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*देवर्षि नारद पहले गन्धर्व थे। एक बार [[ब्रह्मा]] जी की सभा में सभी [[देवता]] और गन्धर्व भगवान्नाम का संकीर्तन करने के लिये आये। नारद जी भी अपनी स्त्रियों के साथ उस सभा में गये। भगवान के संकीर्तन में विनोद करते हुए देखकर ब्रह्मा जी ने इन्हें शूद्र होने का शाप दे दिया। उस शाप के प्रभाव से नारद जी का जन्म एक शूद्रकुल में हुआ। जन्म लेने के बाद ही इनके पिता की मृत्यु हो गयी। इनकी माता दासी का कार्य करके इनका भरण-पोषण करने लगी। एक दिन इनके गाँव में कुछ महात्मा आये और चातुर्मास्य बिताने के लिये वहीं ठहर गये। नारद जी बचपन से ही अत्यन्त सुशील थे। वे खेलकूद छोड़कर उन साधुओं के पास ही बैठे रहते थे और उनकी छोटी-से-छोटी सेवा भी बड़े मन से करते थे। संत-सभा में जब भगवत्कथा होती थी तो ये तन्मय होकर सुना करते थे। संत लोग इन्हें अपना बचा हुआ भोजन खाने के लिये दे देते थे।
"अहो! ये देवर्षि नारद हैं, जो वीणा बजाते हैं, हरिगुण गाते, मस्त दशा में तीनों  लोकों में घूम कर दु:खी संसार को आनंदित करते हैं।" <ref>(भागवत 1/6/39)</ref>
*साधुसेवा और सत्संग अमोघ फल प्रदान करने वाला होता है। उसके प्रभाव से नारद जी का हृदय पवित्र हो गया और इनके समस्त पाप धुल गये। जाते समय महात्माओं ने प्रसन्न होकर इन्हें भगवन्नाम का जप एवं भगवान के स्वरूप के ध्यान का उपदेश दिया। एक दिन साँप के काटने से इनकी माता जी भी इस संसार से चल बसीं। अब नारद जी इस संसार में अकेले रह गये। उस समय इनकी अवस्था मात्र पाँच वर्ष की थी। माता के वियोग को भी भगवान का परम अनुग्रह मानकर ये अनाथों के नाथ दीनानाथ का भजन करने के लिये चल पड़े। एक दिन जब नारद जी वन में बैठकर भगवान के स्वरूप का ध्यान कर रहे थे, अचानक इनके हृदय में भगवान प्रकट हो गये और थोड़ी देर तक अपने दिव्यस्वरूप की झलक दिखाकर अन्तर्धान हो गये। भगवान का दोबारा दर्शन करने के लिये नारद जी के मन में परम व्याकुलता पैदा हो गयी। वे बार-बार अपने मन को समेटकर भगवान के ध्यान का प्रयास करने लगे, किन्तु सफल नहीं हुए। उसी समय आकाशवाणी हुई- 'हे दासीपुत्र! अब इस जन्म में फिर तुम्हें मेरा दर्शन नहीं होगा। अगले जन्म में तुम मेरे पार्षद रूप में मुझे पुन: प्राप्त करोगे।'
*खड़ी शिखा, हाथ  में [[वीणा]], मुख से '[[नारायण]]' शब्द का जाप, पवन पादुका पर मनचाहे वहाँ विचरण करने वाले नारद से सभी परिचित हैं। [[श्रीकृष्ण]] देवर्षियों  में नारद को अपनी विभूति बताते हैं <ref>(गीता 10/26)</ref>। वैदिक साहित्य, [[रामायण]], [[महाभारत]], [[पुराण]], [[स्मृतियाँ]], सभी शास्त्रों में कहीं ना कहीं नारद का निर्देश निश्चित रूप से होता ही है। [[ऋग्वेद]] मंडल में 8-9 के कई सूक्तों के दृष्टा नारद हैं। [[अथर्ववेद]], [[ऎतरेय ब्राह्मण]], [[मैत्रायणी संहिता]] आदि में नारद का उल्लेख है।
*पूर्व कल्प में नारद 'उपबर्हण' नाम के गंधर्व थे। उन्हें अपने रूप पर अभिमान था। एक बार जब [[ब्रह्मा]] की सेवा में अप्सराएँ और गंधर्व गीत और नृत्य से जगत्सृष्टा की  आराधना कर रहे थे, उपबर्हण स्त्रियों के साथ श्रृंगार भाव से वंहा आया। उपबर्हण का यह अशिष्ट आचरण देख कर ब्रह्मा कुपित हो गये और उन्होंने उसे 'शूद्र योनि' में जन्म लेने का शाप दे दिया। शाप के फलस्वरूप वह 'शूद्रा दासी' का पुत्र हुआ। माता पुत्र साधु संतों की निष्ठा के साथ सेवा करते थे। पाँच वर्ष का बालक संतों के पात्र में बचा हुआ झूठा अन्न खाता था, जिससे उसके हृदय के सभी पाप धुल गये। बालक की सेवा से प्रसन्न हो कर साधुओं ने उसे नाम जाप और ध्यान का उपदेश दिया। शूद्रा दासी की सर्पदंश से मृत्यु हो गयी। अब नारद जी इस संसार में अकेले रह गये। उस समय इनकी अवस्था मात्र पाँच वर्ष की थी। माता के वियोग को भी भगवान का परम अनुग्रह मानकर ये अनाथों के नाथ दीनानाथ का भजन करने के लिये चल पड़े। एक दिन वह बालक एक पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान लगा कर बैठा था कि उसके हृदय में भगवान की एक झलक विद्युत रेखा की भाँति दिखायी दी और तत्काल अदृश्य हो गयी। उसके मन में भगवान के दर्शन की व्याकुलता बढ़ गई, जिसे देख कर आकाशवाणी हुई - हे दासीपुत्र! अब इस जन्म में फिर तुम्हें मेरा दर्शन नहीं होगा। अगले जन्म में तुम मेरे पार्षद रूप में मुझे पुन: प्राप्त करोगे।' समय बीतने पर बालक का शरीर छूट गया और कल्प के अंत में वह ब्रह्म में लीन हो गया।
*समय आने पर नारद जी का पांचभौतिक शरीर छूट गया और कल्प के अन्त में ये ब्रह्मा जी के मानस पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुए।
*नारद मुनि, हिन्दू शास्त्रों के अनुसार, [[ब्रह्मा]] के 'सात मानस' पुत्रों मे से एक हैं । उन्होंने कठिन तपस्या से 'ब्रह्मर्षि' पद प्राप्त किया है । वे भगवान [[विष्णु]] के प्रिय भक्तों में से एक माने जाते है ।
महायोगी नारद जी ब्रह्मा जी के मानसपुत्र हैं। वे प्रत्येक [[युग]] में भगवान की भक्ति और उनकी महिमा का विस्तार करते हुए लोक-कल्याण के लिए सर्वदा सर्वत्र विचरण किया करते हैं। भक्ति तथा संकीर्तन के ये आद्य-आचार्य हैं। इनकी वीणा भगवन जप 'महती' के नाम से विख्यात है। उससे 'नारायण-नारायण' की ध्वनि निकलती रहती है। इनकी गति अव्याहत है। ये ब्रह्म-मुहूर्त में सभी जीवों की गति देखते हैं और अजर–अमर हैं। भगवद-भक्ति की स्थापना तथा प्रचार के लिए ही इनका आविर्भाव हुआ है।
==कार्य==


*समय आने पर नारद जी का पांचभौतिक शरीर छूट गया और कल्प के अन्त में ये ब्रह्मा जी के मानस पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुए।
नारद के अगणित कार्य हैं। [[भृगु]] कन्या [[लक्ष्मी]] का विवाह [[विष्णु]] के साथ करवाया, [[इन्द्र]] को समझा बुझाकर [[उर्वशी]] का [[पुरुरवा]] के साथ परिणय सूत्र कराया, [[जालंधर]] का विनाश करवाया, [[कंस]] को आकाशवाणी का अर्थ समझाया और [[बाल्मीकि]] को [[रामायण]] की रचना करने की प्रेरणा दी। [[व्यास]] जी से [[भागवत]] की रचना करवायी, [[प्रह्लाद]] और [[ध्रुव]] को उपदेश देकर महान भक्त बनाया, बृह्स्पति और [[शुकदेव]] जैसों को उपदेश दिया और उनकी शंकाओं का समाधान किया, इन्द्र,  चन्द्र, विष्णु, [[शंकर]], [[युधिष्ठिर]], [[राम]], [[कृष्ण]] आदि को उपदेश देकर कर्तव्याभिमुख  किया। भक्ति का प्रसार करते हुए वे अप्रत्यक्ष रूप से भक्तों का सहयोग करते रहते हैं। ये भगवान के विशेष कृपापात्र और लीला-सहचर हैं। जब-जब भगवान का आविर्भाव होता है, ये उनकी लीला के लिए भूमिका तैयार करते हैं। लीलापयोगी उपकरणों का संग्रह करते हैं और अन्य प्रकार की सहायता करते हैं इनका जीवन मंगल के लिए ही है। ये स्वयं [[वैष्णव]] हैं और वैष्णवों के परमाचार्य तथा मार्गदर्शक हैं।
*नारद मुनि, हिन्दू शास्त्रों के अनुसार, [[ब्रह्मा]] के सात मानस पुत्रों मे से एक हैं । उन्होंने कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया है । वे भगवान [[विष्णु]] के प्रिय भक्तों में से एक माने जाते है ।
महायोगी नारद जी ब्रह्मा जी के मानसपुत्र हैं। वे प्रत्येक युग में भगवान की भक्ति और उनकी महिमा का विस्तार करते हुए लोक-कल्याण के लिए सर्वदा सर्वत्र विचरण किया करते हैं। भक्ति तथा संकीर्तन के ये आद्य-आचार्य हैं। इनकी वीणा भगवज्जप-महती के नाम से विख्यात है। उससे 'नारायण-नारायण' की ध्वनि निकलती रहती है। इनकी गति अव्याहत है। ये ब्रह्म-मुहूर्त में सभी जीवों की गति देखते हैं और अजर–अमर हैं। भगवद-भक्ति की स्थापना तथा प्रचार के लिए ही इनका आविर्भाव हुआ है।
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भक्ति का प्रसार करते हुए वे अप्रत्यक्ष रूप से भक्तों का सहयोग करते रहते हैं। ये भगवान् के विशेष कृपापात्र और लीला-सहचर हैं। जब-जब भगवान का आविर्भाव होता है, ये उनकी लीला के लिए भूमिका तैयार करते हैं। लीलापयोगी उपकरणों का संग्रह करते हैं और अन्य प्रकार की सहायता करते हैं इनका जीवन मंगल के लिए ही है। ये स्वयं वैष्णव हैं और वैष्णवों के परमाचार्य तथा मार्गदर्शक हैं।


==देवर्षि नारद==
==देवर्षि नारद==
देवर्षि नारद, [[व्यास]], [[वाल्मीकि|बाल्मीकि]] तथा महाज्ञानी [[शुकदेव]] आदि के गुरु हैं। श्रीमद्भागवत, जो भक्ति, ज्ञान एवं वैराग्य का परमोपदेशक ग्रंथ-रत्न है तथा [[रामायण]], जो मर्यादा-पुरुषोत्तम भगवान श्री[[राम]] के पावन, आदर्श चरित्र से परिपूर्ण है, देवर्षि नारदजी की कृपा से ही हमें प्राप्त हो सकें हैं। इन्होंने ही [[प्रह्लाद]], [[ध्रुव]], राजा [[अम्बरीष]] आदि महान भक्तों को भक्ति मार्ग में प्रवृत्त किया। ये [[भागवत धर्म]] के परम-गूढ़ रहस्य को जानने वाले- [[ब्रह्मा]], [[शंकर]], सनत्कुमार, महर्षि कपिल, [[स्वयंभुव मनु]] आदि बारह आचार्यों में अन्यतम हैं। देवर्षि नारद द्वारा विरचित 'भक्तिसूत्र' बहुत महत्त्वपूर्ण है। नारदजी को अपनी विभूति बताते हुए योगेश्वर श्री[[कृष्ण]] श्रीमद् भागवत् [[गीता]] के दशम अध्याय में कहते हैं- अश्वत्थ: सर्ववूक्षाणां देवर्षीणां च नारद:।
देवर्षि नारद, [[व्यास]], [[वाल्मीकि|बाल्मीकि]] तथा महाज्ञानी [[शुकदेव]] आदि के गुरु हैं। श्रीमद्भागवत, जो भक्ति, ज्ञान एवं वैराग्य का परमोपदेशक ग्रंथ-रत्न है तथा [[रामायण]], जो मर्यादा-पुरुषोत्तम भगवान श्री[[राम]] के पावन, आदर्श चरित्र से परिपूर्ण है, देवर्षि नारदजी की कृपा से ही हमें प्राप्त हो सकें हैं। इन्होंने ही [[प्रह्लाद]], [[ध्रुव]], राजा [[अम्बरीष]] आदि महान भक्तों को भक्ति मार्ग में प्रवृत्त किया। ये [[भागवत धर्म]] के परम-गूढ़ रहस्य को जानने वाले- [[ब्रह्मा]], [[शंकर]], सनत्कुमार, [[महर्षि कपिल]], [[स्वयंभुव मनु]] आदि बारह आचार्यों में अन्यतम हैं। देवर्षि नारद द्वारा विरचित '''भक्तिसूत्र''' बहुत महत्त्वपूर्ण है। नारदजी को अपनी विभूति बताते हुए योगेश्वर श्री[[कृष्ण]] श्रीमद् भागवत [[गीता]] के दशम अध्याय में कहते हैं- '''अश्वत्थ: सर्ववूक्षाणां देवर्षीणां च नारद:।'''
{{highright}}'''महाभारत शांति पर्व अध्याय-82:'''
{{highright}}'''महाभारत शांति पर्व अध्याय-82:'''


कृष्ण:-
कृष्ण:-


हे देवर्षि ! जैसे पुरुष अग्रिकी इच्छा से अरणी काष्ठ मथता है; वैसे ही उन जाति-लोगों के कहे हुए कठोर वचनसे मेरा हृदय सदा मथता तथा जलता हुआ रहता है ॥6॥
हे देवर्षि ! जैसे पुरुष [[अग्नि]] की इच्छा से अरणी काष्ठ मथता है; वैसे ही उन जाति-लोगों के कहे हुए कठोर वचन से मेरा हृदय सदा मथता तथा जलता हुआ रहता है ॥6॥


हे नारद ! बड़े भाई बलराम सदा बल से, गद सुकुमारता से और प्रद्युम्न रूपसे मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥
हे नारद ! बड़े भाई [[बलराम]] सदा बल से, गद सुकुमारता से और प्रद्युम्न रूप से मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥
'''आगे पढ़ें''':- [[कृष्ण नारद संवाद]]{{highclose}}   
'''आगे पढ़ें''':- [[कृष्ण नारद संवाद]]{{highclose}}   
नारद के भक्तिसूत्र के अलावा
==व्यक्तित्व==
*नारद-महापुराण,  
 
*बृहन्नारदीय उपपुराण-संहिता-(स्मृतिग्रंथ),
नारद श्रुति - स्मृति, इतिहास, पुराण, व्याकरण, वेदांग, संगीत, खगोल-भूगोल, ज्योतिष, योग आदि अनेक शास्त्रों में पारंगत थे। नारद आत्मज्ञानी, नैष्ठिक ब्रह्मचारी, त्रिकाल ज्ञानी, वीणा द्वारा निरंतर प्रभु भक्ति के प्रचारक, दक्ष, मेधावी,  निर्भय, विनयशील, जितेन्द्रिय, सत्यवादी, स्थितप्रज्ञ, तपस्वी, चारों पुरुषार्थ के ज्ञाता, परमयोगी, सूर्य के समान, त्रिलोकी  पर्यटक, वायु के समान सभी युगों, समाजों और लोकों में विचरण करने वाले, वश में किये हुए मन वाले. नीतिज्ञ, अप्रमादी, आनंदरत, कवि, प्राणियों पर नि:स्वार्थ प्रीति रखने वाले, देव, मनुष्य, राक्षस सभी लोकों में सम्मान पाने वाले देवता तथापि ऋषित्व प्राप्त देवर्षि थे।
*नारद-परिव्राज कोपनिषद नारदीय-शिक्षा के साथ ही अनेक स्तोत्र भी उपलब्ध होते हैं। देविर्षि नारद के सभी उपदेशों का निचोड़ है- सर्वदा सर्वभावेन निश्चिन्तितै: भगवानेव भजनीय:।  
 
अर्थात सर्वदा सर्वभाव से निश्चित होकर केवल भगवान का ही ध्यान करना चाहिए।  
एक बार नारद को [[कामदेव]] पर विजय प्राप्त करने का गर्व हुआ। उनके इस गर्व का खण्डन करने के लिए भगवान ने उनका मुँह बन्दर जैसा बना दिया। नारद का स्वभाव 'कलहप्रिय' कहा गया है। व्यवहार में खटपटी व्यक्ति को, एक दूसरे के बीच झगड़ा लगाने वाले व्यक्ति को हम नारद कहते हैं। परंतु नारद कलहप्रिय नहीं वरन वृतांतों का वहन करने वाले एक विचारक थे।
==नारद के ग्रंथ==
*[[नारद पांचरात्र]]
*[[नारद भक्ति सूत्र|नारद के भक्तिसूत्र]]
*[[नारद महापुराण]],  
*[[नारद स्मृति|बृहन्नारदीय उपपुराण-संहिता-(स्मृतिग्रंथ)]]
*नारद-परिव्राज कोपनिषद नारदीय-शिक्षा के साथ ही अनेक स्तोत्र भी उपलब्ध होते हैं। देविर्षि नारद के सभी उपदेशों का निचोड़ है- '''सर्वदा सर्वभावेन निश्चिन्तितै: भगवानेव भजनीय:। अर्थात सर्वदा सर्वभाव से निश्चित होकर केवल भगवान का ही ध्यान करना चाहिए।'''


देवर्षि नारद भगवान के भक्तों में सर्वश्रेष्ठ हैं। ये भगवान की भक्ति और माहात्म्य के विस्तार के लिये अपनी वीणा की मधुर तान पर भगवद्गुणों का गान करते हुए निरन्तर विचरण किया करते हैं। इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इनके द्वारा प्रणीत भक्तिसूत्र में भक्ति की बड़ी ही सुन्दर व्याख्या है। अब भी ये अप्रत्यक्षरूप से भक्तों की सहायता करते रहते हैं। भक्त प्रह्लाद, भक्त अम्बरीष, ध्रुव आदि भक्तों को उपदेश देकर इन्होंने ही [[भक्तिमार्ग]] में प्रवृत्त किया। इनकी समस्त लोकों में अबाधित गति है। इनका मंगलमय जीवन संसार के मंगल के लिये ही है। ये ज्ञान के स्वरूप, विद्या के भण्डार, आनन्द के सागर तथा सब भूतों के अकारण प्रेमी और विश्व के सहज हितकारी हैं।
देवर्षि नारद भगवान के भक्तों में सर्वश्रेष्ठ हैं। ये भगवान की भक्ति और माहात्म्य के विस्तार के लिये अपनी वीणा की मधुर तान पर भगवद्गुणों का गान करते हुए निरन्तर विचरण किया करते हैं। इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इनके द्वारा प्रणीत भक्तिसूत्र में भक्ति की बड़ी ही सुन्दर व्याख्या है। अब भी ये अप्रत्यक्षरूप से भक्तों की सहायता करते रहते हैं। भक्त प्रह्लाद, भक्त अम्बरीष, ध्रुव आदि भक्तों को उपदेश देकर इन्होंने ही [[भक्तिमार्ग]] में प्रवृत्त किया। इनकी समस्त लोकों में अबाधित गति है। इनका मंगलमय जीवन संसार के मंगल के लिये ही है। ये ज्ञान के स्वरूप, विद्या के भण्डार, आनन्द के सागर तथा सब भूतों के अकारण प्रेमी और विश्व के सहज हितकारी हैं। हिन्दू संस्कृति के दो अमूल्य ग्रंथ [[रामायण]] और [[भागवत]] के प्रेरक नारद का जन्म लोगों को सन्मार्ग पर मोड़ कर भक्ति के  मार्ग  पर खींचकर, विश्वकल्याण के लिए हुआ था।


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07:49, 13 फ़रवरी 2011 का अवतरण

नारद मुनि
Narad Muni

नारद मुनि

"अहो! ये देवर्षि नारद हैं, जो वीणा बजाते हैं, हरिगुण गाते, मस्त दशा में तीनों लोकों में घूम कर दु:खी संसार को आनंदित करते हैं।" [1]

  • खड़ी शिखा, हाथ में वीणा, मुख से 'नारायण' शब्द का जाप, पवन पादुका पर मनचाहे वहाँ विचरण करने वाले नारद से सभी परिचित हैं। श्रीकृष्ण देवर्षियों में नारद को अपनी विभूति बताते हैं [2]। वैदिक साहित्य, रामायण, महाभारत, पुराण, स्मृतियाँ, सभी शास्त्रों में कहीं ना कहीं नारद का निर्देश निश्चित रूप से होता ही है। ऋग्वेद मंडल में 8-9 के कई सूक्तों के दृष्टा नारद हैं। अथर्ववेद, ऎतरेय ब्राह्मण, मैत्रायणी संहिता आदि में नारद का उल्लेख है।
  • पूर्व कल्प में नारद 'उपबर्हण' नाम के गंधर्व थे। उन्हें अपने रूप पर अभिमान था। एक बार जब ब्रह्मा की सेवा में अप्सराएँ और गंधर्व गीत और नृत्य से जगत्सृष्टा की आराधना कर रहे थे, उपबर्हण स्त्रियों के साथ श्रृंगार भाव से वंहा आया। उपबर्हण का यह अशिष्ट आचरण देख कर ब्रह्मा कुपित हो गये और उन्होंने उसे 'शूद्र योनि' में जन्म लेने का शाप दे दिया। शाप के फलस्वरूप वह 'शूद्रा दासी' का पुत्र हुआ। माता पुत्र साधु संतों की निष्ठा के साथ सेवा करते थे। पाँच वर्ष का बालक संतों के पात्र में बचा हुआ झूठा अन्न खाता था, जिससे उसके हृदय के सभी पाप धुल गये। बालक की सेवा से प्रसन्न हो कर साधुओं ने उसे नाम जाप और ध्यान का उपदेश दिया। शूद्रा दासी की सर्पदंश से मृत्यु हो गयी। अब नारद जी इस संसार में अकेले रह गये। उस समय इनकी अवस्था मात्र पाँच वर्ष की थी। माता के वियोग को भी भगवान का परम अनुग्रह मानकर ये अनाथों के नाथ दीनानाथ का भजन करने के लिये चल पड़े। एक दिन वह बालक एक पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान लगा कर बैठा था कि उसके हृदय में भगवान की एक झलक विद्युत रेखा की भाँति दिखायी दी और तत्काल अदृश्य हो गयी। उसके मन में भगवान के दर्शन की व्याकुलता बढ़ गई, जिसे देख कर आकाशवाणी हुई - हे दासीपुत्र! अब इस जन्म में फिर तुम्हें मेरा दर्शन नहीं होगा। अगले जन्म में तुम मेरे पार्षद रूप में मुझे पुन: प्राप्त करोगे।' समय बीतने पर बालक का शरीर छूट गया और कल्प के अंत में वह ब्रह्म में लीन हो गया।
  • समय आने पर नारद जी का पांचभौतिक शरीर छूट गया और कल्प के अन्त में ये ब्रह्मा जी के मानस पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुए।
  • नारद मुनि, हिन्दू शास्त्रों के अनुसार, ब्रह्मा के 'सात मानस' पुत्रों मे से एक हैं । उन्होंने कठिन तपस्या से 'ब्रह्मर्षि' पद प्राप्त किया है । वे भगवान विष्णु के प्रिय भक्तों में से एक माने जाते है ।

महायोगी नारद जी ब्रह्मा जी के मानसपुत्र हैं। वे प्रत्येक युग में भगवान की भक्ति और उनकी महिमा का विस्तार करते हुए लोक-कल्याण के लिए सर्वदा सर्वत्र विचरण किया करते हैं। भक्ति तथा संकीर्तन के ये आद्य-आचार्य हैं। इनकी वीणा भगवन जप 'महती' के नाम से विख्यात है। उससे 'नारायण-नारायण' की ध्वनि निकलती रहती है। इनकी गति अव्याहत है। ये ब्रह्म-मुहूर्त में सभी जीवों की गति देखते हैं और अजर–अमर हैं। भगवद-भक्ति की स्थापना तथा प्रचार के लिए ही इनका आविर्भाव हुआ है।

कार्य

नारद के अगणित कार्य हैं। भृगु कन्या लक्ष्मी का विवाह विष्णु के साथ करवाया, इन्द्र को समझा बुझाकर उर्वशी का पुरुरवा के साथ परिणय सूत्र कराया, जालंधर का विनाश करवाया, कंस को आकाशवाणी का अर्थ समझाया और बाल्मीकि को रामायण की रचना करने की प्रेरणा दी। व्यास जी से भागवत की रचना करवायी, प्रह्लाद और ध्रुव को उपदेश देकर महान भक्त बनाया, बृह्स्पति और शुकदेव जैसों को उपदेश दिया और उनकी शंकाओं का समाधान किया, इन्द्र, चन्द्र, विष्णु, शंकर, युधिष्ठिर, राम, कृष्ण आदि को उपदेश देकर कर्तव्याभिमुख किया। भक्ति का प्रसार करते हुए वे अप्रत्यक्ष रूप से भक्तों का सहयोग करते रहते हैं। ये भगवान के विशेष कृपापात्र और लीला-सहचर हैं। जब-जब भगवान का आविर्भाव होता है, ये उनकी लीला के लिए भूमिका तैयार करते हैं। लीलापयोगी उपकरणों का संग्रह करते हैं और अन्य प्रकार की सहायता करते हैं इनका जीवन मंगल के लिए ही है। ये स्वयं वैष्णव हैं और वैष्णवों के परमाचार्य तथा मार्गदर्शक हैं।

देवर्षि नारद

देवर्षि नारद, व्यास, बाल्मीकि तथा महाज्ञानी शुकदेव आदि के गुरु हैं। श्रीमद्भागवत, जो भक्ति, ज्ञान एवं वैराग्य का परमोपदेशक ग्रंथ-रत्न है तथा रामायण, जो मर्यादा-पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के पावन, आदर्श चरित्र से परिपूर्ण है, देवर्षि नारदजी की कृपा से ही हमें प्राप्त हो सकें हैं। इन्होंने ही प्रह्लाद, ध्रुव, राजा अम्बरीष आदि महान भक्तों को भक्ति मार्ग में प्रवृत्त किया। ये भागवत धर्म के परम-गूढ़ रहस्य को जानने वाले- ब्रह्मा, शंकर, सनत्कुमार, महर्षि कपिल, स्वयंभुव मनु आदि बारह आचार्यों में अन्यतम हैं। देवर्षि नारद द्वारा विरचित भक्तिसूत्र बहुत महत्त्वपूर्ण है। नारदजी को अपनी विभूति बताते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण श्रीमद् भागवत गीता के दशम अध्याय में कहते हैं- अश्वत्थ: सर्ववूक्षाणां देवर्षीणां च नारद:।


महाभारत शांति पर्व अध्याय-82:

कृष्ण:-

हे देवर्षि ! जैसे पुरुष अग्नि की इच्छा से अरणी काष्ठ मथता है; वैसे ही उन जाति-लोगों के कहे हुए कठोर वचन से मेरा हृदय सदा मथता तथा जलता हुआ रहता है ॥6॥

हे नारद ! बड़े भाई बलराम सदा बल से, गद सुकुमारता से और प्रद्युम्न रूप से मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥ आगे पढ़ें:- कृष्ण नारद संवाद |}

व्यक्तित्व

नारद श्रुति - स्मृति, इतिहास, पुराण, व्याकरण, वेदांग, संगीत, खगोल-भूगोल, ज्योतिष, योग आदि अनेक शास्त्रों में पारंगत थे। नारद आत्मज्ञानी, नैष्ठिक ब्रह्मचारी, त्रिकाल ज्ञानी, वीणा द्वारा निरंतर प्रभु भक्ति के प्रचारक, दक्ष, मेधावी, निर्भय, विनयशील, जितेन्द्रिय, सत्यवादी, स्थितप्रज्ञ, तपस्वी, चारों पुरुषार्थ के ज्ञाता, परमयोगी, सूर्य के समान, त्रिलोकी पर्यटक, वायु के समान सभी युगों, समाजों और लोकों में विचरण करने वाले, वश में किये हुए मन वाले. नीतिज्ञ, अप्रमादी, आनंदरत, कवि, प्राणियों पर नि:स्वार्थ प्रीति रखने वाले, देव, मनुष्य, राक्षस सभी लोकों में सम्मान पाने वाले देवता तथापि ऋषित्व प्राप्त देवर्षि थे।

एक बार नारद को कामदेव पर विजय प्राप्त करने का गर्व हुआ। उनके इस गर्व का खण्डन करने के लिए भगवान ने उनका मुँह बन्दर जैसा बना दिया। नारद का स्वभाव 'कलहप्रिय' कहा गया है। व्यवहार में खटपटी व्यक्ति को, एक दूसरे के बीच झगड़ा लगाने वाले व्यक्ति को हम नारद कहते हैं। परंतु नारद कलहप्रिय नहीं वरन वृतांतों का वहन करने वाले एक विचारक थे।

नारद के ग्रंथ

देवर्षि नारद भगवान के भक्तों में सर्वश्रेष्ठ हैं। ये भगवान की भक्ति और माहात्म्य के विस्तार के लिये अपनी वीणा की मधुर तान पर भगवद्गुणों का गान करते हुए निरन्तर विचरण किया करते हैं। इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इनके द्वारा प्रणीत भक्तिसूत्र में भक्ति की बड़ी ही सुन्दर व्याख्या है। अब भी ये अप्रत्यक्षरूप से भक्तों की सहायता करते रहते हैं। भक्त प्रह्लाद, भक्त अम्बरीष, ध्रुव आदि भक्तों को उपदेश देकर इन्होंने ही भक्तिमार्ग में प्रवृत्त किया। इनकी समस्त लोकों में अबाधित गति है। इनका मंगलमय जीवन संसार के मंगल के लिये ही है। ये ज्ञान के स्वरूप, विद्या के भण्डार, आनन्द के सागर तथा सब भूतों के अकारण प्रेमी और विश्व के सहज हितकारी हैं। हिन्दू संस्कृति के दो अमूल्य ग्रंथ रामायण और भागवत के प्रेरक नारद का जन्म लोगों को सन्मार्ग पर मोड़ कर भक्ति के मार्ग पर खींचकर, विश्वकल्याण के लिए हुआ था।


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संबंधित लेख

  1. (भागवत 1/6/39)
  2. (गीता 10/26)