ग़ुलाम वंश

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स्थापना

ग़ुलाम वंश दिल्ली में कुतुबद्दीन ऐबक द्वारा 1206 ई॰ में स्थापित किया गया था। यह वंश 1290 ई॰ तक शासन करता रहा। इसका नाम ग़ुलाम वंश इस कारण पड़ा कि इसका संस्थापक और उसके इल्तुतमिश और बलबन जैसे महान उत्तराधिकारी प्रारम्भ में ग़ुलाम अथवा दास थे और बाद में वे दिल्ली का सिंहासन प्राप्त करने में समर्थ हुए।

तराइन का युद्ध

कुतुबद्दीन (1206-10 ई॰) मूलत: शहाबुद्दीन मोहम्मद ग़ोरी का तुर्क दास था और 1192 ई॰ के तराइन के युद्ध में विजय प्राप्त करने में उसने अपने स्वामी की विशेष सहायता की। उसने अपने स्वामी की ओर से दिल्ली पर अधिकार कर लिया और मुसलमानों की सल्तनत पश्चिम में गुजरात तथा पूर्व में बिहार और बंगाल तक, 1206 ई॰ में ग़ोरी की मृत्यु के पूर्व में ही, विस्तृत कर दी।

उपाधि

शहाबुद्दीन ने 1203 ई॰ में उसे दासता से मुक्त कर सुल्तान की उपाधि से विभूषित किया। इस प्रकार स्वभावत: वह अपने स्वामी के भारतीय साम्राज्य का उत्तराधिकारी और दिल्ली के ग़ुलाम वंश का संस्थापक बन गया। उसने 1210 ई॰ में अपनी मृत्यु के समय तक राज्य किया।

ग़ुलाम वंश के शासक

इस वंश में जो शासक हुए उनके नाम इस प्रकार है-

शासकों द्वारा शासन

उसका पुत्र और उत्तराधिकारी आरामशाह था, जिसने केवल एक वर्ष राज्य किया और बाद में 1211 ई॰ में उसके बहनोई इल्तुतमिश ने उसे सिंहासन से हटा दिया। इल्तुतमिश भी कुशल प्रशासक था और उसने 1236 ई॰ में अपनी मृत्यु तक राज्य किया। उसका उत्तराधिकारी, उसका पुत्र रुक्नुद्दीन था, जो घोर निकम्मा तथा दुराचारी था और उसे केवल कुछ महीनों के शासन के उपरान्त गद्दी से उतारकर उसकी बहिन रजिय्यतउद्दीन, उपनाम रज़िया सुल्तान को 1237 ई॰ में सिंहासनासीन किया गया। रज़िया कुशल शासक सिद्ध हुई, किन्तु स्त्री होना ही उसके विरोध का कारण हुआ और 3 वर्षों के शासन के उपरांत 1240 ई॰ में उसे गद्दी से उतार दिया गया। उसका भाई बहराम उसका उत्तराधिकारी हुआ और उसने 1242 ई॰ तक राज्य किया, जब उसकी हत्या कर दी गई। उसके उपरांत इल्तुतमिश का पौत्र मसूद शाह उत्तराधिकारी हुआ, किन्तु वह इतना विलासप्रिय और अत्याचारी शासक सिद्ध हुआ कि 1246 ई॰ में उसे गद्दी से उतारकर इल्तुतमुश के अन्य पुत्र नासिरुद्दीन को शासक बनाया गया।

सुल्तान नासिरुद्दीन में विलासप्रियता आदि दुर्गुण न थे। वह शांत स्वभाव का और विद्याप्रेमी व्यक्ति था। साथ ही उसे बलबन सरीखे कर्त्तव्यनिष्ठ एक ऐसे व्यक्ति का सहयोग प्राप्त था, जो इल्तुतमिश के प्रथम चालीस ग़ुलामों में से एक और सुल्तान का श्वसुर भी था। उसने 20 वर्षों तक (1246-1266 ई॰) शासन किया। उसके उपरांत उसका श्वसुर बलबन सिंहासनासीन हुआ, जो बड़ा ही कठोर शासक था। उसने इल्तुतमिश के काल से होने वाले मंगोल आक्रमणों से देश को मुक्त किया, सभी हिन्दू और मुस्लिम विद्रोहों का दमन किया और दरबार तथा समस्त राज्य में शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित की। उसने बंगाल के तुंगरिल ख़ाँ के विद्रोह का दमन करके 1286 ई॰ अथवा अपनी मृत्युपर्यंत राज्य किया। इसके एक वर्ष पूर्व ही उसके प्रिय पुत्र शाहजादा मुहम्मद की मृत्यु पंजाब में मंगोल आक्रमकों के युद्ध के बीच हो चुकी थी। उसके द्वितीय पुत्र बुगरा ख़ाँ ने , जिसे उसने बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया था, दिल्ली आकर अपने पिता के शासन भार को सँभालना अस्वीकार कर दिया। ऐसी परिस्थिति में बुगरा ख़ाँ के पुत्र कैकोबाद को 1286 ई॰ में सुल्तान घोषित किया गया, किन्तु वह इतना शराबी निकला कि दरबार के अमीरों ने उसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया और 1290 ई॰ में उसका वध कर डाला। इस प्रकार ग़ुलाम वंश का दु:खमय अंत हुआ। ग़ुलाम वंश के शासकों ने प्रजा के हितों पर अधिक ध्यान न दिया और प्रशासन की अपेक्षा भोग-विलासों में ही उनका अधिक झुकाव रहा। फिर भी वास्तुकला के क्षेत्र में उनकी कुछ उल्लेखनीय कृतियाँ शेष है, जिनमें कुतुबमीनार अपनी भव्यता के कारण दर्शनीय है। इस वंश के शासकों ने मिनहाजुद्दीन सिराज और अमीर ख़ुसरो जैसे विद्वानों को संरक्षण प्रदान किया। मिनहाजुद्दीन सिराज ने 'तबकाते-नासिरी' नामक ग्रन्थ की रचना की है।

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