तेलुगु एवं कन्नड़ लिपि

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वर्तमान तेलुगु और कन्नड़ लिपियों में काफ़ी समानता है। दोनों का विकास एक ही मूल लिपि-शैली से हुआ है। आज इन लिपियों का प्रयोग कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु के कुछ ज़िलों में होता है। इस लिपि का आद्य स्वरूप आरम्भिक चालुक्य अभिलेखों में देखने को मिलता है। पश्चिमी दक्खन (दक्षिण) में बनवासी के कदंबों के लेखों में और बादामी के चालुक्यों के लेखों में इस लिपि का आद्य रूप देखने को मिलता है। बादामी के प्रसिद्ध राजा पुलकेशी प्रथम (वल्लभेश्वर) का एक अभिलेख 1941 ई. में मिला है। इसमें शकाब्द 465 (543 ई.) का प्रयोग किया गया है। अल्फ़्रेड मास्टर के अनुसार कन्नड़ लिपि का प्राचीनतम अभिलेख हळेबीडु शिलालेख है, जिसे वे पाँचवीं शताब्दी का मानते हैं।

लिपि का प्रयोग

7वीं शताब्दी के मध्यकाल से इस लिपि की मध्यकालीन शैली आरम्भ होती है। दक्खन (दक्षिण) में लगभग तीन सौ वर्षों तक इस शैली का प्रयोग देखने को मिलता है। पश्चिमी दक्खन (दक्षिण) में बादामी के चालुक्यों, मान्यखेट के राष्ट्रकूटों, गंगवाड़ी के गंगों और अन्य छोटे-मोटे राजवंशों ने इस लिपि का इस्तेमाल किया है। पूर्वी दक्खन (दक्षिण) में वेंगी के चालुक्यों ने इस लिपि का प्रयोग किया। इन सभी लेखों की लिपि एक जैसी हो, ऐसी बात नहीं है। यहाँ से एक ओर ग्रन्थ लिपि में और तेलुगु-कन्नड़ लिपि में स्पष्ट अन्तर दिखाई देता है, तो दूसरी ओर कन्नड़ और तेलुगु लिपियों में परस्पर थोड़ा-थोड़ा अन्तर झलकने लगता है।

भाषा

अब तक तो अभिलेखों की भाषा संस्कृत या प्राकृत ही थी, किन्तु 7वीं शताब्दी से इन लिपियों में तेलुगु और कन्नड़ भाषाओं के भी लेख मिलने लगते हैं। कन्नड़ भाषा का सबसे प्राचीन अभिलेख बादामी की वैष्णव गुफ़ा के बाहर चालुक्य राजा मंगलेश (598-610 ई.) का मिलता है। काकुस्थवर्मन् का हळेबीडु-अभिलेख भी कन्नड़ में ही है। कन्नड़ भाषा की प्राचीनतम हस्तलिपि ‘कविराजमार्ग’ 877 ई. में लिखी गई थी।

लिप्यंतर

सिद्धम्।। जयत्यहंस्त्रिलोकेशः सर्व्वभूतहिते रतः रागा-
द्यरिहरोनन्तोनन्तज्ञानदृगीश्वरः।। स्वस्ति विजयवैज(य)न्त्या (:) स्वामिम-
हासेनमात्रगणानुदध्या (ध्या) ताभिषिक्तानां मानव्यसगोत्राणां हरितिपु-
त्राणं (णां) अं (आं)गिरसां प्रतिकृतम्वादध्य (ध्या) यचर्च्चकाना (नां) सद्धर्म्मसदंबाना (नां)
कदंबानां अनेकजन्मान्तरोपार्ज्जितविपुलपुण्यस्कन्धः आहवार्ज्जित-

अभिलेख

तेलुगु भाषा का प्राचीनतम अभिलेख रेनदु के तेलुगु-कोदस का है। तेलुगु भाषा के आरम्भिक अभिलेख आन्ध्र प्रदेश के अनंतपुर और कडपा ज़िलों में मिले हैं। ये छठी से आठवीं शताब्दी के बीच के हैं। इस काल में तेलुगु-कन्नड़ लिपि तो एक-सी थी, परन्तु तेलुगु और कन्नड़ भाषाओं का हम स्वतंत्र अस्तित्व देखते हैं। तेलुगु-कोदस के कलमल्ल-अभिलेख में जिस कन्नड़-तेलुगु लिपि का प्रयोग हुआ है, उस पर तमिल लिपि और ग्रन्थ लिपि की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। एरगुडीपदु अभिलेख में तो ‘ळ’ का प्रयोग भी देखने को मिलता है। आज यह अक्षर-ध्वनि तमिल और मलयालम में तो मिलती है, किन्तु वर्तमान तेलुगु और कन्नड़ में इसका प्रयोग नहीं होता।

आन्ध्रलिपि

इसके बाद ही कन्नड़-तेलुगु लिपि को ‘संधिकालीन लिपि’ का नाम दिया गया है। यह नाम इसीलिए कि एक तो इस काल की लिपि आधुनिक तेलुगु-कन्नड़ लिपियों से कुछ-कुछ मिलने लग जाती है, दूसरे इसके बाद हम तेलुगु और कन्नड़ लिपियों में स्पष्ट अन्तर देखने लगते हैं। 13वीं शताब्दी के एक तेलुगु कवि मंचन ने अपनी लिपि को ‘आन्ध्रलिपि’ कहा है।

विकास

इसके बाद कन्नड़ और तेलुगु लिपियों का अलग-अलग स्वतंत्र विकास होता है। कन्नड़ में स्वरों की मात्राएँ लम्बी होकर व्यंजनों के दाईं ओर उसी रेखा में रखी जाने लगीं। अक्षर अधिकाधिक गोलाकार होते गए। अनुस्वार अक्षर के ऊपर केवल एक बिन्दु न रहकर सामान्य अक्षरों के बराबर बड़ी गोलाकार बिन्दी बन गया और अक्षर के दाईं ओर रखा जाने लगा। इन लिपियों का संधिकाल दो शताब्दी तक चला और उसके बाद विजयनगर के राज्यकाल में ये दोनों लिपियाँ पूर्ण रूप से एक-दूसरे से अलग हो गईं। उन्नीसवीं शताब्दी में मुद्रण-प्रणाली की शुरुआत के कारण इन लिपियों को वर्तमान स्थायी रूप मिला। परन्तु आज भी इनमें से एक लिपि जानने वाला व्यक्ति दूसरी लिपि को उसी तरह पढ़ सकता है, जैसे देवनागरी लिपि जानने वाला गुजराती लिपि को पढ़ सकता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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