"कर्मभूमि उपन्यास भाग-1 अध्याय-15": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
छो (Text replacement - " जिला " to " ज़िला ")
छो (Text replacement - "सन्न्यासी" to "संन्यासी")
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
अमरकान्त के जीवन में एक नई स्‍फूर्ति का संचार होने लगा। अब तक घरवालों ने उसके हरेक काम की अवहेलना ही की थी। सभी उसकी लगाम खींचते रहते थे। घोड़े में न वह दम रहा, न वह उत्साह लेकिन अब एक प्राणी बढ़ावा देता था उसकी गर्दन पर हाथ फेरता था। जहां उपेक्षा, या अधिक-से-अधिक शुष्क उदासीनता थी, वहां अब एक रमणी का प्रोत्साहन था, जो पर्वतों को हिला सकता है, मुर्दों को ज़िला सकता है। उसकी साधन, जो बंधनों में पड़कर संकुचित हो गई थी, प्रेम का आश्रय पाकर प्रबल और उग्र हो गई है अपने अंदर ऐसी आत्मशक्ति उसने कभी न पाई थी। सकीना अपने प्रेमस्रोत से उसकी साधन को सींचती रहती है यह स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर सकती पर उसका प्रेम उसऋषि का वरदान है जो आप भिक्षा मांगकर भी दूसरों पर विभूतियों की वर्षा करता है। अमर बिना किसी प्रयोजन के सकीना के पास नहीं जाता। उसमें वह उप्रण्डता भी नहीं रही। समय और अवसर देखकर काम करता है। जिन वृक्षों की जड़ें गहरी होती हैं, उन्हें बार-बार सींचने की जरूरत नहीं होती। वह ज़मीन से ही आर्द्रता खींचकर बढ़ते और फलते-फूलते हैं। सकीना और अमर का प्रेम वही वृक्ष है। उसे सजग रखने के लिए बार-बार मिलने की जरूरत नहीं।
अमरकान्त के जीवन में एक नई स्‍फूर्ति का संचार होने लगा। अब तक घरवालों ने उसके हरेक काम की अवहेलना ही की थी। सभी उसकी लगाम खींचते रहते थे। घोड़े में न वह दम रहा, न वह उत्साह लेकिन अब एक प्राणी बढ़ावा देता था उसकी गर्दन पर हाथ फेरता था। जहां उपेक्षा, या अधिक-से-अधिक शुष्क उदासीनता थी, वहां अब एक रमणी का प्रोत्साहन था, जो पर्वतों को हिला सकता है, मुर्दों को ज़िला सकता है। उसकी साधन, जो बंधनों में पड़कर संकुचित हो गई थी, प्रेम का आश्रय पाकर प्रबल और उग्र हो गई है अपने अंदर ऐसी आत्मशक्ति उसने कभी न पाई थी। सकीना अपने प्रेमस्रोत से उसकी साधन को सींचती रहती है यह स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर सकती पर उसका प्रेम उसऋषि का वरदान है जो आप भिक्षा मांगकर भी दूसरों पर विभूतियों की वर्षा करता है। अमर बिना किसी प्रयोजन के सकीना के पास नहीं जाता। उसमें वह उप्रण्डता भी नहीं रही। समय और अवसर देखकर काम करता है। जिन वृक्षों की जड़ें गहरी होती हैं, उन्हें बार-बार सींचने की जरूरत नहीं होती। वह ज़मीन से ही आर्द्रता खींचकर बढ़ते और फलते-फूलते हैं। सकीना और अमर का प्रेम वही वृक्ष है। उसे सजग रखने के लिए बार-बार मिलने की जरूरत नहीं।


डिग्री की परीक्षा हुई पर अमरकान्त उसमें बैठा नहीं। अधयापकों को विश्वास था, उसे छात्रवृत्ति मिलेगी। यहां तक कि डॉ. शान्तिकुमार ने भी उसे बहुत समझाया पर वह अपनी ज़िद पर अड़ा रहा। जीवन को सफल बनाने के लिए शिक्षा की जरूरत है, डिग्री की नहीं। हमारी डिग्री है-हमारा सेवा-भाव, हमारी नम्रता, हमारे जीवन की सरलता। अगर यह डिग्री नहीं मिली, अगर हमारी आत्मा जागृत नहीं हुई, तो काग़ज़ की डिग्री व्यर्थ है। उसे इस शिक्षा ही से घृणा हो गई थी। जब वह अपने अधयापकों को ट़यूशन की ग़ुलामी करते, स्वार्थ के लिए नाक रगड़ते, कम-से-कम करके अधिक-से-अधिक लाभ के लिए हाथ पसारते देखता, तो उसे घोर मानसिक वेदना होती थी, और इन्हीं महानुभावों के हाथ में राष्ट' की बागडोर है। यही कौम के विधाता हैं। इन्हें इसकी परवाह नहीं कि भारत की जनता दो आने पैसों पर गुजर करती है। एक साधारण आदमी को साल-भर में पचास से ज़्यादा नहीं मिलते। हमारे अधयापकों को पचास रुपये रोज चाहिए। तब अमर को उस अतीत की याद आती, जब हमारे गुरुजन झोंपड़ों में रहते थे, स्वार्थ से अलग, लोभ से दूर, सात्विक जीवन के आदर्श, निष्काम सेवा के उपासक। वह राष्ट' से कम-से-कम लेकर अधिक-से-अधिक देते थे। वह वास्तव में देवता थे और एक यह अधयापक हैं, जो किसी अंश में भी एक मामूली व्यापारी या राज्य-कर्मचारी से पीछे नहीं। इनमें भी वही दंभ है, वही धान-मद है, वही अधिकार-मद है। हमारे विद्यालय क्या हैं, राज्य के विभाग हैं, और हमारे अधयापक उसी राज्य के अंश हैं। ये खुद अंधकार में पड़े हुए हैं, प्रकाश क्या फैलाएंगे- वे आप अपने मनोविकारों के कैदी हैं, आप अपनी इच्छाओं के ग़ुलाम हैं, और अपने शिष्यों को भी उसी कैद और ग़ुलामी में डालते हैं। अमर की युवक-कल्पना फिर अतीत का स्वप्न देखने लगती। परिस्थतियों को वह बिलकुल भूल जाता। उसके कल्पित राष्ट' के कर्मचारी सेवा के पुतले होते, अधयापक झोंपडी में रहने वाले बल्कलधारी, कंदमूल-फल-भोगी सन्न्यासी, जनता द्वेष और लोभ से रहित, न यह आए दिन के टंटे, न बखेड़े। इतनी अदालतों की जरूरत क्या- यह बड़े-बड़े महकमे किसलिए- ऐसा मालूम होता है, गरीबों की लाश नोचने वाले गिरोह का समूह है। जिसके पास जितनी ही बड़ी डिग्री है, उसका स्वार्थ भी उतना ही बढ़ा हुआ है। मानो लोभ और स्वार्थ ही विद्वता का लक्षण है गरीबों को रोटियां मयस्सर न हों, कपड़ों को तरसते हों, पर हमारे शिक्षित भाइयों को मोटर चाहिए, बंगला चाहिए, नौकरों की एक पलटन चाहिए। इस संसार को अगर मनुष्य ने रचा है तो अन्यायी है, ईश्वर ने रचा है तो उसे क्या कहें ।
डिग्री की परीक्षा हुई पर अमरकान्त उसमें बैठा नहीं। अधयापकों को विश्वास था, उसे छात्रवृत्ति मिलेगी। यहां तक कि डॉ. शान्तिकुमार ने भी उसे बहुत समझाया पर वह अपनी ज़िद पर अड़ा रहा। जीवन को सफल बनाने के लिए शिक्षा की जरूरत है, डिग्री की नहीं। हमारी डिग्री है-हमारा सेवा-भाव, हमारी नम्रता, हमारे जीवन की सरलता। अगर यह डिग्री नहीं मिली, अगर हमारी आत्मा जागृत नहीं हुई, तो काग़ज़ की डिग्री व्यर्थ है। उसे इस शिक्षा ही से घृणा हो गई थी। जब वह अपने अधयापकों को ट़यूशन की ग़ुलामी करते, स्वार्थ के लिए नाक रगड़ते, कम-से-कम करके अधिक-से-अधिक लाभ के लिए हाथ पसारते देखता, तो उसे घोर मानसिक वेदना होती थी, और इन्हीं महानुभावों के हाथ में राष्ट' की बागडोर है। यही कौम के विधाता हैं। इन्हें इसकी परवाह नहीं कि भारत की जनता दो आने पैसों पर गुजर करती है। एक साधारण आदमी को साल-भर में पचास से ज़्यादा नहीं मिलते। हमारे अधयापकों को पचास रुपये रोज चाहिए। तब अमर को उस अतीत की याद आती, जब हमारे गुरुजन झोंपड़ों में रहते थे, स्वार्थ से अलग, लोभ से दूर, सात्विक जीवन के आदर्श, निष्काम सेवा के उपासक। वह राष्ट' से कम-से-कम लेकर अधिक-से-अधिक देते थे। वह वास्तव में देवता थे और एक यह अधयापक हैं, जो किसी अंश में भी एक मामूली व्यापारी या राज्य-कर्मचारी से पीछे नहीं। इनमें भी वही दंभ है, वही धान-मद है, वही अधिकार-मद है। हमारे विद्यालय क्या हैं, राज्य के विभाग हैं, और हमारे अधयापक उसी राज्य के अंश हैं। ये खुद अंधकार में पड़े हुए हैं, प्रकाश क्या फैलाएंगे- वे आप अपने मनोविकारों के कैदी हैं, आप अपनी इच्छाओं के ग़ुलाम हैं, और अपने शिष्यों को भी उसी कैद और ग़ुलामी में डालते हैं। अमर की युवक-कल्पना फिर अतीत का स्वप्न देखने लगती। परिस्थतियों को वह बिलकुल भूल जाता। उसके कल्पित राष्ट' के कर्मचारी सेवा के पुतले होते, अधयापक झोंपडी में रहने वाले बल्कलधारी, कंदमूल-फल-भोगी संन्यासी, जनता द्वेष और लोभ से रहित, न यह आए दिन के टंटे, न बखेड़े। इतनी अदालतों की जरूरत क्या- यह बड़े-बड़े महकमे किसलिए- ऐसा मालूम होता है, गरीबों की लाश नोचने वाले गिरोह का समूह है। जिसके पास जितनी ही बड़ी डिग्री है, उसका स्वार्थ भी उतना ही बढ़ा हुआ है। मानो लोभ और स्वार्थ ही विद्वता का लक्षण है गरीबों को रोटियां मयस्सर न हों, कपड़ों को तरसते हों, पर हमारे शिक्षित भाइयों को मोटर चाहिए, बंगला चाहिए, नौकरों की एक पलटन चाहिए। इस संसार को अगर मनुष्य ने रचा है तो अन्यायी है, ईश्वर ने रचा है तो उसे क्या कहें ।


यही भावनाएं अमर के अंतस्थल में लहरों की भांति उठती रहती थीं।
यही भावनाएं अमर के अंतस्थल में लहरों की भांति उठती रहती थीं।


वह प्रात:काल उठकर शान्तिकुमार के सेवाश्रम में पहुंच जाता और दोपहर तक वहां लड़कों को पढ़ाता रहता। पाठशाला डॉक्टर साहब के बंगले में थी। नौ बजे तक डॉक्टर साहब भी पढ़ाते थे। फीस बिलकुल न ली जाती थी फिर भी लड़के बहुत कम आते थे। सरकारी स्कूलों में जहां फीस और जुर्माने और चंदों की भरमार रहती थी, लड़कों को बैठने की जगह न मिलती थी। यहां कोई झांकता भी न था। मुश्किल से दो-ढाई सौ लड़के आते थे। छोटे-छोटे भोले-भाले निष्कपट बालकों का कैसे स्वाभाविक विकास हो कैसे वे साहसी, संतोषी, सेवाशील नागरिक बन सकें, यही मुख्य उद्देश्य था। सौंदर्य-बोधा जो मानव-प्रकृति का प्रधान अंग है, कैसे दूषित वातावरण से अलग रहकर अपनी पूर्णता पाए, संघर्ष की जगह सहानुभूति का विकास कैसे हो, दोनों मित्र यही सोचते रहते थे। उनके पास शिक्षा की कोई बनी-बनाई प्रणाली न थी। उद्देश्य को सामने रखकर ही वह साधानों की व्यवस्था करते थे। आदर्श महापुरुषों के चरित्र, सेवा और त्याग की कथाएं, भक्ति और प्रेम के पद, यही शिक्षा के आधार थे। उनके दो सहयोगी और थे। एक आत्मानन्द सन्न्यासी थे, जो संसार से विरक्त होकर सेवा में जीवन सार्थक करना चाहते थे, दूसरे एक संगीत के आचार्य थे, जिनका नाम था ब्रजनाथ। इन दोनों सहयोगियों के आ जाने से शाला की उपयोगिता बहुत बढ़ गई थी।
वह प्रात:काल उठकर शान्तिकुमार के सेवाश्रम में पहुंच जाता और दोपहर तक वहां लड़कों को पढ़ाता रहता। पाठशाला डॉक्टर साहब के बंगले में थी। नौ बजे तक डॉक्टर साहब भी पढ़ाते थे। फीस बिलकुल न ली जाती थी फिर भी लड़के बहुत कम आते थे। सरकारी स्कूलों में जहां फीस और जुर्माने और चंदों की भरमार रहती थी, लड़कों को बैठने की जगह न मिलती थी। यहां कोई झांकता भी न था। मुश्किल से दो-ढाई सौ लड़के आते थे। छोटे-छोटे भोले-भाले निष्कपट बालकों का कैसे स्वाभाविक विकास हो कैसे वे साहसी, संतोषी, सेवाशील नागरिक बन सकें, यही मुख्य उद्देश्य था। सौंदर्य-बोधा जो मानव-प्रकृति का प्रधान अंग है, कैसे दूषित वातावरण से अलग रहकर अपनी पूर्णता पाए, संघर्ष की जगह सहानुभूति का विकास कैसे हो, दोनों मित्र यही सोचते रहते थे। उनके पास शिक्षा की कोई बनी-बनाई प्रणाली न थी। उद्देश्य को सामने रखकर ही वह साधानों की व्यवस्था करते थे। आदर्श महापुरुषों के चरित्र, सेवा और त्याग की कथाएं, भक्ति और प्रेम के पद, यही शिक्षा के आधार थे। उनके दो सहयोगी और थे। एक आत्मानन्द संन्यासी थे, जो संसार से विरक्त होकर सेवा में जीवन सार्थक करना चाहते थे, दूसरे एक संगीत के आचार्य थे, जिनका नाम था ब्रजनाथ। इन दोनों सहयोगियों के आ जाने से शाला की उपयोगिता बहुत बढ़ गई थी।


एक दिन अमर ने शान्तिकुमार से कहा-आप आखिर कब तक प्रो्रेसरी करते चले जाएंगे- जिस संस्था को हम जड़ से काटना चाहते हैं, उसी से चिमटे रहना तो आपको शोभा नहीं देता ।
एक दिन अमर ने शान्तिकुमार से कहा-आप आखिर कब तक प्रो्रेसरी करते चले जाएंगे- जिस संस्था को हम जड़ से काटना चाहते हैं, उसी से चिमटे रहना तो आपको शोभा नहीं देता ।

11:43, 3 अगस्त 2017 का अवतरण

इस लेख का पुनरीक्षण एवं सम्पादन होना आवश्यक है। आप इसमें सहायता कर सकते हैं। "सुझाव"

अमरकान्त के जीवन में एक नई स्‍फूर्ति का संचार होने लगा। अब तक घरवालों ने उसके हरेक काम की अवहेलना ही की थी। सभी उसकी लगाम खींचते रहते थे। घोड़े में न वह दम रहा, न वह उत्साह लेकिन अब एक प्राणी बढ़ावा देता था उसकी गर्दन पर हाथ फेरता था। जहां उपेक्षा, या अधिक-से-अधिक शुष्क उदासीनता थी, वहां अब एक रमणी का प्रोत्साहन था, जो पर्वतों को हिला सकता है, मुर्दों को ज़िला सकता है। उसकी साधन, जो बंधनों में पड़कर संकुचित हो गई थी, प्रेम का आश्रय पाकर प्रबल और उग्र हो गई है अपने अंदर ऐसी आत्मशक्ति उसने कभी न पाई थी। सकीना अपने प्रेमस्रोत से उसकी साधन को सींचती रहती है यह स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर सकती पर उसका प्रेम उसऋषि का वरदान है जो आप भिक्षा मांगकर भी दूसरों पर विभूतियों की वर्षा करता है। अमर बिना किसी प्रयोजन के सकीना के पास नहीं जाता। उसमें वह उप्रण्डता भी नहीं रही। समय और अवसर देखकर काम करता है। जिन वृक्षों की जड़ें गहरी होती हैं, उन्हें बार-बार सींचने की जरूरत नहीं होती। वह ज़मीन से ही आर्द्रता खींचकर बढ़ते और फलते-फूलते हैं। सकीना और अमर का प्रेम वही वृक्ष है। उसे सजग रखने के लिए बार-बार मिलने की जरूरत नहीं।

डिग्री की परीक्षा हुई पर अमरकान्त उसमें बैठा नहीं। अधयापकों को विश्वास था, उसे छात्रवृत्ति मिलेगी। यहां तक कि डॉ. शान्तिकुमार ने भी उसे बहुत समझाया पर वह अपनी ज़िद पर अड़ा रहा। जीवन को सफल बनाने के लिए शिक्षा की जरूरत है, डिग्री की नहीं। हमारी डिग्री है-हमारा सेवा-भाव, हमारी नम्रता, हमारे जीवन की सरलता। अगर यह डिग्री नहीं मिली, अगर हमारी आत्मा जागृत नहीं हुई, तो काग़ज़ की डिग्री व्यर्थ है। उसे इस शिक्षा ही से घृणा हो गई थी। जब वह अपने अधयापकों को ट़यूशन की ग़ुलामी करते, स्वार्थ के लिए नाक रगड़ते, कम-से-कम करके अधिक-से-अधिक लाभ के लिए हाथ पसारते देखता, तो उसे घोर मानसिक वेदना होती थी, और इन्हीं महानुभावों के हाथ में राष्ट' की बागडोर है। यही कौम के विधाता हैं। इन्हें इसकी परवाह नहीं कि भारत की जनता दो आने पैसों पर गुजर करती है। एक साधारण आदमी को साल-भर में पचास से ज़्यादा नहीं मिलते। हमारे अधयापकों को पचास रुपये रोज चाहिए। तब अमर को उस अतीत की याद आती, जब हमारे गुरुजन झोंपड़ों में रहते थे, स्वार्थ से अलग, लोभ से दूर, सात्विक जीवन के आदर्श, निष्काम सेवा के उपासक। वह राष्ट' से कम-से-कम लेकर अधिक-से-अधिक देते थे। वह वास्तव में देवता थे और एक यह अधयापक हैं, जो किसी अंश में भी एक मामूली व्यापारी या राज्य-कर्मचारी से पीछे नहीं। इनमें भी वही दंभ है, वही धान-मद है, वही अधिकार-मद है। हमारे विद्यालय क्या हैं, राज्य के विभाग हैं, और हमारे अधयापक उसी राज्य के अंश हैं। ये खुद अंधकार में पड़े हुए हैं, प्रकाश क्या फैलाएंगे- वे आप अपने मनोविकारों के कैदी हैं, आप अपनी इच्छाओं के ग़ुलाम हैं, और अपने शिष्यों को भी उसी कैद और ग़ुलामी में डालते हैं। अमर की युवक-कल्पना फिर अतीत का स्वप्न देखने लगती। परिस्थतियों को वह बिलकुल भूल जाता। उसके कल्पित राष्ट' के कर्मचारी सेवा के पुतले होते, अधयापक झोंपडी में रहने वाले बल्कलधारी, कंदमूल-फल-भोगी संन्यासी, जनता द्वेष और लोभ से रहित, न यह आए दिन के टंटे, न बखेड़े। इतनी अदालतों की जरूरत क्या- यह बड़े-बड़े महकमे किसलिए- ऐसा मालूम होता है, गरीबों की लाश नोचने वाले गिरोह का समूह है। जिसके पास जितनी ही बड़ी डिग्री है, उसका स्वार्थ भी उतना ही बढ़ा हुआ है। मानो लोभ और स्वार्थ ही विद्वता का लक्षण है गरीबों को रोटियां मयस्सर न हों, कपड़ों को तरसते हों, पर हमारे शिक्षित भाइयों को मोटर चाहिए, बंगला चाहिए, नौकरों की एक पलटन चाहिए। इस संसार को अगर मनुष्य ने रचा है तो अन्यायी है, ईश्वर ने रचा है तो उसे क्या कहें ।

यही भावनाएं अमर के अंतस्थल में लहरों की भांति उठती रहती थीं।

वह प्रात:काल उठकर शान्तिकुमार के सेवाश्रम में पहुंच जाता और दोपहर तक वहां लड़कों को पढ़ाता रहता। पाठशाला डॉक्टर साहब के बंगले में थी। नौ बजे तक डॉक्टर साहब भी पढ़ाते थे। फीस बिलकुल न ली जाती थी फिर भी लड़के बहुत कम आते थे। सरकारी स्कूलों में जहां फीस और जुर्माने और चंदों की भरमार रहती थी, लड़कों को बैठने की जगह न मिलती थी। यहां कोई झांकता भी न था। मुश्किल से दो-ढाई सौ लड़के आते थे। छोटे-छोटे भोले-भाले निष्कपट बालकों का कैसे स्वाभाविक विकास हो कैसे वे साहसी, संतोषी, सेवाशील नागरिक बन सकें, यही मुख्य उद्देश्य था। सौंदर्य-बोधा जो मानव-प्रकृति का प्रधान अंग है, कैसे दूषित वातावरण से अलग रहकर अपनी पूर्णता पाए, संघर्ष की जगह सहानुभूति का विकास कैसे हो, दोनों मित्र यही सोचते रहते थे। उनके पास शिक्षा की कोई बनी-बनाई प्रणाली न थी। उद्देश्य को सामने रखकर ही वह साधानों की व्यवस्था करते थे। आदर्श महापुरुषों के चरित्र, सेवा और त्याग की कथाएं, भक्ति और प्रेम के पद, यही शिक्षा के आधार थे। उनके दो सहयोगी और थे। एक आत्मानन्द संन्यासी थे, जो संसार से विरक्त होकर सेवा में जीवन सार्थक करना चाहते थे, दूसरे एक संगीत के आचार्य थे, जिनका नाम था ब्रजनाथ। इन दोनों सहयोगियों के आ जाने से शाला की उपयोगिता बहुत बढ़ गई थी।

एक दिन अमर ने शान्तिकुमार से कहा-आप आखिर कब तक प्रो्रेसरी करते चले जाएंगे- जिस संस्था को हम जड़ से काटना चाहते हैं, उसी से चिमटे रहना तो आपको शोभा नहीं देता ।

शान्तिकुमार ने मुस्कराकर कहा-मैं खुद यही सोच रहा हूं भई पर सोचता हूं, रुपये कहां से आएंगे- कुछ खर्च नहीं है, तो भी पांच सौ में तो संदेह है ही नहीं।

'आप इसकी चिंता न कीजिए। कहीं-न-कहीं से रुपये आ ही जाएंगे। फिर रुपये की जरूरत क्या है?'

'मकान का किराया है, लड़कों के लिए किताबें हैं, और बीसों ही खर्च हैं। क्या-क्या गिनाऊं?'

'हम किसी वृक्ष के नीचे तो लड़कों को पढ़ा सकते हैं।'

'तुम आदर्श की धुन में व्यावहारिकता का बिलकुल विचार नहीं करते। कोरा आदर्शवाद खयाली पुलाव है।'

अमर ने चकित होकर कहा-मैं तो समझता था, आप भी आदर्शवादी हैं।

शान्तिकुमार ने मानो इस चोट को ढाल पर रोककर कहा-मेरे आदर्शवाद में व्यावहारिकता का भी स्थान है।

'इसका अर्थ यह है कि आप गुड़ खाते हैं, गुलगुले से परहेज करते हैं।'

'जब तक मुझे रुपये कहीं से मिलने न लगें, तुम्हीं सोचो, मैं किस आधार पर नौकरी का परित्याग कर दूं- पाठशाला मैंने खोली है। इसके संचालने का दायित्व मुझ पर है। इसके बंद हो जाने पर मेरी बदनामी होगी। अगर तुम इसके संचालन का कोई स्थायी प्रबंध कर सकते हो, तो मैं आज इस्तीफा दे सकता हूं लेकिन बिना किसी आधार के मैं कुछ नहीं कर सकता। मैं इतना पक्का आदर्शवादी नहीं हूं।'

अमरकान्त ने अभी सिध्दांत से समझौता करना न सीखा था। कार्यक्षेत्र में कुछ दिन रह जाने और संसार के कडुवे अनुभव हो जाने के बाद हमारी प्रकृति में जो ढीलापन आ जाता है, उस परिस्थिति में वह न पड़ा था। नवदीक्षितों को सिध्दांत में जो अटल भक्ति होती है वह उसमें भी थी। डॉक्टर साहब में उसे जो श्रध्दा थी, उसे ज़ोर का धाक्का लगा। उसे मालूम हुआ कि यह केवल बातों के वीर हैं, कहते कुछ हैं करते कुछ हैं। जिसका खुले शब्दों में यह आशय है कि यह संसार को धोखा देते हैं। ऐसे मनुष्य के साथ वह कैसे सहयोग कर सकता है-

उसने जैसे धमकी दी-तो आप इस्तीफा नहीं दे सकते-

'उस वक्त तक नहीं, जब तक धान का कोई प्रबंध न हो।'

'तो ऐसी दशा में मैं यहां काम नहीं कर सकता।'

डॉक्टर साहब ने नम्रता से कहा-देखो अमरकान्त, मुझे संसार का तुमसे ज़्यादा तजुर्बा है, मेरा इतना जीवन नए-नए परीक्षणों में ही गुजरा है। मैंने जो तत्‍व निकाला है, यह है कि हमारा जीवन समझौते पर टिका हुआ है। अभी तुम मुझे जो चाहे समझो पर एक समय आएगा, जब तुम्हारी आंखें खुलेंगी और तुम्हें मालूम होगा कि जीवन में यथार्थ का महत्‍व आदर्श से जौ-भर भी कम नहीं।

अमर ने जैसे आकाश में उड़ते हुए कहा-मैदान में मर जाना मैदान छोड़ देने से कहीं अच्छा है। और उसी वक्त वहां से चल दिया।

पहले सलीम से मुठभेड़ हुई। सलीम इस शाला को मदारी का तमाशा कहा करता था, जहां जादू की लकड़ी छुआ देने ही से मिट्टी सोना बन जाती है। वह एमए की तैयारी कर रहा था। उसकी अभिलाषा थी कोई अच्छा सरकारी पद पा जाए और चैन से रहे। सुधार और संगठन और राष्‍ट्रीय आंदोलन से उसे विशेष प्रेम न था। उसने यह खबर सुनी तो खुश होकर कहा-तुमने बहुत अच्छा किया, निकल आए। मैं डॉक्टर साहब को खूब जानता हूं, वह उन लोगों में हैं, जो दूसरों के घर में आग लगाकर अपना हाथ सेंकते हैं। कौम के नाम पर जान देते हैं, मगर जबान से।

सुखदा भी खुश हुई। अमर का शाला के पीछे पागल हो जाना उसे न सोहाता था। डॉक्टर साहब से उसे चिढ़ थी। वही अमर को उंगलियों पर नचा रहे हैं। उन्हीं के फेर में पड़कर अमर घर से उदासीन हो गया है।

पर जब संध्‍या समय अमर ने सकीना से ज़िक्र किया, तो उसने डॉक्टर का पक्ष लिया-मैं समझती हूं, डॉक्टर साहब का खयाल ठीक है। भूखे पेट खुदा की याद भी नहीं हो सकता। जिसके सिर रोजी की फ़िक्र सवार है, वह कौम की क्या खिदमत करेगा, और करेगा तो अमानत में खयानत करेगा। आदमी भूखा नहीं रह सकता। फिर मदरसे का खर्च भी तो है। माना कि दरख्तों के नीचे ही मदरसा लगे लेकिन वह बाग कहां है- कोई ऐसी जगह तो चाहिए ही जहां लड़के बैठकर पढ़ सकें। लड़कों को किताबें, काग़ज़ चाहिए, बैठने को गर्श चाहिए, डोल-रस्सी चाहिए। या तो चंदे से आए, या कोई कमाकर दे। सोचो, जो आदमी अपने उसूल के खिलाग नौकरी करके एक काम की बुनियाद डालता है वह उसके लिए कितनी कुरबानी कर रहा है तुम अपने वक्त की कुरबानी करते हो। वह अपने जमीर तक की कुरबानी कर देता है। मैं तो ऐसे आदमी को कहीं ज़्यादा इज्जत के लायक़ समझती हूं।

पठानिन ने कहा-तुम इस छोकरी की बातों में न आ जाना बेटा, जाकर घर का धंधा देखो, जिससे गृहस्थी का निर्वाह हो। यह सैलानीपन उन लोगों को चाहिए, जो घर के निखट्टू हैं। तुम्हें अल्लाह ने इज्जत दी है, मर्तबा दिया है, बाल-बच्चे दिए हैं। तुम इन खुरागातों में न पड़ो।

अमर को अब टोपियां बेचने से फुर्सत मिल गई थी। बुढ़िया को रेणुकादेवी के द्वारा चिकन का काम इतना ज़्यादा मिल जाता था कि टोपियां कौन काढ़ता- सलीम के घर से कोई-न-कोई काम आता ही रहता था। उसके जरिए से और घरों से भी काफ़ी काम मिल जाता था। सकीना के घर में कुछ खुशहाली नजर आती थी। घर की पुताई हो गई थी, द्वार पर नया परदा पड़ गया था, दो खाटें नई आ गई थीं, खाटों पर दरियां भी नई थीं, कई बरतन नए आ गए थे। कपड़े-लत्तो की भी कोई शिकायत न थी। उर्दू का एक अखबार भी खाट पर रखा हुआ था। पठानिन को अपने अच्छे दिनों में भी इससे ज़्यादा समृ' िन हुई थी। बस, उसे अगर कोई गम था, तो यह कि सकीना शादी करने पर राजी न होती थी।

अमर यहां से चला, तो अपनी भूल पर लज्जित था। सकीना के एक ही वाक्य ने उसके मन की सारी शंका शांत कर दी थी। डॉक्टर साहब से उसकी श्रध्दा फिर उतनी ही गहरी हो गई थी। सकीना की बुध्दिमत्ताा, विचार-सौष्ठव, सूझ और निर्भीकता ने तो चकित और मुग्ध कर दिया था। सकीना उसका परिचय जितना ही गहरा होता था, उतना ही उसका असर भी गहरा होता था। सुखदा अपनी प्रतिभा और गरिमा से उस पर शासन करती थी। वह शासन उसे अप्रिय था। सकीना अपनी नम्रता और मधुरता से उस पर शासन करती थी। वह शासन उसे प्रिय था। सुखदा में अधिकार का गर्व था। सकीना में समर्पण की दीनता थी। सुखदा अपने को पति से बुध्दिमान् और कुशल समझती थी। सकीना समझती थी, मैं इनके आगे क्या हूं-

डॉक्टर साहब ने मुस्कराकर पूछा-तो तुम्हारा यही निश्चय है कि मैं इस्तीफा दे दूं- वास्तव में मैंने इस्तीफा लिख रखा है और कल दे दूंगा। तुम्हारा सहयोग मैं नहीं खो सकता। मैं अकेला कुछ भी न कर सकूंगा। तुम्हारे जाने के बाद मैंने ठंडे दिल से सोचा तो मालूम हुआ, मैं व्यर्थ के मोह में पड़ा हुआ हूं। स्वामी दयानन्द के पास क्या था जब उन्होंने आर्यसमाज की बुनियाद डाली-

अमरकान्त भी मुस्कराया-नहीं, मैंने ठंडे दिल से सोचा तो मालूम हुआ कि मैं ग़लती पर था। जब तक रुपये का कोई माक़ूल इंतजाम न हो जाए, आपको इस्तीफा देने की जरूरत नहीं।

डॉक्टर साहब ने विस्मय से कहा-तुम व्यंग्य कर रहे हो-

'नहीं, मैंने आपसे बेअदबी की थी उसे क्षमा कीजिए।'

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख