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'''ओंकारनाथ ठाकुर''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Omkarnath Thakur'', जन्म: 24 जून, 1897 - मृत्यु: 29 दिसंबर, 1967) [[भारत]] के प्रसिद्ध | '''ओंकारनाथ ठाकुर''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Omkarnath Thakur'', जन्म: 24 जून, 1897 - मृत्यु: 29 दिसंबर, 1967) [[भारत]] के प्रसिद्ध संगीतज्ञ एवं हिन्दुस्तानी शास्त्रीय गायक थे। | ||
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08:54, 23 दिसम्बर 2013 का अवतरण
ओंकारनाथ ठाकुर
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पूरा नाम | ओंकारनाथ ठाकुर |
जन्म | 24 जून, 1897 |
जन्म भूमि | जहाज, बड़ौदा राज्य, ब्रिटिश भारत |
मृत्यु | 29 दिसंबर, 1967 |
मृत्यु स्थान | भारत |
पति/पत्नी | इंदिरा देवी |
कर्म-क्षेत्र | हिन्दुस्तानी शास्त्रीय गायक |
पुरस्कार-उपाधि | संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, संगीत मार्तंड, पद्म श्री |
नागरिकता | भारतीय |
प्रमुख गीत | मैं नहीं माखन खायो, मैया मोरी..., ‘वन्देमातरम्...’ |
अन्य जानकारी | सन 1934 में ओंकारनाथ ठाकुर ने मुम्बई में ‘संगीत निकेतन’ की स्थापना की। |
ओंकारनाथ ठाकुर (अंग्रेज़ी: Omkarnath Thakur, जन्म: 24 जून, 1897 - मृत्यु: 29 दिसंबर, 1967) भारत के प्रसिद्ध संगीतज्ञ एवं हिन्दुस्तानी शास्त्रीय गायक थे।
जीवन परिचय
ओंकारनाथ के दादा महाशंकर जी और पिता गौरीशंकर जी नाना साहब पेशवा की सेना के वीर योद्धा थे। एक बार उनके पिता का सम्पर्क अलोनीबाबा के नाम से विख्यात एक योगी से हुआ। इन महात्मा से दीक्षा लेने के बाद से गौरीशंकर के परिवार की दिशा ही बदल गई। वे प्रणव-साधना अर्थात ओंकार के ध्यान में रहने लगे। तभी 24 जून, 1897 को उनकी चौथी सन्तान ने जन्म लिया। ओंकार-भक्त पिता ने पुत्र का नाम ओंकारनाथ रखा।[1]
संगीत शिक्षा
जन्म के कुछ ही समय बाद यह परिवार बड़ौदा राज्य के जहाज ग्राम से नर्मदा तट पर भड़ौच नामक स्थान पर आकर बस गया। ओंकारनाथ जी का लालन-पालन और प्राथमिक शिक्षा यहीं सम्पन्न हुई। इनका बचपन अभावों में बीता। यहाँ तक कि किशोरावस्था में ओंकारनाथ जी को अपने पिता और परिवार के सदस्यों के भरण-पोषण के लिए एक मिल में नौकरी करनी पड़ी। ओंकारनाथ की आयु जब 14 वर्ष थी, तभी उनके पिता का देहान्त हो गया। उनके जीवन में एक निर्णायक मोड़ तब आया, जब भड़ौच के एक संगीत-प्रेमी सेठ ने किशोर ओंकार की प्रतिभा को पहचाना और उनके बड़े भाई को बुला कर संगीत-शिक्षा के लिए बम्बई के विष्णु दिगम्बर संगीत महाविद्यालय भेजने को कहा। पण्डित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर के मार्गदर्शन में उनकी संगीत-शिक्षा आरम्भ हुई।[1]
विवाह
1922 में सूरत की इंदिरा देवी से उनका विवाह हुआ। उसके बाद वे नेपाल गये, जहाँ महाराज चंद्रशमशेर जंगबहादुर के समक्ष उनको गायन प्रस्तुत करने का अवसर मिला। महाराज ने उन्हें भरपूर सम्मान, भेंट वस्तुएं तथा धन तो दिया ही, साथ ही दरबार में गायक के रूप में नियुक्ति देने का भी प्रस्ताव रखा, परंतु ओंकारनाथजी ने दरबारी गायक बनना स्वीकार नहीं किया। वे उस समय इटली, जर्मनी, हॉलैंड, बेल्जियम, फ्रांस, इंग्लैंड, स्विट्जरलैंड और अफ़गानिस्तान भी गये। रूस जाते समय उन्हें अपनी पत्नी के अचानक निधन का समाचार मिला, तो वे वापस लौट आये। बहुत लोगों के कहने के बावजूद ओंकारनाथ ठाकुर ने पत्नी के निधन के बाद पुनर्विवाह नहीं किया और एकाकी जीवन बिताने लगे। उनके शिष्य ही उनके लिए पुत्र-पुत्री समान हो गये थे। फिर उन्होंने मुंबई में संगीत निकेतन की स्थापना की।[2]
गुरु-शिष्य परम्परा
विष्णु दिगम्बर संगीत महाविद्यालय, मुम्बई में प्रवेश लेने के बाद ओंकारनाथ जी ने वहाँ के पाँच वर्ष के पाठ्यक्रम को तीन वर्ष में ही पूरा कर लिया और इसके बाद गुरु जी के चरणों में बैठ कर गुरु-शिष्य परम्परा के अन्तर्गत संगीत की गहन शिक्षा अर्जित की। 20 वर्ष की आयु में ही वे इतने पारंगत हो गए कि उन्हें लाहौर के गन्धर्व संगीत विद्यालय का प्रधानाचार्य नियुक्त कर दिया गया। 1934 में उन्होंने मुम्बई में ‘संगीत निकेतन’ की स्थापना की। 1940 में महामना मदनमोहन मालवीय उन्हें काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संगीत संकाय के प्रमुख के रूप में बुलाना चाहते थे किन्तु अर्थाभाव के कारण न बुला सके। बाद में विश्वविद्यालय के एक दीक्षान्त समारोह में शामिल होने जब पण्डित जी आए तो उन्हें वहाँ का वातावरण इतना अच्छा लगा कि वे काशी में ही बस गए। 1950 में उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के गन्धर्व महाविद्यालय के प्रधानाचार्य का पद-भार ग्रहण किया और 1957 में सेवानिवृत्त होने तक वहीं रहे।[1] फ़िरोज दस्तूर, जितेन घोष दस्तीदार, पी.एन बर्वे, एन. राजम, राजाभाऊ सोनटक्के, सुभद्रा कुलश्रेष्ठ, अतुल देसाई, नलिनी गजेंद्र गडकर, प्रेमलता शर्मा, यशवंत राय पुरोहित, बलवंत राय भट्ट, शिवकुमार शुक्ला, कनकराय त्रिवेदी आदि अनेक प्रतिभावान कलाकार पं. ओंकारनाथ ठाकुर की छत्रछाया में ही प्रगति करते गये।[2]
प्रभावशाली गायन
पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर का जितना प्रभावशाली व्यक्तित्व था उतना ही असरदार उनका संगीत भी था। एक बार महात्मा गाँधी ने उनका गायन सुन कर टिप्पणी की थी- “पण्डित जी अपनी मात्र एक रचना से जन-समूह को इतना प्रभावित कर सकते हैं, जितना मैं अपने अनेक भाषणों से भी नहीं कर सकता।” उन्होंने एक बार सर जगदीश चन्द्र बसु की प्रयोगशाला में पेड़-पौधों पर संगीत के स्वरों के प्रभाव विषय पर अभिनव और सफल प्रयोग किया था। जब वे सूरदास का पद- ‘मैं नहीं माखन खायो, मैया मोरी...’ गाते थे तो पूरे श्रोता समुदाय की आँखें आँसुओं से भीग जाती थीं। इस पद को गाते समय पण्डित जी साहित्य के सभी रसों से साक्षात्कार कराते थे।[1]
कालजयी रचना
पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर की कालजयी रचनाओं में एक महत्त्वपूर्ण रचना है, ‘वन्देमातरम्...’। बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय की यह अमर रचना, स्वतंत्र भारत के प्रथम सूर्योदय पर पण्डित जी के स्वरों से अलंकृत होकर रेडियो से प्रसारित हुई थी। आगे चल कर ‘वन्देमातरम्...’ गीत के आरम्भिक दो अन्तरों को भारत की संविधान सभा ने राष्ट्रगीत के समकक्ष मान्यता प्रदान की थी।
'वन्देमातरम' का गायन
15 अगस्त, 1947 को प्रातः 6:30 बजे आकाशवाणी से पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर का राग- देश में निबद्ध 'वन्देमातरम' के गायन का सजीव प्रसारण हुआ था। आज़ादी की सुहानी सुबह में देशवासियों के कानों में राष्ट्रभक्ति का मंत्र फूँकने में 'वन्देमातरम' की भूमिका अविस्मरणीय थी। ओंकारनाथ जी ने पूरा गीत स्टूडियो में खड़े होकर गाया था; अर्थात उन्होंने इसे राष्ट्रगीत के तौर पर पूरा सम्मान दिया। इस प्रसारण का पूरा श्रेय सरदार बल्लभ भाई पटेल को जाता है। पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर का यह गीत दि ग्रामोफोन कम्पनी ऑफ़ इंडिया के रिकॉर्ड संख्या STC 048 7102 में मौजूद है।[3]
राष्ट्रीय गीत की मान्यता
24 जनवरी, 1950 को संविधान सभा ने निर्णय लिया कि स्वतंत्रता संग्राम में 'वन्देमातरम' गीत की उल्लेखनीय भूमिका को देखते हुए इस गीत के प्रथम दो अन्तरों को 'जन गण मन..' के समकक्ष मान्यता दी जाय। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान सभा का यह निर्णय सुनाया। "वन्देमातरम' को राष्ट्रगान के समकक्ष मान्यता मिल जाने पर अनेक महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय अवसरों पर 'वन्देमातरम' गीत को स्थान मिला। आज भी 'आकाशवाणी' के सभी केन्द्रों का प्रसारण 'वन्देमातरम' से ही होता है। आज भी कई सांस्कृतिक और साहित्यिक संस्थाओं में 'वन्देमातरम' गीत का पूरा-पूरा गायन किया जाता है।[3]
सम्मान और पुरस्कार
संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, संगीत मार्तंड, संगीत महामहोदय और पद्म श्री की उपाधियों और अनगिनत पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित पं. ओंकारनाथ ठाकुर एक अभिनय कुशल गायक थे। वे सम्मोहित कर लेते थे अपने श्रोताओं को। पक्षाघात तथा अन्य बीमारियों से जूझते हुए पं. ओंकारनाथ ठाकुर 29 दिसंबर 1967 को इस नश्वर संसार को छोड़ गए, परंतु उनके गायन के अनगिनत रिकॉर्ड और टेप आज भी लाखों संगीत प्रेमियों के हृदय में उन्हें जीवित रखे हुए हैं।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 1.3 115वीं जयन्ती पर संगीत-मार्तण्ड ओंकारनाथ ठाकुर का स्मरण (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) रेडियो प्लेबॅक इंडिया (ब्लॉग)। अभिगमन तिथि: 20 अक्टूबर, 2012।
- ↑ 2.0 2.1 2.2 संगीत की एक महान विरासत छोड़ गए पं. ओंकारनाथ ठाकुर (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) हिन्दी मीडिया इन। अभिगमन तिथि: 20 अक्टूबर, 2012।
- ↑ 3.0 3.1 'वन्देमातरम' गीत का एक और नवीन प्रयोग (हिंदी) (एच.टी.एम.एल) आवाज़। अभिगमन तिथि: 29 दिसम्बर, 2012।
बाहरी कड़ियाँ
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