर पुराने विचार वालों के मन में उठती हैं। तुलसीदासजी स्वामी रामानन्द की शिष्यपरम्परा में थे, जो [[रामानुजाचार्य]] के विशिष्टद्वैत सम्प्रदाय के अन्तर्भुक्त है। परन्तु गोस्वामीजी की प्रवृत्ति साम्प्रदायिक न थी। उनके ग्रन्थों में [[अद्वैत]] और विशिष्टाद्वैत का सुन्दर समन्वय पाया जाता है। इसी प्रकार [[वैष्णव]], [[शैव मत|शैव]], [[शाक्त]] आदि साम्प्रदायिक भावनाओं और पूजापद्धतियों का समन्वय भी उनकी रचनाओं में पाया जाता है। वे आदर्श समुच्चयवादी सन्त कवि थे।   
जैसा पहले लिखा जा चुका है, गोस्वामीजी स्वामी रामानन्द की शिष्यपरम्परा में थे, जो [[रामानुजाचार्य]] के विशिष्टद्वैत सम्प्रदाय के अन्तर्भुक्त है। परन्तु गोस्वामीजी की प्रवृत्ति साम्प्रदायिक न थी। उनके ग्रन्थों में अद्वैत और विशिष्टाद्वैत का सुन्दर समन्वय पाया जाता है। इसी प्रकार [[वैष्णव]], [[शैव मत|शैव]], शाक्त आदि साम्प्रदायिक भावनाओं और पूजापद्धतियों का समन्वय भी उनकी रचनाओं में पाया जाता है। वे आदर्श समुच्चयवादी सन्त कवि थे।  उनके ग्रन्थों में रामचरितमानस, विनयपत्रिका, कवितावली, गीतावली, दोहावली आदि अधिक प्रसिद्ध है।   
====प्रखर बुद्धि के स्वामी====
====प्रखर बुद्धि के स्वामी====
भगवान [[शंकर|शंकरजी]] की प्रेरणा से रामशैल पर रहने वाले श्री अनन्तानन्द जी के प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्द जी (नरहरि बाबा) ने इस बालक को ढूँढ़ निकाला और उसका नाम रामबोला रखा। उसे वे [[अयोध्या]] ( [[उत्तर प्रदेश]] प्रान्त का एक ज़िला है।) ले गये और वहाँ संवत्‌ 1561 माघ शुक्ल पंचमी शुक्रवार को उसका यज्ञोपवीत-संस्कार कराया । बिना सिखाये ही बालक रामबोला ने [[गायत्री|गायत्री-मन्त्र]] का उच्चारण किया, जिसे देखकर सब लोग चकित हो गये । इसके बाद नरहरि स्वामी ने वैष्णवों के पाँच संस्कार करके रामबोला को राममन्त्र की दीक्षा दी और अयोध्या ही में रहकर उन्हें विद्याध्ययन कराने लगे। बालक रामबोला की बुद्धि बड़ी प्रखर थी । एक बार गुरुमुख से जो सुन लेते थे, उन्हें वह कंठस्थ हो जाता था । वहाँ से कुछ दिन बाद गुरु-शिष्य दोनों [[शूकरक्षेत्र उत्तर प्रदेश|शूकरक्षेत्र]] ([[सोरों]]) पहुँचे। वहाँ श्री नरहरि जी ने तुलसीदास को रामचरित सुनाया। कुछ दिन बाद वह [[काशी]] चले आये । काशी में शेषसनातन जी के पास रहकर तुलसीदास ने पन्द्रह वर्ष तक [[वेद]]-[[वेदांग]] का अध्ययन किया । इधर उनकी लोकवासना कुछ जाग्रत्‌ हो उठी और अपने विद्यागुरु से आज्ञा लेकर वे अपनी जन्मभूमि को लौट आये । वहाँ आकर उन्होंने देखा कि उनका परिवार सब नष्ट हो चुका है । उन्होंने विधिपूर्वक अपने पिता आदि का श्राद्ध् किया और वहीं रहकर लोगों को भगवान राम की कथा सुनाने लगे ।
[[चित्र:Tulsidas-Ramacharitamanasa.jpg|thumb|[[रामचरितमानस]]]]
====तुलसीदास से ईर्ष्या ====
भगवान [[शंकर|शंकरजी]] की प्रेरणा से रामशैल पर रहने वाले श्री अनन्तानन्द जी के प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्द जी (नरहरि बाबा) ने इस बालक को ढूँढ़ निकाला और उसका नाम रामबोला रखा। उसे वे [[अयोध्या]] ले गये और वहाँ संवत्‌ 1561 [[माघ]] [[शुक्ल पक्ष|शुक्ल]] [[पंचमी]] [[शुक्रवार]] को उसका यज्ञोपवीत-संस्कार कराया। बिना सिखाये ही बालक रामबोला ने [[गायत्री|गायत्री-मन्त्र]] का उच्चारण किया, जिसे देखकर सब लोग चकित हो गये। इसके बाद नरहरि स्वामी ने वैष्णवों के पाँच संस्कार करके रामबोला को राममन्त्र की दीक्षा दी और अयोध्या ही में रहकर उन्हें विद्याध्ययन कराने लगे। बालक रामबोला की बुद्धि बड़ी प्रखर थी। एक बार गुरुमुख से जो सुन लेते थे, उन्हें वह कंठस्थ हो जाता था। वहाँ से कुछ दिन बाद गुरु-शिष्य दोनों [[शूकरक्षेत्र उत्तर प्रदेश|शूकरक्षेत्र]] ([[सोरों]]) पहुँचे। वहाँ श्री नरहरि जी ने तुलसीदास को रामचरित सुनाया। कुछ दिन बाद वह [[काशी]] चले आये। काशी में शेषसनातन जी के पास रहकर तुलसीदास ने पन्द्रह वर्ष तक [[वेद]]-[[वेदांग]] का अध्ययन किया। इधर उनकी लोकवासना कुछ जाग्रत्‌ हो उठी और अपने विद्यागुरु से आज्ञा लेकर वे अपनी जन्मभूमि को लौट आये। वहाँ आकर उन्होंने देखा कि उनका परिवार सब नष्ट हो चुका है। उन्होंने विधिपूर्वक अपने पिता आदि का [[श्राद्ध]] किया और वहीं रहकर लोगों को भगवान राम की कथा सुनाने लगे।
इधर पण्डितों ने जब यह बात सुनी तो उनके मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई । वे दल बाँधकर तुलसीदास जी की निन्दा करने लगे और उस पुस्तक को नष्ट कर देने का प्रयत्न करने लगे । उन्होंने पुस्तक चुराने के लिये दो चोर भेजे । चोरों ने जाकर देखा कि तुलसीदास जी की कुटी के आसपास दो वीर धनुषबाण लिये पहरा दे रहे हैं । वे बड़े ही सुन्दर श्याम और गौर वर्ण के थे। उनके दर्शन से चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गयी । उन्होंने उसी समय से चोरी करना छोड़ दिया और भजन में लग गये। तुलसीदास जी ने अपने लिये भगवान को कष्ट हुआ जान कुटी का सारा समान लुटा दिया, पुस्तक अपने मित्र टोडरमल के यहाँ रख दी । इसके बाद उन्होंने एक दूसरी प्रति लिखी । उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियाँ तैयार की जाने लगीं । पुस्तक का प्रचार दिनों दिन बढ़ने लगा । इधर पण्डितों ने और कोई उपाय न देख श्रीमधुसूदन सरस्वती जी को उस पुस्तक को देखने की प्रेरणा की । श्रीमधुसूदन सरस्वती जी ने उसे देखकर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और उस पर यह सम्मति लिख दी-
==प्रसिद्धि==
 
इधर पण्डितों ने जब यह बात सुनी तो उनके मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई। वे दल बाँधकर तुलसीदास जी की निन्दा करने लगे और उस पुस्तक को नष्ट कर देने का प्रयत्न करने लगे। उन्होंने पुस्तक चुराने के लिये दो चोर भेजे। चोरों ने जाकर देखा कि तुलसीदास जी की कुटी के आसपास दो वीर धनुषबाण लिये पहरा दे रहे हैं। वे बड़े ही सुन्दर श्याम और गौर वर्ण के थे। उनके दर्शन से चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गयी। उन्होंने उसी समय से चोरी करना छोड़ दिया और भजन में लग गये। तुलसीदास जी ने अपने लिये भगवान को कष्ट हुआ जान कुटी का सारा समान लुटा दिया, पुस्तक अपने मित्र टोडरमल के यहाँ रख दी। इसके बाद उन्होंने एक दूसरी प्रति लिखी। उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियाँ तैयार की जाने लगीं। पुस्तक का प्रचार दिनों दिन बढ़ने लगा। इधर पण्डितों ने और कोई उपाय न देख श्रीमधुसूदन सरस्वती जी को उस पुस्तक को देखने की प्रेरणा की। श्रीमधुसूदन सरस्वती जी ने उसे देखकर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और उस पर यह सम्मति लिख दी-
<poem>आनन्दकानने ह्यास्मिञ्जङ्गमस्तुलसीतरुः।
<poem>आनन्दकानने ह्यास्मिञ्जङ्गमस्तुलसीतरुः।
कवितामञ्जरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥</poem>
कवितामञ्जरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥</poem>
==मुख्य रचनाएँ==
==मुख्य रचनाएँ==
अपने जीवनकाल में तुलसीदास जी ने 12 ग्रन्थ लिखे और उन्हें [[संस्कृत]] विद्वान होने के साथ ही [[हिन्दी भाषा]] के प्रसिद्ध और सर्वश्रेष्ट कवियों में एक माना जाता है। तुलसीदास जी को [[वाल्मीकि|महर्षि वाल्मीकि]] का भी अवतार माना जाता है जो मूल आदिकाव्य [[रामायण]] के रचयिता थे। श्रीराम जी को समर्पित ग्रन्थ श्री [[रामचरितमानस]] वाल्मीकि रामायण का प्रकारांतर से [[अवधी भाषा|अवधी]] भाषांतर था जिसे समस्त [[उत्तर भारत]] में बड़े भक्तिभाव से पढ़ा जाता है। [[विनयपत्रिका]] तुलसीदासकृत एक अन्य महत्त्वपूर्ण काव्य है।
अपने 126 वर्ष के दीर्घ जीवन-काल में तुलसीदास जी ने कुल 22 कृतियों की रचना की है जिनमें से पाँच बड़ी एवं छह मध्यम श्रेणी में आती हैं। इन्हें [[संस्कृत]] विद्वान् होने के साथ ही [[हिन्दी भाषा]] के प्रसिद्ध और सर्वश्रेष्ठ कवियों में एक माना जाता है। तुलसीदास जी को [[वाल्मीकि|महर्षि वाल्मीकि]] का भी [[अवतार]] माना जाता है जो मूल आदिकाव्य [[रामायण]] के रचयिता थे।
[[चित्र:Tulsidas-2.jpg|thumb|तुलसीदास]]
{| class="bharattable-pink"
'''रामचरितमानस''' –
|-valing="top"
{{main|रामचरितमानस}}
! रचना
“रामचरित” (राम का चरित्र) तथा “मानस” (सरोवर) शब्दों के मेल से “रामचरितमानस” शब्द बना है। अतः रामचरितमानस का अर्थ है “राम के चरित्र का सरोवर”। सर्वसाधारण में यह “तुलसीकृत रामायण” के नाम से जाना जाता है तथा यह हिन्दू धर्म की महान काव्य रचना है।
! सामान्य परिचय
 
|-
'''दोहावली''' -  
[[रामचरितमानस]]
{{main|दोहावली -तुलसीदास}}
| “रामचरित” (राम का चरित्र) तथा “मानस” (सरोवर) शब्दों के मेल से “रामचरितमानस” शब्द बना है। अतः रामचरितमानस का अर्थ है “राम के चरित्र का सरोवर”। सर्वसाधारण में यह “तुलसीकृत रामायण” के नाम से जाना जाता है तथा यह [[हिन्दू धर्म]] की महान् काव्य रचना है।
दोहावली में दोहा और सोरठा की कुल संख्या 573 है।
|-
 
! [[दोहावली -तुलसीदास|दोहावली]]
'''कवितावली''' -  
| दोहावली में [[दोहा]] और [[सोरठा]] की कुल संख्या 573 है। इन दोहों में से अनेक दोहे तुलसीदास के अन्य ग्रंथों में भी मिलते हैं और उनसे लिये गये है।
{{main|कवितावली -तुलसीदास}}
|-
सोलहवीं शताब्दी में रची गयी कवितावली में श्री रामचन्द्र जी के इतिहास का वर्णन कवित्त, चौपाई, सवैया आदि छंदों में की गई है। रामचरितमानस के जैसे ही कवितावली में सात काण्ड हैं।
!  [[कवितावली -तुलसीदास|कवितावली]]
 
| सोलहवीं शताब्दी में रची गयी कवितावली में श्री रामचन्द्र जी के इतिहास का वर्णन कवित्त, चौपाई, सवैया आदि छंदों में की गई है। रामचरितमानस के जैसे ही कवितावली में सात काण्ड हैं।
'''गीतावली''' -
|-
{{main|गीतावली -तुलसीदास}}
!  [[गीतावली -तुलसीदास|गीतावली]]
गीतावली, जो कि सात काण्डों वाली एक और रचना है, में श्री रामचन्द्र जी की कृपालुता का वर्णन है।
| गीतावली, जो कि सात काण्डों वाली एक और रचना है, में श्री रामचन्द्र जी की कृपालुता का वर्णन है। सम्पूर्ण पदावली राम-कथा तथा रामचरित से सम्बन्धित है। मुद्रित संग्रह में 328 पद हैं।
 
|-
'''विनय पत्रिका''' -
! [[विनय पत्रिका -तुलसीदास|विनय पत्रिका]]
{{main|विनय पत्रिका -तुलसीदास}}
| विनय पत्रिका में 279 स्तुति गान हैं जिनमें से प्रथम 43 स्तुतियाँ विविध देवताओं की हैं और शेष रामचन्द्र जी की।
विनय पत्रिका में 279 स्तुति गान हैं जिनमें से प्रथम 43 स्तुतियाँ विविध देवताओं की हैं और शेष रामचन्द्र जी की।
|-
 
! [[कृष्ण गीतावली -तुलसीदास| कृष्ण गीतावली]]
'''कृष्ण गीतावली''' -
| कृष्ण गीतावली में [[श्रीकृष्ण]] जी 61 स्तुतियाँ है। कृष्ण की बाल्यावस्था और 'गोपी - उद्धव संवाद' के प्रसंग कवित्व व शैली की दृष्टि से अत्यधिक सुंदर हैं।
{{main|कृष्ण गीतावली -तुलसीदास}}
|-
कृष्ण गीतावली में श्री कृष्ण जी 61 स्तुतियाँ है।
[[रामलला नहछू]]
 
| यह रचना सोहर छ्न्दों में है और [[राम]] के [[विवाह]] के अवसर के नहछू का वर्णन करती है। नहछू नख काटने एक रीति है, जो अवधी क्षेत्रों में विवाह और यज्ञोपवीत के पूर्व की जाती है।
अपने दीर्घ जीवन-काल में तुलसीदास ने कालक्रमानुसार निम्नलिखित कालजयी ग्रन्थों की रचनाएं कीं -  
|-
*[[रामलला नहछू]]  
[[वैराग्य संदीपनी]]
*[[वैराग्य संदीपनी]]
|  यह [[चौपाई]] - [[दोहा|दोहों]] में रची हुई है। दोहे और सोरठे 48 तथा चौपाई की चतुष्पदियाँ 14 हैं। इसका विषय नाम के अनुसार वैराग्योपदेश है।
*[[रामाज्ञा प्रश्न]]  
|-
*[[जानकी मंगल]]  
[[रामाज्ञा प्रश्न]]  
*[[रामचरितमानस]]  
| रचना [[अवधी]] में है और तुलसीदास की प्रारम्भिक कृतियों में है। यह एक ऐसी रचना है, जो शुभाशुभ फल विचार के लिए रची गयी है किंतु यह फल-विचार तुलसीदास ने राम-कथा की सहायता से प्रस्तुत किया है।
*[[सतसई]]  
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*[[पार्वती मंगल]]  
! [[जानकी मंगल]]  
*[[गीतावली]]  
| इसमें गोस्वामी तुलसीदास जी ने आद्याशक्ति भगवती श्री [[सीता|जानकी जी]] तथा पुरुषोत्तम भगवान [[श्रीराम]] के मंगलमय विवाहोत्सव का बहुत ही मधुर शब्दों में वर्णन किया है।
*[[विनय पत्रिका]]
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*[[कृष्ण गीतावली]]  
[[सतसई]]  
*[[बरवै रामायण]]
| [[दोहा|दोहों]] का एक संग्रह ग्रंथ है। इन दोहों में से अनेक दोहे 'दोहावली' की विभिन्न प्रतियों में तुलसीदास के अन्य ग्रंथों में भी मिलते हैं और उनसे लिये गये है।
*[[दोहावली]]  
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*[[कवितावली]]  
!  [[पार्वती मंगल]]
तुलसीदास जी ने कुल 22 कृतियों की रचना की है जिनमें से पाँच बड़ी एवं छः मध्यम श्रेणी में आती हैं।
| इसका विषय [[शिव]] - [[पार्वती]] विवाह है। 'जानकी मंगल' की भाँति यह भी सोहर और हरिगीतिका [[छन्द|छन्दों]] में रची गयी है। इसमें सोहर की 148 द्विपदियाँ तथा 16 हरिगीतिकाएँ हैं। इसकी भाषा भी 'जानकी मंगल की भाँति [[अवधी]] है।
 
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====छोटी रचनाएँ====
[[बरवै रामायण]]
[[बरवै रामायण]], [[जानकी मंगल]], [[रामलला नहछू]], [[रामज्ञा प्रश्न]], [[पार्वती मंगल]], हनुमान बाहुक, संकट मोचन और [[वैराग्य संदीपनी]] तुलसीदास जी की छोटी रचनाएँ हैं।
| बरवै रामायण रचना के मुद्रित पाठ में स्फुट 69 बरवै हैं, जो '[[कवितावली -तुलसीदास|कवितावली]]' की ही भांति सात काण्डों में विभाजित है।
 
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'''रामचरितमानस''' के बाद [[हनुमान चालीसा]], जो कि हिन्दुओं की दैनिक प्रार्थना कही जाती है, तुलसीदास जी की अत्यन्त लोकप्रिय साहित्य रचना है।
!  [[हनुमान चालीसा]]
 
| इसमें प्रभु [[राम]] के महान् भक्त [[हनुमान]] के गुणों एवं कार्यों का चालीस (40) [[चौपाई|चौपाइयों]] में वर्णन है। यह अत्यन्त लघु रचना है जिसमें पवनपुत्र श्री हनुमान जी की सुन्दर स्तुति की गई है।
|}
==निधन==
==निधन==
तुलसीदासजी का देहांत सं. 1680 में [[काशी]] के असी घाट पर हुआ -
[[चित्र:Tulsidas stamp.jpg|thumb|150px|तुलसीदास के सम्मान में जारी [[डाक टिकट]]]]
तुलसीदास जी जब [[काशी]] के विख्यात् घाट [[असी घाट वाराणसी|असीघाट]] पर रहने लगे तो एक रात [[कलियुग]] मूर्त रूप धारण कर उनके पास आया और उन्हें पीड़ा पहुँचाने लगा। तुलसीदास जी ने उसी समय [[हनुमान]] जी का ध्यान किया। हनुमान जी ने साक्षात् प्रकट होकर उन्हें प्रार्थना के पद रचने को कहा, इसके पश्चात् उन्होंने अपनी अन्तिम कृति विनय-पत्रिका लिखी और उसे भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया। श्रीराम जी ने उस पर स्वयं अपने हस्ताक्षर कर दिये और तुलसीदास जी को निर्भय कर दिया। संवत्‌ 1680 में [[श्रावण]] [[कृष्ण पक्ष|कृष्ण]] [[सप्तमी]] [[शनिवार]] को तुलसीदास जी ने "राम-राम" कहते हुए अपना शरीर परित्याग किया। तुलसीदास के निधन के संबंध में निम्नलिखित दोहा बहुत प्रचलित है-
<poem>संवत सोलह सौ असी ,असी गंग के तीर ।  
<poem>संवत सोलह सौ असी ,असी गंग के तीर ।  
श्रावण शुक्ला सप्तमी ,तुलसी तज्यो शरीर । ।<ref name="sk"/></poem>  
श्रावण शुक्ला सप्तमी ,तुलसी तज्यो शरीर ।।<ref name="sk"/></poem>  
 


{{see also|श्री रामायण जी की आरती|रामायण}}
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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<references/>
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==बाहरी कड़ियाँ==
*[http://rachanakar.blogspot.com/2009/06/blog-post_02.html राम साध्य हैं, साधन नहीं]
*[http://www.rachanakar.org/2013/08/blog-post_7677.html तुलसीदास के राम]
*[http://www.rachanakar.org/2015/03/blog-post_624.html#ixzz3Vfnl1ANW रामकथा और तुलसीदास के राम]
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
{{तुलसीदास की रचनाएँ}}{{भारत के कवि}}
{{तुलसीदास की रचनाएँ}}{{भारत के कवि}}

11:33, 9 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

तुलसीदास
पूरा नाम गोस्वामी तुलसीदास
जन्म सन 1532 (संवत- 1589)
जन्म भूमि राजापुर, उत्तर प्रदेश
मृत्यु सन 1623 (संवत- 1680)
मृत्यु स्थान काशी
अभिभावक आत्माराम दुबे और हुलसी
पति/पत्नी रत्नावली
कर्म भूमि बनारस
कर्म-क्षेत्र कवि, समाज सुधारक
मुख्य रचनाएँ रामचरितमानस, दोहावली, कवितावली, गीतावली, विनय पत्रिका, हनुमान चालीसा आदि।
विषय सगुण भक्ति
भाषा अवधी, हिन्दी
नागरिकता भारतीय
संबंधित लेख तुलसीदास जयंती
गुरु आचार्य रामानन्द
अन्य जानकारी तुलसीदास जी को महर्षि वाल्मीकि का भी अवतार माना जाता है जो मूल आदिकाव्य रामायण के रचयिता थे।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
तुलसीदास की रचनाएँ

गोस्वामी तुलसीदास (अंग्रेज़ी: Goswami Tulsidas, जन्म- 1532 ई. - मृत्यु- 1623 ई.) हिन्दी साहित्य के आकाश के परम नक्षत्र, भक्तिकाल की सगुण धारा की रामभक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि थे। तुलसीदास एक साथ कवि, भक्त तथा समाज सुधारक तीनों रूपों में मान्य है। श्रीराम को समर्पित ग्रन्थ 'श्रीरामचरितमानस' 'वाल्मीकि रामायण' का प्रकारान्तर से ऐसा अवधी भाषान्तर है, जिसमें अन्य भी कई कृतियों से महत्वपूर्ण सामग्री समाहित की गयी थी। श्रीरामचरितमानस को समस्त उत्तर भारत में बड़े भक्तिभाव से पढ़ा जाता है। इसके बाद विनय पत्रिका तुलसीदासकृत एक अन्य महत्वपूर्ण काव्य है।

जीवन परिचय

तुलसीदासजी का जन्म संवत 1589 को उत्तर प्रदेश (वर्तमान बाँदा ज़िला) के राजापुर नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम आत्माराम दुबे तथा माता का नाम हुलसी था। इनका विवाह दीनबंधु पाठक की पुत्री रत्नावली से हुआ था। अपनी पत्नी रत्नावली से अत्याधिक प्रेम के कारण तुलसी को रत्नावली की फटकार "लाज न आई आपको दौरे आएहु नाथ" सुननी पड़ी, जिससे इनका जीवन ही परिवर्तित हो गया। पत्नी के उपदेश से तुलसी के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया। इनके गुरु बाबा नरहरिदास थे, जिन्होंने इन्हें दीक्षा दी। इनका अधिकाँश जीवन चित्रकूट, काशी तथा अयोध्या में बीता।[1]

तुलसीदास

तुलसी का बचपन बड़े कष्टों में बीता। माता-पिता दोनों चल बसे और इन्हें भीख मांगकर अपना पेट पालना पड़ा था। इसी बीच इनका परिचय राम-भक्त साधुओं से हुआ और इन्हें ज्ञानार्जन का अनुपम अवसर मिल गया। पत्नी के व्यंग्यबाणों से विरक्त होने की लोकप्रचलित कथा को कोई प्रमाण नहीं मिलता। तुलसी भ्रमण करते रहे और इस प्रकार समाज की तत्कालीन स्थिति से इनका सीधा संपर्क हुआ। इसी दीर्घकालीन अनुभव और अध्ययन का परिणाम तुलसी की अमूल्य कृतियां हैं, जो उस समय के भारतीय समाज के लिए तो उन्नायक सिद्ध हुई ही, आज भी जीवन को मर्यादित करने के लिए उतनी ही उपयोगी हैं। तुलसीदास द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या 39 बताई जाती है। इनमें रामचरित मानस, कवितावली, विनयपत्रिका, दोहावली, गीतावली, जानकीमंगल, हनुमान चालीसा, बरवै रामायण आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

शिष्य परम्परा

गोस्वामीजी श्रीसम्प्रदाय के आचार्य रामानन्द की शिष्यपरम्परा में थे। इन्होंने समय को देखते हुए लोकभाषा में 'रामायण' लिखा। इसमें ब्याज से वर्णाश्रमधर्म, अवतारवाद, साकार उपासना, सगुणवाद, गो-ब्राह्मण रक्षा, देवादि विविध योनियों का यथोचित सम्मान एवं प्राचीन संस्कृति और वेदमार्ग का मण्डन और साथ ही उस समय के विधर्मी अत्याचारों और सामाजिक दोषों की एवं पन्थवाद की आलोचना की गयी है। गोस्वामीजी पन्थ व सम्प्रदाय चलाने के विरोधी थे। उन्होंने व्याज से भ्रातृप्रेम, स्वराज्य के सिद्धान्त , रामराज्य का आदर्श, अत्याचारों से बचने और शत्रु पर विजयी होने के उपाय; सभी राजनीतिक बातें खुले शब्दों में उस कड़ी जासूसी के जमाने में भी बतलायीं, परन्तु उन्हें राज्याश्रय प्राप्त न था। लोगों ने उनको समझा नहीं। रामचरितमानस का राजनीतिक उद्देश्य सिद्ध नहीं हो पाया। इसीलिए उन्होंने झुँझलाकर कहा:

गोस्वामी तुलसीदास

"रामायण अनुहरत सिख, जग भई भारत रीति।
तुलसी काठहि को सुनै, कलि कुचालि पर प्रीति।"

आदर्श सन्त कवि

उनकी यह अद्भुत पोथी इतनी लोकप्रिय है कि मूर्ख से लेकर महापण्डित तक के हाथों में आदर से स्थान पाती है। उस समय की सारी शंक्काओं का रामचरितमानस में उत्तर है। अकेले इस ग्रन्थ को लेकर यदि गोस्वामी तुलसीदास चाहते तो अपना अत्यन्त विशाल और शक्तिशाली सम्प्रदाय चला सकते थे। यह एक सौभाग्य की बात है कि आज यही एक ग्रन्थ है, जो साम्प्रदायिकता की सीमाओं को लाँघकर सारे देश में व्यापक और सभी मत-मतान्तरों को पूर्णतया मान्य है। सबको एक सूत्र में ग्रंथित करने का जो काम पहले शंकराचार्य स्वामी ने किया, वही अपने युग में और उसके पीछे आज भी गोस्वामी तुलसीदास ने किया। रामचरितमानस की कथा का आरम्भ ही उन शंकाओं से होता है जो कबीरदास की साखी पर पुराने विचार वालों के मन में उठती हैं। तुलसीदासजी स्वामी रामानन्द की शिष्यपरम्परा में थे, जो रामानुजाचार्य के विशिष्टद्वैत सम्प्रदाय के अन्तर्भुक्त है। परन्तु गोस्वामीजी की प्रवृत्ति साम्प्रदायिक न थी। उनके ग्रन्थों में अद्वैत और विशिष्टाद्वैत का सुन्दर समन्वय पाया जाता है। इसी प्रकार वैष्णव, शैव, शाक्त आदि साम्प्रदायिक भावनाओं और पूजापद्धतियों का समन्वय भी उनकी रचनाओं में पाया जाता है। वे आदर्श समुच्चयवादी सन्त कवि थे।

प्रखर बुद्धि के स्वामी

रामचरितमानस

भगवान शंकरजी की प्रेरणा से रामशैल पर रहने वाले श्री अनन्तानन्द जी के प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्द जी (नरहरि बाबा) ने इस बालक को ढूँढ़ निकाला और उसका नाम रामबोला रखा। उसे वे अयोध्या ले गये और वहाँ संवत्‌ 1561 माघ शुक्ल पंचमी शुक्रवार को उसका यज्ञोपवीत-संस्कार कराया। बिना सिखाये ही बालक रामबोला ने गायत्री-मन्त्र का उच्चारण किया, जिसे देखकर सब लोग चकित हो गये। इसके बाद नरहरि स्वामी ने वैष्णवों के पाँच संस्कार करके रामबोला को राममन्त्र की दीक्षा दी और अयोध्या ही में रहकर उन्हें विद्याध्ययन कराने लगे। बालक रामबोला की बुद्धि बड़ी प्रखर थी। एक बार गुरुमुख से जो सुन लेते थे, उन्हें वह कंठस्थ हो जाता था। वहाँ से कुछ दिन बाद गुरु-शिष्य दोनों शूकरक्षेत्र (सोरों) पहुँचे। वहाँ श्री नरहरि जी ने तुलसीदास को रामचरित सुनाया। कुछ दिन बाद वह काशी चले आये। काशी में शेषसनातन जी के पास रहकर तुलसीदास ने पन्द्रह वर्ष तक वेद-वेदांग का अध्ययन किया। इधर उनकी लोकवासना कुछ जाग्रत्‌ हो उठी और अपने विद्यागुरु से आज्ञा लेकर वे अपनी जन्मभूमि को लौट आये। वहाँ आकर उन्होंने देखा कि उनका परिवार सब नष्ट हो चुका है। उन्होंने विधिपूर्वक अपने पिता आदि का श्राद्ध किया और वहीं रहकर लोगों को भगवान राम की कथा सुनाने लगे।

प्रसिद्धि

इधर पण्डितों ने जब यह बात सुनी तो उनके मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई। वे दल बाँधकर तुलसीदास जी की निन्दा करने लगे और उस पुस्तक को नष्ट कर देने का प्रयत्न करने लगे। उन्होंने पुस्तक चुराने के लिये दो चोर भेजे। चोरों ने जाकर देखा कि तुलसीदास जी की कुटी के आसपास दो वीर धनुषबाण लिये पहरा दे रहे हैं। वे बड़े ही सुन्दर श्याम और गौर वर्ण के थे। उनके दर्शन से चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गयी। उन्होंने उसी समय से चोरी करना छोड़ दिया और भजन में लग गये। तुलसीदास जी ने अपने लिये भगवान को कष्ट हुआ जान कुटी का सारा समान लुटा दिया, पुस्तक अपने मित्र टोडरमल के यहाँ रख दी। इसके बाद उन्होंने एक दूसरी प्रति लिखी। उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियाँ तैयार की जाने लगीं। पुस्तक का प्रचार दिनों दिन बढ़ने लगा। इधर पण्डितों ने और कोई उपाय न देख श्रीमधुसूदन सरस्वती जी को उस पुस्तक को देखने की प्रेरणा की। श्रीमधुसूदन सरस्वती जी ने उसे देखकर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और उस पर यह सम्मति लिख दी-

आनन्दकानने ह्यास्मिञ्जङ्गमस्तुलसीतरुः।
कवितामञ्जरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥

मुख्य रचनाएँ

अपने 126 वर्ष के दीर्घ जीवन-काल में तुलसीदास जी ने कुल 22 कृतियों की रचना की है जिनमें से पाँच बड़ी एवं छह मध्यम श्रेणी में आती हैं। इन्हें संस्कृत विद्वान् होने के साथ ही हिन्दी भाषा के प्रसिद्ध और सर्वश्रेष्ठ कवियों में एक माना जाता है। तुलसीदास जी को महर्षि वाल्मीकि का भी अवतार माना जाता है जो मूल आदिकाव्य रामायण के रचयिता थे।

रचना सामान्य परिचय
रामचरितमानस “रामचरित” (राम का चरित्र) तथा “मानस” (सरोवर) शब्दों के मेल से “रामचरितमानस” शब्द बना है। अतः रामचरितमानस का अर्थ है “राम के चरित्र का सरोवर”। सर्वसाधारण में यह “तुलसीकृत रामायण” के नाम से जाना जाता है तथा यह हिन्दू धर्म की महान् काव्य रचना है।
दोहावली दोहावली में दोहा और सोरठा की कुल संख्या 573 है। इन दोहों में से अनेक दोहे तुलसीदास के अन्य ग्रंथों में भी मिलते हैं और उनसे लिये गये है।
कवितावली सोलहवीं शताब्दी में रची गयी कवितावली में श्री रामचन्द्र जी के इतिहास का वर्णन कवित्त, चौपाई, सवैया आदि छंदों में की गई है। रामचरितमानस के जैसे ही कवितावली में सात काण्ड हैं।
गीतावली गीतावली, जो कि सात काण्डों वाली एक और रचना है, में श्री रामचन्द्र जी की कृपालुता का वर्णन है। सम्पूर्ण पदावली राम-कथा तथा रामचरित से सम्बन्धित है। मुद्रित संग्रह में 328 पद हैं।
विनय पत्रिका विनय पत्रिका में 279 स्तुति गान हैं जिनमें से प्रथम 43 स्तुतियाँ विविध देवताओं की हैं और शेष रामचन्द्र जी की।
कृष्ण गीतावली कृष्ण गीतावली में श्रीकृष्ण जी 61 स्तुतियाँ है। कृष्ण की बाल्यावस्था और 'गोपी - उद्धव संवाद' के प्रसंग कवित्व व शैली की दृष्टि से अत्यधिक सुंदर हैं।
रामलला नहछू यह रचना सोहर छ्न्दों में है और राम के विवाह के अवसर के नहछू का वर्णन करती है। नहछू नख काटने एक रीति है, जो अवधी क्षेत्रों में विवाह और यज्ञोपवीत के पूर्व की जाती है।
वैराग्य संदीपनी यह चौपाई - दोहों में रची हुई है। दोहे और सोरठे 48 तथा चौपाई की चतुष्पदियाँ 14 हैं। इसका विषय नाम के अनुसार वैराग्योपदेश है।
रामाज्ञा प्रश्न रचना अवधी में है और तुलसीदास की प्रारम्भिक कृतियों में है। यह एक ऐसी रचना है, जो शुभाशुभ फल विचार के लिए रची गयी है किंतु यह फल-विचार तुलसीदास ने राम-कथा की सहायता से प्रस्तुत किया है।
जानकी मंगल इसमें गोस्वामी तुलसीदास जी ने आद्याशक्ति भगवती श्री जानकी जी तथा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के मंगलमय विवाहोत्सव का बहुत ही मधुर शब्दों में वर्णन किया है।
सतसई दोहों का एक संग्रह ग्रंथ है। इन दोहों में से अनेक दोहे 'दोहावली' की विभिन्न प्रतियों में तुलसीदास के अन्य ग्रंथों में भी मिलते हैं और उनसे लिये गये है।
पार्वती मंगल इसका विषय शिव - पार्वती विवाह है। 'जानकी मंगल' की भाँति यह भी सोहर और हरिगीतिका छन्दों में रची गयी है। इसमें सोहर की 148 द्विपदियाँ तथा 16 हरिगीतिकाएँ हैं। इसकी भाषा भी 'जानकी मंगल की भाँति अवधी है।
बरवै रामायण बरवै रामायण रचना के मुद्रित पाठ में स्फुट 69 बरवै हैं, जो 'कवितावली' की ही भांति सात काण्डों में विभाजित है।
हनुमान चालीसा इसमें प्रभु राम के महान् भक्त हनुमान के गुणों एवं कार्यों का चालीस (40) चौपाइयों में वर्णन है। यह अत्यन्त लघु रचना है जिसमें पवनपुत्र श्री हनुमान जी की सुन्दर स्तुति की गई है।

निधन

तुलसीदास के सम्मान में जारी डाक टिकट

तुलसीदास जी जब काशी के विख्यात् घाट असीघाट पर रहने लगे तो एक रात कलियुग मूर्त रूप धारण कर उनके पास आया और उन्हें पीड़ा पहुँचाने लगा। तुलसीदास जी ने उसी समय हनुमान जी का ध्यान किया। हनुमान जी ने साक्षात् प्रकट होकर उन्हें प्रार्थना के पद रचने को कहा, इसके पश्चात् उन्होंने अपनी अन्तिम कृति विनय-पत्रिका लिखी और उसे भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया। श्रीराम जी ने उस पर स्वयं अपने हस्ताक्षर कर दिये और तुलसीदास जी को निर्भय कर दिया। संवत्‌ 1680 में श्रावण कृष्ण सप्तमी शनिवार को तुलसीदास जी ने "राम-राम" कहते हुए अपना शरीर परित्याग किया। तुलसीदास के निधन के संबंध में निम्नलिखित दोहा बहुत प्रचलित है-

संवत सोलह सौ असी ,असी गंग के तीर ।
श्रावण शुक्ला सप्तमी ,तुलसी तज्यो शरीर ।।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 गोस्वामी तुलसीदास : एक परिचय (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) हिन्दी कुंज। अभिगमन तिथि: 31 मई, 2011।

बाहरी कड़ियाँ

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