उल्लाला छन्द
उल्लाला छन्द हिन्दी छन्दशास्त्र का एक पुरातन छन्द है। इसकी स्वतंत्र रूप से कम ही रचना की गई है। वीरगाथा काल में उल्लाला तथा रोला को मिलाकर छप्पय की रचना किये जाने से इसकी प्राचीनता प्रमाणित है।
ग्रन्थों में उल्लेख
अधिकांशतः छप्पय में रोला के चार चरणों के पश्चात उल्लाला के दो दल[1] रचे जाते हैं। 'प्राकृत पैन्गलम' तथा अन्य ग्रंथों में उल्लाला का उल्लेख छप्पय के अंतर्गत ही है। जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' रचित 'छन्द प्रभाकर' तथा ओमप्रकाश 'ओंकार' द्वारा रचित 'छन्द क्षीरधि' के अनुसार 'उल्लाल' तथा 'उल्लाला' दो अलग-अलग छन्द हैं। नारायण दास लिखित 'हिन्दी छन्दोलक्षण' में इन्हें उल्लाला के दो रूप कहा गया है।[2]
चरण तथा मात्राएँ
उल्लाला 13-13 मात्राओं के 2 सम चरणों का छन्द है। उल्लाल 15-13 मात्राओं का विषम चरणी छन्द है, जिसे हेमचंद्राचार्य ने 'कर्पूर' नाम से वर्णित किया है। डॉ. पुत्तूलाल शुक्ल इन्हें एक छन्द के दो भेद मानते हैं।
'भानु' के अनुसार-
उल्लाला तेरा कला, दश्नंतर इक लघु भला।
सेवहु नित हरि हर चरण, गुण गण गावहु हो शरण।।
अर्थात उल्लाला में 13 मात्राएँ होती हैं। दस मात्राओं के अंतर पर (अर्थात 11 वीं मात्रा) एक लघु होना अच्छा है।
दोहा के चार विषम चरणों से उल्लाला छन्द बनता है। यह 13-13 मात्राओं का समपाद मात्रिक छन्द है, जिसके चरणान्त में यति है। सम चरणान्त में सम तुकांतता आवश्यक है। विषम चरण के अंत में ऐसा बंधन नहीं है। शेष नियम दोहा के समान हैं। इसका मात्रा विभाजन 8+3+2 है। अंत में एक गुरु या 2 लघु का विधान है।
लक्षण
उल्लाला के लक्षण निम्नलिखित हैं-
- दो पदों में तेरह-तेरह मात्राओं के 4 चरण
- सभी चरणों में ग्यारहवीं मात्रा लघु
- चरण के अंत में यति (विराम) अर्थात सम तथा विषम चरण को एक शब्द से न जोड़ा जाए
- चरणान्त में एक गुरु या 2 लघु हों
- सम चरणों (2, 4) के अंत में समान तुक हो
- सामान्यतः सम चरणों के अंत में एक जैसी मात्रा तथा विषम चरणों के अंत में एक-सी मात्रा हो।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पद या पंक्ति
- ↑ छंद सलिला: उल्लाला संजीव 'सलिल' (हिन्दी) दिव्य नर्मदा। अभिगमन तिथि: 03 सितम्बर, 2014।