"चौंसठ कलाएँ जयमंगल के मतानुसार": अवतरणों में अंतर
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*[[भागवत पुराण|श्रीमद्भागवत]] के टीकाकार श्रीधरस्वामी ने भी 'भागवत' के दशम स्कन्ध के 45वें अध्याय के 64वें श्लोक की टीका में प्राय: दूसरे प्रकार की कलाओं का नामनिर्देश किया है; किंतु शुक्राचार्य ने अपने 'नीतिसार' में जिन कलाओं का विवरण दिया है, उनमें कुछ तो उपर्युक्त कलाओं से मिलती हैं, पर बाकी सभी भिन्न हैं। यहाँ पर जयमंगलटीकोक्त दूसरे प्रकार की कलाओं का केवल नाम ही पाठकों की जानकारी के लिये देकर उसके बाद 'शुक्रनीतिसार' के क्रमानुसार कलाओं का दिग्दर्शन कराया जायगा। | *[[भागवत पुराण|श्रीमद्भागवत]] के टीकाकार श्रीधरस्वामी ने भी 'भागवत' के दशम स्कन्ध के 45वें अध्याय के 64वें श्लोक की टीका में प्राय: दूसरे प्रकार की कलाओं का नामनिर्देश किया है; किंतु शुक्राचार्य ने अपने 'नीतिसार' में जिन कलाओं का विवरण दिया है, उनमें कुछ तो उपर्युक्त कलाओं से मिलती हैं, पर बाकी सभी भिन्न हैं। यहाँ पर जयमंगलटीकोक्त दूसरे प्रकार की कलाओं का केवल नाम ही पाठकों की जानकारी के लिये देकर उसके बाद 'शुक्रनीतिसार' के क्रमानुसार कलाओं का दिग्दर्शन कराया जायगा। | ||
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#[[तण्डुल-कुसुमबलिविकार कला]] (देव-पूजनादि के अवसर पर तरह-तरह के रँगे हुए चावल, जौ आदि वस्तुओ तथा रंगविरंगे फूलों को विविध प्रकार से सजाना) | #[[तण्डुल-कुसुमबलिविकार कला]] (देव-पूजनादि के अवसर पर तरह-तरह के रँगे हुए चावल, जौ आदि वस्तुओ तथा रंगविरंगे फूलों को विविध प्रकार से सजाना) | ||
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#[[तक्षकर्म कला]] (लकड़ी, धातु आदि को अभष्टि विभिन्न आकारों में काटना) | #[[तक्षकर्म कला]] (लकड़ी, धातु आदि को अभष्टि विभिन्न आकारों में काटना) | ||
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#[[वस्त्रगोपन कला]] (शरीर के अंगों को छोटे या बड़े वस्त्रों से यथायोग्य ढँकना) | #[[वस्त्रगोपन कला]] (शरीर के अंगों को छोटे या बड़े वस्त्रों से यथायोग्य ढँकना) | ||
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#[[वैनयिकी ज्ञान कला]] (अपने और पराये से विनयपूर्वक शिष्टाचार करना) | #[[वैनयिकी ज्ञान कला]] (अपने और पराये से विनयपूर्वक शिष्टाचार करना) | ||
#[[वैजयिकी-ज्ञान कला]] (विजय प्राप्त करने की विद्या अर्थात् शस्त्रविद्या) | #[[वैजयिकी-ज्ञान कला]] (विजय प्राप्त करने की विद्या अर्थात् शस्त्रविद्या) | ||
#[[व्यायामविद्या कला]] इनका विशेष विवरण जयमंगल ने कामसूत्र की व्याख्या में किया है। | #[[व्यायामविद्या कला]] इनका विशेष विवरण जयमंगल ने कामसूत्र की व्याख्या में किया है। | ||
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==संबंधित लेख== | |||
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11:03, 3 मार्च 2013 के समय का अवतरण
इन्हें भी देखें: चौंसठ कलाएँ
- श्रीमद्भागवत के टीकाकार श्रीधरस्वामी ने भी 'भागवत' के दशम स्कन्ध के 45वें अध्याय के 64वें श्लोक की टीका में प्राय: दूसरे प्रकार की कलाओं का नामनिर्देश किया है; किंतु शुक्राचार्य ने अपने 'नीतिसार' में जिन कलाओं का विवरण दिया है, उनमें कुछ तो उपर्युक्त कलाओं से मिलती हैं, पर बाकी सभी भिन्न हैं। यहाँ पर जयमंगलटीकोक्त दूसरे प्रकार की कलाओं का केवल नाम ही पाठकों की जानकारी के लिये देकर उसके बाद 'शुक्रनीतिसार' के क्रमानुसार कलाओं का दिग्दर्शन कराया जायगा।
- जयमंगल के मातानुसार 64 कलाएँ ये हैं-
- गीत कला
- वाद्य कला
- नृत्य कला
- आलेख्य कला
- विशेषकच्छेद्य कला (मस्तक पर तिलक लगाने के लिये काग़ज़, पत्ती आदि काटकर आकार या साँचे बनाना)
- तण्डुल-कुसुमबलिविकार कला (देव-पूजनादि के अवसर पर तरह-तरह के रँगे हुए चावल, जौ आदि वस्तुओ तथा रंगविरंगे फूलों को विविध प्रकार से सजाना)
- पुष्पास्तरण कला
- दशनवसनांगराग कला (दाँत, वस्त्र तथा शरीर के अवयवों को रँगना)
- मणिभूमिका-कर्म कला (घर के फर्श के कुछ भागों को मोती, मणि आदि रत्नों से जड़ना)
- शयनरचन कला (पलंग लगाना)
- उदकवाद्य कला (जलतरंग)
- उदकाघात कला (दूसरों पर हाथों या पिचकारी से जल की चोट मारना)
- चित्राश्च योगा कला (जड़ी-बूटियों के योग से विविध वस्तुएँ ऐसी तैयार करना या ऐसी औषधें तैयार करना अथवा ऐसे मन्त्रों का प्रयोग करना जिनसे शत्रु निर्बल हो या उसकी हानि हो),
- माल्यग्रंथनविकल्प कला (माला गूँथना)
- शेखरकापीड़योजन कला (स्त्रियों की चोटी पर पहनने के विविध अलंकारों के रूप में पुष्पों को गूँथना)
- नेपथ्यप्रयोग कला(शरीर को वस्त्र, आभूषण, पुष्प आदि से सुसज्जित करना)
- कर्णपत्रभंग कला (शंक्ख, हाथीदाँत आदि के अनेक तरह के कान के आभूषण बनाना)
- गन्धयुक्ति कला (सुगन्धित धूप बनाना)
- भूषणयोजन कला
- ऐन्द्रजाल कला (जादू के खेल)
- कौचुमारयोग कला (बल-वीर्य बढ़ाने वाली औषधियाँ बनाना)
- हस्तलाघव कला (हाथों की काम करने में फुर्ती और सफ़ाई)
- विचित्रशाकयूषभक्ष्यविकार-क्रिया कला(तरह-तरह के शाक, कढ़ी, रस, मिठाई आदि बनाने की क्रिया)
- पानकरस-रागासव-योजन कला (विविध प्रकार के शर्बत, आसव आदि बनाना)
- सूचीवान कर्म कला (सुई का काम, जैसे सीना, रफू करना, कसीदा काढ़ना, मोजे-गंजी बुनना)
- सूत्रक्रीड़ा कला (तागे या डोरियों से खेलना, जैसे कठपुतली का खेल)
- वीणाडमरूकवाद्य कला
- प्रहेलिका कला (पहेलियाँ बूझना)
- प्रतिमाला कला (श्लोक आदि कविता पढ़ने की मनोरंजक रीति)
- दुर्वाचकयोग कला (ऐसे श्लोक आदि पढ़ना, जिनका अर्थ और उच्चारण दोनों कठिन हों)
- पुस्तक-वाचन कला
- नाटकाख्यायिका-दर्शन कला
- काव्य समस्यापूरण कला
- पट्टिकावेत्रवानविकल्प कला (पीढ़ा, आसन, कुर्सी, पलंग, मोढ़े आदि चीज़ें बेंत बगेरे वस्तुओं से बनाना)
- तक्षकर्म कला (लकड़ी, धातु आदि को अभष्टि विभिन्न आकारों में काटना)
- तक्षण कला (बढ़ई का काम)
- वास्तुविद्या कला
- रूप्यरत्नपरीक्षा कला (सिक्के, रत्न आदि की परीक्षा करना)
- धातुवाद कला (पीतल आदि धातुओं को मिलाना, शुद्ध करना आदि)
- मणिरागाकर ज्ञान कला (मणि आदि का रँगना, खान आदि के विषय का ज्ञान)
- वृक्षायुर्वेदयोग कला
- मेषकुक्कुटलावकयुद्धविधि कला (मेंढे, मुर्गे, तीतर आदि को लड़ाना)
- शुकसारिका प्रलापन कला (तोता-मैना आदि को बोली सिखाना)
- उत्सादन-संवाहन केशमर्दनकौशल कला (हाथ-पैरों से शरीर दबाना, केशों का मलना, उनका मैल दूर करना आदि)
- अक्षरमुष्टि का कथन (अक्षरों को ऐसी युक्ति से कहना कि उस संकेत का जानने वाला ही उनका अर्थ समझे, दूसरा नहीं; मुष्टिसकेंत द्वारा वातचीत करना, जैसे दलाल आदि कर लेते हैं),
- म्लेच्छित विकल्प कला (ऐसे संकेत से लिखना, जिसे उस संकेत को जानने वाला ही समझे)
- देशभाषा-विज्ञान कला
- पुष्पशकटिका कला
- निमित्तज्ञान कला (शकुन जानना)
- यन्त्र मातृका कला (विविध प्रकार के मशीन, कल, पुर्जे आदि बनाना)
- धारणमातृका कला (सुनी हुई बातों का स्मरण रखना)
- संपाठ्य कला
- मानसी काव्य-क्रिया कला (किसी श्लोक में छोड़े हुए पद को मन से पूरा करना)
- अभिधानकोष कला
- छन्दोज्ञान कला
- क्रियाकल्प कला (काव्यालंकारों का ज्ञान)
- छलितक योग कला (रूप और बोली छिपाना)
- वस्त्रगोपन कला (शरीर के अंगों को छोटे या बड़े वस्त्रों से यथायोग्य ढँकना)
- द्यूतविशेष कला
- आकर्ष-क्रीड़ा कला (पासों से खेलना)
- बालक्रीड़नक कला
- वैनयिकी ज्ञान कला (अपने और पराये से विनयपूर्वक शिष्टाचार करना)
- वैजयिकी-ज्ञान कला (विजय प्राप्त करने की विद्या अर्थात् शस्त्रविद्या)
- व्यायामविद्या कला इनका विशेष विवरण जयमंगल ने कामसूत्र की व्याख्या में किया है।