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{{सूचना बक्सा कलाकार
{{सूचना बक्सा कलाकार
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|प्रसिद्धि= गुरु दत्त अपनी फ़िल्मों में कैमरा और प्रकाश व्यवस्था के लिए प्रसिद्ध थे। 
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गुरुदत्त (जन्म- [[9 जुलाई]] 1925, [[बंगलोर]], [[कर्नाटक]], [[भारत]]; मृत्यु- [[10 अक्तूबर]] 1964, [[बंबई]] {वर्तमान मुंबई}, [[महाराष्ट्र]]), हिंदी सिनेमा के निर्देशक तथा अभिनेता थे।
'''गुरु दत्त''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Guru Dutt'', जन्म- [[9 जुलाई]], [[1925]] [[बंगलोर]]; मृत्यु- [[10 अक्तूबर]], [[1964]] [[बंबई]]) [[भारतीय सिनेमा]] में फ़िल्म निर्माता-निर्देशक और [[अभिनेता]] थे। 'गुरु दत्त' का वास्तविक नाम "वसंथ कुमार शिवशंकर पादुकोण" था। गुरु दत्त अपने आप में एक संपूर्ण कलाकार बनने की पूरी पात्रता रखते थे। वे विश्व स्तरीय फ़िल्म निर्माता और निर्देशक थे। साथ ही में उनकी साहित्यिक रुचि और [[संगीत]] की समझ की झलक हमें उनकी सभी फ़िल्मों में दिखती ही है। वे एक अच्छे नर्तक भी थे, क्योंकि उन्होंने अपने फ़िल्मी जीवन का आगाज़ किया था [[प्रभात फ़िल्म कम्पनी|प्रभात फ़िल्म्स]] में एक कोरियोग्राफ़र की हैसियत से। अभिनय कभी उनकी पहली पसंद नहीं रही, मगर उनके सरल, संवेदनशील और नैसर्गिक अभिनय का लोहा सभी मानते थे। उन्होंने [[प्यासा (फ़िल्म)|प्यासा]] के लिये पहले [[दिलीप कुमार]] का चयन किया था। वे एक रचनात्मक लेखक भी थे और उन्होंने पहले पहले 'इल्लस्ट्रेटेड वीकली अॉफ़ इंडिया' में कहानियां भी लिखी थीं।<ref>{{cite web |url=http://podcast.hindyugm.com/2008/10/remembering-gurudutt-genius-film-maker.html|title=गुरु दत्त , एक अशांत अधूरा कलाकार !|accessmonthday=4जुलाई|accessyear=2012|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=आवाज |language=हिंदी}}</ref>
==फ़िल्मी सफ़र==
==जीवन परिचय==
कलकत्ता (वर्तमान [[कोलकाता]]) में शिक्षा प्राप्त करने के बाद दत्त ने [[अल्मोड़ा]] स्थित उदय शंकर की नृत्य अकादमी में प्रशिक्षण प्राप्त किया और उसके बाद कलकत्ता में टेलीफ़ोन ऑपरेटर का काम करने लगे। बाद में वह [[पुणे]] (भूतपूर्व पूना) चले गए और प्रभात स्टूडियो से जुड़ गए, जहाँ उन्होंने पहले [[अभिनेता]] और फिर नृत्य-निर्देशक के रूप में काम किया। उनकी पहली फ़ीचर फ़िल्म बाज़ी (1951) देवानंद की नवकेतन फ़िल्म्स के बैनर तले बनी थी। इसके बाद उनकी दूसरी सफल फ़िल्म जाल (1952) बनी, जिसमें वही सितारे (देवानंद और गीता बाली) शामिल थे। इसके बाद गुरूदत्त ने बाज़ (1953) फ़िल्म के निर्माण के लिए अपनी प्रोडक्शन कंपनी शुरू की। हालांकि उन्होंने अपने संक्षिप्त, किंतु प्रतिभासंपन्न पेशेवर जीवन में कई शैलियों में प्रयोग किया, लेकिन उनकी प्रतिभा का सर्वश्रेष्ठ रूप उत्कट भावुकतापूर्ण फ़िल्मों में प्रदर्शित हुआ।
गुरु दत्त का जन्म [[9 जुलाई]], [[1925]] को [[बैंगलोर]] में हुआ था। उनकी माँ वसंती पादुकोण के अनुसार 'बचपन से गुरु दत्त बहुत नटखट और जिद्दी था। प्रश्न पूछना उसका स्वभाव था। कभी कभी उसके प्रश्नों का उत्तर देते हुए वे पागल हो जाती थीं, किसी की बात नहीं मानता था। अपने दिल में अगर ठीक लगा तो ही वो मानता था। गुस्से वाला बहुत था। मन में आया तो करेगा ही...ज़रूर.'<ref name="लहरें">{{cite web |url=http://laharein.blogspot.in/2012/04/blog-post_24.html |title=गुरु दत्त को जानना एक अदम्य, अतृप्त प्यास से पूरा भर जाना है |accessmonthday=9 जुलाई |accessyear=2012 |last=उपाध्याय|first=पूजा |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=लहरें (ब्लॉग) |language=हिन्दी }}</ref>[[चित्र:Guru-Dutt-2.jpg|thumb|left|गुरु दत्त]]
====परिवार====
गुरु दत्त के [[पिता]] का नाम 'श्री शिवशंकर राव पादुकोण' और [[माता]] का नाम 'श्रीमती वसंती पादुकोण' है। गुरु दत्त ने गायिका [[गीता दत्त]] से सन् [[1953]] में विवाह किया। गुरु दत्त के बेटे अरुण दत्त के अनुसार ‘प्यासा’ और ‘काग़ज़ के फूल’ जैसी क्लासिक फ़िल्मों के सर्जक गुरुदत्त चुप और गंभीर रहते थे। लेकिन उनके भीतर एक मस्ती करने वाला बच्चा भी था। वे [[पतंग]] उड़ाते, मछली पकड़ते और फोटोग्राफी भी करते थे। गुरु दत्त को खेती करना भी काफ़ी सुहाता था। लोनावला में फार्म हाउस था जहां वो हर साल जाकर खेती करते थे। उन्हें फिशिंग में भी दिलचस्पी थी। [[पवई झील]] में [[जॉनी वॉकर]] और गुरु दत्त खूब मछली पकड़ा करते थे। एक बार उन्हें एक स्कूटर पसंद आ गया। वे उसे चलाते हुए स्टूडियो जा रहे थे तभी सिग्नल के पास गाड़ी रुकी तो लोगों ने उन्हें पहचान लिया। वे किसी तरह से गाड़ी से वहां से निकले। एक दिलचस्प क़िस्सा  है कि [[कश्मीर]] में उन्होंने एक शिकारा देखा तो वे उस शिकारा को कश्मीर से खुलवाकर पवई झील ले आए।
====गीता राय से विवाह====
दरअसल, जिन दिनों गुरु दत्त फ़िल्मों में अपनी ज़मीन तलाश रहे थे, उन्हीं दिनों गीता राय नाम की एक नई गायिका पार्श्व गायिका बनने की कोशिश में व्यस्त थीं। थोड़े ही दिनों में गुरु दत्त कई निर्देशकों के सहायक बने, तो उधर फ़िल्म 'भक्त प्रह्लाद' में गीता राय को भजन गाने का अवसर मिला। सन् [[1948]] में प्रदर्शित फ़िल्म 'दो भाई' में गाये गीत मेरा सुंदर सपना बीत गया.. ने गीता राय को पूरे देश में चर्चित कर दिया। दरअसल, यही वह गीत था, जिसने गुरु दत्त के दिल के तारों को झंकृत कर दिया। और यहीं से गुरु दत्त ने मन ही मन यह फैसला भी कर लिया कि वे जब भी फ़िल्म बनाएंगे, गीता राय से गीत अवश्य गवाएंगे। मित्र [[देवआनंद]] ने फ़िल्म 'बाज़ी' का निर्देशन गुरु दत्त को सौंप कर उस वादे को पूरा किया, जो उन्होंने कभी प्रभात स्टूडियो में किया था। बाज़ी शुरू हुई, तो गुरु ने गीता राय से एक गीत गवाया। बाज़ी में गीता राय का गीता बाली पर फ़िल्माया गया यह गीत 'सुनो गज़र क्या गाये...' अपने समय का सुपर हिट गीत साबित हुआ।
बाज़ी की शूटिंग के दौरान से ही गुरु दत्त और गीता राय एक-दूसरे के निकट आए। जहां एक ओर गुरु गीता की आवाज़ के दीवाने हो गए थे, वहीं दूसरी ओर गीता भी गुरु के प्रभावशाली व्यक्तित्व पर मुग्ध थीं। दरअसल, दोनों अंतर्मुखी प्रवृत्ति के थे। कम बोलने वाले, गंभीर, लेकिन आंखों ही आंखों में बहुत कुछ कह जाने वाले। एक दिन जब रिहर्सल और रिकॉर्डिंग से फुर्सत मिली, तो गुरु दत्त ने गीता को शादी के लिए प्रस्ताव रख दिया। गीता गुरु दत्त को चाहने लगी थीं, लेकिन बिना माता-पिता की मर्ज़ी
के वे शादी नहीं कर सकती थीं। बाज़ी अभी रिलीज नहीं हुई थी। गीता ने कहा, परिवार वालों से कहना होगा। फिर बाद में गीता राय के माता पिता की राजी से दोनों का विवाह सन् [[1953]] में हुआ।<ref>{{cite web |url=http://in.jagran.yahoo.com/cinemaaza/cinema/memories/201_201_8116.html |title=मेरे जीवनसाथी/गुरु दत्त-गीता राय|accessmonthday=9 जुलाई |accessyear=2012 |last=श्रीवास्तव|first=बच्चन |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=जागरण याहू इण्डिया|language=हिन्दी }}</ref> [[चित्र:Geeta-dutt.jpg|thumb|left|[[गीता दत्त|गीता राय]]]]
==फ़िल्मी जीवन==
कलकत्ता (वर्तमान [[कोलकाता]]) में शिक्षा प्राप्त करने के बाद गुरु दत्त ने [[अल्मोड़ा]] स्थित [[उदय शंकर]] की नृत्य अकादमी में प्रशिक्षण प्राप्त किया और उसके बाद कलकत्ता में टेलीफ़ोन ऑपरेटर का काम करने लगे। बाद में वह [[पुणे]] (भूतपूर्व पूना) चले गए और प्रभात स्टूडियो से जुड़ गए, जहाँ उन्होंने पहले [[अभिनेता]] और फिर नृत्य-निर्देशक के रूप में काम किया। उनकी पहली फ़ीचर फ़िल्म 'बाज़ी' ([[1951]]) [[देवानंद]] की 'नवकेतन फ़िल्म्स' के बैनर तले बनी थी। इसके बाद उनकी दूसरी सफल फ़िल्म 'जाल' ([[1952]]) बनी, जिसमें वही सितारे (देवानंद और गीता बाली) शामिल थे। इसके बाद गुरु दत्त ने 'बाज़' ([[1953]]) फ़िल्म के निर्माण के लिए अपनी प्रोडक्शन कंपनी शुरू की। हालांकि उन्होंने अपने संक्षिप्त, किंतु प्रतिभा संपन्न पेशेवर जीवन में कई शैलियों में प्रयोग किया, लेकिन उनकी प्रतिभा का सर्वश्रेष्ठ रूप उत्कट भावुकतापूर्ण फ़िल्मों में प्रदर्शित हुआ।
;प्रसिद्धि का स्रोत
;प्रसिद्धि का स्रोत
मुख्य रूप से दत्त की प्रसिद्धि का स्रोत बारीकी से गढ़ी गई, उदास व चिंतन भरी उनकी तीन बेहतरीन फ़िल्में हैं- प्यासा (1957), काग़ज़ के फूल (1959) और साहब, बीबी और गुलाम (1962)। हालांकि साहब, बीबी और गुलाम का श्रेय उनके सह पटकथा लेखक अबरार अल्वी को दिया जाता है, लेकिन यह स्पष्ट रूप से गुरूदत्त की कृति थी। गुरूदत्त ने सी.आई.डी. से [[वहीदा रहमान]] का फ़िल्म जगत में परिचय कराया और फिर प्यास तथा काग़ज़ के फूल जैसी फ़िल्मों से उन्हे कीर्तिस्तंभ की तरह स्थापित कर दिया। प्रकाश और छाया के कल्पनाशील उपयोग, भावपूर्ण दृश्यबिंब, कथा में कई विषय- वस्तुओं की परतें गूंथने की अद्भुत क्षमता और गीतों के मंत्रमुग्धकारी छायांकन ने उन्हें भारतीय सिनेमा के सबसे निपूण शैलीकारों में ला खड़ा किया।  
मुख्य रूप से गुरु दत्त की प्रसिद्धि का स्रोत बारीकी से गढ़ी गई, उदास व चिंतन भरी उनकी तीन बेहतरीन फ़िल्में हैं- '[[प्यासा (फ़िल्म)|प्यासा]]' ([[1957]]), 'काग़ज़ के फूल' ([[1959]]) और 'साहब, बीबी और ग़ुलाम' ([[1962]])। हालांकि 'साहब, बीबी और ग़ुलाम' का श्रेय उनके सह पटकथा लेखक अबरार अल्वी को दिया जाता है, लेकिन यह स्पष्ट रूप से गुरु दत्त की कृति थी। गुरु दत्त ने सी.आई.डी. से [[वहीदा रहमान]] का फ़िल्म जगत् से परिचय कराया और फिर 'प्यासा' तथा 'काग़ज़ के फूल' जैसी फ़िल्मों से उन्हें कीर्तिस्तंभ की तरह स्थापित कर दिया। प्रकाश और छाया के कल्पनाशील उपयोग, भावपूर्ण दृश्यबिंब, कथा में कई विषय-वस्तुओं की परतें गूंथने की अद्भुत क्षमता और गीतों के मंत्रमुग्धकारी छायांकन ने उन्हें भारतीय सिनेमा के सबसे निपुण शैलीकारों में ला खड़ा किया।
==असाधारण कलाकार==
[[चित्र:Pyaasa poster.jpg|thumb|[[प्यासा (फ़िल्म)|प्यासा]]]]
गुरु दत्त फ़िल्म टुकड़े टुकड़े में बनाते थे। फ़िल्म समय की लीनियर गति से नहीं चलती थी। जहाँ जो पसंद आया उस सीन को फ़िल्मा लिया गया। गुरु दत्त अनगिनत रिटेक देते थे और सीन को तब तक शूट करते थे जब तक वो खुद और फ़िल्म के बाकी कलाकार संतुष्ट न हो जाएं। अबरार अल्वी किताब में कहते हैं कि वो जितनी फुटेज में एक फ़िल्म बनाते थे उतने में तीन फ़िल्में बन सकती थीं। गुरु दत्त की फ़िल्मों की शूटिंग ज़िंदगी की तरह चलती थी। जैसे जैसे आगे बढ़ती थी किरदार विकसित होते जाते थे। गुरु दत्त की फ़िल्म यूनिट में लगभग स्थायी सदस्य होते थे। अबरार अल्वी और [[राज खोसला]] के साथ रोज फ़िल्म की शूटिंग के बाद ब्रेनस्टोर्मिंग सेशन होते थे जिसमें रशेस देखे जाते थे और आगे की फ़िल्म का खाका तय किया जाता था।<ref name="लहरें"/> 
====एक वाकया====
एक मजेदार वाकया है। [[वहीदा रहमान]] सुनाती हैं...'वो एक दिन दाढ़ी बना रहे थे और मूर्ति साहब के साथ शॉट की बात कर रहे थे। तो हम लोग सब हॉल में बैठे हुए थे तो अचानक आवाज़ आई। उन्होंने इत्ती जोर से अपना रेज़र फेंका और बोले अरे क्या करते हो यार मूर्ति...तुमने बर्बाद कर दिया मुझे...तो मूर्ति साहब एकदम परेशान...मैंने क्या किया...हम तो शॉट के बारे में बात कर रहे थे...नहीं यार तुमसे शॉट की बात करते करते मैंने अपनी एक तरफ की मूंछ उड़ा दी...तो हम में किसी से रहा नहीं गया तो हम हँस पड़े जोर जोर से...कि तुम लोग हँस रहे हो... आज रात को शूटिंग है मैं क्या करूं... तो फिर मूर्ति साहब ने कहा... ग़लती आपकी थी, मेरी तो थी नहीं। फिर भी आप मुझे क्यूँ डांट रहे हैं। आप इस तरह कीजिये, दूसरी तरफ की भी मूंछ शेव कर डालिये फिर नयी नकली मूंछ लगानी पड़ेगी आपको। तो इस वाकया से स्पष्ट है कि जब वो शॉट के बारे में सोच रहे हों या बातें कर रहे हों तो सब कुछ भूल जाते थे।<ref name="लहरें"/>
====नई तकनीक का प्रयोग====
[[चित्र:Sahib-bibi-aur-gulam.jpg|thumb|साहब बीबी और ग़ुलाम]]
गुरु दत्त ने अपने फ़िल्मी कैरियर में कई नए तकनीकी प्रयोग भी किए जैसे, फ़िल्म बाज़ी में दो नए प्रयोग किए-
# 100 एमएम के लेंस का क्लोज़ अप के लिए इस्तेमाल पहली बार किया- क़रीब 14 बार। इससे पहले कैमरा इतने पास कभी नहीं आया, कि उन दिनों कलाकारों को बड़ी असहजता के अनुभव से गुज़रना पड़ा। तब से उस स्टाईल का नाम ही गुरु दत्त शॉट पड़ गया।
# किसी भी फ़िल्म में पहली बार गानों का उपयोग कहानी को आगे बढ़ाने के लिए किया गया।
वैसे ही फ़िल्म 'काग़ज़ के फूल' हिन्दुस्तान में सिनेमा स्कोप में बनी पहली फ़िल्म थी। दरअसल, इस फ़िल्म के लिए गुरु दत्त कुछ अनोखा, कुछ हटके करना चाहते थे, जो आज तक भारतीय फ़िल्म के इतिहास में कभी नहीं हुआ। संयोग से तभी एक हालीवुड की फ़िल्म कंपनी '20th Century Fox' ने उन दिनों [[भारत]] में किसी सिनेमास्कोप में बनने वाली फ़िल्म की शूटिंग ख़त्म की थी और उसके स्पेशल लेंस बंबई में उनके ऑफिस में छूट गए थे। जब गुरु दत्त को इसका पता चला तो वे अपने सिनेमैटोग्राफर [[वी. के. मूर्ति]] को लेकर तुंरत वहाँ गए, लेंस लेकर कुछ प्रयोग किये, रशेस देखे और फिर फ़िल्म के लिए इस फार्मेट का उपयोग किया। चलिए अब हम इस फ़िल्म के एक गाने का ज़िक्र भी कर लेते हैं-
;वक्त ने किया क्या हसीं सितम... तुम रहे ना तुम, हम रहे ना हम...
[[गीता दत्त]] की हसीं आवाज़ में गाये, और फ़िल्म में स्टूडियो के पृष्ठभूमि में फ़िल्माए गए इस गीत में भी एक ऐसा प्रयोग किया गया, जो बाद में विश्वविख्यात हुआ अपने बेहतरीन लाइटिंग की ख़ूबसूरत संयोजन की वजह से। गुरु दत्त इस क्लाईमेक्स के सीन में कुछ अलग नाटकीयता और रील लाईफ़ और रियल लाईफ़ का विरोधाभास प्रकाश व्यवस्था की माध्यम से व्यक्त करना चाहते थे। ब्लैक एंड व्हाईट [[रंग|रंगों]] से नायक और नायिका की मन की मोनोटोनी, रिक्तता, यश और वैभव की क्षणभंगुरता के अहसास को बड़े जुदा अंदाज़ में फ़िल्माना चाहते थे। जिस दिन उन्होंने नटराज स्टूडियो में शूटिंग शुरू की, तो उनके फोटोग्राफर वी. के. मूर्ति ने उन्हें वेंटिलेटर से छन कर आती धूप की एक तेज़ किरण दिखाई, तो गुरु दत्त बेहद रोमांचित हो उठे और उन्होंने इस इफेक्ट को ही उपयोग करने का मन बना लिया। वे मूर्ति को बोले,' मैं शूटिंग के लिए भी सन् लाईट ही चाहता हूँ क्योंकि जिस प्रभाव की मैं कल्पना कर रहा हूँ वह बड़ी आर्क लाईट से अथवा कैमरे की अपर्चर को सेट करके नहीं आयेगा।'
तो फिर दो बड़े बड़े आइने स्टूडियो के बाहर रखे गये, जिनको बड़ी मेहनत से सेट करके वह प्रसिद्ध सीन शूट किया गया जिसमें गुरु दत्त और वहीदा के बीच में वह तेज रोशनी का बीम आता है। साथ में चेहरे के क्लोज़ अप में अनोखे फेंटम इफेक्ट से उत्पन्न हुए एम्बियेन्स से हम दर्शक ठगे से रह जाते हैं एवं उस काल में, उस वातावरण निर्मिति से उत्पन्न करुणा के एहसास में विलीन हो जाते हैं, एकाकार हो जाते हैं।<ref>{{cite web |url=http://podcast.hindyugm.com/2008/10/remembering-gurudutt-genius-film-maker.html |title=गुरु दत्त , एक अशांत अधूरा कलाकार !|accessmonthday=9 जुलाई |accessyear=2012 |last=कवठेकर |first=दिलीप|authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=आवाज़ (ब्लॉग)|language=हिन्दी }}</ref>
==गुरु दत्त की फ़िल्में==
{| class="bharattable-pink"
|+ गुरु दत्त की प्रमुख फ़िल्में<ref>आभार- पंजाब केसरी 1 दिसंबर, 2011 </ref>
|-
! वर्ष
! फ़िल्म
! नायिका
! निर्देशक
|-
| 1945
| लाखा रानी
| मोनिका देसाई
| विश्राम बेड़ेकर
|-
| 1953
| बाज़
| गीता बाली
| गुरु दत्त
|-
| 1954
| आर पार
| श्यामा, शकीला
| गुरु दत्त
|-
| 1955
| मि.एंड मिसेस 55
| [[मधुबाला]]
| गुरु दत्त
|-
| 1957
| [[प्यासा (फ़िल्म)|प्यासा]]
| [[माला सिन्हा]], [[वहीदा रहमान]]
| गुरु दत्त
|-
| 1958
| बारह बजे
| वहीदा रहमान
| प्रमोद चक्रवती
|-
| 1959
| काग़ज़ के फूल
| वहीदा रहमान
| गुरु दत्त
|-
| 1960
| चौदहवी का चाँद
| वहीदा रहमान
| एम. सादिक
|-
| 1962
| साहिब बीवी और ग़ुलाम
| [[मीना कुमारी]], [[वहीदा रहमान]]
| अबरार अल्वी
|-
| 1963
| सौतेला भाई
|
| महेश कौल
|-
| 1963
| बहुरानी
| माला सिन्हा
| टी. प्रकाश राव
|-
| 1963
| भरोसा
| [[आशा पारेख]]
| के.शंकर
|-
| 1964
| सांझ और सवेरा
| [[मीना कुमारी]]
| [[ऋषिकेश मुखर्जी]]
|-
| 1964
| सुहागन
| वहीदा रहमान
| के. एस. गोपालकृष्णन
|-
| colspan="4" style="text-align:center;"| निर्देशक के तौर पर गुरु दत्त
|-
! वर्ष
! फ़िल्म
! नायक
! नायिका
|-
| 1951
| बाज़ी
| [[देवानंद]]
| गीता बाली, कल्पना कार्तिक
|-
| 1951
| जाल
| देवानंद
| गीता बाली, पूर्णिमा
|-
| 1956
| सैलाब
| अभि भट्टाचार्य
| गीता बाली
|-
| colspan="4" style="text-align:center;"| निर्माता के तौर पर गुरु दत्त
|-
! वर्ष
! फ़िल्म
! नायक / नायिका
! निर्देशक
|-
| 1956
| सीआईडी
| देवानंद, शकीला, वहीदा रहमान
| राज खोसला
|}
==एक अमर प्रतिभा==
[[चित्र:Chaudhvin-ka-chand.jpg|thumb|चौदहवीं का चाँद]]
कोई बड़ा सर्जक जब युवावस्था में ही आत्महत्या कर लेता है तो उसके साथ कई रूमानी कहानियाँ जुड़ जाती हैं और उसके प्रशंसकों का एक बड़ा संप्रदाय सा बन जाता है। लेकिन यह रूमानियत की आस्था हवाई नहीं होती। सिर्फ 39 बरस की उम्र में ख़ुदकुशी कर लेने वाले गुरु दत्त की वैसी मौत अब सिर्फ़ एक दर्दनाक ब्यौरा बनकर रह गई है, लेकिन उनकी 'प्यासा', 'काग़ज़ के फूल' और 'साहब, बीबी और ग़ुलाम' सरीखी फ़िल्में दक्षिण एशियाई सिनेमा के इतिहास में अमर हैं। बेशक़ ये तीनों बड़ी फ़िल्में हैं लेकिन गुरु दत्त की प्रारंभिक फ़िल्मों को भुला देना उनके और भारतीय सिने-दर्शकों के जटिल संबंधों को नकारना होगा। दक्षिण एशिया में जो एक साफ़-सुथरा, लोकप्रिय और मनोरंजन सिनेमा [[1950]] के दशक में उभरा उसमें गुरु दत्त का केन्द्रीय योगदान है।<ref>{{cite web |url=http://www.bbc.co.uk/hindi/entertainment/story/2004/07/040720_gurudutt.shtml |title=एक अमर आत्महंता प्रतिभा|accessmonthday=9 जुलाई |accessyear=2012 |last=खरे|first=विष्णु|authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=बीबीसी हिन्दी डॉट कॉम|language=हिन्दी }}</ref>
==गुरु दत्त और वहीदा रहमान==
[[चित्र:Vaheeda-and-gurudatt-pyaasa.jpg|thumb|left|गुरु दत्त और [[वहीदा रहमान]] (फ़िल्म- [[प्यासा (फ़िल्म)|प्यासा]] के एक दृश्य में)]]
[[बॉलीवुड]] में जब भी प्रेम कहानियों का जिक्र होता है तो [[वहीदा रहमान]] और गुरु दत्त का नाम सबसे पहले आता है। इन दोनों की जोड़ी बॉलीवुड की शुरुआती प्रेमी जोड़े की थी। दोनों का प्यार अगर सबकी निगाहों में सबसे बेहतरीन प्यार था तो दोनों का जुदा होना भी किसी ड्रामे से कम नहीं। जुदाई में एक सच्चे आशिक का क्या हाल होता है यह गुरु दत्त ने दिखाया था। शराब की बोतल में डूबे आशिक की छवि अकसर हमें फ़िल्मों में ही देखने को मिलती है लेकिन असल जिंदगी में उस किरदार को गुरु दत्त ने ही जिया था। बॉलीवुड की उत्कृष्ट और यादगार जोड़ी वहीदा रहमान और गुरु दत्त की प्रेम कहानी भी ऐसी थी जो अपने मुकाम पर नहीं पहुंच पाई। यह वह दौर था जब गुरु दत्त ने निर्देशक के तौर पर अपने कैरियर की शुरुआत फ़िल्म बाज़ी (1951) से की। यह क्राइम थ्रिलर थी जिसे दर्शकों ने काफ़ी पसंद किया। बाजी की कामयाबी के बाद गुरु दत्त एक सफल निर्देशक के रूप में पहचाने जाने लगे। गुरु दत्त को हिंदी फ़िल्मों में नए प्रयोगों के लिए जाना जाता था। इसी को ध्यान में रखते हुए उन्हें अगली फ़िल्म ‘सीआईडी’ के लिए एक नए चेहरे की तलाश थी जो खूबसूरत तो हो ही साथ ही [[उर्दू]] भी बोलने में सक्षम हो। उनकी तलाश तब पूरी हुई जब उनकी मुलाकात भावुकता और व्यवहारिकता का अदभुत सौंदर्य का मेल लिए वहीदा रहमान से हुई। फ़िल्म सीआईडी में वहीदा रहमान का ज्यादा रोल नहीं था लेकिन उनके शानदार डांस के अभिनय ने सबके दिलों को छू लिया, जिसकी बदौलत उन्हें गुरु दत्त की अगली फ़िल्मों लीड भूमिका में काम करने का मौका मिला। सीआईडी की सफलता के बाद फ़िल्म [[प्यासा (फ़िल्म)|प्यासा]] में वहीदा रहमान को लीड हिरोइन का रोल मिला। यह वह फ़िल्म थी जिसके बाद वहीदा रहमान और गुरु दत्त साहब का प्रेम प्रसंग का आरम्भ हुआ था।<br />[[चित्र:Kaagaz-ke-phool.jpg|thumb|काग़ज़ के फूल]]
गुरु दत्त और वहीदा रहमान अभिनीत फ़िल्म ‘कागज के फूल’ की असफल प्रेम कथा उन दोनों के स्वयं के जीवन पर आधारित थी। दोनों कलाकारों ने फ़िल्म ‘चौदहवीं का चांद’ और ‘साहिब बीबी और ग़ुलाम' में साथ-साथ काम किया, जो बहुत ही सफल हुई। काम में अत्यधिक व्यस्त रहने के कारण गुरु दत्त दांपत्य जीवन के लिए बहुत अधिक वक्त नहीं दे पाते थे, जिसके कारण उनके वैवाहिक जीवन में तूफ़ान खड़ा हो गया। इस समय तक गुरु दत्त के जीवन में दो स्त्रियों ने प्रवेश कर लिया था एक उनकी पत्नी [[गीता दत्त]] और दूसरी [[वहीदा रहमान]]। गुरु दत्त दोनों से बेहद प्रेम करते थे और दोनों को अपनी ज़िन्दगी का हिस्सा बनाना चाहते थे लेकिन ऐसा हो नहीं सका। आख़िरकार अपनी फ़िल्मों की ही तरह उनका भी दुःखद अंत हुआ।<ref>{{cite web |url=http://days.jagranjunction.com/2013/05/13/waheeda-rehman-and-guru-dutt-affair/ |title=गुरु दत्त और वहीदा रहमान की लव स्टोरी|accessmonthday=16 दिसम्बर |accessyear=2014 |last=|first=|authorlink= |format= |publisher=जागरण जंक्शन|language=हिन्दी }}</ref>
 
==गुरु दत्त के बारे में रोचक तथ्य==
* गुरु दत्त का पूरा नाम वसंत कुमार शिवशंकर पादुकोण था। उनके पिता शुरुआत में तो अध्यापक थे लेकिन बाद में उन्होंने बैंक की नौकरी की।
* बचपन में आर्थिक दिक्कतों और पारिवारिक परेशानियों के कारण गुरु दत्त मुश्किल से तालीम हासिल कर पाए। वह अच्छे विद्यार्थी तो थे लेकिन कभी कॉलेज नहीं जा पाए।
* गुरु दत्त तीन भाइयों और एक बहन के साथ [[बंगाल (आज़ादी से पूर्व)|बंगाल]] में आकर बस गए। बंगाल में रहने के बाद उन्होंने बंगाली नाम भी ग्रहण कर लिया और लोग उन्हें गुरु दत्त के नाम से जानने लगे।
* गुरु दत्त ने [[कोलकाता]] आकर अपने मामा बालकृष्ण बेनेगल के साथ काफ़ी वक़्त बिताया था। बालकृष्ण बेनेगल मशहूर फ़िल्म निर्देशक [[श्याम बेनेगल]] के चाचा थे, जो कि एक पेंटर थे और फ़िल्मों के पोस्टर्स डिजाइन किया करते थे। बाद में वह अपने माता-पिता के पास [[मुंबई]] लौट आए।
* कहा जाता है कि जब वह कोलकाता में थे तो उन्होंने एक कार्यक्रम के दौरान सर्प नृत्य (स्नेक डांस) किया था जिसके लिए उन्हें पांच रुपए का इनाम भी मिला था। गुरु दत्त ने [[उदय शंकर]] के नृत्य संस्थान में कुछ वर्ष [[शास्त्रीय नृत्य]] सीखा और प्रशिक्षण के दौरान एक सर्प नृत्य भी प्रस्तुत किया था।
* उन्होंने [[1953]] में प्रसिद्ध गायिका [[गीता राय]] से शादी की। गीता और गुरु दत्त तीन सालों से एक-दूसरे को जानते थे। दोनों से तीन बच्चे हुए तरुण, अरुण और नीना।
* विवाहित होने के बावजूद भी गुरु दत्त [[वहीदा रहमान]] के साथ रहते थे और उनके साथ फ़िल्मों में काम भी किया। मौत के समय न तो उनके साथ उनकी पत्नी गीता थी और न ही वहीदा।
* गुरु दत्त बहुत ही ज्यादा शराब पीते थे जिसकी वजह से उनका लिवर खराब हो गया। कहा जाता है कि जिस रात गुरु दत्त की मौत हुई थी, उस रात उन्होंने जमकर शराब पी थी।
* [[1946]] में गुरु दत्त ने प्रभात स्टूडियो की निर्मित फ़िल्म "हम एक हैं" से बतौर कोरियोग्राफर अपने कैरियर की शुरुआत की थी।
* गुरु दत्त कलात्मक फ़िल्म बनाने की वजह से काफ़ी प्रसिद्ध हुए। इन्होंने अपनी कलात्मक फ़िल्मों के माध्यम से [[हिंदी सिनेमा]] को एक नई ऊंचाई दी। उनकी लोकप्रिय फ़िल्मों में कागज के फूल, [[प्यासा (फ़िल्म)|प्यासा]], साहब बीबी और ग़ुलाम आदि शामिल हैं।
* इनके द्वारा बनाई गई फ़िल्में [[जर्मनी]], [[फ्रांस]] और [[जापान]] में सबसे ज्यादा चलती थीं। टाइम पत्रिका ने वर्ष [[2005]] में भी ‘प्यासा’ को सर्वश्रेष्ठ 100 फ़िल्मों में शामिल किया था। [[2011]] में ‘प्यासा’ को टाइम पत्रिका ने वैलेंटाइन डे के मौक़े पर सर्वकालीन रोमांटिक फ़िल्मों में शामिल किया था।
* गुरु दत्त पर एक पुस्तक भी आई है जिसका नाम है 'टेन इयर्स विद गुरु दत्त : अबरार अल्वीज जर्नी'। अबरार अल्वी दस सालों तक गुरु दत्त के सहायक, लेखक और सलाहकार रहे।
* [[बॉलीवुड]] में गुरु दत्त और [[देव आनंद|देव साहब]] की दोस्ती बहुत ही गहरी मानी जाती थी। यह बात उस समय की है, जब गुरु दत्त फ़िल्मों में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। उस समय देव साहब को फ़िल्मों में जल्दी ब्रेक मिल गया था। उन्होंने अपने दोस्त गुरु दत्त से वादा किया था कि जब वह निर्माता बनेंगे तो अपनी फ़िल्म में ज़रूर लेंगे। देव साहब ने अपना वादा पूरा किया। [[1949]] में देवानंद ने नवकेतन फ़िल्म्स की नींव रखी और [[1951]] में अपने दोस्त गुरु दत्त को लेकर बाज़ी फ़िल्म का निर्माण किया।<ref>{{cite web |url=http://days.jagranjunction.com/2013/10/09/interesting-facts-about-guru-dutt/ |title=अभिनेता गुरु दत्त से संबंधित रोचक बातें |accessmonthday=16 दिसम्बर |accessyear=2014 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=जागरण जंक्शन|language=हिन्दी }}</ref>
==निधन==
==निधन==
शराब की लत से लंबे समय तक जूझने के बाद 1964 में उन्होंने आत्महत्या कर ली और इस प्रकार एक प्रतिभाशाली जीवन का असमय अंत हो गया।  
[[चित्र:Guru Dutt-postal-stamp.jpg|thumb|गुरु दत्त के सम्मान में जारी [[डाक टिकट]]|250px]]
[[10 अक्तूबर]], [[1964]] में [[मुंबई]] में अपने बिस्तर में रहस्यमय स्थिति में मृत पाए गए गुरु दत्त ने एक बार कहा था- "देखो न, मुझे निर्देशक बनना था, बन गया। [[अभिनेता]] बनना था, बन गया। पिक्चर अच्छी बनानी थी, बनाई। पैसा है सब कुछ है, पर कुछ भी नहीं रहा।" शराब की लत से लंबे समय तक जूझने के बाद [[1964]] में उन्होंने आत्महत्या कर ली और इस प्रकार एक प्रतिभाशाली जीवन का असमय अंत हो गया।
====ज़िंदगी की आख़िरी रात====
गुरु दत्त साहब की ख़ुद की ज़िंदगी इतनी फ़िल्मी थी कि उन पर ही कई फ़िल्में बन जाएं और जब वह किसी फ़िल्म को बनाते थे तो लगता था मानों फ़िल्म का हरेक किरदार असल जिंदगी जी रहा हो। गुरु दत्त की जिंदगी अगर [[कहानी]] है तो उनकी मौत भी एक अफसाना। गुरु दत्त साहब की मौत को कोई आत्महत्या बताता है तो कोई हत्या तो कोई सामान्य मौत। पर उस सच को कोई नहीं जानता जो उनकी आखिरी रात का था। जिस रात के काले अंधेरों के आगोश में गुरु दत्त मौत की नींद सो गए थे, उस रात उन्होंने जमकर शराब पी थी, इतनी उन्होंने पहले कभी नहीं पी थी। [[गीता दत्त|गीता]] (उनकी पत्‍‌नी, जिनके साथ वह उनके अलगाव का दौर था) के साथ उनकी नोंकझोंक हो गई थी। गीता ने उनकी बिटिया को उनके साथ कुछ वक़्त बिताने के लिए भेजने से इंकार कर दिया था। गुरु दत्त अपनी पत्नी को बार-बार फोन कर रहे थे कि वह उन्हें अपनी बेटी से मिलने दे, लेकिन गीता फोन नहीं उठा रही थीं। हर फोन के साथ गुरु दत्त का गुस्सा बढ़ता ही जा रहा था। अंत में उन्होंने यह संकेत देते हुए कहा, “बच्ची को भेज दो या फिर तुम मेरा मरा मुंह देखो” इसके बाद उन्होंने क़रीब एक बजे खाना खाया और ऐसे सोए कि दुबारा नहीं उठे। उनकी मौत उनके कमरे में हुई।<ref>{{cite web |url=http://entertainment.jagranjunction.com/2012/07/09/guru-dutt-biography-and-pyasaa/ |title=गुरु दत्त: कहानी उस आखिरी रात की |accessmonthday=16 दिसम्बर |accessyear=2014 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=जागरण जंक्शन|language=हिन्दी }}</ref>


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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==बाहरी कड़ियाँ==
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*[http://podcast.hindyugm.com/2008/10/remembering-gurudutt-genius-film-maker.html गुरु दत्त , एक अशांत अधूरा कलाकार]
*[http://www.gurudutt.info/ गुरु दत्त की आधिकारिक वेबसाइट]
*[http://chavannichap.blogspot.com/2008/07/blog-post_6350.html गुरुदत्त पर एक किताब]
*[http://www.orientpaperbacks.com/books/%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%81-%E0%A4%A6%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A5-%E0%A4%8F%E0%A4%95-%E0%A4%A6%E0%A4%B6%E0%A4%95.html गुरु दत्त के साथ एक दशक]
*[http://www.youtube.com/watch?v=MZ3S4-bm70s वक्त ने किया क्या हसीं सितम... (यू-ट्यूब वीडियो)]
*[http://chavannichap.blogspot.com/2008/07/blog-post_6350.html गुरु दत्त पर एक किताब]
==संबंधित लेख==
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गुरु दत्त
पूरा नाम वसंथ कुमार शिवशंकर पादुकोण
प्रसिद्ध नाम गुरु दत्त
जन्म 9 जुलाई, 1925
जन्म भूमि बंगलोर, कर्नाटक
मृत्यु 10 अक्तूबर, 1964 (आत्महत्या)
मृत्यु स्थान बंबई, महाराष्ट्र
अभिभावक शिवशंकर राव पादुकोण और वसंथी पादुकोण
पति/पत्नी गीता दत्त
कर्म भूमि मुंबई
कर्म-क्षेत्र निर्माता-निर्देशक एवं अभिनेता
मुख्य फ़िल्में 'प्यासा' (1957), 'काग़ज़ के फूल' (1959), 'साहब, बीबी और ग़ुलाम' (1962) और 'चौदहवीं का चाँद'।
प्रसिद्धि गुरु दत्त अपनी फ़िल्मों में कैमरा और प्रकाश व्यवस्था के लिए प्रसिद्ध थे।
विशेष योगदान दक्षिण एशिया में जो एक साफ़-सुथरा, लोकप्रिय और मनोरंजन सिनेमा 1950 के दशक में उभरा उसमें गुरु दत्त का केन्द्रीय योगदान है।
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी प्रकाश और छाया के कल्पनाशील उपयोग, भावपूर्ण दृश्यबिंब, कथा में कई विषय-वस्तुओं की परतें गूंथने की अद्भुत क्षमता और गीतों के मंत्रमुग्धकारी छायांकन ने उन्हें भारतीय सिनेमा के सबसे निपुण शैलीकारों में ला खड़ा किया।

गुरु दत्त (अंग्रेज़ी: Guru Dutt, जन्म- 9 जुलाई, 1925 बंगलोर; मृत्यु- 10 अक्तूबर, 1964 बंबई) भारतीय सिनेमा में फ़िल्म निर्माता-निर्देशक और अभिनेता थे। 'गुरु दत्त' का वास्तविक नाम "वसंथ कुमार शिवशंकर पादुकोण" था। गुरु दत्त अपने आप में एक संपूर्ण कलाकार बनने की पूरी पात्रता रखते थे। वे विश्व स्तरीय फ़िल्म निर्माता और निर्देशक थे। साथ ही में उनकी साहित्यिक रुचि और संगीत की समझ की झलक हमें उनकी सभी फ़िल्मों में दिखती ही है। वे एक अच्छे नर्तक भी थे, क्योंकि उन्होंने अपने फ़िल्मी जीवन का आगाज़ किया था प्रभात फ़िल्म्स में एक कोरियोग्राफ़र की हैसियत से। अभिनय कभी उनकी पहली पसंद नहीं रही, मगर उनके सरल, संवेदनशील और नैसर्गिक अभिनय का लोहा सभी मानते थे। उन्होंने प्यासा के लिये पहले दिलीप कुमार का चयन किया था। वे एक रचनात्मक लेखक भी थे और उन्होंने पहले पहले 'इल्लस्ट्रेटेड वीकली अॉफ़ इंडिया' में कहानियां भी लिखी थीं।[1]

जीवन परिचय

गुरु दत्त का जन्म 9 जुलाई, 1925 को बैंगलोर में हुआ था। उनकी माँ वसंती पादुकोण के अनुसार 'बचपन से गुरु दत्त बहुत नटखट और जिद्दी था। प्रश्न पूछना उसका स्वभाव था। कभी कभी उसके प्रश्नों का उत्तर देते हुए वे पागल हो जाती थीं, किसी की बात नहीं मानता था। अपने दिल में अगर ठीक लगा तो ही वो मानता था। गुस्से वाला बहुत था। मन में आया तो करेगा ही...ज़रूर.'[2]

गुरु दत्त

परिवार

गुरु दत्त के पिता का नाम 'श्री शिवशंकर राव पादुकोण' और माता का नाम 'श्रीमती वसंती पादुकोण' है। गुरु दत्त ने गायिका गीता दत्त से सन् 1953 में विवाह किया। गुरु दत्त के बेटे अरुण दत्त के अनुसार ‘प्यासा’ और ‘काग़ज़ के फूल’ जैसी क्लासिक फ़िल्मों के सर्जक गुरुदत्त चुप और गंभीर रहते थे। लेकिन उनके भीतर एक मस्ती करने वाला बच्चा भी था। वे पतंग उड़ाते, मछली पकड़ते और फोटोग्राफी भी करते थे। गुरु दत्त को खेती करना भी काफ़ी सुहाता था। लोनावला में फार्म हाउस था जहां वो हर साल जाकर खेती करते थे। उन्हें फिशिंग में भी दिलचस्पी थी। पवई झील में जॉनी वॉकर और गुरु दत्त खूब मछली पकड़ा करते थे। एक बार उन्हें एक स्कूटर पसंद आ गया। वे उसे चलाते हुए स्टूडियो जा रहे थे तभी सिग्नल के पास गाड़ी रुकी तो लोगों ने उन्हें पहचान लिया। वे किसी तरह से गाड़ी से वहां से निकले। एक दिलचस्प क़िस्सा है कि कश्मीर में उन्होंने एक शिकारा देखा तो वे उस शिकारा को कश्मीर से खुलवाकर पवई झील ले आए।

गीता राय से विवाह

दरअसल, जिन दिनों गुरु दत्त फ़िल्मों में अपनी ज़मीन तलाश रहे थे, उन्हीं दिनों गीता राय नाम की एक नई गायिका पार्श्व गायिका बनने की कोशिश में व्यस्त थीं। थोड़े ही दिनों में गुरु दत्त कई निर्देशकों के सहायक बने, तो उधर फ़िल्म 'भक्त प्रह्लाद' में गीता राय को भजन गाने का अवसर मिला। सन् 1948 में प्रदर्शित फ़िल्म 'दो भाई' में गाये गीत मेरा सुंदर सपना बीत गया.. ने गीता राय को पूरे देश में चर्चित कर दिया। दरअसल, यही वह गीत था, जिसने गुरु दत्त के दिल के तारों को झंकृत कर दिया। और यहीं से गुरु दत्त ने मन ही मन यह फैसला भी कर लिया कि वे जब भी फ़िल्म बनाएंगे, गीता राय से गीत अवश्य गवाएंगे। मित्र देवआनंद ने फ़िल्म 'बाज़ी' का निर्देशन गुरु दत्त को सौंप कर उस वादे को पूरा किया, जो उन्होंने कभी प्रभात स्टूडियो में किया था। बाज़ी शुरू हुई, तो गुरु ने गीता राय से एक गीत गवाया। बाज़ी में गीता राय का गीता बाली पर फ़िल्माया गया यह गीत 'सुनो गज़र क्या गाये...' अपने समय का सुपर हिट गीत साबित हुआ। बाज़ी की शूटिंग के दौरान से ही गुरु दत्त और गीता राय एक-दूसरे के निकट आए। जहां एक ओर गुरु गीता की आवाज़ के दीवाने हो गए थे, वहीं दूसरी ओर गीता भी गुरु के प्रभावशाली व्यक्तित्व पर मुग्ध थीं। दरअसल, दोनों अंतर्मुखी प्रवृत्ति के थे। कम बोलने वाले, गंभीर, लेकिन आंखों ही आंखों में बहुत कुछ कह जाने वाले। एक दिन जब रिहर्सल और रिकॉर्डिंग से फुर्सत मिली, तो गुरु दत्त ने गीता को शादी के लिए प्रस्ताव रख दिया। गीता गुरु दत्त को चाहने लगी थीं, लेकिन बिना माता-पिता की मर्ज़ी

के वे शादी नहीं कर सकती थीं। बाज़ी अभी रिलीज नहीं हुई थी। गीता ने कहा, परिवार वालों से कहना होगा। फिर बाद में गीता राय के माता पिता की राजी से दोनों का विवाह सन् 1953 में हुआ।[3]

गीता राय

फ़िल्मी जीवन

कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में शिक्षा प्राप्त करने के बाद गुरु दत्त ने अल्मोड़ा स्थित उदय शंकर की नृत्य अकादमी में प्रशिक्षण प्राप्त किया और उसके बाद कलकत्ता में टेलीफ़ोन ऑपरेटर का काम करने लगे। बाद में वह पुणे (भूतपूर्व पूना) चले गए और प्रभात स्टूडियो से जुड़ गए, जहाँ उन्होंने पहले अभिनेता और फिर नृत्य-निर्देशक के रूप में काम किया। उनकी पहली फ़ीचर फ़िल्म 'बाज़ी' (1951) देवानंद की 'नवकेतन फ़िल्म्स' के बैनर तले बनी थी। इसके बाद उनकी दूसरी सफल फ़िल्म 'जाल' (1952) बनी, जिसमें वही सितारे (देवानंद और गीता बाली) शामिल थे। इसके बाद गुरु दत्त ने 'बाज़' (1953) फ़िल्म के निर्माण के लिए अपनी प्रोडक्शन कंपनी शुरू की। हालांकि उन्होंने अपने संक्षिप्त, किंतु प्रतिभा संपन्न पेशेवर जीवन में कई शैलियों में प्रयोग किया, लेकिन उनकी प्रतिभा का सर्वश्रेष्ठ रूप उत्कट भावुकतापूर्ण फ़िल्मों में प्रदर्शित हुआ।

प्रसिद्धि का स्रोत

मुख्य रूप से गुरु दत्त की प्रसिद्धि का स्रोत बारीकी से गढ़ी गई, उदास व चिंतन भरी उनकी तीन बेहतरीन फ़िल्में हैं- 'प्यासा' (1957), 'काग़ज़ के फूल' (1959) और 'साहब, बीबी और ग़ुलाम' (1962)। हालांकि 'साहब, बीबी और ग़ुलाम' का श्रेय उनके सह पटकथा लेखक अबरार अल्वी को दिया जाता है, लेकिन यह स्पष्ट रूप से गुरु दत्त की कृति थी। गुरु दत्त ने सी.आई.डी. से वहीदा रहमान का फ़िल्म जगत् से परिचय कराया और फिर 'प्यासा' तथा 'काग़ज़ के फूल' जैसी फ़िल्मों से उन्हें कीर्तिस्तंभ की तरह स्थापित कर दिया। प्रकाश और छाया के कल्पनाशील उपयोग, भावपूर्ण दृश्यबिंब, कथा में कई विषय-वस्तुओं की परतें गूंथने की अद्भुत क्षमता और गीतों के मंत्रमुग्धकारी छायांकन ने उन्हें भारतीय सिनेमा के सबसे निपुण शैलीकारों में ला खड़ा किया।

असाधारण कलाकार

प्यासा

गुरु दत्त फ़िल्म टुकड़े टुकड़े में बनाते थे। फ़िल्म समय की लीनियर गति से नहीं चलती थी। जहाँ जो पसंद आया उस सीन को फ़िल्मा लिया गया। गुरु दत्त अनगिनत रिटेक देते थे और सीन को तब तक शूट करते थे जब तक वो खुद और फ़िल्म के बाकी कलाकार संतुष्ट न हो जाएं। अबरार अल्वी किताब में कहते हैं कि वो जितनी फुटेज में एक फ़िल्म बनाते थे उतने में तीन फ़िल्में बन सकती थीं। गुरु दत्त की फ़िल्मों की शूटिंग ज़िंदगी की तरह चलती थी। जैसे जैसे आगे बढ़ती थी किरदार विकसित होते जाते थे। गुरु दत्त की फ़िल्म यूनिट में लगभग स्थायी सदस्य होते थे। अबरार अल्वी और राज खोसला के साथ रोज फ़िल्म की शूटिंग के बाद ब्रेनस्टोर्मिंग सेशन होते थे जिसमें रशेस देखे जाते थे और आगे की फ़िल्म का खाका तय किया जाता था।[2]

एक वाकया

एक मजेदार वाकया है। वहीदा रहमान सुनाती हैं...'वो एक दिन दाढ़ी बना रहे थे और मूर्ति साहब के साथ शॉट की बात कर रहे थे। तो हम लोग सब हॉल में बैठे हुए थे तो अचानक आवाज़ आई। उन्होंने इत्ती जोर से अपना रेज़र फेंका और बोले अरे क्या करते हो यार मूर्ति...तुमने बर्बाद कर दिया मुझे...तो मूर्ति साहब एकदम परेशान...मैंने क्या किया...हम तो शॉट के बारे में बात कर रहे थे...नहीं यार तुमसे शॉट की बात करते करते मैंने अपनी एक तरफ की मूंछ उड़ा दी...तो हम में किसी से रहा नहीं गया तो हम हँस पड़े जोर जोर से...कि तुम लोग हँस रहे हो... आज रात को शूटिंग है मैं क्या करूं... तो फिर मूर्ति साहब ने कहा... ग़लती आपकी थी, मेरी तो थी नहीं। फिर भी आप मुझे क्यूँ डांट रहे हैं। आप इस तरह कीजिये, दूसरी तरफ की भी मूंछ शेव कर डालिये फिर नयी नकली मूंछ लगानी पड़ेगी आपको। तो इस वाकया से स्पष्ट है कि जब वो शॉट के बारे में सोच रहे हों या बातें कर रहे हों तो सब कुछ भूल जाते थे।[2]

नई तकनीक का प्रयोग

साहब बीबी और ग़ुलाम

गुरु दत्त ने अपने फ़िल्मी कैरियर में कई नए तकनीकी प्रयोग भी किए जैसे, फ़िल्म बाज़ी में दो नए प्रयोग किए-

  1. 100 एमएम के लेंस का क्लोज़ अप के लिए इस्तेमाल पहली बार किया- क़रीब 14 बार। इससे पहले कैमरा इतने पास कभी नहीं आया, कि उन दिनों कलाकारों को बड़ी असहजता के अनुभव से गुज़रना पड़ा। तब से उस स्टाईल का नाम ही गुरु दत्त शॉट पड़ गया।
  2. किसी भी फ़िल्म में पहली बार गानों का उपयोग कहानी को आगे बढ़ाने के लिए किया गया।

वैसे ही फ़िल्म 'काग़ज़ के फूल' हिन्दुस्तान में सिनेमा स्कोप में बनी पहली फ़िल्म थी। दरअसल, इस फ़िल्म के लिए गुरु दत्त कुछ अनोखा, कुछ हटके करना चाहते थे, जो आज तक भारतीय फ़िल्म के इतिहास में कभी नहीं हुआ। संयोग से तभी एक हालीवुड की फ़िल्म कंपनी '20th Century Fox' ने उन दिनों भारत में किसी सिनेमास्कोप में बनने वाली फ़िल्म की शूटिंग ख़त्म की थी और उसके स्पेशल लेंस बंबई में उनके ऑफिस में छूट गए थे। जब गुरु दत्त को इसका पता चला तो वे अपने सिनेमैटोग्राफर वी. के. मूर्ति को लेकर तुंरत वहाँ गए, लेंस लेकर कुछ प्रयोग किये, रशेस देखे और फिर फ़िल्म के लिए इस फार्मेट का उपयोग किया। चलिए अब हम इस फ़िल्म के एक गाने का ज़िक्र भी कर लेते हैं-

वक्त ने किया क्या हसीं सितम... तुम रहे ना तुम, हम रहे ना हम...

गीता दत्त की हसीं आवाज़ में गाये, और फ़िल्म में स्टूडियो के पृष्ठभूमि में फ़िल्माए गए इस गीत में भी एक ऐसा प्रयोग किया गया, जो बाद में विश्वविख्यात हुआ अपने बेहतरीन लाइटिंग की ख़ूबसूरत संयोजन की वजह से। गुरु दत्त इस क्लाईमेक्स के सीन में कुछ अलग नाटकीयता और रील लाईफ़ और रियल लाईफ़ का विरोधाभास प्रकाश व्यवस्था की माध्यम से व्यक्त करना चाहते थे। ब्लैक एंड व्हाईट रंगों से नायक और नायिका की मन की मोनोटोनी, रिक्तता, यश और वैभव की क्षणभंगुरता के अहसास को बड़े जुदा अंदाज़ में फ़िल्माना चाहते थे। जिस दिन उन्होंने नटराज स्टूडियो में शूटिंग शुरू की, तो उनके फोटोग्राफर वी. के. मूर्ति ने उन्हें वेंटिलेटर से छन कर आती धूप की एक तेज़ किरण दिखाई, तो गुरु दत्त बेहद रोमांचित हो उठे और उन्होंने इस इफेक्ट को ही उपयोग करने का मन बना लिया। वे मूर्ति को बोले,' मैं शूटिंग के लिए भी सन् लाईट ही चाहता हूँ क्योंकि जिस प्रभाव की मैं कल्पना कर रहा हूँ वह बड़ी आर्क लाईट से अथवा कैमरे की अपर्चर को सेट करके नहीं आयेगा।' तो फिर दो बड़े बड़े आइने स्टूडियो के बाहर रखे गये, जिनको बड़ी मेहनत से सेट करके वह प्रसिद्ध सीन शूट किया गया जिसमें गुरु दत्त और वहीदा के बीच में वह तेज रोशनी का बीम आता है। साथ में चेहरे के क्लोज़ अप में अनोखे फेंटम इफेक्ट से उत्पन्न हुए एम्बियेन्स से हम दर्शक ठगे से रह जाते हैं एवं उस काल में, उस वातावरण निर्मिति से उत्पन्न करुणा के एहसास में विलीन हो जाते हैं, एकाकार हो जाते हैं।[4]

गुरु दत्त की फ़िल्में

गुरु दत्त की प्रमुख फ़िल्में[5]
वर्ष फ़िल्म नायिका निर्देशक
1945 लाखा रानी मोनिका देसाई विश्राम बेड़ेकर
1953 बाज़ गीता बाली गुरु दत्त
1954 आर पार श्यामा, शकीला गुरु दत्त
1955 मि.एंड मिसेस 55 मधुबाला गुरु दत्त
1957 प्यासा माला सिन्हा, वहीदा रहमान गुरु दत्त
1958 बारह बजे वहीदा रहमान प्रमोद चक्रवती
1959 काग़ज़ के फूल वहीदा रहमान गुरु दत्त
1960 चौदहवी का चाँद वहीदा रहमान एम. सादिक
1962 साहिब बीवी और ग़ुलाम मीना कुमारी, वहीदा रहमान अबरार अल्वी
1963 सौतेला भाई महेश कौल
1963 बहुरानी माला सिन्हा टी. प्रकाश राव
1963 भरोसा आशा पारेख के.शंकर
1964 सांझ और सवेरा मीना कुमारी ऋषिकेश मुखर्जी
1964 सुहागन वहीदा रहमान के. एस. गोपालकृष्णन
निर्देशक के तौर पर गुरु दत्त
वर्ष फ़िल्म नायक नायिका
1951 बाज़ी देवानंद गीता बाली, कल्पना कार्तिक
1951 जाल देवानंद गीता बाली, पूर्णिमा
1956 सैलाब अभि भट्टाचार्य गीता बाली
निर्माता के तौर पर गुरु दत्त
वर्ष फ़िल्म नायक / नायिका निर्देशक
1956 सीआईडी देवानंद, शकीला, वहीदा रहमान राज खोसला

एक अमर प्रतिभा

चौदहवीं का चाँद

कोई बड़ा सर्जक जब युवावस्था में ही आत्महत्या कर लेता है तो उसके साथ कई रूमानी कहानियाँ जुड़ जाती हैं और उसके प्रशंसकों का एक बड़ा संप्रदाय सा बन जाता है। लेकिन यह रूमानियत की आस्था हवाई नहीं होती। सिर्फ 39 बरस की उम्र में ख़ुदकुशी कर लेने वाले गुरु दत्त की वैसी मौत अब सिर्फ़ एक दर्दनाक ब्यौरा बनकर रह गई है, लेकिन उनकी 'प्यासा', 'काग़ज़ के फूल' और 'साहब, बीबी और ग़ुलाम' सरीखी फ़िल्में दक्षिण एशियाई सिनेमा के इतिहास में अमर हैं। बेशक़ ये तीनों बड़ी फ़िल्में हैं लेकिन गुरु दत्त की प्रारंभिक फ़िल्मों को भुला देना उनके और भारतीय सिने-दर्शकों के जटिल संबंधों को नकारना होगा। दक्षिण एशिया में जो एक साफ़-सुथरा, लोकप्रिय और मनोरंजन सिनेमा 1950 के दशक में उभरा उसमें गुरु दत्त का केन्द्रीय योगदान है।[6]

गुरु दत्त और वहीदा रहमान

गुरु दत्त और वहीदा रहमान (फ़िल्म- प्यासा के एक दृश्य में)

बॉलीवुड में जब भी प्रेम कहानियों का जिक्र होता है तो वहीदा रहमान और गुरु दत्त का नाम सबसे पहले आता है। इन दोनों की जोड़ी बॉलीवुड की शुरुआती प्रेमी जोड़े की थी। दोनों का प्यार अगर सबकी निगाहों में सबसे बेहतरीन प्यार था तो दोनों का जुदा होना भी किसी ड्रामे से कम नहीं। जुदाई में एक सच्चे आशिक का क्या हाल होता है यह गुरु दत्त ने दिखाया था। शराब की बोतल में डूबे आशिक की छवि अकसर हमें फ़िल्मों में ही देखने को मिलती है लेकिन असल जिंदगी में उस किरदार को गुरु दत्त ने ही जिया था। बॉलीवुड की उत्कृष्ट और यादगार जोड़ी वहीदा रहमान और गुरु दत्त की प्रेम कहानी भी ऐसी थी जो अपने मुकाम पर नहीं पहुंच पाई। यह वह दौर था जब गुरु दत्त ने निर्देशक के तौर पर अपने कैरियर की शुरुआत फ़िल्म बाज़ी (1951) से की। यह क्राइम थ्रिलर थी जिसे दर्शकों ने काफ़ी पसंद किया। बाजी की कामयाबी के बाद गुरु दत्त एक सफल निर्देशक के रूप में पहचाने जाने लगे। गुरु दत्त को हिंदी फ़िल्मों में नए प्रयोगों के लिए जाना जाता था। इसी को ध्यान में रखते हुए उन्हें अगली फ़िल्म ‘सीआईडी’ के लिए एक नए चेहरे की तलाश थी जो खूबसूरत तो हो ही साथ ही उर्दू भी बोलने में सक्षम हो। उनकी तलाश तब पूरी हुई जब उनकी मुलाकात भावुकता और व्यवहारिकता का अदभुत सौंदर्य का मेल लिए वहीदा रहमान से हुई। फ़िल्म सीआईडी में वहीदा रहमान का ज्यादा रोल नहीं था लेकिन उनके शानदार डांस के अभिनय ने सबके दिलों को छू लिया, जिसकी बदौलत उन्हें गुरु दत्त की अगली फ़िल्मों लीड भूमिका में काम करने का मौका मिला। सीआईडी की सफलता के बाद फ़िल्म प्यासा में वहीदा रहमान को लीड हिरोइन का रोल मिला। यह वह फ़िल्म थी जिसके बाद वहीदा रहमान और गुरु दत्त साहब का प्रेम प्रसंग का आरम्भ हुआ था।

काग़ज़ के फूल

गुरु दत्त और वहीदा रहमान अभिनीत फ़िल्म ‘कागज के फूल’ की असफल प्रेम कथा उन दोनों के स्वयं के जीवन पर आधारित थी। दोनों कलाकारों ने फ़िल्म ‘चौदहवीं का चांद’ और ‘साहिब बीबी और ग़ुलाम' में साथ-साथ काम किया, जो बहुत ही सफल हुई। काम में अत्यधिक व्यस्त रहने के कारण गुरु दत्त दांपत्य जीवन के लिए बहुत अधिक वक्त नहीं दे पाते थे, जिसके कारण उनके वैवाहिक जीवन में तूफ़ान खड़ा हो गया। इस समय तक गुरु दत्त के जीवन में दो स्त्रियों ने प्रवेश कर लिया था एक उनकी पत्नी गीता दत्त और दूसरी वहीदा रहमान। गुरु दत्त दोनों से बेहद प्रेम करते थे और दोनों को अपनी ज़िन्दगी का हिस्सा बनाना चाहते थे लेकिन ऐसा हो नहीं सका। आख़िरकार अपनी फ़िल्मों की ही तरह उनका भी दुःखद अंत हुआ।[7]

गुरु दत्त के बारे में रोचक तथ्य

  • गुरु दत्त का पूरा नाम वसंत कुमार शिवशंकर पादुकोण था। उनके पिता शुरुआत में तो अध्यापक थे लेकिन बाद में उन्होंने बैंक की नौकरी की।
  • बचपन में आर्थिक दिक्कतों और पारिवारिक परेशानियों के कारण गुरु दत्त मुश्किल से तालीम हासिल कर पाए। वह अच्छे विद्यार्थी तो थे लेकिन कभी कॉलेज नहीं जा पाए।
  • गुरु दत्त तीन भाइयों और एक बहन के साथ बंगाल में आकर बस गए। बंगाल में रहने के बाद उन्होंने बंगाली नाम भी ग्रहण कर लिया और लोग उन्हें गुरु दत्त के नाम से जानने लगे।
  • गुरु दत्त ने कोलकाता आकर अपने मामा बालकृष्ण बेनेगल के साथ काफ़ी वक़्त बिताया था। बालकृष्ण बेनेगल मशहूर फ़िल्म निर्देशक श्याम बेनेगल के चाचा थे, जो कि एक पेंटर थे और फ़िल्मों के पोस्टर्स डिजाइन किया करते थे। बाद में वह अपने माता-पिता के पास मुंबई लौट आए।
  • कहा जाता है कि जब वह कोलकाता में थे तो उन्होंने एक कार्यक्रम के दौरान सर्प नृत्य (स्नेक डांस) किया था जिसके लिए उन्हें पांच रुपए का इनाम भी मिला था। गुरु दत्त ने उदय शंकर के नृत्य संस्थान में कुछ वर्ष शास्त्रीय नृत्य सीखा और प्रशिक्षण के दौरान एक सर्प नृत्य भी प्रस्तुत किया था।
  • उन्होंने 1953 में प्रसिद्ध गायिका गीता राय से शादी की। गीता और गुरु दत्त तीन सालों से एक-दूसरे को जानते थे। दोनों से तीन बच्चे हुए तरुण, अरुण और नीना।
  • विवाहित होने के बावजूद भी गुरु दत्त वहीदा रहमान के साथ रहते थे और उनके साथ फ़िल्मों में काम भी किया। मौत के समय न तो उनके साथ उनकी पत्नी गीता थी और न ही वहीदा।
  • गुरु दत्त बहुत ही ज्यादा शराब पीते थे जिसकी वजह से उनका लिवर खराब हो गया। कहा जाता है कि जिस रात गुरु दत्त की मौत हुई थी, उस रात उन्होंने जमकर शराब पी थी।
  • 1946 में गुरु दत्त ने प्रभात स्टूडियो की निर्मित फ़िल्म "हम एक हैं" से बतौर कोरियोग्राफर अपने कैरियर की शुरुआत की थी।
  • गुरु दत्त कलात्मक फ़िल्म बनाने की वजह से काफ़ी प्रसिद्ध हुए। इन्होंने अपनी कलात्मक फ़िल्मों के माध्यम से हिंदी सिनेमा को एक नई ऊंचाई दी। उनकी लोकप्रिय फ़िल्मों में कागज के फूल, प्यासा, साहब बीबी और ग़ुलाम आदि शामिल हैं।
  • इनके द्वारा बनाई गई फ़िल्में जर्मनी, फ्रांस और जापान में सबसे ज्यादा चलती थीं। टाइम पत्रिका ने वर्ष 2005 में भी ‘प्यासा’ को सर्वश्रेष्ठ 100 फ़िल्मों में शामिल किया था। 2011 में ‘प्यासा’ को टाइम पत्रिका ने वैलेंटाइन डे के मौक़े पर सर्वकालीन रोमांटिक फ़िल्मों में शामिल किया था।
  • गुरु दत्त पर एक पुस्तक भी आई है जिसका नाम है 'टेन इयर्स विद गुरु दत्त : अबरार अल्वीज जर्नी'। अबरार अल्वी दस सालों तक गुरु दत्त के सहायक, लेखक और सलाहकार रहे।
  • बॉलीवुड में गुरु दत्त और देव साहब की दोस्ती बहुत ही गहरी मानी जाती थी। यह बात उस समय की है, जब गुरु दत्त फ़िल्मों में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। उस समय देव साहब को फ़िल्मों में जल्दी ब्रेक मिल गया था। उन्होंने अपने दोस्त गुरु दत्त से वादा किया था कि जब वह निर्माता बनेंगे तो अपनी फ़िल्म में ज़रूर लेंगे। देव साहब ने अपना वादा पूरा किया। 1949 में देवानंद ने नवकेतन फ़िल्म्स की नींव रखी और 1951 में अपने दोस्त गुरु दत्त को लेकर बाज़ी फ़िल्म का निर्माण किया।[8]

निधन

गुरु दत्त के सम्मान में जारी डाक टिकट

10 अक्तूबर, 1964 में मुंबई में अपने बिस्तर में रहस्यमय स्थिति में मृत पाए गए गुरु दत्त ने एक बार कहा था- "देखो न, मुझे निर्देशक बनना था, बन गया। अभिनेता बनना था, बन गया। पिक्चर अच्छी बनानी थी, बनाई। पैसा है सब कुछ है, पर कुछ भी नहीं रहा।" शराब की लत से लंबे समय तक जूझने के बाद 1964 में उन्होंने आत्महत्या कर ली और इस प्रकार एक प्रतिभाशाली जीवन का असमय अंत हो गया।

ज़िंदगी की आख़िरी रात

गुरु दत्त साहब की ख़ुद की ज़िंदगी इतनी फ़िल्मी थी कि उन पर ही कई फ़िल्में बन जाएं और जब वह किसी फ़िल्म को बनाते थे तो लगता था मानों फ़िल्म का हरेक किरदार असल जिंदगी जी रहा हो। गुरु दत्त की जिंदगी अगर कहानी है तो उनकी मौत भी एक अफसाना। गुरु दत्त साहब की मौत को कोई आत्महत्या बताता है तो कोई हत्या तो कोई सामान्य मौत। पर उस सच को कोई नहीं जानता जो उनकी आखिरी रात का था। जिस रात के काले अंधेरों के आगोश में गुरु दत्त मौत की नींद सो गए थे, उस रात उन्होंने जमकर शराब पी थी, इतनी उन्होंने पहले कभी नहीं पी थी। गीता (उनकी पत्‍‌नी, जिनके साथ वह उनके अलगाव का दौर था) के साथ उनकी नोंकझोंक हो गई थी। गीता ने उनकी बिटिया को उनके साथ कुछ वक़्त बिताने के लिए भेजने से इंकार कर दिया था। गुरु दत्त अपनी पत्नी को बार-बार फोन कर रहे थे कि वह उन्हें अपनी बेटी से मिलने दे, लेकिन गीता फोन नहीं उठा रही थीं। हर फोन के साथ गुरु दत्त का गुस्सा बढ़ता ही जा रहा था। अंत में उन्होंने यह संकेत देते हुए कहा, “बच्ची को भेज दो या फिर तुम मेरा मरा मुंह देखो” इसके बाद उन्होंने क़रीब एक बजे खाना खाया और ऐसे सोए कि दुबारा नहीं उठे। उनकी मौत उनके कमरे में हुई।[9]


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शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गुरु दत्त , एक अशांत अधूरा कलाकार ! (हिंदी) आवाज। अभिगमन तिथि: 4जुलाई, 2012।
  2. 2.0 2.1 2.2 उपाध्याय, पूजा। गुरु दत्त को जानना एक अदम्य, अतृप्त प्यास से पूरा भर जाना है (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) लहरें (ब्लॉग)। अभिगमन तिथि: 9 जुलाई, 2012।
  3. श्रीवास्तव, बच्चन। मेरे जीवनसाथी/गुरु दत्त-गीता राय (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) जागरण याहू इण्डिया। अभिगमन तिथि: 9 जुलाई, 2012।
  4. कवठेकर, दिलीप। गुरु दत्त , एक अशांत अधूरा कलाकार ! (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) आवाज़ (ब्लॉग)। अभिगमन तिथि: 9 जुलाई, 2012।
  5. आभार- पंजाब केसरी 1 दिसंबर, 2011
  6. खरे, विष्णु। एक अमर आत्महंता प्रतिभा (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) बीबीसी हिन्दी डॉट कॉम। अभिगमन तिथि: 9 जुलाई, 2012।
  7. गुरु दत्त और वहीदा रहमान की लव स्टोरी (हिन्दी) जागरण जंक्शन। अभिगमन तिथि: 16 दिसम्बर, 2014।
  8. अभिनेता गुरु दत्त से संबंधित रोचक बातें (हिन्दी) जागरण जंक्शन। अभिगमन तिथि: 16 दिसम्बर, 2014।
  9. गुरु दत्त: कहानी उस आखिरी रात की (हिन्दी) जागरण जंक्शन। अभिगमन तिथि: 16 दिसम्बर, 2014।

बाहरी कड़ियाँ

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