"राजराज प्रथम": अवतरणों में अंतर

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*985 ई. में इस [[चोल साम्राज्य]] का स्वामी राजराज प्रथम बना, जो बहुत ही प्रतापी और महत्वाकांक्षी था।
'''राजराज प्रथम''' (985-1014 ई.) अथवा '''अरिमोलिवर्मन''' [[परान्तक द्वितीय]] का पुत्र एवं उत्तराधिकारी, परान्तक द्वितीय के बाद [[चोल राजवंश]] के सिंहासन पर बैठा। उसके शासन के 30 वर्ष चोल साम्राज्य के सर्वाधिक गौरवशाली वर्ष थे। उसने अपने पितामह [[परान्तक प्रथम]] की 'लौह एवं रक्त की नीति' का पालन करते हुए 'राजराज' की उपाधि ग्रहण की।
*इस समय तक दक्षिणापथ में [[राष्ट्रकूट साम्राज्य|राष्ट्रकूटों]] की शक्ति क्षीण हो चुकी थी, और उसका अन्त कर [[चालुक्य वंश]] ने कल्याणी को राजधानी बनाकर अपनी शक्ति स्थापित कर ली थी।
==सामरिक अभियान==
*दक्षिणापथ में राज परिवर्तन के कारण जो स्थिति उत्पन्न हो गई थी, राजराज प्रथम ने उससे पूरा लाभ उठाया, और अपने राज्य का विस्तार शुरू किया।
'''राजराज प्रथम ने अपने शासन के''' 9वें वर्ष में सामरिक अभियान प्रारम्भ किया। इस अभियान के अन्तर्गत सर्वप्रथम उसने चोल विरोधी गठबंधन में शामिल [[पाण्ड्य साम्राज्य]], [[चेर वंश]] एवं [[श्रीलंका]] के ऊपर आक्रमण किया। इस संयुक्त मोर्चे को नष्ट करने के लिए उसने सर्वप्रथम चेर नरेश भास्करवर्मन को पराजित किया। चेरों के बाद राजराज ने पाण्ड्य शासक अमर भुजंग को पराजित कर राजधानी [[मदुरै]] को अपने क़ब्ज़े में कर लिया। उसने सर्वप्रथम चेरों की नौसेना को कंडलूर में परास्त किया तथा इस विजय के उपलक्ष्य में 'माण्डलूर शालैकमरुत' की उपाधि ग्रहण की।
*सबसे पूर्व उसने चोलमण्डल के दक्षिण में स्थित पाड्य और केरल राज्यों पर आक्रमण किए, और उन्हें जीतकर कन्याकुमारी तक अपने राज्य का विस्तार किया।
==सफलताएँ==
*समुद्र पार कर उसने सिंहलद्वीप में भी विजय यात्रा की, और उसके उत्तरी प्रदेश को भी अपने राज्य में शामिल कर लिया।
'''पाण्ड्य राज्य पर अधिकार के बाद''' राजराज प्रथम ने श्रीलंका के शासक महेन्द्र पंचम पर आक्रमण कर उसकी राजधानी 'अनुराधापुरम' को बुरी तरह नष्ट कर दिया। इस अभियान में राजराज ने अपने द्वारा जीते गये प्रदेश का नाम 'मामुण्डी चोलमण्डलम' रखा एवं 'पोलोन्नरुवा' को उसकी राजधानी बनाया तथा सम्भवतः इस विजय के बाद राजराज प्रथम ने 'जननाथमंगलम्' नाम रखा। इन विजयों के बाद राजराज ने पश्चिमी [[गंग वंश|गंगों]] के कुछ प्रदेशों को जीत कर पश्चिमी [[चालुक्य साम्राज्य|चालुक्य]] नरेश [[सत्याश्रय]] पर आक्रमण किया। सत्याश्रय ने चोलों को [[तुंगभद्रा नदी]] के दक्षिणी किनारे से आगे नही बढ़ने दिया। अपने शासन के अन्तिम दिनों में राजराज प्रथम ने [[मालदीव]] को भी अपने अधिकार में कर दिया। राजराज प्रथम के काल में एक दूतमण्डल [[चीन]] गया था। 1000 ई. में उसने भूराजस्व के निर्धारण के लिए भूमि का सर्वेक्षण कराया और स्थानीय स्वशासन को प्रोत्साहन दिया।
*पश्चिम दिशा में उसने द्वारसमुद्र के [[होयसल वंश|होयसाल राज्य]] की विजय की, और उसके राजा को अपना सामन्त बनाया। पाड्य, केरल और द्वारसमुद्र को जीत लेने के बाद राजराज प्रथम ने उत्तर दिशा में आक्रमण किया, जहाँ अब चालुक्य राजा सत्याश्रय (997-1008) का शासन था।
==धार्मिक सहिष्णुता==
 
'''राजराज प्रथम ने''' [[शैव धर्म|शैव]] मतानुयायी होने के कारण 'शिवपादशेखर' की उपाधि धारण की। उसके द्वारा प्रचलित सिक्कों पर '[[कृष्ण]] मुरलीधर' तथा '[[विष्णु]]-पद-चिन्ह' आदि का अंकन विशेष उल्लेखनीय है। अपनी धार्मिक सहिष्णुता की नीति का परिचय देते हुए उसने [[तंजौर]] के राजराजेश्वर मंदिर की भित्तियों पर अनेक [[बौद्ध]] प्रतिमाओं का निर्माण कराया था। इसके अतिरिक्त उसने 'रविकुल मणिक्य', 'मुम्माडि चोलदेव', 'चोलमार्त्तण्ड', 'जयनगोण्ड' आदि अनेक उपाधियां धारण कीं। उसने तंजौर में द्रविड़ शैली के अन्तर्गत विश्व प्रसिद्ध 'राजराजेश्वर' या 'बृहदीश्वर मंदिर' का निर्माण करवाया। राजराज प्रथम ने अपने शासन के दौरान चोल अभिलेखों का प्रारम्भ 'ऐतिहासिक प्रशस्ति' के साथ करवाने की प्रथा की शुरुआत की। उसने शैलेन्द्र शासक श्रीमार विजयोत्तुंगवर्मन को नागपट्टम में 'चूड़ामणि' नामक बौद्ध बिहार बनाने की अनुमति दी और साथ ही इसके निर्माण में आर्थिक सहायता भी दी। राजराज ने अपने धर्म सहिष्णु होने का परिचय राजराजेश्वर मंदिर की दीवारों पर बौद्ध प्रतिमाओं का निर्माण करवा कर दिया। राजराज प्रथम ने पूर्वी [[चालुक्य साम्राज्य|चालुक्य]] नरेश विमलादित्य के साथ अपने पुत्री का विवाह किया था।
*सत्याश्रय को परास्त कर कुछ समय के लिए राजराज ने कल्याणी पर भी क़ब्ज़ा कर लिया। यद्यपि दक्षिणापथ को स्थायी रूप से अपने आधिपत्य में रखने का उसने कोई प्रयत्न नहीं किया। *दक्षिणापथ पर चोलराज का यह आक्रमण एक विजय यात्रा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। इसीलिए राजराज के वापस लौट आने पर सत्याश्रय ने दक्षिणापथ पर फिर से अपना अधिकार कर लिया। कल्याणी की विजय के बाद राजराज प्रथम ने वेंगि के पूर्वी चालुक्य वंश पर चढ़ाई की, और उसके राजा शक्तिवर्मा के साथ उसके अनेक युद्ध हुए।
*शक्तिवर्मा के उत्तराधिकारी विमलादित्य (1011-1018) ने राजराज के आक्रमणों से परेशान होकर उसकी अधीनता स्वीकार कर ली, और चोलराज ने भी अपनी पुत्री का विवाह विमलादित्य के साथ कर उसे अपना सम्बन्धी और परम सहायक बना लिया।
*नौसेना की दृष्टि से भी राजराज प्रथम बहुत शक्तिशाली था। समुद्र पार कर जिस प्रकार उसने सिंहलद्वीप पर आक्रमण किया था, वैसे ही उसने लक्कदीव और [[मालदीव]] नामक द्वीपों की भी विजय की। इसमें सन्देह नहीं कि राजराज प्रथम एक अत्यन्त प्रतापी राजा था, और उसके नेतृत्व ने चोल राज्य ने बहुत ही उन्नति की।  
*तंजोर में विद्यमान राजराजेश्वर शिव मन्दिर उसके वैभव का उत्कृष्ट स्मारक है, और उसकी दीवार पर उत्कीर्ण प्रशस्ति ही उसके इतिहास का परिचय प्राप्त करने का साथन है।
*985 से 1012 ई. तक राजराज प्रथम ने राज्य किया। इस काल में भी चोल राज्य की बहुत उन्नति हुई।
 


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राजराज प्रथम (985-1014 ई.) अथवा अरिमोलिवर्मन परान्तक द्वितीय का पुत्र एवं उत्तराधिकारी, परान्तक द्वितीय के बाद चोल राजवंश के सिंहासन पर बैठा। उसके शासन के 30 वर्ष चोल साम्राज्य के सर्वाधिक गौरवशाली वर्ष थे। उसने अपने पितामह परान्तक प्रथम की 'लौह एवं रक्त की नीति' का पालन करते हुए 'राजराज' की उपाधि ग्रहण की।

सामरिक अभियान

राजराज प्रथम ने अपने शासन के 9वें वर्ष में सामरिक अभियान प्रारम्भ किया। इस अभियान के अन्तर्गत सर्वप्रथम उसने चोल विरोधी गठबंधन में शामिल पाण्ड्य साम्राज्य, चेर वंश एवं श्रीलंका के ऊपर आक्रमण किया। इस संयुक्त मोर्चे को नष्ट करने के लिए उसने सर्वप्रथम चेर नरेश भास्करवर्मन को पराजित किया। चेरों के बाद राजराज ने पाण्ड्य शासक अमर भुजंग को पराजित कर राजधानी मदुरै को अपने क़ब्ज़े में कर लिया। उसने सर्वप्रथम चेरों की नौसेना को कंडलूर में परास्त किया तथा इस विजय के उपलक्ष्य में 'माण्डलूर शालैकमरुत' की उपाधि ग्रहण की।

सफलताएँ

पाण्ड्य राज्य पर अधिकार के बाद राजराज प्रथम ने श्रीलंका के शासक महेन्द्र पंचम पर आक्रमण कर उसकी राजधानी 'अनुराधापुरम' को बुरी तरह नष्ट कर दिया। इस अभियान में राजराज ने अपने द्वारा जीते गये प्रदेश का नाम 'मामुण्डी चोलमण्डलम' रखा एवं 'पोलोन्नरुवा' को उसकी राजधानी बनाया तथा सम्भवतः इस विजय के बाद राजराज प्रथम ने 'जननाथमंगलम्' नाम रखा। इन विजयों के बाद राजराज ने पश्चिमी गंगों के कुछ प्रदेशों को जीत कर पश्चिमी चालुक्य नरेश सत्याश्रय पर आक्रमण किया। सत्याश्रय ने चोलों को तुंगभद्रा नदी के दक्षिणी किनारे से आगे नही बढ़ने दिया। अपने शासन के अन्तिम दिनों में राजराज प्रथम ने मालदीव को भी अपने अधिकार में कर दिया। राजराज प्रथम के काल में एक दूतमण्डल चीन गया था। 1000 ई. में उसने भूराजस्व के निर्धारण के लिए भूमि का सर्वेक्षण कराया और स्थानीय स्वशासन को प्रोत्साहन दिया।

धार्मिक सहिष्णुता

राजराज प्रथम ने शैव मतानुयायी होने के कारण 'शिवपादशेखर' की उपाधि धारण की। उसके द्वारा प्रचलित सिक्कों पर 'कृष्ण मुरलीधर' तथा 'विष्णु-पद-चिन्ह' आदि का अंकन विशेष उल्लेखनीय है। अपनी धार्मिक सहिष्णुता की नीति का परिचय देते हुए उसने तंजौर के राजराजेश्वर मंदिर की भित्तियों पर अनेक बौद्ध प्रतिमाओं का निर्माण कराया था। इसके अतिरिक्त उसने 'रविकुल मणिक्य', 'मुम्माडि चोलदेव', 'चोलमार्त्तण्ड', 'जयनगोण्ड' आदि अनेक उपाधियां धारण कीं। उसने तंजौर में द्रविड़ शैली के अन्तर्गत विश्व प्रसिद्ध 'राजराजेश्वर' या 'बृहदीश्वर मंदिर' का निर्माण करवाया। राजराज प्रथम ने अपने शासन के दौरान चोल अभिलेखों का प्रारम्भ 'ऐतिहासिक प्रशस्ति' के साथ करवाने की प्रथा की शुरुआत की। उसने शैलेन्द्र शासक श्रीमार विजयोत्तुंगवर्मन को नागपट्टम में 'चूड़ामणि' नामक बौद्ध बिहार बनाने की अनुमति दी और साथ ही इसके निर्माण में आर्थिक सहायता भी दी। राजराज ने अपने धर्म सहिष्णु होने का परिचय राजराजेश्वर मंदिर की दीवारों पर बौद्ध प्रतिमाओं का निर्माण करवा कर दिया। राजराज प्रथम ने पूर्वी चालुक्य नरेश विमलादित्य के साथ अपने पुत्री का विवाह किया था।


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