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इसके अतिरिक्त तीन निबन्ध संग्रह भी प्रकाशित हुए। गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने कई पत्र-[[पत्रिका|पत्रिकाओं]] का सम्पादन भी किया। 'मध्यकालीन भारतीय संस्कृति', 'सोलंकियों का इतिहास', 'पृथ्वीराज विजय', 'कर्मचंद वंश' तथा 'राजपूताना का इतिहास' ये ओझाजी की कुछ प्रमुख पुस्तकें थीं। वर्ष [[1898]] में प्रकाशित इनकी 'भारतीय प्राचीन लिपि माला' अपने विषय की सर्वश्रेष्ठ रचना मानी गई थी। ओझा जी वर्ष [[1908]] में 'राजपूताना म्यूज़ियम' के अध्यक्ष बनाए गए और [[1938]] तक इस पद पर बने रहे।
इसके अतिरिक्त तीन निबन्ध संग्रह भी प्रकाशित हुए। गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने कई पत्र-[[पत्रिका|पत्रिकाओं]] का सम्पादन भी किया। 'मध्यकालीन भारतीय संस्कृति', 'सोलंकियों का इतिहास', 'पृथ्वीराज विजय', 'कर्मचंद वंश' तथा 'राजपूताना का इतिहास' ये ओझाजी की कुछ प्रमुख पुस्तकें थीं। वर्ष [[1898]] में प्रकाशित इनकी 'भारतीय प्राचीन लिपि माला' अपने विषय की सर्वश्रेष्ठ रचना मानी गई थी। ओझा जी वर्ष [[1908]] में 'राजपूताना म्यूज़ियम' के अध्यक्ष बनाए गए और [[1938]] तक इस पद पर बने रहे।<ref name="aa"/>
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*'[[काशी हिन्दू विश्वविद्यालय]]' ने [[1937]] में उन्हें 'डी.लिट' की उपाधि प्रदान करके सम्मानित किया था।
==निधन==
==निधन==
गौरीशंकर हीराचंद ओझा और [[काशीप्रसाद जायसवाल]] के शिष्य जयचन्द्र विद्यालंकार ने ‘भारतीय इतिहास परिचय’ नामक संस्था खड़ी की थी। उनका उद्देश्य भारतीय दृष्टि से समस्त अध्ययन को आयोजित करना और [[भारत]] की सभी भाषाओं में उसके द्वारा ऊंचे [[साहित्य]] का विकास करना था। [[1941]] में ओझाजी ने जयचन्द्र विद्यालंकार को [[अजमेर]] बुलाकर कहा कि उनके शोधकार्य का भार वे उठा लें। उसके लिये [[राजस्थान]] में 'भारतीय इतिहास परिषद' की एक शाखा स्थापित कर दें। इस विचार का उत्साह से स्वागत किया गया। किन्तु इसके शीघ बाद जापान युद्ध और [[1942]] का '[[भारत छोड़ो आन्दोलन]]' आ गया। इस राजनैतिक संघर्ष में जयचन्द्र जेल चले गये। [[1946]] में जब वे जेल से छूट कर आये, तब तक राष्ट्रीय शिक्षा और 'भारतीय इतिहास परिषद' के आदर्श के लिये उत्साह ठण्डा पड़ चुका था। गौरीशंकर हीराचंद ओझा वृद्ध हो चुके थे। [[20 अप्रैल]], [[1947]] को ओझाजी ने 84 वर्ष की आयु में अपनी जीवन लीला समाप्त की। उन्होंने [[इतिहास]] और [[हिन्दी]] के लिये अपना पूरा जीवन खपा दिया था।
गौरीशंकर हीराचंद ओझा और [[काशीप्रसाद जायसवाल]] के शिष्य जयचन्द्र विद्यालंकार ने ‘भारतीय इतिहास परिचय’ नामक संस्था खड़ी की थी। उनका उद्देश्य भारतीय दृष्टि से समस्त अध्ययन को आयोजित करना और [[भारत]] की सभी भाषाओं में उसके द्वारा ऊंचे [[साहित्य]] का विकास करना था। [[1941]] में ओझाजी ने जयचन्द्र विद्यालंकार को [[अजमेर]] बुलाकर कहा कि उनके शोधकार्य का भार वे उठा लें। उसके लिये [[राजस्थान]] में 'भारतीय इतिहास परिषद' की एक शाखा स्थापित कर दें। इस विचार का उत्साह से स्वागत किया गया। किन्तु इसके शीघ बाद जापान युद्ध और [[1942]] का '[[भारत छोड़ो आन्दोलन]]' आ गया। इस राजनैतिक संघर्ष में जयचन्द्र जेल चले गये। [[1946]] में जब वे जेल से छूट कर आये, तब तक राष्ट्रीय शिक्षा और 'भारतीय इतिहास परिषद' के आदर्श के लिये उत्साह ठण्डा पड़ चुका था। गौरीशंकर हीराचंद ओझा वृद्ध हो चुके थे। [[20 अप्रैल]], [[1947]] को ओझाजी ने 84 वर्ष की आयु में अपनी जीवन लीला समाप्त की। उन्होंने [[इतिहास]] और [[हिन्दी]] के लिये अपना पूरा जीवन खपा दिया था।

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गौरीशंकर हीराचंद ओझा
गौरीशंकर हीराचंद ओझा
गौरीशंकर हीराचंद ओझा
पूरा नाम गौरीशंकर हीराचंद ओझा
जन्म 15 सितम्बर, 1863
जन्म भूमि रोहिड़ा ग्राम, राजस्थान
मृत्यु 20 अप्रैल, 1947
अभिभावक पिता- हीराचन्द ओझा
कर्म भूमि भारत
मुख्य रचनाएँ 'भारतीय प्राचीन लिपि माला', 'मध्यकालीन भारतीय संस्कृति', 'सोलंकियों का इतिहास', 'पृथ्वीराज विजय', 'कर्मचंद वंश' तथा 'राजपूताना का इतिहास' आदि।
भाषा राजस्थानी, हिन्दी, संस्कृत
विद्यालय 'एलफिंस्टन हाईस्कूल', मुम्बई
प्रसिद्धि इतिहासकार
नागरिकता भारतीय
संबंधित लेख राजस्थान, राजस्थान का इतिहास, गोपीनाथ शर्मा, काशीप्रसाद जायसवाल
अन्य जानकारी सन 1894 ई. में 'भारतीय प्राचीन लिपि माला' नामक पुस्तक लिखकर गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने भाषा और लिपि के क्षेत्र में क्रान्ति ला दी। इस पुस्तक में भारतीय लिपियों के विषय में महत्त्वपूर्ण जानकारी दी गई है।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

गौरीशंकर हीराचंद ओझा (अंग्रेज़ी: Gaurishankar Hirachand Ojha, जन्म- 15 सितम्बर, 1863, राजस्थान; मृत्यु- 20 अप्रैल, 1947) भारत के प्रसिद्ध इतिहासकार थे। इन्हें इतिहास, पुरातत्त्व और प्राचीन लिपियों में विशेषज्ञता प्राप्त थी। वर्ष 1937 में 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय' ने उन्हें 'डी.लिट' की उपाधि से सम्मानित किया था।[1] ओझा जी आधी शताब्दी तक ज्ञान के प्रकाश स्तम्भ के रूप में खड़े थे। वे भारत के अतीत का मार्ग टटोलने में निरन्तर आलोक पाते रहे। सिरोही राज्य, सोलंकियों तथा राजपूताने के इतिहास के साथ-साथ आपने इतिहास तथा अन्य विषयक कई ग्रंथ लिखे।[2]

जन्म तथा शिक्षा

पण्डित गौरीशंकर हीराचंद ओझा का जन्म 15 सितम्बर, 1863 ई. को में हुआ था। मेवाड़ और सिरोही राज्य की सीमा पर एक गांव है- 'रोहिड़ा'। अरावली श्रृंखला के पश्चिम में तलहटी में बसा यह गांव उस दिन धन्य हो गया जिस दिन हीराचन्द ओझा के घर पुत्ररत्न ने पदार्पण किया। वह दिन था मंगलवार भाद्रपद सुदि पंचमी संवत 1920।[3] अति सामान्य ब्राह्मण परिवार में जन्म होने के कारण गौरीशंकर हीराचंद ओझा की प्रारम्भिक शिक्षा उस छोटे से गांव में ही हुई। संस्कृत का अध्ययन आपने अपने पिता के पास रहकर किया। बाद में 1877 में मात्र 14 वर्ष की आयु में उच्च शिक्षा के लिये वे मुम्बई गये, जहां 1885 में 'एलफिंस्टन हाईस्कूल' से मेट्रिक्यूलेशन की परीक्षा उत्तीर्ण की। रोगग्रस्त हो जाने के कारण वे इन्टरमीडियेट की परीक्षा न दे सके और गांव लौट आये।[4]

इतिहास में रुचि

रोहिड़ा आने पर गौरीशंकर हीराचंद ओझा को राजपूताने के इतिहास के बारे में जानने की इच्छा हुई। इस संदर्भ में उन्होंने कर्नल टॉड की पुस्तक का अध्ययन किया। इस ग्रंथ ने उन्हें बहुत प्रेरणा दी। वे सच्चे ब्राह्मण की तरह अपने देश और मातृभूमि के अध्ययन के लिये प्रवृत्त हुए। आर्थिक और सामाजिक प्रलोभनों से आंखें मूंदकर अपनी पत्नी को साथ लेकर सिरोही से गोगुन्दा के रास्ते पैदल चलते हुए मेवाड़ के अनेक छिपे हुए और अप्रसिद्ध ऐतिहासिक एवं पुरातत्व की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थानों को खोज-खोज कर उनकी तीर्थ यात्रा करते हुए 1888 में उदयपुर पहुंचे।[5] उदयपुर में आपका सम्पर्क कविराजा श्यामलदास से हुआ। उनकी पैनी दृष्टि ने ओझा की प्रतिभा को तुरंत पहचान लिया। उनकी विद्वत्ता से वे प्रभावित भी हुए। कविराजा के आग्रह पर ही महाराणा फतेहसिंह ने इतिहास विभाग में रख दिया। उस समय तक 'वीर विनोद' के लेखन का कार्य लगभग समाप्त हो चुका था। अतः ओझाजी को विक्टोरिया हॉल के सार्वजनिक पुस्तकालय व संग्रहालय का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। उन्हें हिन्दी में लेखन कार्य करने की प्रेरणा विनायक शात्री बेताल से मिली। इसी काल में ओझाजी ने भारतीय लिपियों का गहनता से अध्ययन किया। यूरोपीय विद्वान वुर्हलर की लिपि संबंधित पुस्तक का भी अध्ययन किया। ओझाजी से पूर्व भारतीय लिपि के बारे में यह धारणा थी कि भारतीय लिपि का विकास मिश्रा, हिब्रू के मिश्रण से हुआ है और वह भी ईसा पूर्व पांचवी शताब्दी में।[6][2]

पुस्तक रचना

सन 1894 ई. में 'भारतीय प्राचीन लिपि माला' नामक पुस्तक लिखकर गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने भाषा और लिपि के क्षेत्र में क्रान्ति ला दी। उन्होंने बुइलर को पत्र लिखकर अपने तर्कों और प्रमाणों के आधार पर उनके द्वारा स्थापित विचार को निर्मूल सिद्ध किया। तब से दुनिया ने उनके सिद्धान्त को प्रतिष्ठा प्रदान की। आज यह पुस्तक संयुक्त राष्ट्र संघ के उन पुस्तकों में है, जो विश्व की निधि घोषित किये गये हैं। इस पुस्तक के माध्यम से ओझाजी ने संसार के समक्ष यह विचार रखा कि ब्राह्मी लिपि समझने के पश्चात् दूसरी लिपियों को आसानी से समझा जा सकता है, क्योंकि दूसरी लिपियों में थोड़ा बहुत अन्तर पड़ता जाता है। ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपि की उत्पत्ति पर भी आपने इस पुस्तक में प्रकाश डाला है। बाद में शिलालेखों, ताम्रपत्रों, सिक्कों व दानपत्रों पर उत्कीर्ण ब्राह्मी, गुप्त, कुटिल, नागरी, शारदा, बंगला, पश्चिमी, मध्यप्रदेशी, तेलगू, कन्नड़, कलिंग, तमिल, खरोष्ठी आदि लिपियों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी दी है। इसके लिये ओझाजी ने विविध 45 लिपिपत्र तैयार कर अलग-अलग भाषाओं में अक्षरों का बोध कराया। उसके पश्चात भारत की लिपियों और अंकों की उत्पत्ति के बारे में उल्लेखनीय जानकारी दी।[7]

राजस्थानी इतिहास पर शोध व संकलन

1894 के बाद गौरीशंकर हीराचंद ओझा राजस्थान के इतिहास के मनन, पुनः शोधन व संकलन में लग गये। उनके अध्ययन की गंभीरता को पहचानते हुए विद्या विशारद जर्मन विद्वान कील हार्न ने सच ही लिखा था कि "ओझा से अधिक अपने देश के इतिहास को कौन जानता है।" सन 1902 में लॉर्ड कर्ज़न 'दिल्ली दरबार' में उपस्थित रहने के लिये महाराणा फतेहसिंह को स्वयं निमंत्रण देने आये। रेजीडेण्ट के माध्यम से भारत सरकार को यह सूचना मिली थी कि महाराणा 1903 के दिल्ली दरबार में नहीं आयेंगे। इसलिये आग्रह करने स्वयं वायसराय उदयपुर आये थे। वहीं उनका परिचय ओझाजी से हुआ। उनकी विद्वत्ता और लगन से वे बड़े प्रभावित हुए। भारत के बारे में विशेष जानकारी के लिये उत्तर भारत का केन्द्र वे अजमेर को बनाना चाहते थे। ओझाजी से मिलकर उन्हें लगा कि पुरातात्विक कार्य के लिये यही व्यक्ति उपयुक्त है। अतः उन्होंने ओझाजी के सम्मुख भारत के पुरातत्व के उच्च पद का प्रस्ताव रखा। पर उन्होंने इस पद को अस्वीकार कर दिया, क्योंकि वे मेवाड़ में रहकर ही उसकी सेवा करना चाहते थे।[2]

आजमेर आगमन

कुछ वर्ष पश्चात 1908 में लॉर्ड मिण्टो ने लॉर्ड कर्ज़न की योजना के अनुसार 'राजपूताना पुरातत्व संग्रहालय’ की स्थापना अजमेर में की। इसके पालक के रूप में गौरीशंकर हीराचंद ओझा को बुलावा गया। वे मेवाड़ नहीं छोड़ते, पर विद्वत सम्मान के प्रति महाराणा फतेहसिंह की उदासीनता के कारण सन 1908 में वे उदयपुर छोड़कर अजमेर आ गये।

रचनाएँ

गौरीशंकर हीराचंद ओझा आधी शताब्दी तक ज्ञान के प्रकाश स्तम्भ के रूप में खड़े थे। वे भारत के अतीत का मार्ग टटोलने में निरन्तर आलोक पाते रहे। सिरोही राज्य, सोलंकियों तथा राजपूताना के इतिहास के साथ-साथ आपने इतिहास तथा अन्य विषयक कई ग्रंथ लिखे, उनमें निम्नलिखित प्रमुख थे-

  1. 'उदयपुर राज्य का इतिहास' - प्रथम खण्ड (1928), द्वितीय खण्ड (1932)
  2. 'डूंगरपुर राज्य का इतिहास' - (1936)
  3. 'बांसवाड़ा राज्य का इतिहास' - (1936)
  4. 'बीकानेर राज्य का इतिहास' - प्रथम भाग (1937), द्वितीय भाग (1940)
  5. 'जोधपुर राज्य का इतिहास' - प्रथम भाग (1938), दूसरा भाग (1941)
  6. 'प्रतापगढ़ राज्य का इतिहास' - (1940)


इसके अतिरिक्त तीन निबन्ध संग्रह भी प्रकाशित हुए। गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने कई पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया। 'मध्यकालीन भारतीय संस्कृति', 'सोलंकियों का इतिहास', 'पृथ्वीराज विजय', 'कर्मचंद वंश' तथा 'राजपूताना का इतिहास' ये ओझाजी की कुछ प्रमुख पुस्तकें थीं। वर्ष 1898 में प्रकाशित इनकी 'भारतीय प्राचीन लिपि माला' अपने विषय की सर्वश्रेष्ठ रचना मानी गई थी। ओझा जी वर्ष 1908 में 'राजपूताना म्यूज़ियम' के अध्यक्ष बनाए गए और 1938 तक इस पद पर बने रहे।[2]

निधन

गौरीशंकर हीराचंद ओझा और काशीप्रसाद जायसवाल के शिष्य जयचन्द्र विद्यालंकार ने ‘भारतीय इतिहास परिचय’ नामक संस्था खड़ी की थी। उनका उद्देश्य भारतीय दृष्टि से समस्त अध्ययन को आयोजित करना और भारत की सभी भाषाओं में उसके द्वारा ऊंचे साहित्य का विकास करना था। 1941 में ओझाजी ने जयचन्द्र विद्यालंकार को अजमेर बुलाकर कहा कि उनके शोधकार्य का भार वे उठा लें। उसके लिये राजस्थान में 'भारतीय इतिहास परिषद' की एक शाखा स्थापित कर दें। इस विचार का उत्साह से स्वागत किया गया। किन्तु इसके शीघ बाद जापान युद्ध और 1942 का 'भारत छोड़ो आन्दोलन' आ गया। इस राजनैतिक संघर्ष में जयचन्द्र जेल चले गये। 1946 में जब वे जेल से छूट कर आये, तब तक राष्ट्रीय शिक्षा और 'भारतीय इतिहास परिषद' के आदर्श के लिये उत्साह ठण्डा पड़ चुका था। गौरीशंकर हीराचंद ओझा वृद्ध हो चुके थे। 20 अप्रैल, 1947 को ओझाजी ने 84 वर्ष की आयु में अपनी जीवन लीला समाप्त की। उन्होंने इतिहास और हिन्दी के लिये अपना पूरा जीवन खपा दिया था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 257 |
  2. 2.0 2.1 2.2 2.3 गोरीशंकर हीराचंद ओझा (हिन्दी) राजस्थान स्टडीज। अभिगमन तिथि: 16 अगस्त, 2015।
  3. तदनुसार 15 सितम्बर 1863 ई.
  4. राजस्थान के इतिहासकार – सं. 31. डा. हुकमसिंह भाटी पृ. 104
  5. हमारा राजस्थान-पृथ्वीसिंह मेहता पृ. 262
  6. हमारा राजस्थान-पृ. 262-63
  7. राजस्थान के इतिहासकार-पृ. 107

बाहरी कड़ियाँ

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