चंद्रशेखर वेंकट रामन

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चंद्रशेखर वेंकट रामन
जन्म 7 नवम्बर 1888
जन्म भूमि तिरुचिरापल्ली
मृत्यु 21 नवम्बर 1970
पति/पत्नी त्रिलोकसुंदरी
कर्म भूमि भारत, ब्रिटेन
विषय वैज्ञानिक

(जन्म- 7 नवम्बर, 1888 - मृत्यु- 21 नवम्बर, 1970)

रामन पहले व्यक्ति थे जिन्होंने वैज्ञानिक संसार में भारत को ख्याति दिलाई। प्राचीन भारत में विज्ञान की उपलब्धियाँ थीं जैसे- शून्य और दशमलव प्रणाली की खोज, पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने के बारे में तथा आयुर्वेद के फ़ारमूले इत्यादि। मगर पूर्णरूप से विज्ञान के प्रयोगात्मक कोण में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई थी। रामन ने उस खोये रास्ते की खोज की और नियमों का प्रतिपादन किया जिनसे स्वतंत्र भारत के विकास और प्रगति का रास्ता खुल गया। रामन ने स्वाधीन भारत में विज्ञान के अध्ययन और शोध को जो प्रोत्साहन दिया उसका अनुमान कर पाना कठिन है।

परिचय

चंद्रशेखर वेंकट रामन का जन्म तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली शहर में 7 नवम्बर 1888 को हुआ था, जो कि कावेरी नदी के किनारे स्थित है। इनके पिता चंद्रशेखर अय्यर एक स्कूल में पढ़ाते थे। वह भौतिकी और गणित के विद्वान और संगीत प्रेमी थे। चंद्रशेखर वेंकट रामन की माँ पार्वती अम्माल थीं। उनके पिता वहाँ कालेज में अध्यापन का कार्य करते थे और वेतन था मात्र दस रुपया। उनके पिता को पढ़ने का बहुत शौक था। इसलिए उन्होंने अपने घर में ही एक छोटी-सी लाइब्रेरी बना रखा थी। रामन का विज्ञान और अंग्रेज़ी साहित्य की पुस्तकों से परिचय बहुत छोटी उम्र से ही हो गया था। संगीत के प्रति उनका लगाव और प्रेम भी छोटी आयु से आरम्भ हुआ और आगे चलकर उनकी वैज्ञानिक खोजों का विषय बना। वह अपने पिता को घंटों वीणा बजाते हुए देखते रहते थे। जब उनके पिता तिरुचिरापल्ली से विशाखापत्तनम में आकर बस गये तो उनका स्कूल समुद्र के तट पर था। उन्हे अपनी कक्षा की खिड़की से समुद्र की अगाध नीली जलराशि दिखाई देती थी। इस दृश्य ने इस छोटे से लड़के की कल्पना को सम्मोहित कर लिया। बाद में समुद्र का यही नीलापन उनकी वैज्ञानिक खोज का विषय बना।

  • छोटी-सी आयु से ही वह भौतिक विज्ञान की ओर आकर्षित थे।
  • एक बार उन्होंने विशेष उपकरणों के बिना ही एक डायनमों बना डाला।
  • एक बार बीमार होने पर भी वह तब तक नहीं माने थे जब तक कि पिता ने 'लीडन जार' के कार्य का प्रदर्शन करके नहीं दिखाया।
  • रामन अपनी कक्षा के बहुत ही प्रतिभाशाली विद्यार्थी थे।
  • उन्हें समय-समय पर पुरस्कार और छात्रवृत्तियाँ मिलती रहीं।
  • अध्यापक बार-बार उनकी अंग्रेज़ी भाषा की समझ, स्वतंत्रप्रियता और दृढ़ चरित्र की प्रशंसा करते थे।
  • केवल ग्यारह वर्ष की उम्र में वह दसवीं की परीक्षा में प्रथम आये।
  • मद्रास के प्रेसीडेंसी कॉलेज में पहले दिन की कक्षा में यूरोपियन प्राध्यापक ने नन्हें रामन को देखकर कहा कि वह ग़लती से उनकी कक्षा में आ गये हैं।

शिक्षा

रामन संगीत, संस्कृत और विज्ञान के वातावरण में बड़े हुए। वह हर कक्षा में प्रथम आते थे। रामन ने 'प्रेसीडेंसी कॉलेज' में बी. ए. में प्रवेश लिया। 1905 में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने वाले वह अकेले छात्र थे और उन्हें उस वर्ष का 'स्वर्ण पदक' भी प्राप्त हुआ। उन्होंने 'प्रेसीडेंसी कॉलेज' से ही एम. ए. में प्रवेश लिया और मुख्य विषय के रूप में भौतिक शास्त्र को लिया। एम. ए. करते हुए रामन कक्षा में यदा-कदा ही जाते थे। प्रोफ़ेसर आर. एल. जॉन्स जानते थे कि यह लड़का अपनी देखभाल स्वयं कर सकता है। इसलिए वह उसे स्वतंत्रतापूर्वक पढ़ने देते थे। आमतौर पर रामन कॉलेज की प्रयोगशाला में कुछ प्रयोग और खोजें करते रहते। वह प्रोफ़ेसर का 'फ़ेबरी-पिराट इन्टरफ़ेरोमीटर'[1] का इस्तेमाल करके प्रकाश की किरणों को नापने का प्रयास करते।

रामन की मन:स्थिति का अनुमान प्रोफ़ेसर जॉन्स भी नहीं समझ पाते थे कि रामन किस चीज की खोज में हैं और क्या खोज हुई है। उन्होंने रामन को सलाह दी कि अपने परिणामों को शोध पेपर की शक्ल में लिखकर लन्दन से प्रकाशित होने वाली 'फ़िलॉसफ़िकल पत्रिका' को भेज दें। सन 1906 में पत्रिका के नवम्बर अंक में उनका पेपर प्रकाशित हुआ। विज्ञान को दिया रामन का यह पहला योगदान था। उस समय वह केवल 18 वर्ष के थे।

विज्ञान के प्रति प्रेम, कार्य के प्रति उत्साह और नई चीजों को सीखने का उत्साह उनके स्वभाव में था। इनकी प्रतिभा से इनके अध्यापक तक अभिभूत थे। श्री रामन के बड़े भाई 'भारतीय लेखा सेवा' (IAAS) में कार्यरत थे। रामन भी इसी विभाग में काम करना चाहते थे इसलिये वे प्रतियोगी परीक्षा में सम्मिलित हुए। इस परीक्षा से एक दिन पहले एम. ए. का परिणाम घोषित हुआ जिसमें उन्होंने 'मद्रास विश्वविद्यालय' के इतिहास में सर्वाधिक अंक अर्जित किए और IAAS की परीक्षा में भी प्रथम स्थान प्राप्त किया। 6 मई 1907 को कृष्णस्वामी अय्यर की सुपुत्री 'त्रिलोकसुंदरी' से रामन का विवाह हुआ।

शोध कार्य

कुछ दिनों के बाद रामन ने एक और शोध पेपर लिखा और लन्दन में विज्ञान की अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पत्रिका 'नेचर' को भेजा। उस समय तक वैज्ञानिक विषयों पर स्वतंत्रतापूर्वक खोज करने का आत्मविश्वास उनमें विकसित हो चुका था। रामन ने उस समय के एक सम्मानित और प्रसिद्ध वैज्ञानिक लॉर्ड रेले को एक पत्र लिखा। इस पत्र में उन्होंने लॉर्ड रेले से अपनी वैज्ञानिक खोजों के बारे में कुछ सवाल पूछे थे। लॉर्ड रेले ने उन सवालों का उत्तर उन्हें प्रोफ़ेसर सम्बोधित करके दिया। वह यह कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि एक भारतीय किशोर इन सब वैज्ञानिक खोजों का निर्देशन कर रहा है।


"जब नोबेल पुरस्‍कार की घोषणा की गई थी तो मैं ने इसे अपनी व्‍यक्तिगत विजय माना, मेरे लिए और मेरे सहयोगियों के लिए एक उपलब्धि - एक अत्‍यंत असाधारण खोज को मान्‍यता दी गई है, उस लक्ष्‍य तक पहुंचने के लिए जिसके लिए मैंने सात वर्षों से काम किया है। लेकिन जब मैंने देखा कि उस खचाखच हॉल मैंने इर्द-गिर्द पश्चिमी चेहरों का समुद्र देखा और मैं, केवल एक ही भारतीय, अपनी पगड़ी और बन्‍द गले के कोट में था, तो मुझे लगा कि मैं वास्‍तव में अपने लोगों और अपने देश का प्रतिनिधित्‍व कर रहा हूं। जब किंग गुस्‍टाव ने मुझे पुरस्‍कार दिया तो मैंने अपने आपको वास्‍तव में विनम्र महसूस किया, यह भावप्रवण पल था लेकिन मैं अपने ऊपर नियंत्रण रखने में सफल रहा। जब मैं घूम गया और मैंने ऊपर ब्रिटिश यूनियन जैक देखा जिसके नीचे मैं बैठा रहा था और तब मैंने महसूस किया कि मेरे ग़रीब देश, भारत, का अपना ध्वज भी नहीं है।" - सी.वी. रमण |} रामन की प्रतिभा अद्वितीय थी। अध्यापकों ने रामन के पिता को सलाह दी कि वह रामन को उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड भेंज दें। यदि एक ब्रिटिश मेडिकल अफ़सर ने बाधा न डाली होती तो रामन भी अन्य प्रतिभाशाली व्यक्तियों की तरह देश के लिए खो जाते। डॉक्टर का कहना था कि स्वास्थ्य नाज़ुक है और वह इंग्लैंड की सख़्त जलवायु को सहन नहीं कर पायेंगे। रामन के पास अब कोई अन्य रास्ता नहीं था। वह ब्रिटिश सरकार द्वारा आयोजित प्रतियोगी परीक्षा में बैठे। इसमें उत्तीर्ण होने से नौकरी मिलती थी। इसमें पास होने पर वह सरकार के वित्तीय विभाग में अफ़सर नियुक्त हो गये। रामन यह सरकारी नौकरी करने लगे। इसमें उन्हें अच्छा वेतन और रहने को बंगला मिला।

विज्ञान की उन्हें धुन थी। उन्होंने घर में ही एक छोटी-सी प्रयोगशाला बनाई। जो कुछ भी उन्हें दिलचस्प लगता उसके वैज्ञानिक तथ्यों की खोज में वह लग जाते। रामन की खोजों में उनकी युवा पत्नी भी अपना सहयोग देंती और उन्हें दूसरे कामों से दूर रखतीं। वह यह विश्वास करती थीं कि वह रामन की सेवा के लिये ही पैदा हुईं हैं। रामन को महान बनाने में उनकी पत्नी का भी बड़ा हाथ है।

सरकारी नौकरी

रामन कोलकाता में सहायक महालेखापाल के पद पर नियुक्त थे, किंतु रामन का मन बहुत ही अशांत था क्योंकि वह विज्ञान में अनुसंधान कार्य करना चाहते थे। एक दिन दफ़्तर से घर लौटते समय उन्हें 'इण्डियन एसोसिएशन फॉर कल्टिवेशन ऑफ साइंस' का बोर्ड दिखा और अगले ही पल वो परिषद के अंदर जा पहुँचे। उस समय वहाँ परिषद की बैठक चल रही थी। बैठक में सर आशुतोष मुखर्जी जैसे विद्वान उपस्थित थे।

यह परिषद विज्ञान की अग्रगामी संस्था थी। इसके संस्थापक थे डॉक्टर महेन्द्रलाल सरकार। उन्होंने सन 1876 में देश में वैज्ञानिक खोजों के विकास के लिए इसकी स्थापना की थी। कई कारणों से इस इमारत का वास्तविक उपयोग केवल वैज्ञानिकों के मिलने या विज्ञान पर भाषण आदि के लिए होता था। संस्था की प्रयोगशाला और उपकरणों पर पड़े-पड़े धूल जमा हो रही थी। जब रामन ने प्रयोगशाला में प्रयोग करने चाहे तो सारी सामग्री और उपकरण उनके सुपुर्द कर दिये गये। इस तरह परिषद में उनके वैज्ञानिक प्रयोग शुरू हुए और उन्होंने वह खोज की जिससे उन्हें 'नोबेल पुरस्कार' मिला।

रामन शोध संस्थान, बंगलौर
Raman Research Institute, Bangalore

रामन सुबह साढ़े पाँच बजे परिषद की प्रयोगशाला में पहुँच जाते और पौने दस बजे आकर ऑफिस के लिए तैयार हो जाते। ऑफिस के बाद शाम पाँच बजे फिर प्रयोगशाला पहुँच जाते और रात दस बजे तक वहाँ काम करते। यहाँ तक की रविवार को भी सारा दिन वह प्रयोगशाला में अपने प्रयोगों में ही व्यस्त रहते। वर्षों तक उनकी यही दिनचर्या बनी रही।

उस समय रामन का अनुसंधान संगीत-वाद्यों तक ही सीमित था। उनकी खोज का विषय था कि वीणा, वॉयलिन, मृदंग और तबले जैसे वाद्यों में से मधुर स्वर क्यों निकलता है। अपने अनुसंधान में रामन ने परिषद के एक साधारण सदस्य आशुतोष डे की भी सहायता ली। उन्होंने डे को वैज्ञानिक अनुसंधान के तरीकों में इतना पारंगत कर दिया था कि डे अपनी खोजों का परिणाम स्वयं लिखने लगे जो बाद में प्रसिद्ध विज्ञान पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। रामन का उन व्यक्तियों में विश्वास था जो सीखना चाहते थे बजाय उन के जो केवल प्रशिक्षित या शिक्षित थे। वास्तव में जल्दी ही उन्होंने युवा वैज्ञानिकों का एक ऐसा दल तैयार कर लिया जो उनके प्रयोगों में सहायता करता था। वह परिषद के हॉल में विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के लिए भाषण भी देने लगे, जिससे युवा लोगों को विज्ञान में हुए नये विकासों से परिचित करा सकें। वह देश में विज्ञान के प्रवक्ता बन गये।

रामन की विज्ञान में लगन और कार्य को देखकर कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति आशुतोष मुखर्जी जो 'बगाल के बाघ' कहलाते थे, बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने ब्रिटिश सरकार से अनुरोध किया कि रामन को दो वर्षों के लिए उनके काम से छुट्टी दे दी जाए जिससे वह पूरी तन्मयता और ध्यान से अपना वैज्ञानिक कार्य कर सकें। लेकिन सरकार ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। इसी दौरान परिषद में भौतिक शास्त्र में 'तारकनाथ पालित चेयर' की स्थापना हुई। चेयर एक ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक को मिलने वाली थी, मगर मुखर्जी उत्सुक थे कि चेयर रामन को मिले। चेयर के लिए लगाई गई शर्तों में रामन एक शर्त पूरी नहीं करते थे कि उन्होंने विदेश में काम नहीं किया था। मुखर्जी ने रामन को बाहर जाने के लिए कहा मगर उन्होंने साफ इन्कार कर दिया। उन्होंने मुखर्जी से विनती की कि यदि उनकी सेवा की आवश्यकता है तो इस शर्त को हटा दिया जाये। अन्ततः मुखर्जी साहब ने ऐसा ही किया। रामन ने सरकारी नौकरी छोड़ दी और सन 1917 में एसोसिएशन के अंतर्गत भौतिक शास्त्र में पालित चेयर स्वीकार कर ली। इसका परिणाम- धन और शक्ति की कमी, लेकिन रामन विज्ञान के लिए सब कुछ बलिदान करने को तैयार थे।

मुखर्जी साहब ने रामन के बलिदान की प्रशंसा करते हुए कहा,-

"इस उदाहरण से मेरा उत्साह बढ़ता है और आशा दृढ़ होती है कि 'ज्ञान के मन्दिर' जिसे बनाने की हमारी अभिलाषा है, में सत्य की खोज करने वालों की कमी नहीं होगी।" इसके पश्चात रामन अपना पूरा समय विज्ञान को देने लगे।

कुछ दिनों के पश्चात रामन का तबादला बर्मा के रंगून शहर में हो गया। रंगून में श्री रामन मन नहीं लगता था क्योंकि ‌वहां प्रयोग और अनुसंधान करने की सुविधा नहीं थी। इसी समय रामन के पिता की मृत्यु हो गई। रामन छह महीनों की छुट्टी लेकर मद्रास आ गए। छुट्टियाँ पूरी हुईं तो रामन का तबादला नागपुर हो गया।

कोलकाता के लिए स्थानांतरण

सन 1911 ई. में श्री रामन को 'एकाउंटेंट जरनल' के पद पर नियुक्त करके पुनः कलकत्ता भेज दिया गया। इससे रामन बड़े प्रसन्न थे क्योंकि उन्हें परिषद की प्रयोगशाला में पुनः अनुसंधान करने का अवसर मिल गया था। अगले सात वर्षों तक रामन इस प्रयोगशाला मे शोधकार्य करते रहे। सर तारक नाथ पालित, डॉ. रासबिहारी घोष और सर आशुतोष मुखर्जी के प्रयत्नों से कोलकाता में एक साइंस कॉलेज खोला गया। रामन की विज्ञान के प्रति समर्पण की भावना इस बात से लगता है कि उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी छोड़कर कम वेतन वाले प्राध्यापक पद पर आना पसंद किया। सन 1917 में रामन कलकत्ता विश्वविद्यालय में भौतिक विज्ञान के प्राध्यापक नियुक्त हुए। भारतीय संस्कृति से रामन का हमेशा ही लगाव रहा। उन्होंने अपनी भारतीय पहचान को हमेशा बनाए रखा। वे देश में वैज्ञानिक दृष्टि और चिंतन के विकास के प्रति समर्पित थे।

विश्वविद्यालयों का सम्मेलन

सन 1917 में लंदन में ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल के विश्वविद्यालयों का सम्मेलन था। रामन ने उस सम्मेलन में कलकत्ता विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व किया। यह रामन की पहली विदेश यात्रा थी।

विदेश में श्री रामन

वेंकटरामन ब्रिटेन के प्रतिष्ठित कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी की 'एम॰ आर॰ सी॰ लेबोरेट्रीज़ ऑफ़ म्यलूकुलर बायोलोजी' के स्ट्रकचरल स्टडीज़ विभाग के प्रमुख वैज्ञानिक थे। सन 1921 में ऑक्सफोर्ड, इंग्लैंड में हो रही यूनिवर्सटीज कांग्रेस के लिए रामन को निमन्त्रण मिला। उनके जीवन में इससे एक नया मोड़ आया। सामान्यतः समुद्री यात्रा उकता देने वाली होती है क्योंकि नीचे समुद्र और ऊपर आकाश के सिवाय कुछ दिखाई नहीं देता है। लेकिन रामन के लिए आकाश और सागर वैज्ञानिक दिलचस्पी की चीजें थीं। भूमध्य सागर के नीलेपन ने रामन को बहुत आकर्षित किया। वह सोचने लगे कि सागर और आकाश का रंग ऐसा नीला क्यों है। नीलेपन का क्या कारण है।

रामन जानते थे लार्ड रेले ने आकाश के नीलेपन का कारण हवा में पाये जाने वाले नाइट्रोजन और ऑक्सीजन के अणुओं द्वारा सूर्य के प्रकाश की किरणों का छितराना माना है। लार्ड रेले ने यह कहा था कि सागर का नीलापन मात्र आकाश का प्रतिबिम्ब है। लेकिन भूमध्य सागर के नीलेपन को देखकर उन्हें लार्ड रेले के स्पष्टीकरण से संतोष नहीं हुआ। जहाज के डेक पर खड़े-खड़े ही उन्होंने इस नीलेपन के कारण की खोज का निश्चय किया। वह लपक कर नीचे गये और एक उपकरण लेकर डेक पर आये, जिससे वह यह परीक्षण कर सकें कि समुद्र का नीलापन प्रतिबिम्ब प्रकाश है या कुछ और। उन्होंने पाया कि समुद्र का नीलापन उसके भीतर से ही था। प्रसन्न होकर उन्होंने इस विषय पर कलकत्ते की प्रयोगशाला में खोज करने का निश्चय किया।

जब भी रामन कोई प्राकृतिक घटना देखते तो वह सदा सवाल करते—ऐसा क्यों है। यही एक सच्चा वैज्ञानिक होने की विशेषता और प्रमाण है। लन्दन में स्थान और चीजों को देखते हुए रामन ने विस्परिंग गैलरी में छोटे-छोटे प्रयोग किये।

रामन डाक टिकट
Raman Stamp

कलकत्ता लौटने पर उन्होंने समुद्री पानी के अणुओं द्वारा प्रकाश छितराने के कारण का और फिर तरह-तरह के लेंस, द्रव और गैसों का अध्ययन किया। प्रयोगों के दौरान उन्हें पता चला कि समुद्र के नीलेपन का कारण सूर्य की रोशनी पड़ने पर समुद्री पानी के अणुओं द्वारा नीले प्रकाश का छितराना है। सूर्य के प्रकाश के बाकी रंग मिल जाते हैं।

इस खोज के कारण सारे विश्व में उनकी प्रशंसा हुई। उन्होंने वैज्ञानिकों का एक दल तैयार किया, जो ऐसी चीजों का अध्ययन करता था। 'ऑप्टिकस' नाम के विज्ञान के क्षेत्र में अपने योगदान के लिये सन 1924 में रामन को लन्दन की 'रॉयल सोसाइटी' का सदस्य बना लिया गया। यह किसी भी वैज्ञानिक के लिये बहुत सम्मान की बात थी। रामन के सम्मान में दिये गये भोज में आशुतोष मुखर्जी ने उनसे पूछा,-

अब आगे क्या?
तुरन्त उत्तर आया- अब नोबेल पुरस्कार।

उस भोज में उपस्थित लोगों को उस समय यह शेखचिल्ली की शेख़ी ही लगी होगी क्योंकि उस समय ब्रिटिश शासित भारत में विज्ञान आरम्भिक अवस्था में ही था। उस समय कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि विज्ञान में एक भारतीय इतनी जल्दी नोबेल पुरस्कार जीतेगा। लेकिन रामन ने यह बात पूरी गम्भीरता से कही थी। महत्वाकांक्षा, साहस और परिश्रम उनका आदर्श थे। वह नोबेल पुरस्कार जीतने के महत्वाकांक्षी थे और इसलिये अपने शोध में तन-मन-धन लगाने को तैयार थे। दुर्भाग्य से रामन के नोबेल पुरस्कार जीतने से पहले ही मुखर्जी साहब चल बसे थे।

एक बार जब रामन अपने छात्रों के साथ द्रव के अणुओं द्वारा प्रकाश को छितराने का अध्ययन कर रहे थे कि उन्हें 'रामन इफेक्ट' का संकेत मिला। सूर्य के प्रकाश की एक किरण को एक छोटे से छेद से निकाला गया और फिर बेन्जीन जैसे द्रव में से गुज़रने दिया गया। दूसरे छोर से डायरेक्ट विज़न स्पेक्ट्रोस्कोप द्वारा छितरे प्रकाश—स्पेक्ट्रम को देखा गया। सूर्य का प्रकाश एक छोटे से छेद में से आ रहा था जो छितरी हुई किरण रेखा या रेखाओं की तरह दिखाई दे रहा था। इन रेखाओं के अतिरिक्त रामन और उनके छात्रों ने स्पेक्ट्रम में कुछ असाधारण रेखाएँ भी देखीं। उनका विचार था कि ये रेखाएँ द्रव की अशुद्धता के कारण थीं। इसलिए उन्होंने द्रव को शुद्ध किया और फिर से देखा, मगर रेखाएँ फिर भी बनी रहीं। उन्होंने यह प्रयोग अन्य द्रवों के साथ भी किया तो भी रेखाएँ दिखाई देती रहीं।

इन रेखाओं का अन्वेषण कुछ वर्षों तक चलता रहा, इससे कुछ विशेष परिणाम नहीं निकला। रामन सोचते रहे कि ये रेखाएँ क्या हैं। एक बार उन्होंने सोचा कि इन रेखाओं का कारण प्रकाश की कणीय प्रकृति है। ये आधुनिक भौतिकी के आरम्भिक दिन थे। तब यह एक नया सिद्धांत था कि प्रकाश एक लहर की तरह भी और कण की तरह भी व्यवहार करता है।

रामन प्रभाव

भौतिकी का नोबेल पुरस्कार सन 1927 में, अमेरिका में, शिकागो विश्वविद्यालय के ए. एच. कॉम्पटन को 'कॉम्पटन इफेक्ट' की खोज के लिये मिला। कॉम्पटन इफेक्ट में जब एक्स-रे को किसी सामग्री से गुज़ारा गया तो एक्स-रे में कुछ विशेष रेखाएँ देखी गईं। (प्रकाश की तरह की एक इलेक्ट्रोमेगनेटिक रेडियेशन की किस्म)। कॉम्पटन इफेक्ट एक्स-रे कणीय प्रकृति के कारण उत्पन्न होता है। रामन को लगा कि उनके प्रयोग में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है।

प्रकाश की किरण कणों (फोटोन्स) की धारा की तरह व्यवहार कर रही थीं। फोटोन्स रसायन द्रव के अणुऔं पर वैसे ही आघात करते थे जैसे एक क्रिकेट का बॉल फुटबॉल पर करता है। क्रिकेट का बॉल फुटबॉल से टकराता तो तेज़ी से है लेकिन वह फुटबॉल को थोड़ा-सा ही हिला पाता है। उसके विपरीत क्रिकेट का बॉल स्वयं दूसरी ओर कम शक्ति से उछल जाता है और अपनी कुछ उर्जा फुटबाल के पास छोड़ जाता है। कुछ असाधारण रेखाएँ देती हैं क्योंकि फोटोन्स इसी तरह कुछ अपनी उर्जा छोड़ देते हैं और छितरे प्रकाश के स्पेक्ट्रम में कई बिन्दुओं पर दिखाई देते हैं। अन्य फोटोन्स अपने रास्ते से हट जाते हैं—न उर्जा लेते हैं और न ही छोड़ते हैं और इसलिए स्पेक्ट्रम में अपनी सामान्य स्थिति में दिखाई देते हैं।

फोटोन्स में उर्जा की कुछ कमी और इसके परिणाम स्वरूप स्पेक्ट्रम में कुछ असाधारण रेखाएँ होना 'रामन इफेक्ट' कहलाता है। फोटोन्स द्वारा खोई उर्जा की मात्रा उस द्रव रसायन के द्रव के अणु के बारे में सूचना देती है जो उन्हें छितराते हैं। भिन्न-भिन्न प्रकार के अणु फोटोन्स के साथ मिलकर विविध प्रकार की पारस्परिक क्रिया करते हैं और उर्जा की मात्रा में भी अलग-अलग कमी होती है। जैसे यदि क्रिकेट बॉल, गोल्फ बॉल या फुटबॉल के साथ टकराये। असाधारण रामन रेखाओं के फोटोन्स में उर्जा की कमी को माप कर द्रव, ठोस और गैस की आंतरिक अणु रचना का पता लगाया जाता है। इस प्रकार पदार्थ की आंतरिक संरचना का पता लगाने के लिए रामन इफेक्ट एक लाभदायक उपकरण प्रमाणित हो सकता है। रामन और उनके छात्रों ने इसी के द्वारा कई किस्म के ऑप्टिकल ग्लास, भिन्न-भिन्न पदार्थों के क्रिस्टल, मोती, रत्न, हीरे और क्वार्टज, द्रव यौगिक जैसे बैन्जीन, टोलीन, पेनटेन और कम्प्रेस्ड गैसों का जैसे कार्बन डायाक्साइड, और नाइट्रस ऑक्साइड इत्यादि में अणु व्यवस्था का पता लगाया।

रामन अपनी खोज की घोषणा करने से पहले बिल्कुल निश्चित होना चाहते थे। इन असाधारण रेखाओं को अधिक स्पष्ट तौर से देखने के लिए उन्होंने सूर्य के प्रकाश के स्थान पर मरकरी वेपर लैम्प का इस्तेमाल किया। वास्तव में इस तरह रेखाएँ अधिक स्पष्ट दिखाई देने लगीं। अब वह अपनी नई खोज के प्रति पूर्णरूप से निश्चिंत थे। यह घटना 28 फरवरी सन 1928 में घटी। अगले ही दिन वैज्ञानिक रामन ने इसकी घोषणा विदेशी प्रेस में कर दी। प्रतिष्ठित पत्रिका 'नेचर' ने उसे प्रकाशित किया। रामन ने 16 मार्च को अपनी खोज 'नई रेडियेशन' के ऊपर बंगलौर में स्थित साउथ इंडियन साइन्स एसोसिएशन में भाषण दिया। इफेक्ट की प्रथम पुष्टि जॉन हॉपकिन्स यूनिवर्सटी, अमेरिका के आर. डब्लयू. वुड ने की। अब विश्व की सभी प्रयोगशालाओं में 'रामन इफेक्ट' पर अन्वेषण होने लगा। यह उभरती आधुनिक भौतिकी के लिये अतिरिक्त सहायता थी।

विदेश यात्रा के समय उनके जीवन में एक महत्वपूर्ण घटना घटित हुई। सरल शब्दों में पानी के जहाज से उन्होंने भू-मध्य सागर के गहरे नीले पानी को देखा। इस नीले पानी को देखकर श्री रामन के मन में विचार आया कि यह नीला रंग पानी का है या नीले आकाश का सिर्फ परावर्तन। बाद में रामन ने इस घटना को अपनी खोज द्वारा समझाया कि यह नीला रंग न पानी का है न ही आकाश का। यह नीला रंग तो पानी तथा हवा के कणों द्वारा प्रकाश के प्रकीर्णन से उत्पन्न होता है क्योंकि प्रकीर्णन की घटना में सूर्य के प्रकाश के सभी अवयवी रंग अवशोषित कर ऊर्जा में परिवर्तित हो जाते हैं, परंतु नीले प्रकाश को वापस परावर्तित कर दिया जाता है। सात साल की कड़ी मेहनत के बाद रामन ने इस रहस्य के कारणों को खोजा था। उनकी यह खोज 'रामन प्रभाव' के नाम से प्रसिद्ध है।

राष्ट्रीय विज्ञान दिवस

'रामन प्रभाव' की खोज 28 फरवरी 1928 को हुई थी। इस महान खोज की याद में 28 फरवरी का दिन हम 'राष्ट्रीय विज्ञान दिवस' के रूप में मनाते हैं। भारत में 28 फरवरी का दिन 'राष्ट्रीय विज्ञान दिवस' के रूप में मनाया जाता है। इस दिन वैज्ञानिक लोग भाषणों द्वारा विज्ञान और तकनीकी की उन्नति और विकास एवं उसकी उपलब्धियों के बारे में सामान्य लोगों व बच्चों को बताते हैं। इन्हीं विषयों पर फिल्में और टी. वी. फीचर दिखाये जाते हैं। इस समय विज्ञान एवं तकनीकी पर प्रदर्शनियाँ लगती हैं और समारोह होते हैं जिनमें विज्ञान और तकनीकी में योगदान के लिये इनाम और एवार्ड दिये जाते हैं। सन 1928 में इसी दिन देश में सस्ते उपकरणों का प्रयोग करके विज्ञान की एक मुख्य खोज की गई थी। तब पूरे विश्व को पता चला था कि ब्रिटिश द्वारा शासित और पिछड़ा हुआ भारत भी आधुनिक विज्ञान के क्षेत्र में अपना मौलिक योगदान दे सकता है। यह खोज केवल भारत के वैज्ञानिक इतिहास में ही नहीं बल्कि विज्ञान की प्रगति के लिए भी एक मील का पत्थर प्रमाणित हुई। इसी खोज के लिए इसके खोजकर्ता को 'नोबल पुरस्कार' मिला।

राष्ट्रीय विज्ञान दिवस उस महान घटना की याद दिलाता है। सब भारतीयों को इस पर गर्व है। वे इसे स्नेह और प्रशंसा की दृष्टि से देखते हैं। इस महत्वपूर्ण खोज को आज 'रामन इफेक्ट' के नाम से जाना जाता है। इसके खोजकर्ता श्री सी.वी.रामन थे। उन्होंने यह खोज कलकत्ता की 'इंडियन एसोसिएशन फॉर दी कल्टीवेशन ऑफ साइन्स' की प्रयोगशाला में की। इन्हीं के कारण पूरे विश्व में भारत का विज्ञान के क्षेत्र में नाम हुआ। खोज के 60 वर्ष के पश्चात 'रामन इफेक्ट' संसार की आधुनिक प्रयोगशालाओं में ठोस, द्रव और गैसों के अध्ययन के लिए एक परिष्कृत उपकरण की तरह उपयोग किया जा रहा है।

नोबेल पुरस्कार

रामन इफेक्ट की लोकप्रियता और उपयोगिता का अनुमान इसी से लगा सकते हैं कि खोज के दस वर्ष के भीतर ही सारे विश्व में इस पर क़रीब 2,000 शोध पेपर प्रकाशित हुए। इसका अधिक उपयोग ठोस, द्रव और गैसों की आंतरिक अणु संरचना का पता लगाने में हुआ। इस समय रामन केवल 42 वर्ष के थे और उन्हें ढ़ेरों सम्मान मिल चुके थे।

रामन को यह पूरा विश्वास था कि उन्हें अपनी खोज के लिए 'नोबेल पुरस्कार' मिलेगा। इसलिए पुरस्कारों की घोषणा से छः महीने पहले ही उन्होंने स्टॉकहोम के लिए टिकट का आरक्षण करवा लिया था। नोबेल पुरस्कार जीतने वालों की घोषणा दिसम्बर सन 1930 में हुई।

रामन पहले एशियाई और अश्वेत थे जिन्होंने विज्ञान में नोबेल पुरस्कार जीता था। यह प्रत्येक भारतीय के लिए गर्व की बात थी। इससे यह स्पष्ट हो गया कि विज्ञान के क्षेत्र में भारतीय किसी यूरोपियन से कम नहीं हैं। यह वह समय था जब यूरोपियन विज्ञान पर अपना एकाधिकार समझते थे। इससे पहले सन 1913 में रवीन्द्रनाथ टैगोर साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार पा चुके थे।

नोबेल पुरस्कार के पश्चात रामन को विश्व के अन्य भागों से कई प्रतिष्ठित सम्मान प्राप्त हुए। देश में विज्ञान को इससे बहुत ही प्रोत्साहन मिला। यह उपलब्धि वास्तव में एक ऐतिहासिक घटना थी। इससे भारत के स्वतंत्रता पूर्व के दिनों में कई युवक-युवतियों को विज्ञान का विषय लेने की प्रेरणा मिली।

इस महान खोज 'रामन प्रभाव' के लिये 1930 में श्री रामन को 'भौतिकी का नोबेल पुरस्कार' प्रदान किया गया और रामन भौतिक विज्ञान में नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले एशिया के पहले व्यक्ति बने। रामन की खोज की वजह से पदार्थों में अणुओं और परमाणुओं की आंतरिक संरचना का अध्ययन सहज हो गया। पुरस्कार की घोषणा के बाद वेंकटरामन ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि-

"मीडिया का ज़्यादा ध्यान वैज्ञानिकों के काम पर तब जाता है जब उन्हें पश्चिम में बड़े सम्मान या पुरस्कार मिलने लगते हैं। ये तरीक़ा ग़लत है, बल्कि होना ये चाहिए कि हम अपने यहां काम कर रहे वैज्ञानिकों, उनके काम को जानें और उसके बारे में लोगों को बताएं। उन्होंने कहा कि भारत में कई वैज्ञानिक अच्छे काम कर रहे हैं, मीडिया को चाहिए कि उनसे मिले और उनके काम को सराहे, साथ ही लोगों तक भी पहुंचाए।"

"जब नोबेल पुरस्‍कार की घोषणा की गई थी तो मैं ने इसे अपनी व्‍यक्तिगत विजय माना, मेरे लिए और मेरे सहयोगियों के लिए एक उपलब्धि - एक अत्‍यंत असाधरण खोज को मान्‍यता दी गई है, उस लक्ष्‍य तक पहुंचने के लिए जिसके लिए मैंने सात वर्षों से काम किया है। लेकिन जब मैंने देखा कि उस खचाखच हॉल मैंने इर्द-गिर्द पश्चिमी चेहरों का समुद्र देखा और मैं, केवल एक ही भारतीय, अपनी पगड़ी और बन्‍द गले के कोट में था, तो मुझे लगा कि मैं वास्‍तव में अपने लोगों और अपने देश का प्रतिनिधित्‍व कर रहा हूं। जब किंग गुस्‍टाव ने मुझे पुरस्‍कार दिया तो मैंने अपने आपको वास्‍तव में विनम्र महसूस किया, यह भावप्रवण पल था लेकिन मैं अपने ऊपर नियंत्रण रखने में सफल रहा। जब मैं घूम गया और मैंने ऊपर ब्रिटिश यूनियन जैक देखा जिसके नीचे मैं बैठा रहा था और तब मैंने महसूस किया कि मेरे ग़रीब देश, भारत, का अपना ध्वज भी नहीं है।" - सी.वी. रमण

सरल स्वभाव के रामन

श्री वेंकटरामन के विषय में ख़ास बात है कि वे बहुत ही साधारण और सरल तरीक़े से रहते थे। वह प्रकृति प्रेमी भी थे। वे अक्सर अपने घर से ऑफिस साइकिल से आया जाया करते थे। वे दोस्तों के बीच 'वैंकी' नाम से प्रसिद्ध थे। उनके माता-पिता दोनों वैज्ञानिक रहे हैं। एक साक्षात्कार में वेंकटरामन के पिता श्री 'सी॰ वी॰ रामकृष्णन' ने बताया कि 'नोबेल पुरस्कार समिति' के सचिव ने लंदन में जब वेंकटरामन को फ़ोन कर नोबेल पुरस्कार देने की बात कही तो पहले तो उन्हें यकीन ही नहीं हुआ। वेंकट ने उनसे कहा कि 'क्या आप मुझे मूर्ख बना रहे हैं?' क्योंकि नोबेल पुरस्कार मिलने से पहले अक्सर वेंकटरामन के मित्र फ़ोन कर उन्हें नोबेल मिलने की झूठी ख़बर देकर चिढ़ाया करते थे।'

स्वतंत्र संस्थान की स्थापना

सन 1933 में डॉ. रामन को बंगलुरु में स्थापित 'इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेज़' के संचालन का भार सौंपा गया। वहाँ उन्होंने 1948 तक कार्य किया। बाद में डॉ.रामन ने बेंगलूर में अपने लिए एक स्वतंत्र संस्थान की स्थापना की। इसके लिए उन्होंने कोई भी सरकारी सहायता नहीं ली। उन्होंने बैंगलोर में एक अत्यंत उन्नत प्रयोगशाला और शोध-संस्थान ‘रामन रिसर्च इंस्टीट्यूट’ की स्थापना की। रामन वैज्ञानिक चेतना और दृष्टि की साक्षात प्रतिमूर्त्ति थे। उन्होंने हमेशा प्राकृतिक घटनाओं की छानबीन वैज्ञानिक दृष्टि से करने का संदेश दिया। डॉ.रामन अपने संस्थान में जीवन के अंतिम दिनों तक शोधकार्य करते रहे।

रिसर्च इंस्टीट्यूट

सन 1948 में रामन का बंगलौर में अपना इंस्टीट्यूट बनाने का सपना साकार हो गया। इसे रामन रिसर्च इंस्टीट्यूट कहते हैं। उन्होंने अपनी बचत का धन इकट्ठा किया, दान माँगा, कुछ उद्योग आरम्भ किए जिससे इंस्टीट्यूट को चलाने के लिए नियमित रूप से धन मिलता रहे।

इंस्टीट्यूट की रचना में रामन की सुरुचि झलकती है। संस्था के चारों ओर बुगनबिला, जाकरन्दाज और गुलाब के फूलों के अतिरिक्त यूक्लिपटस से लेकर महोगनी के पेड़ों की भरमार है। वातावरण एक उद्यान जैसा है।

यहाँ पर रामन अपनी पसन्द के विषयों पर शोध और खोजबीन करते थे। कुछ भी जो चमकता है उनके अनुसंधान का विषय बन जाता था। उन्होंने 300 हीरे ख़रीदे। हीरे को ठोस का राजा कहते हैं। उन्होंने उनकी आंतरिक संरचना और भौतिक गुणों का अध्ययन किया। पक्षी के पंख, तितलियाँ, बीटल और फूलों की पत्तियों तक ने उन्हें आकर्षित किया। उन्होंने यह अन्वेषण किया कि ये सब इतने रंग-बिरंगे क्यों हैं। इस अध्ययन के परिणामों से उन्होंने विज़न और कलर का सिद्धांत प्रतिपादन किया जो उन्होंने अपनी पुस्तक 'द फिज़ियोलॉजी आफ विज़न' में लिखा है। इस विषय ने अभी-अभी वैज्ञानिकों का ध्यान फिर अपनी ओर आकर्षित किया। रामन ये जानते थे कि पश्चिमी देशों में हो रहे अध्ययन से भिन्न विषय, अध्ययन और शोध के लिये कैसे खोजें जायें।

सन 1947 में भारत के स्वतंत्र होने के पश्चात रामन को बड़ी निराशा हुई क्योंकि उन्हें लगा कि देश में विज्ञान को विकसित करने के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं किया जा रहा, जिसके लिए वे इतना प्रयत्न कर रहे थे। इसके विपरीत वैज्ञानिकों को बड़ी संख्या में उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजा जाने लगा। यद्यपि वैज्ञानिक अध्ययन के लिए अपने देश में काफ़ी अवसर और बहुत ही विस्तृत क्षेत्र था। यह हमारा कर्तव्य था कि हम विज्ञान का मूल आधार तैयार करें। इसके लिए हमें भीतर देखने की ही जरूरत थी।

अपने युवा वैज्ञानिकों के सामने यह आदर्श रखने के लिए कि विदेशी डिग्रियों और सम्मानों के पीछे नहीं भागना चाहिए, रामन ने स्वयं लन्दन की 'रॉयल सोसाइटी' की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। उन्हें इस बात से बहुत घृणा थी कि लोग राजनीति के द्वारा विज्ञान का शोषण करें। उन्होंने महसूस किया कि विज्ञान और राजनीति का कोई मेल नहीं है। विज्ञान सदा राजनीति से मात खा जायेगा। जब उनके सामने 'भारत के उपराष्ट्रपति' के पद का प्रस्ताव रखा गया तो उन्होंने बिना एक क्षण भी गंवाये उसे अस्वीकार कर दिया। सन 1954 में उन्हें 'भारत रत्न' की उपाधि से सम्मानित किया गया। अब तक वह पहले और आख़िरी वैज्ञानिक हैं जिन्हें यह उपाधि मिली है।

स्वप्नद्रष्टा रामन

रामन ने कई वर्षों तक एकान्तवास किया। लेकिन वह सदा सक्रिय रहे। उन्हें बच्चों का साथ बहुत भाता था। वह अक्सर अपने इंस्टीट्यूट में स्कूल के बच्चों का आमंत्रित करते और घंटों उन्हें इंस्टीट्यूट और वहाँ की चीजें दिखाते रहते। वह बड़ी दिलचस्पी से उन्हें अपने प्रयोग और उपकरणों के बारे में समझाते। वह स्वयं स्कूलों में जाकर विज्ञान पर भाषण देते। वह बच्चों को बताते कि विज्ञान हमारे चारों ओर है और हमें उसका पता लगाना है। विज्ञान केवल प्रयोगशाला तक सीमित नहीं है। वह बच्चों को कहते थे कि तारों, फूलों और आसपास घटती घटनाओं को देखों और उनके बारे में सवाल पूछो। अपनी बुद्धि और विज्ञान की सहायता से उत्तरों की खोज करो।

आज के कई ख्याति प्राप्त वैज्ञानिकों ने रामन की बातें और भाषण सुनकर ही विज्ञान को अपना विषय चुना था। वह आनेवाली नई सुबह के अग्रदूत थे। चंद्रशेखर वेंकट रामन ने अपने जीवन काल में ही रामन इफेक्ट के लिए फिर से आधुनिक प्रयोगशालाओं में रुचि उत्पन्न होती देखी। इसका श्रेय सन् 1960 में लेजर की खोज को जाता है—एक संसक्त और शक्तिशाली प्रकाश। पहले रामन इफेक्ट की स्पष्ट तसवीर के लिए कई दिन लग जाते थे। लेजर से वही परिणाम कुछ ही देर में मिल जाता है। अब ज्यादा से ज्यादा क्षेत्रों में जैसे रसायन उद्योग, प्रदूषण की समस्या, दवाई उद्योग, प्राणी शास्त्र के अध्ययन में छोटी मात्रा में पाये जाने वाले रसायनों का पता लगाने के लिए रामन इफेक्ट इस्तेमाल हो रहा है। रामन इफेक्ट आज उन चीजों के बारे में सूचना दे रहा है जिसके बारे में रामन ने इसकी खोज के समय कभी सोचा भी नहीं था।

संगीत वाद्य यंत्र और अनुसंधान

डॉ.रामन की संगीत में भी गहरी रूचि थी। उन्होंने संगीत का भी गहरा अध्ययन किया था। संगीत वाद्य यंत्रों की ध्वनियों के बारे में डॉ. रामन ने अनुसंधान किया, जिसका एक लेख जर्मनी के एक 'विश्वकोश' में भी प्रकाशित हुआ था। वे बहू बाज़ार स्थित प्रयोगशाला में कामचलाऊ उपकरणों का इस्तेमाल करके शोध कार्य करते थे। फिर उन्होंने अनेक वाद्य यंत्रों का अध्ययन किया और वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर पश्चिम देशों की इस भ्रांति को तोड़ने का प्रयास किया कि भारतीय वाद्य यंत्र विदेशी वाद्यों की तुलना में घटिया हैं।

भारत रत्न की उपाधि

डॉ.रामन का देश-विदेश की प्रख्यात वैज्ञानिक संस्थाओं ने सम्मान किया। भारत सरकार ने 'भारत रत्न' की सर्वोच्च उपाधि देकर सम्मानित किया।

लेनिन पुरस्कार

सोवियत रूस ने उन्हें 1958 में 'लेनिन पुरस्कार' प्रदान किया।

निधन

21 नवम्बर सन् 1970 में एक छोटी-सी बीमारी के बाद रामन का 82 वर्ष की आयु में स्वर्गवास हो गया।

लेख, पुस्तक और शोध प्रकाशन

क्रम वर्ष प्रकाशन क्रम
1 1913
  • Some Acoustical Observations, Bull. Indian Assoc. Cultiv. Sci., 1913
2 1914
  • The Dynamical Theory of the Motion of Bowed Strings, Bull. Indian Assoc. Cultiv. Sci., 1914
  • The Maintenance of Vibrations, Phys. Rev. 1914
  • Dynamical Theory of the Motion of Bowed Strings, Bulletin, Indian Association for the Cultivation of Science, 1914
  • On Motion in a Periodic Field of Force, Bull. Indian Assoc. Cultiv. Sci , 1914
3 1915
  • On the Maintenance of Combinational Vibrations by Two Simple Harmonic forces, Phys. Rev., 1915
  • On Motion in a Periodic Field of Force, Philos. Mag, 1915
4 1916
  • On Discontinuous Wave-Motion - Part 1, Philos. Mag, 1916 (with S Appaswamair)
  • On the 'Wolf-Note' of the Violin and Cello, Nature (London). 1916
  • On the 'Wolf-Note' in the Bowed Stringed Instruments, Philos. Mag., 1916
5 1917
  • The Maintenance of Vibrations in a Periodic Field of Force, Philos. Mag, 1917 (with A. Dey)
  • On Discontinuous Wave-Motion - Part 2, Philos. Mag, 1917 (with A Dey)
  • On Discontinuous Wave-Motion - Part 3, Philos. Mag, 1917 (with A Dey)
  • On the Alterations of Tone Produced by a Violin 'Mute, Nature (London) 1917
6 1918
  • On the 'Wolf-Note' in the Bowed Stringed Instruments, Philos. Mag., 1918
  • On the Wolf-Note in Pizzicato Playing, Nature (London), 1918
  • On the Mechanical Theory of the Vibrations of Bowed Strings and of Musical Instruments of the Violin Family, with Experimental Verification of Results - Part 1, Bulletin, Indian Association for the Cultivation of Science, 1918
  • The Theory of the Cyclical Vibrations of a Bowed String, Bulletin, Indian Association for the Cultivation of Science, 1918
7 1919
  • An Experimental Method for the Production of Vibrations, Phys. Rev., 1919
  • A New Method for the Absolute Determination of Frequency, Proc. R. Soc. London, 1919
  • On the Partial Tones of Bowed Stringed Instruments, Philos. Mag, 1919
  • The Kinematics of Bowed String, J. Dept of Sci., Univ. Calcutta, 1919
8 1920
  • On the Sound of Splashes, Philos. Mag, 1920
  • On a Mechanical Violin-Player for Acoustical Experiments, Philos. Mag., 1920
  • Experiments with Mechanically-Played Violins, Proc. Indian Association for the Cultivation of Science, 1920
  • On Kaufmann's Theory of the Impact of the Pianoforte Hammer, proc. S. Soc. London, 1920 (with B Banerji)
  • Musical Drums with Harmonic Overtones, Nature (London), 1920 (with S. Kumar)
9 1921
  • Whispering Gallery Phenomena at St. Paul's Cathedral, Nature (London) 1921 (with G.A. Sutherland)
  • The Nature of Vowel Sounds, Nature (London) 1921
  • On the Whispering Gallery Phenomenon, Proc. R. Soc. London, 1922 (with G.A. Sutherland)
  • On Some Indian Stringed Instruments, Proc. Indian Association for the Cultivation of Science, 1921
10 1922
  • On Whispering Galleries, Indian Assoc. Cultiv. Sci., 1922
  • On the Molecular Scattering of Light in Water and the Colour of the Sea, Proceedings of the Royal Society, 1922
  • The Acoustical Knowledge of the Ancient Hindus, Asutosh Mookerjee Silver Jubilee - Vol 2
11 1926
  • The Subjective Analysis of Musical Tones, Nature (London), 1926
12 1927
  • Musical Instruments and Their Tones
13 1928
  • A new type of Secondary Radiation, Nature, 1928
  • A new radiation, Indian Journal of Physics, 1928
14 1935
  • The Indian Musical Drums, Proc. Indian Acad. Sci., 1935
  • The Diffraction of Light by High Frequency Sound Waves: Part I, Proc. Indian Acad. Sci., 1935 (with N. S. Nagendra Nath)
  • The Diffraction of Light by High Frequency Sound Waves: Part II, Proc. Indian Acad. Sci., 1935 (with N. S. Nagendra Nath)
  • Nature of Thermal Agitation in Liquids, Nature (London), 1935 (with B.V. Raghavendra Rao)
15 1936
  • The Diffraction of Light by High Frequency Sound Waves: Part III: Doppler Effect and Coherence Phenomena, Proc. Indian Acad. Sci., 1936 (with N. S. Nagendra Nath)
  • The Diffraction of Light by High Frequency Sound Waves: Part IV: Generalised Theory, Proc. Indian Acad. Sci., 1936 (with N. S. Nagendra Nath)
  • The Diffraction of Light by High Frequency Sound Waves: Part V: General Considerations - Oblique Incidence and Amplitude Changes, Proc. Indian Acad. Sci., 1936 (with N. S. Nagendra Nath)
  • Diffraction of Light by Ultrasonic Waves, Nature (London), 1936 (with N. S. Nagendra Nath)
16 1937
  • Acoustic Spectrum of Liquids, Nature (London), 1937 (with B.V. Raghavendra Rao)
17 1938
  • Light Scattering and Fluid Viscosity, Nature (London), 1938 (with B.V. Raghavendra Rao)
18 1948
  • Aspects of Science, 1948
19 1951
  • The New Physics: Talks on Aspects of Science, 1951
20 1953
  • The structure and optical behaviour of iridescent opal, Proc. Indian. Acad. Sci. A38 1953 (with A. Jayaraman)
21 1959
  • Lectures on Physical Optics, 1959
  1. Fabry–Pérot interferometer

बाहरी कड़ियाँ

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