"कर्मभूमि उपन्यास भाग-5 अध्याय-7": अवतरणों में अंतर

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लाला समरकान्त के चले जाने के बाद सलीम ने हर एक गांव का दौरा करके असामियों की आर्थिक दशा की जांच करनी शुरू की। अब उसे मालूम हुआ कि उनकी दशा उससे कहीं हीन है, जितनी वह समझे बैठा था। पैदावर का मूल्य लागत और लगान से कहीं कम था। खाने-कपड़े की भी गुंजाइश न थी, दूसरे खर्चों का क्या जिक्र- ऐसा कोई बिरला ही किसान था, जिसका सिर के नीचे न दबा हो। कॉलेज में उसने अर्थशास्त्र अवश्य पढ़ा था और जानता था कि यहां के किसानों की हालत खराब है, पर अब ज्ञात हुआ है कि पुस्तक-ज्ञान और प्रत्येक्ष व्यवहार में वही अंतर है, जो किसी मनुष्य और उसके चित्र में है। ज्यों-ज्यों असली हालत मालूम होती जाती थी उसे असामियों से सहानुभूति होती जाती थी। कितना अन्याय है कि जो बेचारे रोटियों को मुंहताज हों, जिनके पास तन ढकने को केवल चीथड़े हों, जो बीमारी में एक पैसे की दवा भी न कर सकते हों। जिनके घरों में दीपक भी न जलते हों, उनसे पूरा लगान वसूल किया जाए। जब जिंस मंहगी थी, तब किसी तरह एक जून रोटियां मिल जाती थीं। इस मंदी में तो उनकी दशा वर्णनातीत हो गई है। जिनके लड़के पांच-छ: बरस की उम्र से मेहनत-मजूरी करने लगे, जो ईंधन के लिए हार में गोबर चुनते फिरें, उनसे पूरा लगान वसूल करना, मानो उनके मुंह से रोटी का टुकड़ा छीन लेना है, उनकी रक्त-हीन देह से खून चूसना है।
लाला समरकान्त के चले जाने के बाद सलीम ने हर एक गांव का दौरा करके असामियों की आर्थिक दशा की जांच करनी शुरू की। अब उसे मालूम हुआ कि उनकी दशा उससे कहीं हीन है, जितनी वह समझे बैठा था। पैदावर का मूल्य लागत और लगान से कहीं कम था। खाने-कपड़े की भी गुंजाइश न थी, दूसरे खर्चों का क्या ज़िक्र- ऐसा कोई बिरला ही किसान था, जिसका सिर के नीचे न दबा हो। कॉलेज में उसने अर्थशास्त्र अवश्य पढ़ा था और जानता था कि यहां के किसानों की हालत ख़राब है, पर अब ज्ञात हुआ है कि पुस्तक-ज्ञान और प्रत्येक्ष व्यवहार में वही अंतर है, जो किसी मनुष्य और उसके चित्र में है। ज्यों-ज्यों असली हालत मालूम होती जाती थी उसे असामियों से सहानुभूति होती जाती थी। कितना अन्याय है कि जो बेचारे रोटियों को मुंहताज हों, जिनके पास तन ढकने को केवल चीथड़े हों, जो बीमारी में एक पैसे की दवा भी न कर सकते हों। जिनके घरों में दीपक भी न जलते हों, उनसे पूरा लगान वसूल किया जाए। जब जिंस मंहगी थी, तब किसी तरह एक जून रोटियां मिल जाती थीं। इस मंदी में तो उनकी दशा वर्णनातीत हो गई है। जिनके लड़के पांच-छ: बरस की उम्र से मेहनत-मजूरी करने लगे, जो ईंधन के लिए हार में गोबर चुनते फिरें, उनसे पूरा लगान वसूल करना, मानो उनके मुंह से रोटी का टुकड़ा छीन लेना है, उनकी रक्त-हीन देह से ख़ून चूसना है।


परिस्थिति का यथार्थ ज्ञान होते ही सलीम ने अपने कर्तव्‍य का निश्चय कर लिया। वह उन आदमियों में न था, जो स्वार्थ के लिए अफसरों के हर एक हुक्म की पाबंदी करते हैं। वह नौकरी करते हुए भी आत्मा की रक्षा करना चाहता था। कई दिन एकांत में बैठकर उसने विस्तार के साथ अपनी रिपोर्ट लिखी और मि. गजनवी के पास भेज दी। मि. गजनवी ने उसे तुरंत लिखा-आकर मुझसे मिल जाओ। सलीम उनसे मिलना न चाहता था। डरता था, कहीं यह मेरी रिपोर्ट को दबाने का प्रस्ताव न करें, लेकिन फिर सोचा-चलने में हर्ज ही क्या है- अगर मुझे कायल कर दें, तब तो कोई बात नहीं लेकिन अफसरों के भय से मैं अपनी रिपोर्ट को कभी न दबने दूंगा। उसी दिन वह संध्‍या समय सदर पहुंचा।
परिस्थिति का यथार्थ ज्ञान होते ही सलीम ने अपने कर्तव्‍य का निश्चय कर लिया। वह उन आदमियों में न था, जो स्वार्थ के लिए अफसरों के हर एक हुक्म की पाबंदी करते हैं। वह नौकरी करते हुए भी आत्मा की रक्षा करना चाहता था। कई दिन एकांत में बैठकर उसने विस्तार के साथ अपनी रिपोर्ट लिखी और मि. गजनवी के पास भेज दी। मि. गजनवी ने उसे तुरंत लिखा-आकर मुझसे मिल जाओ। सलीम उनसे मिलना न चाहता था। डरता था, कहीं यह मेरी रिपोर्ट को दबाने का प्रस्ताव न करें, लेकिन फिर सोचा-चलने में हर्ज ही क्या है- अगर मुझे कायल कर दें, तब तो कोई बात नहीं लेकिन अफसरों के भय से मैं अपनी रिपोर्ट को कभी न दबने दूंगा। उसी दिन वह संध्‍या समय सदर पहुंचा।
पंक्ति 6: पंक्ति 6:
मि. गजनवी ने तपाक से हाथ बढ़ाते हुए कहा-मि. अमरकान्त के साथ तो तुमने दोस्ती का हक खूब अदा किया। वह खुद शायद इतनी मुफस्सिल रिपोर्ट न लिख सकते लेकिन तुम क्या समझते हो, सरकार को यह बातें मालूम नहीं-
मि. गजनवी ने तपाक से हाथ बढ़ाते हुए कहा-मि. अमरकान्त के साथ तो तुमने दोस्ती का हक खूब अदा किया। वह खुद शायद इतनी मुफस्सिल रिपोर्ट न लिख सकते लेकिन तुम क्या समझते हो, सरकार को यह बातें मालूम नहीं-


सलीम ने कहा-मेरा तो ऐसा ही खयाल है। उसे जो रिपोर्ट मिलती है, वह खुशामदी अहलकारों से मिलती है, जो रिआया का खून करके भी सरकार का घर भरना चाहते हैं। मेरी रिपोर्ट वाकयात पर लिखी गई है।
सलीम ने कहा-मेरा तो ऐसा ही खयाल है। उसे जो रिपोर्ट मिलती है, वह खुशामदी अहलकारों से मिलती है, जो रिआया का ख़ून करके भी सरकार का घर भरना चाहते हैं। मेरी रिपोर्ट वाकयात पर लिखी गई है।


दोनों अफसरों में बहस होने लगी। गजनवी कहता था-हमारा काम केवल अफसरों की आज्ञा मानना है। उन्होंने लगान वसूल करने की आज्ञा दी। हमें लगान वसूल करना चाहिए। प्रजा को कष्ट होता है तो हो, हमें इससे प्रयोजन नहीं। हमें खुद अपनी आमदनी का टैक्स देने में कष्ट होता है लेकिन मजबूर होकर देते हैं। कोई आदमी खुशी से टैक्स नहीं देता।
दोनों अफसरों में बहस होने लगी। गजनवी कहता था-हमारा काम केवल अफसरों की आज्ञा मानना है। उन्होंने लगान वसूल करने की आज्ञा दी। हमें लगान वसूल करना चाहिए। प्रजा को कष्ट होता है तो हो, हमें इससे प्रयोजन नहीं। हमें खुद अपनी आमदनी का टैक्स देने में कष्ट होता है लेकिन मजबूर होकर देते हैं। कोई आदमी खुशी से टैक्स नहीं देता।
पंक्ति 14: पंक्ति 14:
गजनवी ने मुंह लंबा करके कहा-मुझे खौफ है कि गवर्नमेंट तुम्हारा यहां से तबादला कर देगी।
गजनवी ने मुंह लंबा करके कहा-मुझे खौफ है कि गवर्नमेंट तुम्हारा यहां से तबादला कर देगी।


'तबादला कर दे इसकी मुझे परवाह नहीं लेकिन मेरी रिपोर्ट पर गौर करने का वादा करे। अगर वह मुझे यहां से हटा कर मेरी रिपोर्ट को दाखिल दफ्तर करना चाहेगी, तो मैं इस्तीफा दे दूंगा।'
'तबादला कर दे इसकी मुझे परवाह नहीं लेकिन मेरी रिपोर्ट पर गौर करने का वादा करे। अगर वह मुझे यहां से हटा कर मेरी रिपोर्ट को दाखिल दफ़्तर करना चाहेगी, तो मैं इस्तीफा दे दूंगा।'


गजनवी ने विस्मय से उसके मुंह की ओर देखा।
गजनवी ने विस्मय से उसके मुंह की ओर देखा।
पंक्ति 26: पंक्ति 26:
जिस दिन उसने नए अफसर को चार्ज दिया और इलाके से विदा होने लगा, उसके डेरे के चारों तरफ स्त्री-पुरुषों का एक मेला लग गया और सब उससे मिन्नतें करने लगे, आप इस दशा में हमें छोड़कर न जाएं। सलीम यही चाहता था। बाप के भय से घर न जा सकता था। फिर इन अनाथों से उसे स्नेह हो गया था। कुछ तो दया और कुछ अपने अपमान ने उसे उनका नेता बना दिया। वही अफसर जो कुछ दिन पहले अफसरी के मद से भरा हुआ आया था, जनता का सेवक बन बैठा। अत्याचार सहना अत्याचार करने से कहीं ज्यादा गौरव की बात मालूम हुई।
जिस दिन उसने नए अफसर को चार्ज दिया और इलाके से विदा होने लगा, उसके डेरे के चारों तरफ स्त्री-पुरुषों का एक मेला लग गया और सब उससे मिन्नतें करने लगे, आप इस दशा में हमें छोड़कर न जाएं। सलीम यही चाहता था। बाप के भय से घर न जा सकता था। फिर इन अनाथों से उसे स्नेह हो गया था। कुछ तो दया और कुछ अपने अपमान ने उसे उनका नेता बना दिया। वही अफसर जो कुछ दिन पहले अफसरी के मद से भरा हुआ आया था, जनता का सेवक बन बैठा। अत्याचार सहना अत्याचार करने से कहीं ज्यादा गौरव की बात मालूम हुई।


आंदोलन की बागडोर सलीम के हाथ में आते ही लोगों के हौसले बंध गए। जैसे पहले अमरकान्त आत्मानन्द के साथ गांव-गांव दौड़ा करता था, उसी तरह सलीम दौड़ने लगा। वही सलीम, जिसके खून के लोग प्यासे हो रहे थे, अब उस इलाके का मुकुटहीन राजा था। जनता उसके पसीने की जगह खून बहाने को तैयार थी।
आंदोलन की बागडोर सलीम के हाथ में आते ही लोगों के हौसले बंध गए। जैसे पहले अमरकान्त आत्मानन्द के साथ गांव-गांव दौड़ा करता था, उसी तरह सलीम दौड़ने लगा। वही सलीम, जिसके ख़ून के लोग प्यासे हो रहे थे, अब उस इलाके का मुकुटहीन राजा था। जनता उसके पसीने की जगह ख़ून बहाने को तैयार थी।


संध्‍या हो गई थी। सलीम और आत्मानन्द दिन-भर काम करने के बाद लौटे थे कि एकाएक नए बंगाली सिविलियन मि. घोष पुलिस कर्मचारियों के साथ आ पहुंचे और गांव भर के मवेशियों की कुर्क करने की घोषणा कर दी। कुछ कसाई पहले ही से बुला लिए गए थे। वे सस्ता सौदा खरीदने को तैयार थे। दम-के-दम में कांस्टेबलों ने मवेशियों को खोल-खोलकर मदरसे के द्वार पर जमा कर दिया। गूदड़, भोला, अलगू सभी चौधरी गिरफ्तार हो चुके थे। फसल की कुर्की तो पहले ही हो चुकी थी मगर फसल में अभी क्या रखा था- इसलिए अब अधिकारियों ने मवेशियों को कुर्क करने का निश्चय किया था। उन्हें विश्वास था कि किसान मवेशियों की कुर्की देखकर भयभीत हो जाएंगे, और चाहे उन्हें कर्ज लेना पड़े, या स्त्रियों के गहने बेचने पड़ें, वे जानवरों को बचाने के लिए सब कुछ करने को तैयार होंगे। जानवर किसान के दाहिने हाथ हैं।
संध्‍या हो गई थी। सलीम और आत्मानन्द दिन-भर काम करने के बाद लौटे थे कि एकाएक नए बंगाली सिविलियन मि. घोष पुलिस कर्मचारियों के साथ आ पहुंचे और गांव भर के मवेशियों की कुर्क करने की घोषणा कर दी। कुछ कसाई पहले ही से बुला लिए गए थे। वे सस्ता सौदा ख़रीदने को तैयार थे। दम-के-दम में कांस्टेबलों ने मवेशियों को खोल-खोलकर मदरसे के द्वार पर जमा कर दिया। गूदड़, भोला, अलगू सभी चौधरी गिरफ्तार हो चुके थे। फसल की कुर्की तो पहले ही हो चुकी थी मगर फसल में अभी क्या रखा था- इसलिए अब अधिकारियों ने मवेशियों को कुर्क करने का निश्चय किया था। उन्हें विश्वास था कि किसान मवेशियों की कुर्की देखकर भयभीत हो जाएंगे, और चाहे उन्हें कर्ज़ लेना पड़े, या स्त्रियों के गहने बेचने पड़ें, वे जानवरों को बचाने के लिए सब कुछ करने को तैयार होंगे। जानवर किसान के दाहिने हाथ हैं।


किसानों ने यह घोषणा सुनी, तो छक्के छूट गए। वे समझे बैठे थे कि सरकार और जो चाहे करे, पर मवेशियों को कुर्क न करेगी। क्या वह किसानों की जड़ खोदकर फेंक देगी।
किसानों ने यह घोषणा सुनी, तो छक्के छूट गए। वे समझे बैठे थे कि सरकार और जो चाहे करे, पर मवेशियों को कुर्क न करेगी। क्या वह किसानों की जड़ खोदकर फेंक देगी।
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यह घोषणा सुनकर भी वे यही समझ रहे थे कि यह केवल धामकी है लेकिन जब मवेशी मदरसे के सामने जमा कर दिए गए और कसाइयों ने उनकी देखभाल शुरू की तो सभी पर जैसे वज्राघात हो गया। अब समस्या उस सीमा तक पहुंची थी, जब रक्त का आदान-प्रदान आरंभ हो जाता है।
यह घोषणा सुनकर भी वे यही समझ रहे थे कि यह केवल धामकी है लेकिन जब मवेशी मदरसे के सामने जमा कर दिए गए और कसाइयों ने उनकी देखभाल शुरू की तो सभी पर जैसे वज्राघात हो गया। अब समस्या उस सीमा तक पहुंची थी, जब रक्त का आदान-प्रदान आरंभ हो जाता है।


चिराग जलते-जलते जानवरों का बाजार लग गया। अधिकारियों ने इरादा किया है कि सारी रकम एकजाई वसूल करें। गांव वाले आपस में लड़-भिड़कर अपने-अपने लगान का फैसला कर लेंगे। इसकी अधिकारियों को कोई चिंता नहीं है।
चिराग जलते-जलते जानवरों का बाज़ार लग गया। अधिकारियों ने इरादा किया है कि सारी रकम एकजाई वसूल करें। गांव वाले आपस में लड़-भिड़कर अपने-अपने लगान का फैसला कर लेंगे। इसकी अधिकारियों को कोई चिंता नहीं है।


सलीम ने आकर मि. घोष से कहा-आपको मालूम है कि मवेशियों को कुर्क करने का आपको मजाज नहीं है-
सलीम ने आकर मि. घोष से कहा-आपको मालूम है कि मवेशियों को कुर्क करने का आपको मजाज नहीं है-
पंक्ति 40: पंक्ति 40:
मि. घोष ने उग्र भाव से जवाब दिया-यह नीति ऐसे अवसरों के लिए नहीं है। विशेष अवसरों के लिए विशेष नीति होती है। क्रांति की नीति, शांति की नीति से भिन्न होनी स्वाभाविक है।
मि. घोष ने उग्र भाव से जवाब दिया-यह नीति ऐसे अवसरों के लिए नहीं है। विशेष अवसरों के लिए विशेष नीति होती है। क्रांति की नीति, शांति की नीति से भिन्न होनी स्वाभाविक है।


अभी सलीम ने कुछ उत्तर न दिया था कि मालूम हुआ, अहीरों के मुहाल में लाठी चल गई। मि. घोष उधर लपके। सिपाहियों ने भी संगीनें चढ़ाईं और उनके पीछे चले। काशी, पयाग, आत्मानन्द सब उसी तरफ दौड़े। केवल सलीम यहां खड़ा रहा। जब एकांत हो गया, तो उसने कसाइयों के सरगना के पास जाकर सलाम-अलेक किया और बोला-क्यों भाई साहब, आपको मालूम है, आप लोग इन मवेशियों को खरीदकर यहां की गरीब रिआया के साथ कितनी बड़ी बेइंसाफी कर रहे हैं-
अभी सलीम ने कुछ उत्तर न दिया था कि मालूम हुआ, अहीरों के मुहाल में लाठी चल गई। मि. घोष उधर लपके। सिपाहियों ने भी संगीनें चढ़ाईं और उनके पीछे चले। काशी, पयाग, आत्मानन्द सब उसी तरफ दौड़े। केवल सलीम यहां खड़ा रहा। जब एकांत हो गया, तो उसने कसाइयों के सरगना के पास जाकर सलाम-अलेक किया और बोला-क्यों भाई साहब, आपको मालूम है, आप लोग इन मवेशियों को ख़रीदकर यहां की ग़रीब रिआया के साथ कितनी बड़ी बेइंसाफी कर रहे हैं-


सरगना का नाम तेगमुहम्मद था। नाटे कद का गठीला आदमी था, पूरा पहलवान। ढीला कुर्ता, चारखाने की तहमद, गले में चांदी की तावीज, हाथ में माटा सोंटा। नम्रता से बोला -साहब, मैं तो माल खरीदने आया हूं। मुझे इससे क्या मतलब कि माल किसका है और कैसा है- चार पैसे का फायदा जहां होता है वहां आदमी जाता ही है।
सरगना का नाम तेगमुहम्मद था। नाटे क़द का गठीला आदमी था, पूरा पहलवान। ढीला कुर्ता, चारखाने की तहमद, गले में चांदी की तावीज, हाथ में माटा सोंटा। नम्रता से बोला -साहब, मैं तो माल ख़रीदने आया हूं। मुझे इससे क्या मतलब कि माल किसका है और कैसा है- चार पैसे का फायदा जहां होता है वहां आदमी जाता ही है।


'लेकिन यह तो सोचिए कि मवेशियों की कुर्की किस सबब से हो रही है- रिआया के साथ आपको हमदर्दी होनी चाहिए।'
'लेकिन यह तो सोचिए कि मवेशियों की कुर्की किस सबब से हो रही है- रिआया के साथ आपको हमदर्दी होनी चाहिए।'
पंक्ति 48: पंक्ति 48:
तेगमुहम्मद पर कोई प्रभाव न हुआ-सरकार से जिसकी लड़ाई होगी, उसकी होगी। हमारी कोई लड़ाई नहीं है।
तेगमुहम्मद पर कोई प्रभाव न हुआ-सरकार से जिसकी लड़ाई होगी, उसकी होगी। हमारी कोई लड़ाई नहीं है।


'तुम मुसलमान होकर ऐसी बातें करते हो, इसका मुझे अफसोस है। इस्लाम ने हमेशा मजलूमों की मदद की है। और तुम मजलूमों की गर्दन पर छुरी फेर रहे हो॥'
'तुम मुसलमान होकर ऐसी बातें करते हो, इसका मुझे अफ़सोस है। इस्लाम ने हमेशा मजलूमों की मदद की है। और तुम मजलूमों की गर्दन पर छुरी फेर रहे हो॥'


'जब सरकार हमारी परवरिस कर रही है, तो हम उनके बदखाह नहीं बन सकते।'
'जब सरकार हमारी परवरिस कर रही है, तो हम उनके बदखाह नहीं बन सकते।'
पंक्ति 60: पंक्ति 60:
'आप तो मुसलमान हैं। क्या आपका फर्ज नहीं है कि बादशाह की मदद करें?'
'आप तो मुसलमान हैं। क्या आपका फर्ज नहीं है कि बादशाह की मदद करें?'


'अगर मुसलमान होने का यह मतलब है कि गरीबों का खून किया जाए, तो मैं काफिर हूं।'
'अगर मुसलमान होने का यह मतलब है कि ग़रीबों का ख़ून किया जाए, तो मैं काफिर हूं।'


तेगमुहम्मद पढ़ा-लिखा आदमी था। वह वाद-विवाद करने पर तैयार हो गया। सलीम ने उसकी हंसी उड़ाने की चेष्टा की। पंथों को वह संसार का कलंक समझता था, जिसने मनुष्य-जाति को विरोधी दलों में विभक्त करके एक-दूसरे का दुश्मन बना दिया है। तेगमुहम्मद रोजा-नमाज़ का पाबंद, दीनदार मुसलमान था। मज़हब की तौहीन क्योंकर बर्दाश्त करता- उधर तो अहिराने में पुलिस और अहीरों में लाठियां चल रही थीं, इधर इन दोनों में हाथापाई की नौबत आ गई। कसाई पहलवान था। सलीम भी ठोकर चलाने और घूसेबाजी में मंजा हुआ, फुर्तीला, चुस्त। पहलवान साहब उसे अपनी पकड़ में लाकर दबोच बैठना चाहते थे। वह ठोकर-पर-ठोकर जमा रहा था। ताबड़-तोड़ ठोकरें पड़ीं तो पहलवान साहब गिर पड़े और लगे मात्भाषा में अपने मनोविकारों को प्रकट करने। उसके दोनों साथियों ने पहले दूर ही से तमाशा देखना उचित समझा था लेकिन जब तेगमुहम्मद गिर पड़ा, तो दोनों कमर कसकर पिल पड़े। यह दोनों अभी जवान पट्ठे थे, तेजी और चुस्ती में सलीम के बराबर थें। सलीम पीछे हटता जाता था और यह दोनों उसे ठेलते जाते थे। उसी वक्त सलोनी लाठी टेकती हुई अपनी गाय खोजने आ रही थी। पुलिस उसे उसके द्वार से खोल लाई थी। यहां यह संग्राम छिड़ा देखकर उसने अंचल सिर से उतार कर कमर में बांधा और लाठी संभालकर पीछे से दोनों कसाइयों को पीटने लगी। उनमें से एक ने पीछे फिरकर बुढ़िया को इतने ज़ोर से धक्का दिया कि वह तीन-चार हाथ पर जा गिरी। इतनी देर में सलीम ने घात पाकर सामने के जवान को ऐसा घूंसा दिया कि उसकी नाक से खून जारी हो गया और वह सिर पकड़कर बैठ गया। अब केवल एक आदमी और रह गया। उसने अपने दो योद्वाओं की यह गति देखी तो पुलिस वालों से फरियाद करने भागा। तेगमुहम्मद की दोनों घुटनियां बेकार हो गई थीं। उठ न सकता था। मैदान खाली देखकर सलीम ने लपककर मवेशियों की रस्सियां खोल दीं और तालियां बजा-बजाकर उन्हें भगा दिया। बेचारे जानवर सहमे खड़े थे। आने वाली विपत्ति का उन्हें कुछ आभास हो रहा था। रस्सी खुली तो सब पूंछ उठा-उठाकर भागे और हार की तरफ निकल गए।
तेगमुहम्मद पढ़ा-लिखा आदमी था। वह वाद-विवाद करने पर तैयार हो गया। सलीम ने उसकी हंसी उड़ाने की चेष्टा की। पंथों को वह संसार का कलंक समझता था, जिसने मनुष्य-जाति को विरोधी दलों में विभक्त करके एक-दूसरे का दुश्मन बना दिया है। तेगमुहम्मद रोजा-नमाज़ का पाबंद, दीनदार मुसलमान था। मज़हब की तौहीन क्योंकर बर्दाश्त करता- उधर तो अहिराने में पुलिस और अहीरों में लाठियां चल रही थीं, इधर इन दोनों में हाथापाई की नौबत आ गई। कसाई पहलवान था। सलीम भी ठोकर चलाने और घूसेबाजी में मंजा हुआ, फुर्तीला, चुस्त। पहलवान साहब उसे अपनी पकड़ में लाकर दबोच बैठना चाहते थे। वह ठोकर-पर-ठोकर जमा रहा था। ताबड़-तोड़ ठोकरें पड़ीं तो पहलवान साहब गिर पड़े और लगे मात्भाषा में अपने मनोविकारों को प्रकट करने। उसके दोनों साथियों ने पहले दूर ही से तमाशा देखना उचित समझा था लेकिन जब तेगमुहम्मद गिर पड़ा, तो दोनों कमर कसकर पिल पड़े। यह दोनों अभी जवान पट्ठे थे, तेज़ीऔर चुस्ती में सलीम के बराबर थें। सलीम पीछे हटता जाता था और यह दोनों उसे ठेलते जाते थे। उसी वक्त सलोनी लाठी टेकती हुई अपनी गाय खोजने आ रही थी। पुलिस उसे उसके द्वार से खोल लाई थी। यहां यह संग्राम छिड़ा देखकर उसने अंचल सिर से उतार कर कमर में बांधा और लाठी संभालकर पीछे से दोनों कसाइयों को पीटने लगी। उनमें से एक ने पीछे फिरकर बुढ़िया को इतने ज़ोर से धक्का दिया कि वह तीन-चार हाथ पर जा गिरी। इतनी देर में सलीम ने घात पाकर सामने के जवान को ऐसा घूंसा दिया कि उसकी नाक से ख़ून जारी हो गया और वह सिर पकड़कर बैठ गया। अब केवल एक आदमी और रह गया। उसने अपने दो योद्वाओं की यह गति देखी तो पुलिस वालों से फरियाद करने भागा। तेगमुहम्मद की दोनों घुटनियां बेकार हो गई थीं। उठ न सकता था। मैदान ख़ाली देखकर सलीम ने लपककर मवेशियों की रस्सियां खोल दीं और तालियां बजा-बजाकर उन्हें भगा दिया। बेचारे जानवर सहमे खड़े थे। आने वाली विपत्ति का उन्हें कुछ आभास हो रहा था। रस्सी खुली तो सब पूंछ उठा-उठाकर भागे और हार की तरफ निकल गए।


उसी वक्त आत्मानन्द बदहवास दौड़े आए और बोले-आप जरा अपना रिवाल्वर तो मुझे दीजिए।
उसी वक्त आत्मानन्द बदहवास दौड़े आए और बोले-आप जरा अपना रिवाल्वर तो मुझे दीजिए।
पंक्ति 76: पंक्ति 76:
'मेरा रिवाल्वर इस काम के लिए नहीं है।'
'मेरा रिवाल्वर इस काम के लिए नहीं है।'


आत्मानन्द यों भी उद्वंड आदमी थे। इस हत्याकांड ने उन्हें बिलकुल उन्मत्ता कर दिया था। बोले-निरपराधों का रक्त बहाकर आततायी चला जा रहा है, तुम कहते हो रिवाल्वर इस काम के लिए नहीं है फिर किस काम के लिए है- मैं तुम्हारे पैरों पड़ता हूं भैया, एक क्षण के लिए दे दो। दिल की लालसा पूरी कर लूं। कैसे-कैसे वीरों को मारा है इन हत्यारों ने कि देखकर मेरी आंखों में खून उतर आया ।
आत्मानन्द यों भी उद्वंड आदमी थे। इस हत्याकांड ने उन्हें बिलकुल उन्मत्ता कर दिया था। बोले-निरपराधों का रक्त बहाकर आततायी चला जा रहा है, तुम कहते हो रिवाल्वर इस काम के लिए नहीं है फिर किस काम के लिए है- मैं तुम्हारे पैरों पड़ता हूं भैया, एक क्षण के लिए दे दो। दिल की लालसा पूरी कर लूं। कैसे-कैसे वीरों को मारा है इन हत्यारों ने कि देखकर मेरी आंखों में ख़ून उतर आया ।


सलीम बिना कुछ उत्तर दिए वेग से अहिराने की ओर चला गया। रास्ते में सभी द्वार बंद थे। कुत्तो भी कहीं भागकर जा छिपे थे।
सलीम बिना कुछ उत्तर दिए वेग से अहिराने की ओर चला गया। रास्ते में सभी द्वार बंद थे। कुत्तो भी कहीं भागकर जा छिपे थे।


एकाएक एक घर का द्वार झोंके के साथ खुला और एक युवती सिर खोले, अस्त-व्यस्त कपड़े खून से तर, भयातुर हिरनी-सी आकर उसके पैरों से चिपट गई और सहमी हुई आंखों से द्वार की ओर ताकती हुई बोली-मालिक, यह सब सिपाही मुझे मारे डालते हैं।
एकाएक एक घर का द्वार झोंके के साथ खुला और एक युवती सिर खोले, अस्त-व्यस्त कपड़े ख़ून से तर, भयातुर हिरनी-सी आकर उसके पैरों से चिपट गई और सहमी हुई आंखों से द्वार की ओर ताकती हुई बोली-मालिक, यह सब सिपाही मुझे मारे डालते हैं।


सलीम ने तसल्ली दी-घबराओ नहीं। घबराओ नहीं। माजरा क्या है-
सलीम ने तसल्ली दी-घबराओ नहीं। घबराओ नहीं। माजरा क्या है-
पंक्ति 112: पंक्ति 112:
'तुम इसे नहीं ले जा सकते।'
'तुम इसे नहीं ले जा सकते।'


सिपाहियों ने सलीम को हाकिम के रूप में देखा था। उसकी मातहती कर चुके थे। उस रोब का कुछ अंश उनके दिल पर बाकी था। उसके साथ जबर्दस्ती करने का साहस न हुआ। जाकर मि. घोष से फरियाद की। घोष बाबू सलीम से जलते थे। उनका खयाल था कि सलीम ही इस आंदोलन को चला रहा है और यदि उसे हटा दिया जाय, तो चाहे आंदोलन तुरंत शांत न हो जाय, पर उसकी जड़ टूट जाएगी, इसलिए सिपाहियों की रिपोर्ट सुनते ही तुरंत घोड़ा बढ़ाकर सलीम के पास आ पहुंचे और अंग्रेजी में कानून बघारने लगे। सलीम को भी अंग्रेजी बोलने का बहुत अच्छा अभ्यास था। दोनों में पहले कानूनी मुबाहसा हुआ, फिर धार्मिक तत्‍व निरूपण का नंबर आया, इसमें उतर कर दोनों दार्शनिक तर्क-वितर्क करने लगे, यहां तक कि अंत में व्यक्तिगत आक्षेपों की बौछार होने लगी। इसके एक ही क्षण बाद शब्द ने क्रिया का रूप धारण किया। मिस्टर घोष ने हंटर चलाया, जिसने सलीम के चेहरे पर एक नीली चौड़ी उभरी हुई रेखा छोड़ दी। आंखें बाल-बाल बच गईं। सलीम भी जामे से बाहर हो गया। घोष की टांग पकड़कर ज़ोर से खींचा। साहब घोड़े से नीचे गिर पड़े। सलीम उनकी छाती पर चढ़ बैठा और नाक पर घूंसा मारा। घोष बाबू मूर्छित हो गए। सिपाहियों ने दूसरा घूंसा न पड़ने दिया। चार आदमियों ने दौड़कर सलीम को जकड़ लिया। चार आदमियों ने घोष को उठाया और होश में लाए।
सिपाहियों ने सलीम को हाकिम के रूप में देखा था। उसकी मातहती कर चुके थे। उस रोब का कुछ अंश उनके दिल पर बाकी था। उसके साथ जबर्दस्ती करने का साहस न हुआ। जाकर मि. घोष से फरियाद की। घोष बाबू सलीम से जलते थे। उनका खयाल था कि सलीम ही इस आंदोलन को चला रहा है और यदि उसे हटा दिया जाय, तो चाहे आंदोलन तुरंत शांत न हो जाय, पर उसकी जड़ टूट जाएगी, इसलिए सिपाहियों की रिपोर्ट सुनते ही तुरंत घोड़ा बढ़ाकर सलीम के पास आ पहुंचे और अंग्रेजी में क़ानून बघारने लगे। सलीम को भी अंग्रेजी बोलने का बहुत अच्छा अभ्यास था। दोनों में पहले क़ानूनी मुबाहसा हुआ, फिर धार्मिक तत्‍व निरूपण का नंबर आया, इसमें उतर कर दोनों दार्शनिक तर्क-वितर्क करने लगे, यहां तक कि अंत में व्यक्तिगत आक्षेपों की बौछार होने लगी। इसके एक ही क्षण बाद शब्द ने क्रिया का रूप धारण किया। मिस्टर घोष ने हंटर चलाया, जिसने सलीम के चेहरे पर एक नीली चौड़ी उभरी हुई रेखा छोड़ दी। आँखेंं बाल-बाल बच गईं। सलीम भी जामे से बाहर हो गया। घोष की टांग पकड़कर ज़ोर से खींचा। साहब घोड़े से नीचे गिर पड़े। सलीम उनकी छाती पर चढ़ बैठा और नाक पर घूंसा मारा। घोष बाबू मूर्छित हो गए। सिपाहियों ने दूसरा घूंसा न पड़ने दिया। चार आदमियों ने दौड़कर सलीम को जकड़ लिया। चार आदमियों ने घोष को उठाया और होश में लाए।


अंधेरा हो गया था। आतंक ने सारे गांव को पिशाच की भांति छाप लिया था। लोग शोक से और आतंक के भाव से दबे, मरने वालों की लाशें उठा रहे थे। किसी के मुंह से रोने की आवाज न निकलती थी। जख्म ताजा था, इसलिए टीस न थी। रोना पराजय का लक्षण है, इन प्राणियों को विजय का गर्व था। रोकर अपनी दीनता प्रकट न करना चाहते थे। बच्चे भी जैसे रोना भूल गए थे।
अंधेरा हो गया था। आतंक ने सारे गांव को पिशाच की भांति छाप लिया था। लोग शोक से और आतंक के भाव से दबे, मरने वालों की लाशें उठा रहे थे। किसी के मुंह से रोने की आवाज़ न निकलती थी। जख्म ताजा था, इसलिए टीस न थी। रोना पराजय का लक्षण है, इन प्राणियों को विजय का गर्व था। रोकर अपनी दीनता प्रकट न करना चाहते थे। बच्चे भी जैसे रोना भूल गए थे।


मिस्टर घोष घोड़े पर सवार होकर डाक बंगले गए। सलीम एक सब-इंस्पेक्टर और कई कांस्टेबलों के साथ एक लारी पर सदर भेज दिया गया। यह अहीरिन युवती भी उसी लारी पर भेजी गई थी। पहर रात जाते-जाते चारों अर्थियां गंगा की ओर चलीं। सलोनी लाठी टेकती हुई आगे-आगे गाती जाती थी-
मिस्टर घोष घोड़े पर सवार होकर डाक बंगले गए। सलीम एक सब-इंस्पेक्टर और कई कांस्टेबलों के साथ एक लारी पर सदर भेज दिया गया। यह अहीरिन युवती भी उसी लारी पर भेजी गई थी। पहर रात जाते-जाते चारों अर्थियां गंगा की ओर चलीं। सलोनी लाठी टेकती हुई आगे-आगे गाती जाती थी-

08:21, 10 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

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लाला समरकान्त के चले जाने के बाद सलीम ने हर एक गांव का दौरा करके असामियों की आर्थिक दशा की जांच करनी शुरू की। अब उसे मालूम हुआ कि उनकी दशा उससे कहीं हीन है, जितनी वह समझे बैठा था। पैदावर का मूल्य लागत और लगान से कहीं कम था। खाने-कपड़े की भी गुंजाइश न थी, दूसरे खर्चों का क्या ज़िक्र- ऐसा कोई बिरला ही किसान था, जिसका सिर के नीचे न दबा हो। कॉलेज में उसने अर्थशास्त्र अवश्य पढ़ा था और जानता था कि यहां के किसानों की हालत ख़राब है, पर अब ज्ञात हुआ है कि पुस्तक-ज्ञान और प्रत्येक्ष व्यवहार में वही अंतर है, जो किसी मनुष्य और उसके चित्र में है। ज्यों-ज्यों असली हालत मालूम होती जाती थी उसे असामियों से सहानुभूति होती जाती थी। कितना अन्याय है कि जो बेचारे रोटियों को मुंहताज हों, जिनके पास तन ढकने को केवल चीथड़े हों, जो बीमारी में एक पैसे की दवा भी न कर सकते हों। जिनके घरों में दीपक भी न जलते हों, उनसे पूरा लगान वसूल किया जाए। जब जिंस मंहगी थी, तब किसी तरह एक जून रोटियां मिल जाती थीं। इस मंदी में तो उनकी दशा वर्णनातीत हो गई है। जिनके लड़के पांच-छ: बरस की उम्र से मेहनत-मजूरी करने लगे, जो ईंधन के लिए हार में गोबर चुनते फिरें, उनसे पूरा लगान वसूल करना, मानो उनके मुंह से रोटी का टुकड़ा छीन लेना है, उनकी रक्त-हीन देह से ख़ून चूसना है।

परिस्थिति का यथार्थ ज्ञान होते ही सलीम ने अपने कर्तव्‍य का निश्चय कर लिया। वह उन आदमियों में न था, जो स्वार्थ के लिए अफसरों के हर एक हुक्म की पाबंदी करते हैं। वह नौकरी करते हुए भी आत्मा की रक्षा करना चाहता था। कई दिन एकांत में बैठकर उसने विस्तार के साथ अपनी रिपोर्ट लिखी और मि. गजनवी के पास भेज दी। मि. गजनवी ने उसे तुरंत लिखा-आकर मुझसे मिल जाओ। सलीम उनसे मिलना न चाहता था। डरता था, कहीं यह मेरी रिपोर्ट को दबाने का प्रस्ताव न करें, लेकिन फिर सोचा-चलने में हर्ज ही क्या है- अगर मुझे कायल कर दें, तब तो कोई बात नहीं लेकिन अफसरों के भय से मैं अपनी रिपोर्ट को कभी न दबने दूंगा। उसी दिन वह संध्‍या समय सदर पहुंचा।

मि. गजनवी ने तपाक से हाथ बढ़ाते हुए कहा-मि. अमरकान्त के साथ तो तुमने दोस्ती का हक खूब अदा किया। वह खुद शायद इतनी मुफस्सिल रिपोर्ट न लिख सकते लेकिन तुम क्या समझते हो, सरकार को यह बातें मालूम नहीं-

सलीम ने कहा-मेरा तो ऐसा ही खयाल है। उसे जो रिपोर्ट मिलती है, वह खुशामदी अहलकारों से मिलती है, जो रिआया का ख़ून करके भी सरकार का घर भरना चाहते हैं। मेरी रिपोर्ट वाकयात पर लिखी गई है।

दोनों अफसरों में बहस होने लगी। गजनवी कहता था-हमारा काम केवल अफसरों की आज्ञा मानना है। उन्होंने लगान वसूल करने की आज्ञा दी। हमें लगान वसूल करना चाहिए। प्रजा को कष्ट होता है तो हो, हमें इससे प्रयोजन नहीं। हमें खुद अपनी आमदनी का टैक्स देने में कष्ट होता है लेकिन मजबूर होकर देते हैं। कोई आदमी खुशी से टैक्स नहीं देता।

गजनवी इस आज्ञा का विरोध करना अनीति ही नहीं, अधर्म समझता था। केवल जाब्ते की पाबंदी से उसे संतोष न हो सकता था। वह इस हुक्म की तामील करने के लिए सब कुछ करने को तैयार था। सलीम का कहना था-हम सरकार के नौकर केवल इसलिए हैं कि प्रजा की सेवा कर सकें, उसे सुदशा की ओर ले जा सकें, उसकी उन्नति में सहायक हो सकें। यदि सरकार की किसी आज्ञा से इन उद्देश्यों की पूर्ति में बाधा पड़ती है, तो हमें उस आज्ञा को कदापि न मानना चाहिए।

गजनवी ने मुंह लंबा करके कहा-मुझे खौफ है कि गवर्नमेंट तुम्हारा यहां से तबादला कर देगी।

'तबादला कर दे इसकी मुझे परवाह नहीं लेकिन मेरी रिपोर्ट पर गौर करने का वादा करे। अगर वह मुझे यहां से हटा कर मेरी रिपोर्ट को दाखिल दफ़्तर करना चाहेगी, तो मैं इस्तीफा दे दूंगा।'

गजनवी ने विस्मय से उसके मुंह की ओर देखा।

'आप गवर्नमेंट की दिक्कतों का मुतलक अंदाजा नहीं कर रहे हैं। अगर वह इतनी आसानी से दबने लगे, तो आप समझते हैं, रिआया कितनी शेर हो जाएगी जरा-जरा-सी बात पर तूफान खड़े हो जाएंगे। और यह महज इस इलाके का मुआमला नहीं है, सारे मुल्क में यही तहरीक जारी है। अगर सरकार अस्सी फीसदी काश्तकारों के साथ रिआयत करे, तो उसके लिए मुल्क का इंतजाम करना दुश्वार हो जाएगा।'

सलीम ने प्रश्न किया-गवर्नमेंट रिआया के लिए है, रिआया गवर्नमेंट के लिए नहीं। काश्तकारों पर जुल्म करके, उन्हें भूखों मारकर अगर गवर्नमेंट जिंदा रहना चाहती है, तो कम-से-कम मैं अलग हो जाऊंगा। अगर मालियत में कमी आ रही है तो सरकार को अपना खर्च घटाना चाहिए, न कि रिआया पर सख्तियां की जाएं।

गजनवी ने बहुत ऊंच-नीच सुझाया लेकिन सलीम पर कोई असर न हुआ। उसे डंडों से लगान वसूल करना किसी तरह मंजूर न था। आखिर गजनवी ने मजबूर होकर उसकी रिपोर्ट ऊपर भेज दी, और एक ही सप्ताह के अंदर गवर्नमेंट ने उसे पृथक् कर दिया। ऐसे भयंकर विद्रोही पर वह कैसे विश्वास करती-

जिस दिन उसने नए अफसर को चार्ज दिया और इलाके से विदा होने लगा, उसके डेरे के चारों तरफ स्त्री-पुरुषों का एक मेला लग गया और सब उससे मिन्नतें करने लगे, आप इस दशा में हमें छोड़कर न जाएं। सलीम यही चाहता था। बाप के भय से घर न जा सकता था। फिर इन अनाथों से उसे स्नेह हो गया था। कुछ तो दया और कुछ अपने अपमान ने उसे उनका नेता बना दिया। वही अफसर जो कुछ दिन पहले अफसरी के मद से भरा हुआ आया था, जनता का सेवक बन बैठा। अत्याचार सहना अत्याचार करने से कहीं ज्यादा गौरव की बात मालूम हुई।

आंदोलन की बागडोर सलीम के हाथ में आते ही लोगों के हौसले बंध गए। जैसे पहले अमरकान्त आत्मानन्द के साथ गांव-गांव दौड़ा करता था, उसी तरह सलीम दौड़ने लगा। वही सलीम, जिसके ख़ून के लोग प्यासे हो रहे थे, अब उस इलाके का मुकुटहीन राजा था। जनता उसके पसीने की जगह ख़ून बहाने को तैयार थी।

संध्‍या हो गई थी। सलीम और आत्मानन्द दिन-भर काम करने के बाद लौटे थे कि एकाएक नए बंगाली सिविलियन मि. घोष पुलिस कर्मचारियों के साथ आ पहुंचे और गांव भर के मवेशियों की कुर्क करने की घोषणा कर दी। कुछ कसाई पहले ही से बुला लिए गए थे। वे सस्ता सौदा ख़रीदने को तैयार थे। दम-के-दम में कांस्टेबलों ने मवेशियों को खोल-खोलकर मदरसे के द्वार पर जमा कर दिया। गूदड़, भोला, अलगू सभी चौधरी गिरफ्तार हो चुके थे। फसल की कुर्की तो पहले ही हो चुकी थी मगर फसल में अभी क्या रखा था- इसलिए अब अधिकारियों ने मवेशियों को कुर्क करने का निश्चय किया था। उन्हें विश्वास था कि किसान मवेशियों की कुर्की देखकर भयभीत हो जाएंगे, और चाहे उन्हें कर्ज़ लेना पड़े, या स्त्रियों के गहने बेचने पड़ें, वे जानवरों को बचाने के लिए सब कुछ करने को तैयार होंगे। जानवर किसान के दाहिने हाथ हैं।

किसानों ने यह घोषणा सुनी, तो छक्के छूट गए। वे समझे बैठे थे कि सरकार और जो चाहे करे, पर मवेशियों को कुर्क न करेगी। क्या वह किसानों की जड़ खोदकर फेंक देगी।

यह घोषणा सुनकर भी वे यही समझ रहे थे कि यह केवल धामकी है लेकिन जब मवेशी मदरसे के सामने जमा कर दिए गए और कसाइयों ने उनकी देखभाल शुरू की तो सभी पर जैसे वज्राघात हो गया। अब समस्या उस सीमा तक पहुंची थी, जब रक्त का आदान-प्रदान आरंभ हो जाता है।

चिराग जलते-जलते जानवरों का बाज़ार लग गया। अधिकारियों ने इरादा किया है कि सारी रकम एकजाई वसूल करें। गांव वाले आपस में लड़-भिड़कर अपने-अपने लगान का फैसला कर लेंगे। इसकी अधिकारियों को कोई चिंता नहीं है।

सलीम ने आकर मि. घोष से कहा-आपको मालूम है कि मवेशियों को कुर्क करने का आपको मजाज नहीं है-

मि. घोष ने उग्र भाव से जवाब दिया-यह नीति ऐसे अवसरों के लिए नहीं है। विशेष अवसरों के लिए विशेष नीति होती है। क्रांति की नीति, शांति की नीति से भिन्न होनी स्वाभाविक है।

अभी सलीम ने कुछ उत्तर न दिया था कि मालूम हुआ, अहीरों के मुहाल में लाठी चल गई। मि. घोष उधर लपके। सिपाहियों ने भी संगीनें चढ़ाईं और उनके पीछे चले। काशी, पयाग, आत्मानन्द सब उसी तरफ दौड़े। केवल सलीम यहां खड़ा रहा। जब एकांत हो गया, तो उसने कसाइयों के सरगना के पास जाकर सलाम-अलेक किया और बोला-क्यों भाई साहब, आपको मालूम है, आप लोग इन मवेशियों को ख़रीदकर यहां की ग़रीब रिआया के साथ कितनी बड़ी बेइंसाफी कर रहे हैं-

सरगना का नाम तेगमुहम्मद था। नाटे क़द का गठीला आदमी था, पूरा पहलवान। ढीला कुर्ता, चारखाने की तहमद, गले में चांदी की तावीज, हाथ में माटा सोंटा। नम्रता से बोला -साहब, मैं तो माल ख़रीदने आया हूं। मुझे इससे क्या मतलब कि माल किसका है और कैसा है- चार पैसे का फायदा जहां होता है वहां आदमी जाता ही है।

'लेकिन यह तो सोचिए कि मवेशियों की कुर्की किस सबब से हो रही है- रिआया के साथ आपको हमदर्दी होनी चाहिए।'

तेगमुहम्मद पर कोई प्रभाव न हुआ-सरकार से जिसकी लड़ाई होगी, उसकी होगी। हमारी कोई लड़ाई नहीं है।

'तुम मुसलमान होकर ऐसी बातें करते हो, इसका मुझे अफ़सोस है। इस्लाम ने हमेशा मजलूमों की मदद की है। और तुम मजलूमों की गर्दन पर छुरी फेर रहे हो॥'

'जब सरकार हमारी परवरिस कर रही है, तो हम उनके बदखाह नहीं बन सकते।'

'अगर सरकार तुम्हारी जायदाद छीनकर किसी गैर को दे दे, तो तुम्हें बुरा लगेगा, या नहीं?'

'सरकार से लड़ना हमारे मज़हब के ख़िलाफ़ है।'

'यह क्यों नहीं कहते तुममें गैरत नहीं है?'

'आप तो मुसलमान हैं। क्या आपका फर्ज नहीं है कि बादशाह की मदद करें?'

'अगर मुसलमान होने का यह मतलब है कि ग़रीबों का ख़ून किया जाए, तो मैं काफिर हूं।'

तेगमुहम्मद पढ़ा-लिखा आदमी था। वह वाद-विवाद करने पर तैयार हो गया। सलीम ने उसकी हंसी उड़ाने की चेष्टा की। पंथों को वह संसार का कलंक समझता था, जिसने मनुष्य-जाति को विरोधी दलों में विभक्त करके एक-दूसरे का दुश्मन बना दिया है। तेगमुहम्मद रोजा-नमाज़ का पाबंद, दीनदार मुसलमान था। मज़हब की तौहीन क्योंकर बर्दाश्त करता- उधर तो अहिराने में पुलिस और अहीरों में लाठियां चल रही थीं, इधर इन दोनों में हाथापाई की नौबत आ गई। कसाई पहलवान था। सलीम भी ठोकर चलाने और घूसेबाजी में मंजा हुआ, फुर्तीला, चुस्त। पहलवान साहब उसे अपनी पकड़ में लाकर दबोच बैठना चाहते थे। वह ठोकर-पर-ठोकर जमा रहा था। ताबड़-तोड़ ठोकरें पड़ीं तो पहलवान साहब गिर पड़े और लगे मात्भाषा में अपने मनोविकारों को प्रकट करने। उसके दोनों साथियों ने पहले दूर ही से तमाशा देखना उचित समझा था लेकिन जब तेगमुहम्मद गिर पड़ा, तो दोनों कमर कसकर पिल पड़े। यह दोनों अभी जवान पट्ठे थे, तेज़ीऔर चुस्ती में सलीम के बराबर थें। सलीम पीछे हटता जाता था और यह दोनों उसे ठेलते जाते थे। उसी वक्त सलोनी लाठी टेकती हुई अपनी गाय खोजने आ रही थी। पुलिस उसे उसके द्वार से खोल लाई थी। यहां यह संग्राम छिड़ा देखकर उसने अंचल सिर से उतार कर कमर में बांधा और लाठी संभालकर पीछे से दोनों कसाइयों को पीटने लगी। उनमें से एक ने पीछे फिरकर बुढ़िया को इतने ज़ोर से धक्का दिया कि वह तीन-चार हाथ पर जा गिरी। इतनी देर में सलीम ने घात पाकर सामने के जवान को ऐसा घूंसा दिया कि उसकी नाक से ख़ून जारी हो गया और वह सिर पकड़कर बैठ गया। अब केवल एक आदमी और रह गया। उसने अपने दो योद्वाओं की यह गति देखी तो पुलिस वालों से फरियाद करने भागा। तेगमुहम्मद की दोनों घुटनियां बेकार हो गई थीं। उठ न सकता था। मैदान ख़ाली देखकर सलीम ने लपककर मवेशियों की रस्सियां खोल दीं और तालियां बजा-बजाकर उन्हें भगा दिया। बेचारे जानवर सहमे खड़े थे। आने वाली विपत्ति का उन्हें कुछ आभास हो रहा था। रस्सी खुली तो सब पूंछ उठा-उठाकर भागे और हार की तरफ निकल गए।

उसी वक्त आत्मानन्द बदहवास दौड़े आए और बोले-आप जरा अपना रिवाल्वर तो मुझे दीजिए।

सलीम ने हक्का-बक्का होकर पूछा-क्या माजरा है, कुछ कहो तो-

'पुलिस वालों ने कई आदमियों को मार डाला। अब नहीं रहा जाता, मैं इस घोष को मजा चखा देना चाहता हूं।'

'आप कुछ भंग तो नहीं खा गए हैं- भला यह रिवाल्वर चलाने का मौक़ा है?'

'अगर यों न दोगे, तो मैं छीन लूंगा। इस दुष्ट ने गोलियां चलवाकर चार-पांच आदमियों की जान ले ली। दस-बारह आदमी बुरी तरह जख्मी हो गए हैं। कुछ इनको भी तो मजा चखाना चाहिए। मरना तो है ही।'

'मेरा रिवाल्वर इस काम के लिए नहीं है।'

आत्मानन्द यों भी उद्वंड आदमी थे। इस हत्याकांड ने उन्हें बिलकुल उन्मत्ता कर दिया था। बोले-निरपराधों का रक्त बहाकर आततायी चला जा रहा है, तुम कहते हो रिवाल्वर इस काम के लिए नहीं है फिर किस काम के लिए है- मैं तुम्हारे पैरों पड़ता हूं भैया, एक क्षण के लिए दे दो। दिल की लालसा पूरी कर लूं। कैसे-कैसे वीरों को मारा है इन हत्यारों ने कि देखकर मेरी आंखों में ख़ून उतर आया ।

सलीम बिना कुछ उत्तर दिए वेग से अहिराने की ओर चला गया। रास्ते में सभी द्वार बंद थे। कुत्तो भी कहीं भागकर जा छिपे थे।

एकाएक एक घर का द्वार झोंके के साथ खुला और एक युवती सिर खोले, अस्त-व्यस्त कपड़े ख़ून से तर, भयातुर हिरनी-सी आकर उसके पैरों से चिपट गई और सहमी हुई आंखों से द्वार की ओर ताकती हुई बोली-मालिक, यह सब सिपाही मुझे मारे डालते हैं।

सलीम ने तसल्ली दी-घबराओ नहीं। घबराओ नहीं। माजरा क्या है-

युवती ने डरते-डरते बताया कि घर में कई सिपाही घुस गए हैं। इसके आगे वह और कुछ न कह सकी।

'घर में कोई आदमी नहीं है?'

'वह तो भैंस चराने गए हैं।'

'तुम्हारे कहां चोट आई है?'

'मुझे चोट नहीं आई। मैंने दो आदमियों को मारा है।'

उसी वक्त दो कांस्टेबल बंदूकें लिए घर से निकल आए और युवती को सलीम के पास खड़ी देख दौड़कर उसके केश पकड़ लिए और उसे द्वार की ओर खींचने लगे।

सलीम ने रास्ता रोककर कहा-छोड़ दो उसके बाल, वरना अच्छा न होगा। मैं तुम दोनों को भूनकर रख दूं।

एक कांस्टेबल ने क्रोध-भरे स्वर में कहा-छोड़ कैसे दें- इसे ले जाएंगे साहब के पास। इसने हमारे दो आदमियों को गंडासे से जख्मी कर दिया। दोनों तड़प रहे हैं।

'तुम इसके घर में क्यों गए थे?'

'गए थे मवेशियों को खोलने। यह गंड़ासा लेकर टूट पड़ी।'

युवती ने टोका-झूठ बोलते हो। तुमने मेरी बांह नहीं पकड़ी थी-

सलीम ने लाल आंखों से सिपाही को देखा और धक्का देकर कहा-इसके बाल छोड़ दो ।

'हम इसे साहब के पास ले जाएंगे।'

'तुम इसे नहीं ले जा सकते।'

सिपाहियों ने सलीम को हाकिम के रूप में देखा था। उसकी मातहती कर चुके थे। उस रोब का कुछ अंश उनके दिल पर बाकी था। उसके साथ जबर्दस्ती करने का साहस न हुआ। जाकर मि. घोष से फरियाद की। घोष बाबू सलीम से जलते थे। उनका खयाल था कि सलीम ही इस आंदोलन को चला रहा है और यदि उसे हटा दिया जाय, तो चाहे आंदोलन तुरंत शांत न हो जाय, पर उसकी जड़ टूट जाएगी, इसलिए सिपाहियों की रिपोर्ट सुनते ही तुरंत घोड़ा बढ़ाकर सलीम के पास आ पहुंचे और अंग्रेजी में क़ानून बघारने लगे। सलीम को भी अंग्रेजी बोलने का बहुत अच्छा अभ्यास था। दोनों में पहले क़ानूनी मुबाहसा हुआ, फिर धार्मिक तत्‍व निरूपण का नंबर आया, इसमें उतर कर दोनों दार्शनिक तर्क-वितर्क करने लगे, यहां तक कि अंत में व्यक्तिगत आक्षेपों की बौछार होने लगी। इसके एक ही क्षण बाद शब्द ने क्रिया का रूप धारण किया। मिस्टर घोष ने हंटर चलाया, जिसने सलीम के चेहरे पर एक नीली चौड़ी उभरी हुई रेखा छोड़ दी। आँखेंं बाल-बाल बच गईं। सलीम भी जामे से बाहर हो गया। घोष की टांग पकड़कर ज़ोर से खींचा। साहब घोड़े से नीचे गिर पड़े। सलीम उनकी छाती पर चढ़ बैठा और नाक पर घूंसा मारा। घोष बाबू मूर्छित हो गए। सिपाहियों ने दूसरा घूंसा न पड़ने दिया। चार आदमियों ने दौड़कर सलीम को जकड़ लिया। चार आदमियों ने घोष को उठाया और होश में लाए।

अंधेरा हो गया था। आतंक ने सारे गांव को पिशाच की भांति छाप लिया था। लोग शोक से और आतंक के भाव से दबे, मरने वालों की लाशें उठा रहे थे। किसी के मुंह से रोने की आवाज़ न निकलती थी। जख्म ताजा था, इसलिए टीस न थी। रोना पराजय का लक्षण है, इन प्राणियों को विजय का गर्व था। रोकर अपनी दीनता प्रकट न करना चाहते थे। बच्चे भी जैसे रोना भूल गए थे।

मिस्टर घोष घोड़े पर सवार होकर डाक बंगले गए। सलीम एक सब-इंस्पेक्टर और कई कांस्टेबलों के साथ एक लारी पर सदर भेज दिया गया। यह अहीरिन युवती भी उसी लारी पर भेजी गई थी। पहर रात जाते-जाते चारों अर्थियां गंगा की ओर चलीं। सलोनी लाठी टेकती हुई आगे-आगे गाती जाती थी-

सैंया मोरा रूठा जाय सखी री...

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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