"कर्मभूमि उपन्यास भाग-5 अध्याय-6": अवतरणों में अंतर
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काले ख़ाँ की कठोर मुद्रा इस गहरी, सजीव, सरल भक्ति से प्रदीप्त हो उठी, आंखों में कोमल छटा उदय हो गई। और वाणी इतनी मर्मस्पर्शी, इतनी आर्द्र थी कि अमर का हृदय पुलकित हो उठा-सुनता तो हूं ख़ाँ साहब, कि वह बड़ा दयालु है। | काले ख़ाँ की कठोर मुद्रा इस गहरी, सजीव, सरल भक्ति से प्रदीप्त हो उठी, आंखों में कोमल छटा उदय हो गई। और वाणी इतनी मर्मस्पर्शी, इतनी आर्द्र थी कि अमर का हृदय पुलकित हो उठा-सुनता तो हूं ख़ाँ साहब, कि वह बड़ा दयालु है। | ||
काले ख़ाँ दूने वेग से चक्की घुमाता हुआ बोला-बड़ा दयालु है, भैया | काले ख़ाँ दूने वेग से चक्की घुमाता हुआ बोला-बड़ा दयालु है, भैया माँ के पेट में बच्चे को भोजन पहुंचाता है। यह दुनिया ही उसकी रहीमी का आईना है। जिधर आँखें उठाओ, उसकी रहीमी के जलवे। इतने खूनी-डाकू यहां पड़े हुए हैं, उनके लिए भी आराम का सामान कर दिया। मौक़ा देता है, बार-बार मौक़ा देता है कि अब भी संभल जावें। उसका गूस्सा कौन सहेगा, भैया- जिस दिन उसे गुस्सा आवेगा, यह दुनिया जहन्नुम को चली जाएगी। हमारे-तुम्हारे ऊपर वह क्यों गुस्सा करेगा- हम चींटी को पैरों तले पड़ते देखकर किनारे से निकल जाते हैं। उसे कुचलते रहम आता है। जिस अल्लाह ने हमको बनाया, जो हमको पालता है, वह हमारे ऊपर कभी गुस्सा कर सकता है- कभी नहीं। | ||
अमर को अपने अंदर आस्था की एक लहर-सी उठती हुई जान पड़ी। इतने अटल विश्वास और सरल श्रध्दा के साथ इस विषय पर उसने किसी को बातें करते न सुना था। बात वही थी, जो वह नित्य छोटे-बड़े के मुंह से सुना करता था, पर निष्ठा ने उन शब्दों में जान सी डाल दी थी। | अमर को अपने अंदर आस्था की एक लहर-सी उठती हुई जान पड़ी। इतने अटल विश्वास और सरल श्रध्दा के साथ इस विषय पर उसने किसी को बातें करते न सुना था। बात वही थी, जो वह नित्य छोटे-बड़े के मुंह से सुना करता था, पर निष्ठा ने उन शब्दों में जान सी डाल दी थी। | ||
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एक मिनट में वार्डन, जेलर, सिपाही सब चले गए। कैदियों के भोजन का समय आया, सब-के-सब भोजन पर जा बैठे। मगर काले ख़ाँ अभी वहीं औंधा पड़ा था। सिर और नाक तथा कानों से ख़ून बह रहा था। अमरकान्त बैठा उसके घावों को पानी से धोरहा था और ख़ून बंद करने का प्रयास कर रहा था। आत्मशक्ति के इस कल्पनातीत उदाहरण ने उसकी भौतिक बुद्धि को जैसे आक्रांत कर दिया। ऐसी परिस्थिति में क्या वह इस भांति निश्चल और संयमित बैठा रहता- शायद पहले ही आघात में उसने या तो प्रतिकार किया होता या नमाज़ छोड़कर अलग हो जाता। विज्ञान और नीति और देशानुराग की वेदी पर बलिदानों की कमी नहीं। पर यह निश्चल धैर्य ईश्वर-निष्ठा ही का प्रसाद है। | एक मिनट में वार्डन, जेलर, सिपाही सब चले गए। कैदियों के भोजन का समय आया, सब-के-सब भोजन पर जा बैठे। मगर काले ख़ाँ अभी वहीं औंधा पड़ा था। सिर और नाक तथा कानों से ख़ून बह रहा था। अमरकान्त बैठा उसके घावों को पानी से धोरहा था और ख़ून बंद करने का प्रयास कर रहा था। आत्मशक्ति के इस कल्पनातीत उदाहरण ने उसकी भौतिक बुद्धि को जैसे आक्रांत कर दिया। ऐसी परिस्थिति में क्या वह इस भांति निश्चल और संयमित बैठा रहता- शायद पहले ही आघात में उसने या तो प्रतिकार किया होता या नमाज़ छोड़कर अलग हो जाता। विज्ञान और नीति और देशानुराग की वेदी पर बलिदानों की कमी नहीं। पर यह निश्चल धैर्य ईश्वर-निष्ठा ही का प्रसाद है। | ||
कैदी भोजन करके लौटे। काले ख़ाँ अब भी वहीं पड़ा हुआ था। सभी ने उसे उठाकर बैरक में पहुंचाया और डॉक्टर को सूचना दी पर उन्होंने रात को कष्ट उठाने की | कैदी भोजन करके लौटे। काले ख़ाँ अब भी वहीं पड़ा हुआ था। सभी ने उसे उठाकर बैरक में पहुंचाया और डॉक्टर को सूचना दी पर उन्होंने रात को कष्ट उठाने की ज़रूरत न समझी। वहां और कोई दवा भी न थी। गर्म पानी तक न मयस्सर हो सका। | ||
उस बैरक के कैदियों ने रात बैठकर काटी। कई आदमी आमादा थे कि सुबह होते ही जेलर साहब की मरम्मत की जाय। यही न होगा, साल-साल भर की मियाद और बढ़ जाएगी। क्या परवाह अमरकान्त शांत प्रकृति का आदमी था, पर इस समय वह भी उन्हीं लोगों में मिला हुआ था। रात-भर उसके अंदर पशु और मनुष्य में द्वंद्व होता रहा। वह जानता था, आग आग से नहीं, पानी से शांत होती है। इंसान कितना ही हैवान हो जाय उसमें कुछ न कुछ आदमीयत रहती ही है। वह आदमीयत अगर जाग सकती है, तो ग्लानि से, या पश्चाताप से। अमर अकेला होता, तो वह अब भी विचलित न होता लेकिन सामूहिक आवेश ने उसे भी अस्थिर कर दिया। समूह के साथ हम कितने ही ऐसे अच्छे-बुरे काम कर जाते हैं, जो हम अकेले न कर सकते। और काले ख़ाँ की दशा जितनी ही ख़राब होती जाती थी, उतनी ही प्रतिशोध की ज्वाला भी प्रचंड होती जाती थी। | उस बैरक के कैदियों ने रात बैठकर काटी। कई आदमी आमादा थे कि सुबह होते ही जेलर साहब की मरम्मत की जाय। यही न होगा, साल-साल भर की मियाद और बढ़ जाएगी। क्या परवाह अमरकान्त शांत प्रकृति का आदमी था, पर इस समय वह भी उन्हीं लोगों में मिला हुआ था। रात-भर उसके अंदर पशु और मनुष्य में द्वंद्व होता रहा। वह जानता था, आग आग से नहीं, पानी से शांत होती है। इंसान कितना ही हैवान हो जाय उसमें कुछ न कुछ आदमीयत रहती ही है। वह आदमीयत अगर जाग सकती है, तो ग्लानि से, या पश्चाताप से। अमर अकेला होता, तो वह अब भी विचलित न होता लेकिन सामूहिक आवेश ने उसे भी अस्थिर कर दिया। समूह के साथ हम कितने ही ऐसे अच्छे-बुरे काम कर जाते हैं, जो हम अकेले न कर सकते। और काले ख़ाँ की दशा जितनी ही ख़राब होती जाती थी, उतनी ही प्रतिशोध की ज्वाला भी प्रचंड होती जाती थी। | ||
एक डाके के कैदी ने कहा-खून पी जाऊंगा, ख़ून उसने समझा क्या है यही न होगा, | एक डाके के कैदी ने कहा-खून पी जाऊंगा, ख़ून उसने समझा क्या है यही न होगा, फाँसी हो जाएगी- | ||
अमरकान्त बोला-उस वक्त क्या समझे थे कि मारे ही डालता है । | अमरकान्त बोला-उस वक्त क्या समझे थे कि मारे ही डालता है । | ||
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अमर ने पूछा-खबर कैसे होगी- यहां ऐसा कौन है, जो उसे खबर दे दे- | अमर ने पूछा-खबर कैसे होगी- यहां ऐसा कौन है, जो उसे खबर दे दे- | ||
ठिगने कैदी ने दाएं-बाएं | ठिगने कैदी ने दाएं-बाएं आँखें घुमाकर कहा-खबर देने वाले न जाने कहां से निकल आते हैं, भैया- किसी के माथे पर तो कुछ लिखा नहीं, कौन जाने हमीं में से कोई जाकर इत्तिला कर दे- रोज ही तो लोगों को मुखबिर बनते देखते हो। वही लोग जो अगुआ होते हैं, अवसर पड़ने पर सरकारी गवाह बन जाते हैं। अगर कुछ करना है, तो अभी कर डालो। दिन को वारदात करोगे, सब-के-सब पकड़ लिए जाओगे। पांच-पांच साल की सज़ा ठुकजाएगी। | ||
अमर ने संदेह के स्वर में पूछा-लेकिन इस वक्त तो वह अपने क्वार्टर में सो रहा होगा- | अमर ने संदेह के स्वर में पूछा-लेकिन इस वक्त तो वह अपने क्वार्टर में सो रहा होगा- | ||
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'हम कहते हैं जाकर उन्हें भेज दो नहीं, ठीक नहीं होगा।' | 'हम कहते हैं जाकर उन्हें भेज दो नहीं, ठीक नहीं होगा।' | ||
काले ख़ाँ ने | काले ख़ाँ ने आँखें खोलीं और क्षीण स्वर में बोला-क्यों चिल्लाते हो यारो, मैं अभी मरा नहीं हूं। जान पड़ता है, पीठ की हड्डी में चोट है। | ||
ठिगने कैदी ने कहा-उसी का बदला चुकाने की तैयारी है पठान । | ठिगने कैदी ने कहा-उसी का बदला चुकाने की तैयारी है पठान । | ||
काले ख़ाँ तिरस्कार के स्वर में बोला-किससे बदला चुकाओगे भाई, अल्लाह से- अल्लाह की यही मरजी है, तो उसमें दूसरा कौन दख़ल दे सकता है- अल्लाह की | काले ख़ाँ तिरस्कार के स्वर में बोला-किससे बदला चुकाओगे भाई, अल्लाह से- अल्लाह की यही मरजी है, तो उसमें दूसरा कौन दख़ल दे सकता है- अल्लाह की मर्ज़ी | ||
के बिना कहीं एक पत्ती भी हिल सकती है- जरा मुझे पानी पिला दो। और देखो, जब मैं मर जाऊं, तो यहां जितने भाई हैं, सब मेरे लिए खुदा से दुआ करना। और दुनिया में मेरा कौन है- शायद तुम लोगों की दुआ से मेरी निजात हो जाय। | |||
अमर ने उसे गोद में संभालकर पानी पिलाना चाहा मगर घूंट कंठ के नीचे न उतरा। वह ज़ोर से कराहकर फिर लेट गया। | अमर ने उसे गोद में संभालकर पानी पिलाना चाहा मगर घूंट कंठ के नीचे न उतरा। वह ज़ोर से कराहकर फिर लेट गया। |
09:22, 11 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
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अमरकान्त को लखनऊ जेल में आए आज तीसरा दिन है। यहां उसे चक्की का काम दिया गया है। जेल के अधिकारियों को मालूम है, वह धानी का पुत्र है, इसलिए उसे कठिन परिश्रम देकर भी उसके साथ कुछ रिआयत की जाती है।
एक छप्पर के नीचे चक्कियों की कतारें लगी हुई हैं। दो-दो कैदी हरेक चक्की के पास खड़े आटा पीस रहे हैं। शाम को आटे की तौल होगी। आटा कम निकला, तो दंड मिलेगा।
अमर ने अपने संगी से कहा-जरा ठहर जाओ भाई, दम ले लूं, मेरे हाथ नहीं चलते। क्या नाम है तुम्हारा- मैंने तो शायद तुम्हें कहीं देखा है।
संगी गठीला, काला, लाल आंखों वाला, कठोर आकृति का मनुष्य था, जो परिश्रम से थकना न जानता था। मुस्कराकर बोला-मैं वही काले ख़ाँ हूं, एक बार तुम्हारे पास सोने के कड़े बेचने गया था। याद करो लेकिन तुम यहां कैसे आ फंसे, मुझे यह ताज्जुब हो रहा है। परसों से ही पूछना चाहता था पर सोचता था, कहीं धोखा न हो रहा हो।
अमर ने अपनी कथा संक्षेप में कह सुनाई और पूछा-तुम कैसे आए-
काले ख़ाँ हंसकर बोला-मेरी क्या पूछते हो लाला, यहां तो छ: महीने बाहर रहते हैं, तो छ: साल भीतर। अब तो यही आरजू है कि अल्लाह यहीं से बुला ले। मेरे लिए बाहर रहना मुसीबत है। सबको अच्छा-अच्छा पहनते, अच्छा-अच्छा खाते देखता हूं, तो हसद होता है, पर मिले कहां से- कोई हुनर आता नहीं, इलम है नहीं। चोरी न करूं, डाका न माईं, तो खाऊं क्या- यहां किसी से हसद नहीं होता, न किसी को अच्छा पहनते देखता हूं, न अच्छा खाते। सब अपने ही जैसे हैं, फिर डाह और जलन क्यों हो- इसीलिए अल्लाहताला से दुआ करता हूं कि यहीं से बुला ले। छूटने की आरजू नहीं है। तुम्हारे हाथ दु:ख गए हों तो रहने दो। मैं अकेला ही पीस डालूंगा। तुम्हें इन लोगों ने यह काम दिया ही क्यों- तुम्हारे भाई-बंद तो हम लोगों से अलग, आराम से रखे जाते हैं। तुम्हें यहां क्यों डाल दिया- हट जाओ।
अमर ने चक्की की मुठिया ज़ोर से पकड़कर कहा-नहीं-नहीं, मैं थका नहीं हूं। दो-चार दिन में आदत पड़ जाएगी, तो तुम्हारे बराबर काम करूंगा।
काले ख़ाँ ने उसे पीछे हटाते हुए कहा-मगर यह तो अच्छा नहीं लगता कि तुम मेरे साथ चक्की पीसो। तुमने जुर्म नहीं किया है। रिआया के पीछे सरकार से लड़े हो, तुम्हें मैं न पीसने दूंगा। मालूम होता है तुम्हारे लिए ही अल्लाह ने मुझे यहां भेजा है। वह तो बड़ा कारसाज आदमी है। उसकी कुदरत कुछ समझ में नहीं आती। आप ही आदमी से बुराई करवाता है आप ही उसे सज़ा देता है, और आप ही उसे मुआफ कर देता है।
अमर ने आपत्ति की-बुराई खुदा नहीं कराता, हम खुद करते हैं।
काले ख़ाँ ने ऐसी निगाहों से उसकी ओर देखा, जो कह रही थी, तुम इस रहस्य को अभी नहीं समझ सकते-ना-ना, मैं यह नहीं मानूंगा। तुमने तो पढ़ा होगा, उसके हुक्म के बगैर एक पत्ता भी नहीं हिल सकता, बुराई कौन करेगा- सब कुछ वही करवाता है, और फिर माफ भी कर देता है। यह मैं मुंह से कह रहा हूं। जिस दिन मेरे ईमान में यह बात जम जाएगी, उसी दिन बुराई बंद हो जाएगी। तुम्हीं ने उस दिन मुझे वह नसीहत सिखाई थी। मैं तुम्हें अपना पीर समझता हूं। दो सौ की चीज़ तुमने तीस रुपये में न ली। उसी दिन मुझे मालूम हुआ,0 बदी क्या चीज़ है। अब सोचता हूं, अल्लाह को क्या मुंह दिखाऊंगा- ज़िंदगी में इतने गुनाह किए हैं कि जब उनकी याद आती है, तो रोंए खड़े हो जाते हैं। अब तो उसी की रहीमी का भरोसा है। क्यों भैया, तुम्हारे मज़हब में क्या लिखा है- अल्लाह गुनहगारों को मुआफ कर देता है-
काले ख़ाँ की कठोर मुद्रा इस गहरी, सजीव, सरल भक्ति से प्रदीप्त हो उठी, आंखों में कोमल छटा उदय हो गई। और वाणी इतनी मर्मस्पर्शी, इतनी आर्द्र थी कि अमर का हृदय पुलकित हो उठा-सुनता तो हूं ख़ाँ साहब, कि वह बड़ा दयालु है।
काले ख़ाँ दूने वेग से चक्की घुमाता हुआ बोला-बड़ा दयालु है, भैया माँ के पेट में बच्चे को भोजन पहुंचाता है। यह दुनिया ही उसकी रहीमी का आईना है। जिधर आँखें उठाओ, उसकी रहीमी के जलवे। इतने खूनी-डाकू यहां पड़े हुए हैं, उनके लिए भी आराम का सामान कर दिया। मौक़ा देता है, बार-बार मौक़ा देता है कि अब भी संभल जावें। उसका गूस्सा कौन सहेगा, भैया- जिस दिन उसे गुस्सा आवेगा, यह दुनिया जहन्नुम को चली जाएगी। हमारे-तुम्हारे ऊपर वह क्यों गुस्सा करेगा- हम चींटी को पैरों तले पड़ते देखकर किनारे से निकल जाते हैं। उसे कुचलते रहम आता है। जिस अल्लाह ने हमको बनाया, जो हमको पालता है, वह हमारे ऊपर कभी गुस्सा कर सकता है- कभी नहीं।
अमर को अपने अंदर आस्था की एक लहर-सी उठती हुई जान पड़ी। इतने अटल विश्वास और सरल श्रध्दा के साथ इस विषय पर उसने किसी को बातें करते न सुना था। बात वही थी, जो वह नित्य छोटे-बड़े के मुंह से सुना करता था, पर निष्ठा ने उन शब्दों में जान सी डाल दी थी।
जरा देर बाद वह फिर बोला-भैया, तुमसे चक्की चलवाना तो ऐसे ही है, जैसे कोई तलवार से चिड़िए को हलाल करे। तुम्हें अस्पताल में रखना चाहिए था, बीमारी में दवा से उतना फायदा नहीं होता, जितना मीठी बात से हो जाता है। मेरे सामने यहां कई कैदी बीमार हुए पर एक भी अच्छा न हुआ। बात क्या है- दवा कैदी के सिर पर पटक दी जाती है, वह चाहे पिए चाहे फेंक दे।
अमर को इस काली-कलूटी काया में स्वर्ण-जैसा हृदय चमकता दीख पड़ा। मुस्कराकर बोला-लेकिन दोनों काम साथ-साथ कैसे करूंगा-
'मैं अकेला चक्की चला लूंगा और पूरा आटा तुलवा दूंगा।'
'तब तो सारा सवाब तुम्हीं को मिलेगा।'
काले ख़ाँ ने साधु-भाव से कहा-भैया, कोई काम सवाब समझकर नहीं करना चाहिए। दिल को ऐसा बना लो कि सवाब में उसे वही मजा आवे, जो गाने या खेलने में आता है। कोई काम इसलिए करना कि उससे नजात मिलेगी, रोज़गार है फिर मैं तुम्हें क्या समझाऊं तुम खुद इन बातों को मुझसे ज्यादा समझते हो। मैं तो मरीज़ की तीमारदारी करने के लायक़ ही नहीं हूं। मुझे बड़ी जल्दी गुस्सा आ जाता है। कितना चाहता हूं कि गुस्सा न आए पर जहां किसी ने दो-एक बार मेरी बातें न मानीं और मैं बिगड़ा।
वही डाकू, जिसे अमर ने एक दिन अधमता के पैरों के नीचे लोटते देखा था, आज देवत्व के पद पर पहुंच गया था। उसकी आत्मा से मानो एक प्रकाश-सा निकलकर अमर के अंत:करण को अवलोकित करने लगा।
उसने कहा-लेकिन यह तो बुरा मालूम होता है कि मेहनत का काम तुम करो और मैं...।
काले ख़ाँ ने बात काटी-भैया, इन बातों में क्या रखा है- तुम्हारा काम इस चक्की से कहीं कठिन होगा। तुम्हें किसी के बात करने तक की मुहलत न मिलेगी। मैं रात को मीठी नींद सोऊंगा। तुम्हें रातें जाफकर काटनी पड़ेंगी। जान-जोखिम भी तो है। इस चक्की में क्या रखा है- यह काम तो गधा भी कर सकता है, लेकिन जो काम तुम करोगे, वह विरले कर सकते हैं।
सूर्यास्त हो रहा था। काले ख़ाँ ने अपने पूरे गेहूं पीस डाले थे और दूसरे कैदियों के पास जा-जाकर देख रहा था, किसका कितना काम बाकी है। कई कैदियों के गेहूं अभी समाप्त नहीं हुए थे। जेल कर्मचारी आटा तौलने आ रहा होगा। इन बेचारों पर आफत आ जाएगी, मार पड़ने लगेगी। काले ख़ाँ ने एक-एक चक्की के पास जाकर कैदियों की मदद करनी शुरू की। उसकी फुर्ती और मेहनत पर लोगों को विस्मय होता था। आधा घंटे में उसने फिसड्डियों की कमी पूरी कर दी। अमर अपनी चक्की के पास खड़ा सेवा के पुतले को श्रध्दा-भरी आंखों से देख रहा था, मानो दिव्य दर्शन कर रहा हो।
काले ख़ाँ इधर से फुरसत पाकर नमाज़ पढ़ने लगा। वहीं बरामदे में उसने वजू किया, अपना कंबल ज़मीन पर बिछा दिया और नमाज़ शुरू की। उसी वक्त जेलर साहब चार वार्डरों के साथ आटा तुलवाने आ पहुंचे। कैदियों ने अपना-अपना आटा बोरियों में भरा और तराजू के पास आकर खड़ा हो गए। आटा तुलने लगा।
जेलर ने अमर से पूछा-तुम्हारा साथी कहां गया-
अमर ने बताया, नमाज़ पढ़ रहा है।
'उसे बुलाओ। पहले आटा तुलवा ले, फिर नमाज़ पढ़े। बड़ा नमाजी की दुम बना है। कहां गया है नमाज़ पढ़ने?'
अमर ने शेड के पीछे की तरफ इशारा करके कहा-उन्हें नमाज़ पढ़ने दें आप आटा तौल लें।
जेलर यह कब देख सकता था कि कोई कैदी उस वक्त नमाज़ पढ़ने जाय, जब जेल के साक्षात् प्रभु पधारे हों शेड के पीछे जाकर बोले-अबे ओ नमाजी के बच्चे, आटा क्यों नहीं तुलवाता- बचा, गेंहू चबा गए हो, तो नमाज़ का बहाना करने लगे। चल चटपट, वरना मारे हंटरों के चमड़ी उधोड़ दूंगा।
काले ख़ाँ दूसरी ही दुनिया में था।
जेलर ने समीप जाकर अपनी छड़ी उसकी पीठ में चुभाते हुए कहा-बहरा हो गया है क्या बे- शामतें तो नहीं आई हैं-
काले ख़ाँ नमाज़ में मग्न था। पीछे फिरकर भी न देखा।
जेलर ने झल्लाकर लात जमाई। कालें ख़ाँ सिजदे के लिए झुका हुआ था। लात खाकर औंधो मुंह गिर पड़ा पर तुरंत संभलकर फिर सिजदे में झुक गया। जेलर को अब ज़िद पड़ गई कि उसकी नमाज़ बंद कर दे। संभव है काले ख़ाँ को भी ज़िद पड़ गई हो कि नमाज़ पूरी किए बगैर न उठूंगा। वह तो सिजदे में था। जेलर ने उसे बूटदार ठोकरें जमानी शुरू कीं एक वार्डन ने लपककर दो गारद सिपाही बुला लिए। दूसरा जेलर साहब की कुमक पर दौड़ा। काले ख़ाँ पर एक तरफ से ठोकरें पड़ रही थीं, दूसरी तरफ से लकड़ियां पर वह सिजदे से सिर न उठाता था। हां, प्रत्येक आघात पर उसके मुंह से 'अल्लाहो अकबर ।' की दिल हिला देने वाली सदा निकल जाती थी। उधर आघातकारियों की उत्तेजना भी बढ़ती जाती थी। जेल का कैदी जेल के खुदा को सिजदा न करके अपने खुदा को सिजदा करे, इससे बड़ा जेलर साहब का क्या अपमान हो सकता था यहां तक कि काले ख़ाँ के सिर से रुधिर बहने लगा। अमरकान्त उसकी रक्षा करने के लिए चला था कि एक वार्डन ने उसे मज़बूती से पकड़ लिया। उधर बराबर आघात हो रहे थे और काले ख़ाँ बराबर 'अल्लाहो अकबर' की सदा लगाए जाता था। आखिर वह आवाज़ क्षीण होते-होते एक बार बिलकुल बंद हो गई और कालें ख़ाँ रक्त बहने से शिथिल हो गया। मगर चाहे किसी के कानों में आवाज़ न जाती हो, उसके होंठ अब भी खुल रहे थे और अब भी 'अल्लाहो अकबर' की अव्यक्त ध्वनि निकल रही थी।
जेलर ने खिसियाकर कहा-पड़ा रहने दो बदमाश को यहीं कल से इसे खड़ी बेड़ी दूंगा और तनहाई भी। अगर तब भी न सीधा हुआ, तो उलटी होगी। इसका नमाजीपन निकाल न दूं तो नाम नहीं।
एक मिनट में वार्डन, जेलर, सिपाही सब चले गए। कैदियों के भोजन का समय आया, सब-के-सब भोजन पर जा बैठे। मगर काले ख़ाँ अभी वहीं औंधा पड़ा था। सिर और नाक तथा कानों से ख़ून बह रहा था। अमरकान्त बैठा उसके घावों को पानी से धोरहा था और ख़ून बंद करने का प्रयास कर रहा था। आत्मशक्ति के इस कल्पनातीत उदाहरण ने उसकी भौतिक बुद्धि को जैसे आक्रांत कर दिया। ऐसी परिस्थिति में क्या वह इस भांति निश्चल और संयमित बैठा रहता- शायद पहले ही आघात में उसने या तो प्रतिकार किया होता या नमाज़ छोड़कर अलग हो जाता। विज्ञान और नीति और देशानुराग की वेदी पर बलिदानों की कमी नहीं। पर यह निश्चल धैर्य ईश्वर-निष्ठा ही का प्रसाद है।
कैदी भोजन करके लौटे। काले ख़ाँ अब भी वहीं पड़ा हुआ था। सभी ने उसे उठाकर बैरक में पहुंचाया और डॉक्टर को सूचना दी पर उन्होंने रात को कष्ट उठाने की ज़रूरत न समझी। वहां और कोई दवा भी न थी। गर्म पानी तक न मयस्सर हो सका।
उस बैरक के कैदियों ने रात बैठकर काटी। कई आदमी आमादा थे कि सुबह होते ही जेलर साहब की मरम्मत की जाय। यही न होगा, साल-साल भर की मियाद और बढ़ जाएगी। क्या परवाह अमरकान्त शांत प्रकृति का आदमी था, पर इस समय वह भी उन्हीं लोगों में मिला हुआ था। रात-भर उसके अंदर पशु और मनुष्य में द्वंद्व होता रहा। वह जानता था, आग आग से नहीं, पानी से शांत होती है। इंसान कितना ही हैवान हो जाय उसमें कुछ न कुछ आदमीयत रहती ही है। वह आदमीयत अगर जाग सकती है, तो ग्लानि से, या पश्चाताप से। अमर अकेला होता, तो वह अब भी विचलित न होता लेकिन सामूहिक आवेश ने उसे भी अस्थिर कर दिया। समूह के साथ हम कितने ही ऐसे अच्छे-बुरे काम कर जाते हैं, जो हम अकेले न कर सकते। और काले ख़ाँ की दशा जितनी ही ख़राब होती जाती थी, उतनी ही प्रतिशोध की ज्वाला भी प्रचंड होती जाती थी।
एक डाके के कैदी ने कहा-खून पी जाऊंगा, ख़ून उसने समझा क्या है यही न होगा, फाँसी हो जाएगी-
अमरकान्त बोला-उस वक्त क्या समझे थे कि मारे ही डालता है ।
चुपके-चुपके षडयंत्र रचा गया, आघातकारियों का चुनाव हुआ, उनका कार्य विधन निश्चय किया गया। सफाई की दलीलें सोच निकाली गईं।
सहसा एक ठिगने कैदी ने कहा-तुम लोग समझते हो, सवेरे तक उसे खबर न हो जाएगी-
अमर ने पूछा-खबर कैसे होगी- यहां ऐसा कौन है, जो उसे खबर दे दे-
ठिगने कैदी ने दाएं-बाएं आँखें घुमाकर कहा-खबर देने वाले न जाने कहां से निकल आते हैं, भैया- किसी के माथे पर तो कुछ लिखा नहीं, कौन जाने हमीं में से कोई जाकर इत्तिला कर दे- रोज ही तो लोगों को मुखबिर बनते देखते हो। वही लोग जो अगुआ होते हैं, अवसर पड़ने पर सरकारी गवाह बन जाते हैं। अगर कुछ करना है, तो अभी कर डालो। दिन को वारदात करोगे, सब-के-सब पकड़ लिए जाओगे। पांच-पांच साल की सज़ा ठुकजाएगी।
अमर ने संदेह के स्वर में पूछा-लेकिन इस वक्त तो वह अपने क्वार्टर में सो रहा होगा-
ठिगने कैदी ने राह बताई-यह हमारा काम है भैया, तुम क्या जानो-
सबों ने मुंह मोड़कर कनफुसकियों में बातें शुरू कीं। फिर पांचों आदमी खड़े हो गए।
ठिगने कैदी ने कहा-हममें से जो ठ्ठटे, उसे गऊ हत्या ।
यह कहकर उसने बड़े ज़ोर से हाय-हाय करना शुरू किया। और भी कई आदमी चीखने चिल्लाने लगे। एक क्षण में वार्डन ने द्वार पर आकर पूछा-तुम लोग क्यों शोर कर रह ेहो- क्या बात है-
ठिगने कैदी ने कहा-बात क्या है, काले ख़ाँ की हालत ख़राब है। जाकर जेलर साहब को बुला लाओ। चटपट।
वार्डन बोला-वाह बे चुपचाप पड़ा रह बड़ा नवाब का बेटा बना है ।
'हम कहते हैं जाकर उन्हें भेज दो नहीं, ठीक नहीं होगा।'
काले ख़ाँ ने आँखें खोलीं और क्षीण स्वर में बोला-क्यों चिल्लाते हो यारो, मैं अभी मरा नहीं हूं। जान पड़ता है, पीठ की हड्डी में चोट है।
ठिगने कैदी ने कहा-उसी का बदला चुकाने की तैयारी है पठान ।
काले ख़ाँ तिरस्कार के स्वर में बोला-किससे बदला चुकाओगे भाई, अल्लाह से- अल्लाह की यही मरजी है, तो उसमें दूसरा कौन दख़ल दे सकता है- अल्लाह की मर्ज़ी के बिना कहीं एक पत्ती भी हिल सकती है- जरा मुझे पानी पिला दो। और देखो, जब मैं मर जाऊं, तो यहां जितने भाई हैं, सब मेरे लिए खुदा से दुआ करना। और दुनिया में मेरा कौन है- शायद तुम लोगों की दुआ से मेरी निजात हो जाय।
अमर ने उसे गोद में संभालकर पानी पिलाना चाहा मगर घूंट कंठ के नीचे न उतरा। वह ज़ोर से कराहकर फिर लेट गया।
ठिगने कैदी ने दांत पीसकर कहा-ऐसे बदमास की गरदन तो उलटी छुरी से काटनी चाहिए ।
काले ख़ाँ दीनभाव से रूक-रूककर बोला-क्यों मेरी नजात का द्वार बंद करते हो, भाई दुनिया तो बिगड़ गई क्या आकबत भी बिफाडना चाहते हो- अल्लाह से दुआ करो, सब पर रहम करे। ज़िंदगी में क्या कम गुनाह किए हैं कि मरने के पीछे पांव में बेड़ियां पड़ी रहें या अल्लाह, रहम कर।
इन शब्दों में मरने वाले की निर्मल आत्मा मानो व्याप्त हो गई थी। बातें वही थीं, तो रोज सुना करते थे, पर इस समय इनमें कुछ ऐसे द्रावक, कुछ ऐसी हिला देने वाली सि' िथी कि सभी जैसे उसमें नहा उठे। इस चुटकी भर राख ने जैसे उनके तापमय विकारों को शांत कर दिया।
प्रात:काल जब काले ख़ाँ ने अपनी जीवन-लीला समाप्त कर दी तो ऐसा कोई कैदी न था, जिसकी आंखों से आंसू न निकल रहे हों पर औरों का रोना दु:ख का था, अमर का रोना सुख का था। औरों को किसी आत्मीय के खो देने का सदमा था, अमर को उसके और समीप हो जाने का अनुभव हो रहा था। अपने जीवन में उसने यही एक नवरत्न पाया था, जिसके सम्मुख वह श्रध्दा से सिर झुका सकता था और जिससे वियोग हो जाने पर उसे एक वरदान पा जाने का भान होता था।
इस प्रकाश-स्तंभ ने आज उसके जीवन को एक दूसरी ही धारा में डाल दिया जहां संशय की जगह विश्वास, और शंका की जगह सत्य मूर्तिमान हो गया था।