न्यायसूत्र
न्यायसूत्र में दो तरह से न्याय पद की व्युत्पत्ति की गयी है-
- ‘प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्याय:’ तथा
- ‘नीयते प्राप्यते विवक्षितार्थसिद्धिरनेनेति न्याय:’ तथापि प्रमाणों के द्वारा पदार्थों के परीक्षण में ही दोनों व्युत्पित्तियों का तात्पर्य है। अत: यहाँ अधिक विचार की अपेक्षा नहीं है। न्यायभाष्यकार ने कहा है कि न्यायविद्या की प्रवृत्ति तीन प्रकार की देखी जाती है-
- उद्देश्य - पदार्थों के नाम का निर्देश करना ‘उद्देश्य’ है।
- लक्षण - उसके परिचयार्थ उसके स्वरूप का निरूपण ‘लक्षण’ है।
- परीक्षा - उसका यह लक्षण सर्वथा उपयुक्त है या नहीं- इसका विचार या आलोचन परीक्षा है।
यह परीक्षा न्याय वाक्य के द्वारा की जाती है। इस न्याय के पाँच अवयव प्रसिद्ध हैं-
- प्रतिज्ञा,
- हेतु,
- उदाहरण,
- उपनय, और
- निगमन।
- इनमें से प्रथम चार क्रमश: शब्द, अनुमान, प्रत्यक्ष, और उपमान रूप न्यायशास्त्र में प्रसिद्ध चार प्रमाणों से संबद्ध हैं।
- यही न्यायशास्त्र का केन्द्रबिन्दु है, जो पाँच अध्यायों में विभक्त है।
- पुनश्च अध्याय दो-दो आह्निकों में क्रमश: विभक्त है।
- यहाँ सोलह पदार्थ माने गये हैं। वे इस प्रकार वर्णित हैं-
- प्रमाण,
- प्रमेय,
- संशय,
- प्रयोजन,
- दृष्टान्त,
- सिद्धान्त,
- अवयव,
- तर्क,
- निर्णय,
- वाद,
- जल्प,
- वितण्डा,
- हेत्वाभास,
- छल,
- जाति और
- निग्रहस्थान।
चूँकि आदि के नौ पदार्थ प्रमाण आदि प्रामाण्यवाद से संबद्ध हैं तथा न्यायवाक्य के उपयोगी अंग हैं, अत: इनके लक्षण एवं अपेक्षानुसार विभाग प्रथम अध्याय के प्रथम आह्निक में किये गये हैं। शेष सात पदार्थों के लक्षण तथा यथापेक्षित विभाग इसके द्वितीय आह्निक में हुआ है। वाद-विवाद रूप कथाओं से इन पदार्थों का घनिष्ठ संबन्ध रहा है। यहाँ सूचीकटाह-न्याय का अवलम्बन कर छल पदार्थ की परीक्षा भी की गयी है एवं जाति और निग्रहस्थान का लक्षण मात्र कहकर उनके विभागों को नहीं दिखाया गया है।
- द्वितीय अध्याय के प्रथम आह्निक में संशय की तथा न्यायशास्त्र के प्रसिद्ध चारों प्रमाणों की परीक्षा की गयी है। इसके साथ ही प्रसंगत: अवयवी की परीक्षा एवं वर्तमान काल की सिद्धि हेतु प्रयास किया गया है। इसके द्वितीय आह्निक में अन्य शास्त्रसम्मत प्रमाणों के परीक्षण द्वारा निराकरण तथा शब्द प्रमाण का विस्तृत विवेचन किया गया है। यहाँ शब्द का अनित्यत्व, शब्द का परिणाम तथा शब्द-शक्ति आदि का विचार विस्तार से हुआ है।
- तृतीय अध्याय के प्रथम आह्निक में आत्मा, शरीर, इन्द्रिय और अर्थ की परीक्षा की गयी है। द्वितीय आह्निक में बुद्धि तथा मनस की परीक्षा के साथ शरीर और आत्मा के संबन्ध के गुण एवं दोष का कारणसहित विवेचन हुआ है।
- चतुर्थ अध्याय के प्रथम आह्निक में प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव, फल, दु:ख और अपवर्ग की परीक्षा के साथ सृष्टि के प्रसंग में तत्काल प्रसिद्ध आठ दार्शनिक विचारधाराओं का आलोचन भी किया गया है। इसके द्वितीय आह्निक में तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति, उसकी विवृद्धि और उसके परिपालन की विधि के साथ अवयव एवं अवयवी की सिद्धि तथा परमाणु के निरवयवत्व का प्रदर्शन भी हुआ है।
- पंचम अध्याय के प्रथम आह्निक में जाति के विभाग एवं लक्षण किये गये हैं, आवश्यकतानुसार परीक्षा भी कहीं-कहीं उनकी देखी जाती है। द्वितीय आह्निक में निग्रहस्थान का विवेचन हुआ है। न्यायसूत्रकार महर्षि गौतम ने यथास्थान अपने उद्दिष्ट पदार्थों के लक्षण एवं परीक्षण कर शास्त्र को पूर्णांग एवं क्रमबद्ध करने का प्रयास किया है और उसमें सफलता भी पायी है।
परवर्ती काल में इन सूत्रों की बहुत व्याख्याएँ एवं उपव्याख्याएँ हुईं उन सबों का अवधारण सुबुद्धों के लिए भी कठिन होने लगा, फलत: इन सूत्रों तथा व्याख्याओं के आधार पर विविध संग्रहग्रन्थ, प्रकरणग्रन्थ तथा लक्षणग्रन्थ आदि का पर्याप्त मात्रा में निर्माण हुआ। इन ग्रन्थों के ऊपर भी व्याख्याएँ एवं उपव्याख्याएँ लिखी गयीं। इस तरह शास्त्र की निरन्तर अभिवृद्धि होती रही।
- काल के अन्तराल में इन सूत्रों में विकार आने लगा, जोड़-घटाव होने लगा। अत एव खृष्टीय नवम शतक के दार्शनिक तात्पर्यटीकाकार वाचस्पति मिश्र ने न्यायसूची-निबन्ध लिखकर सूत्र का पाठ स्थिर करने का प्रयास किया तथा सर्वप्रथम प्रकरण का निर्देश किया। इसके पहले न्यासूत्रों में प्रकरण का निर्देश नहीं हुआ था। खृष्टीय पंचदश शतक के नैयायिक द्वितीय वाचस्पति मिश्र ने भी न्यायसूत्रोद्धार का प्रणयन कर इस ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया। दोनों के सूत्रपाठ में अन्तर होना स्वाभाविक है। दोनों के मध्य छह शतकों का कालिक व्यवधान स्पष्टत: उपलब्ध है। एक यदि 528 सूत्र गिनाते हैं तो अपर के मत में 532 सूत्र हैं। गौतमीय सूत्रप्रकाश में केशवमिश्र तर्काचार्य ने तथा न्यायरहस्य में रामभद्र सार्वभौम ने इस प्रसङ्ग में अपनी जागरूकता दिखायी है।
यद्यपि महामहोपाध्याय डाक्टर सर गंगानाथ झा तथा महामहोपाध्याय फणिभूषण तर्कवागीश न्यायसूची - निबन्ध के कट्टर पक्षपाती रहे हैं, तथापि अनुसन्धाननिरत उनके परवर्ती अधिक विद्वान केशवमिश्र तर्काचार्य के सूत्रपाठ को ही अधिक परिशुद्ध मानते हैं। द्वितीय वाचस्पति मिश्र के न्यायतत्त्वालोक में भी वही सूत्रपाठ है जो गौतमीयसूत्रप्रकाश में केशवमिश्र ने दिया है। आश्चर्य की बात तो यह है कि न्यायसूत्रोद्धार और न्यायतत्त्वालोक में सूत्रपाठ का परस्पर साम्य नहीं है, जबकि एक ही विद्वान की दोनों ही कृतियाँ मानी जाती हैं।
यद्यपि वृत्तिकारों में न्यायसूचीनिबन्ध का अनुसरण पूर्णत: नहीं हुआ है, किन्तु उस समय में किया गया वह कार्य गवेषकों के लिए एक दृष्टि अवश्य प्रदान करता है तथा काल की विपरीत परिस्थिति में नष्ट-भ्रष्ट होने से उसका परिरक्षण अपने आप में महत्त्वपूर्ण है।
आजकल न्यायसूत्रों के पाठनिर्धारण की ओर गवेषक विद्वानों की दृष्टि अधिक देखी जाती है। प्रो. दयाकृष्ण (जयपुर) ने इस प्रसंग में शोध-पत्रिका में अपना सारगर्भ तथा विचारोत्तेजक निबन्ध प्रकाशित किया है। इस पंक्ति के लेखक ने भी न्यायतत्त्वालोक के परिशिष्ट में अपना विचार प्रस्तुत किया है।
न्यायसूत्र का काल
न्यायसूत्र के रचनाकाल के विषय में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। महामहोपाध्याय हरप्रसादशास्त्री इसका काल खृष्टीय द्वितीय शतक मानते हैं। सूत्रों में शून्यवाद का खण्डन पाकर डा. याकोबी महाशय न्यायसूत्रों का रचनाकाल खृष्टीय तृतीय शताब्दी मानते हैं। महामहोपाध्याय सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने अपने भारतीय न्यायशास्त्र के इतिहास में कहा है कि लक्षणसूत्रों का निर्माण मिथिला के निवासी महर्षि गौतम ने खृष्टपूर्व षष्ठ शतक में किया है और परीक्षासूत्रों की रचना खृष्टीय द्वितीय शतक में प्रभासतीर्थ के निवासी महर्षि अक्षपाद ने की है। फलत: उपलब्ध न्यायसूत्र दो भिन्न समयों में भिन्न ऋषियों के द्वारा रचे गये हैं। इनकी दो प्रमुख युक्तियाँ यहाँ देखी जाती हैं - बौद्ध दर्शन के शून्यवाद का खण्डन तथा कौटिल्य के द्वारा आन्वीक्षिकी विद्या में न्याय का अपरिग्रह एवं सांख्य, योग और लोकायत का परिग्रह। किन्तु यहाँ विचार अपेक्षित है। न्यायसूत्र में जिस शून्यवाद का खण्डन किया है, वह बौद्ध आचार्य नागार्जुन के प्रतिपादित शून्यवाद से सर्वथा भिन्न है। दोनों में केवल नाम का ही साम्य है। महामहोपाध्याय फणिभूषण तर्कवागीश ने अपनी बंगला न्याय दर्शन की भूमिका में परीक्षा करके दिखाया है कि न्यायसूत्र में पूर्वपक्ष रूप में समागत शून्यवाद तत्काल प्रसिद्ध तथा उपनिषदों में संकेतित दर्शनान्तर का मत रहा है, जो आज लुप्त है, वह नागार्जुन का प्रसिद्ध शून्यवाद नहीं है। वस्तुस्थिति तो सर्वथा इसके विपरीत यह है कि नागार्जुन ने अपने प्रमाण विहेटन तथा वैदल्यसूत्र में न्याय दर्शन के पदार्थों का खण्डन किया है। अत: न्यायविद्या की प्रसिद्धि नागार्जुन से पहले ही माननी होगी और उसका प्रभाव नागार्जुन पर मानना होगा, न कि नागार्जुन का प्रभाव न्यायसूत्र पर।
उपर्युक्त दूसरी युक्ति के प्रसंग में कहना है कि आन्वीक्षिकी के अन्तर्गत कौटिल्य ने जिस योगशास्त्र का उल्लेख किया है, वह वह न्यायविद्या ही है 'पतंजलि योग' नहीं। प्राचीन समय में न्याय तथा वैशेषिक दर्शनों के लिए योग या यौग पद का व्यवहार देखा जाता है। जैन दर्शन के अनेक प्राचीन ग्रन्थों में’[1] न्याय-वैशेषिक के लिए योग या यौग पद व्यवहृत हुआ है।
न्यायभाष्यकार ने 1.1.29 सूत्र के भाष्य में न्याय दर्शन के सिद्धान्त का प्रतिपादन योगशब्द से किया है, जो कि पतंजलि योग के सर्वथा विपरीत है। वस्तुत: कौटिल्य ने सांख्य पद से सांख्य और योग दोनों को लिया है। प्राचीन समय में निरीश्वर सांख्य से सांख्य दर्शन और सेश्वर सांख्य से पतंजलि योग का व्यवहार होता रहा है। अतएव एक नाम से ही कौटिल्य ने उन दोनों दर्शनों का संकेत किया है। इसका कारण प्राय: यह भी रहा है कि दोनों ही दर्शनों की चिन्तन-पद्धति एवं प्रमाण आदि के विषय में मतैक्य है। फलत: योग पद से यहाँ न्यायदर्शन ही ग्रन्थकार का विवक्षित रहा है।
न्याय दर्शन का प्रसिद्ध आरम्भवाद प्राय: इस योग पद के व्यवहार का मूल रहा है। क्योंकि दो परमाणुओं के योग से द्वयणुक की सृष्टि होती है और तीन द्वयणुक मिलकर त्रसरेणु बनते हैं। इस तरह परमाणुओं के योग से सृष्टि-प्रक्रिया का निर्वाह एवं आरम्भवाद की स्थापना के कारण शायद योगपद से प्राचीन समय में न्यायविद्या का परिग्रह किया गया हो। अथवा पाशुपत योग का प्रभाव न्याय दर्शन पर आदिकाल से ही रहा है, अत एव योग पद से न्यायविद्या और योग से नैयायिक की प्रसिद्धि हुई होगी। यहाँ उल्लिखित लोकायत, वह नास्तिक तार्किक के लिए प्रयुक्त है, जो उस समय में अपना स्थान बना चुके थे और समाज में इनकी प्रतिष्ठा नहीं थी। अतएव मनुस्मृति आदि में इस शास्त्र की जमकर निन्दा की गयी है।
निष्कर्ष यह हुआ कि न्यायसूत्र की रचना दो समयों में दो ऋषियों के द्वारा नहीं हुई है, अपितु एक समय में एक ही ऋषि द्वारा वह प्रणीत है। और वह ऋषि हैं महामुनि गौतम। इसमें जन-प्रसिद्धि भी अनुकूल है।
पितृमेघसूत्र[2] की व्याख्या में अनन्त यज्वा ने गौतम और अक्षपाद को एक ही ऋषि माना है। इनके मत में गौतम धर्मसूत्र और न्यायसूत्र के रचयिता एक ही ऋषि हैं। न्यायकोष में उद्धृत है कि गौतम के विचारमग्न रहने से एक बार कूप में गिर जाने पर प्रभु ने अनुग्रह करके उनके पैर में एक आँख दे दी। अनन्तवासुदेव के मन्दिर में उत्कीर्ण पद्य गौतम और अक्षपाद को दो नहीं मानता है। देवी पुराण आदि की कथा, महाकवि भास की उक्ति, रामायण तथा महाभारत में न्याय विद्या के प्रवर्तक गौतम ऋषि का उल्लेख इस पक्ष में प्रबल प्रमाण उपलब्ध हैं।
कौटिल्य इस न्यायविद्या से कथमापि अपरिचित नहीं हो सकतें हैं। अन्यथा वे ‘प्रदीप: सर्वविद्यानां’ आदि पद तथा ‘व्यसने अभ्युदये च बुद्धिमवस्थापयति’ आदि गद्य न्यायविद्या या आन्वीक्षिकी की प्रशंसा में नहीं कहते। अत: तर्क और प्रमाणों के आधार पर खृष्टपूर्व षष्ठ शतक ही न्यायसूत्र का रचनाकाल मानना उचित है।