"अशोक के शिलालेख- शाहबाजगढ़ी": अवतरणों में अंतर
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*शाहबाजगढ़ी के इस लेख में [[अशोक]] ने समाज और जीव- हिंसा का निषेध किया है। किंतु यह निषेध प्रत्यक्ष रूप से न करके उसने अपनी पाकशाला में की जानेवाली जीवहिंसा के निषेध के रूप में व्यक्त किया है। | *शाहबाजगढ़ी के इस लेख में [[अशोक]] ने समाज और जीव- हिंसा का निषेध किया है। किंतु यह निषेध प्रत्यक्ष रूप से न करके उसने अपनी पाकशाला में की जानेवाली जीवहिंसा के निषेध के रूप में व्यक्त किया है। | ||
*'''देवानंप्रिय''' का शब्दार्थ ''' | *'''देवानंप्रिय''' का शब्दार्थ '''देवता का प्यारा''' है। यह ईसा-पूर्व के काल में महाराजाओं की आदरसूचक उपाधि थी ऐसा प्रतीत होता है। अशोक के पौत्र 'दशरथ' और सिंहल नरेश [[तिस्स]] के लिए भी इसका प्रयोग हुआ है। सम्भवत: उसका तात्पर्य 'महाराज' या 'महाराजाधिराज' था। | ||
*आठवें शिलालेख के शाहबाजगढ़ी, [[कालसी]] और [[मानसेहरा]] के पाठ से 'देवानंप्रिय' और [[गिरनार]] पाठ में 'राजानो' समान भाव से प्रयुक्त हुआ है जो इस धारण की पुष्टि करता है। | *आठवें शिलालेख के शाहबाजगढ़ी, [[कालसी]] और [[मानसेहरा]] के पाठ से 'देवानंप्रिय' और [[गिरनार]] पाठ में 'राजानो' समान भाव से प्रयुक्त हुआ है जो इस धारण की पुष्टि करता है। | ||
*जिस भाव से [[कुषाण]]-शासक देवपुत्र कहे गये हैं अथवा [[गुप्त]]-शासकों ने अपने सिक्कों पर '''सुचरितै: दिवं जयति''' (अपने सुचरित्र से देव-वास, स्थान जीतने) की घोषणा की है, वही भाव यहाँ भी परिलक्षित होता है। | *जिस भाव से [[कुषाण]]-शासक देवपुत्र कहे गये हैं अथवा [[गुप्त]]-शासकों ने अपने सिक्कों पर '''सुचरितै: दिवं जयति''' (अपने सुचरित्र से देव-वास, स्थान जीतने) की घोषणा की है, वही भाव यहाँ भी परिलक्षित होता है। |
05:10, 26 सितम्बर 2011 का अवतरण
- शाहबाजगढ़ी के इस लेख में अशोक ने समाज और जीव- हिंसा का निषेध किया है। किंतु यह निषेध प्रत्यक्ष रूप से न करके उसने अपनी पाकशाला में की जानेवाली जीवहिंसा के निषेध के रूप में व्यक्त किया है।
- देवानंप्रिय का शब्दार्थ देवता का प्यारा है। यह ईसा-पूर्व के काल में महाराजाओं की आदरसूचक उपाधि थी ऐसा प्रतीत होता है। अशोक के पौत्र 'दशरथ' और सिंहल नरेश तिस्स के लिए भी इसका प्रयोग हुआ है। सम्भवत: उसका तात्पर्य 'महाराज' या 'महाराजाधिराज' था।
- आठवें शिलालेख के शाहबाजगढ़ी, कालसी और मानसेहरा के पाठ से 'देवानंप्रिय' और गिरनार पाठ में 'राजानो' समान भाव से प्रयुक्त हुआ है जो इस धारण की पुष्टि करता है।
- जिस भाव से कुषाण-शासक देवपुत्र कहे गये हैं अथवा गुप्त-शासकों ने अपने सिक्कों पर सुचरितै: दिवं जयति (अपने सुचरित्र से देव-वास, स्थान जीतने) की घोषणा की है, वही भाव यहाँ भी परिलक्षित होता है।
क्रमांक | शिलालेख | अनुवाद |
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1. | अयं ध्रमदिपि देवन प्रिअस रञे लिखापितु [।] हिद नो किचि जिवे अर [भि] तु प्रयुहोतवे [नो पि च समज कटव [।] बहुक हि दोषं सम [ज] स देवन प्रियो प्रिअद्रशि रय देखति [।] | यह धर्मलिपि देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा द्वारा लिखवायी गयी। यहाँ कोई जीव मार कर होम न करना चाहिए। |
2. | अस्ति पि च एकतिए समये सधुमति देवन प्रिअस प्रिअद्रशिस रञे [।] पुर महनसिस देवनं प्रिअस प्रिअद्रशिस रञों अनुदिवसों बहुनि प्रणशतसहस्त्रनि अरभियिसु सुपठये [।] सो इदिन यद अयं | किंतु देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा से अच्छे (श्रेष्ठ) माने गये कतिपय समाज भी है। पहले देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा के महानस (पाकशाला में प्रतिदिन बहुत लाख प्राणी सूप (शोरवे, भोजन) के लिए मारे जाते थे। आज जब |
3. | ध्रमदिपि लिखित तद त्रयो वो प्रण हञंति मजुर दुवि 2 म्रुगो 1 [।] सो पि म्रगो नो ध्रुवं [।] एत पि प्रण त्रयो पच न अरभिशंति [।] | यह धर्मलिपि लिखी गयी, तब तीन ही प्राणी सूप (शोरवे, भजन) के लिए मारे जाते हैं-दो मोर (और) एक मृग और वह मृग भी ध्रुव (नियत, निश्चित) नहीं है। और ये तीन प्राणी भी पीछे न मारे जाएँगे। |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
गुप्त, डॉ.परमेश्वरीलाल “अशोक के अभिलेख”, प्राचीन भारत के प्रमुख अभिलेख, तृतीय संस्करण (हिंदी), भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, 14-15।