पथ के साथी -महादेवी वर्मा
पथ के साथी -महादेवी वर्मा
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कवि | महादेवी वर्मा |
मूल शीर्षक | पथ के साथी |
प्रकाशक | राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली |
प्रकाशन तिथि | 1956 (पहला संस्करण) |
ISBN | HB-04755 |
देश | भारत |
पृष्ठ: | 92 |
भाषा | हिंदी |
शैली | संस्मरण |
मुखपृष्ठ रचना | अजिल्द |
पथ के साथी महादेवी वर्मा द्वारा लिखे गए संस्मरणों का संग्रह हैं, जिसमें उन्होंने अपने समकालीन रचनाकारों का चित्रण किया है। जिस सम्मान और आत्मीयतापूर्ण ढंग से उन्होंने इन साहित्यकारों का जीवन-दर्शन और स्वभावगत महानता को स्थापित किया है वह अपने आप में बड़ी उपलब्धि है। 'पथ के साथी' में संस्मरण भी हैं और महादेवी द्वारा पढ़े गए कवियों के जीवन पृष्ठ भी। उन्होंने एक ओर साहित्यकारों की निकटता, आत्मीयता और प्रभाव का काव्यात्मक उल्लेख किया है और दूसरी ओर उनके समग्र जीवन दर्शन को परखने का प्रयत्न किया है। पथ के साथी में रवीन्द्रनाथ ठाकुर, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पंत, सुभद्राकुमारी चौहान तथा सियारामशरण गुप्त के उत्कृष्ट शब्द-चित्र हैं।
11 संस्मरणों का संग्रह
'पथ के साथी' में निम्नलिखित 11 संस्मरणों का संग्रह किया गया है-
- दद्दा (मैथिली शरण गुप्त)
- निराला भाई
- स्मरण प्रेमचंद
- प्रसाद
- सुमित्रानंदन पंत
- सुभद्रा (सुभद्रा कुमारी चौहान)
- प्रणाम (रवींद्रनाथ ठाकुर)
- पुण्य स्मरण (महात्मा गांधी)
- राजेन्द्रबाबू (बाबू राजेन्द्र प्रसाद)
- जवाहर भाई (जवाहरलाल नेहरू)
- संत राजर्षि (पुरुषोत्तमदास टंडन)
लेखिका कथन
साहित्यकार की साहित्य-सृष्टि का मूल्यांकन तो अनेक आगत-अनागत युगों में हो सकता है; पर उनके जीवन की कसौटी उसका अपना युग ही रहेगा। पर यह कसौटी जितनी अकेली है, उतनी निर्भान्त नहीं। देश-काल की सीमा में आबद्ध जीवन न इतना असंग होता है कि अपने परिवेश और परिवेशियों से उसका कोई संघर्ष न हो और न यह संघर्ष इतना तरल होता है कि उसके आघातों के चिह्न शेष न रहें।
एक कर्म विविध ही नहीं, विरोधी अनुभूतियाँ भी जगा सकता है। खेल का एक ही कर्म जीतने वाले के लिए सुखद और हारने वाले के लिए दुःखद अनुभूतियों का कारण बन जाता है। जो हमें प्रिय है, वह हमारे हित के परिवेश में ही प्रिय है और अप्रिय है, वह हमारे अहित के परिवेश में ही अपनी स्थिति रखता है। यह अहित, प्रत्यक्ष कर्म से सूक्ष्म भाव-जगत् तक फैला रह सकता है। हमारे दर्शन, साहित्य आदि विविध साधनों से प्राप्त संस्कार, हमें अपने परिवेश के प्रति उदार बनाने का ही लक्ष्य रखते हैं पर, मनुष्य का अहम प्रायः उन साधनों से विद्रोह करता रहता है।
अपने अग्रज़ों सहयोगियों के सम्बन्ध में, अपने-आप को दूर रखकर कुछ कहना सहज नहीं होता। मैंने साहस तो किया है; पर ऐसे स्मरण के लिए आवश्यक निर्लिप्तता या असंगता मेरे लिए संभव नहीं है। मेरी दृष्टि के सीमित शीशे में वे जैसे दिखाई देते हैं, उससे वे बहुत उज्जवल और विशाल हैं, इसे मानकर पढ़ने वाले ही उनकी कुछ झलक पा सकेंगे।[1] ---महादेवी वर्मा
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पथ के साथी (हिंदी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 31 मार्च, 2013।
बाहरी कड़ियाँ
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