ग़बन -प्रेमचंद
ग़बन -प्रेमचंद
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लेखक | मुंशी प्रेमचंद |
मूल शीर्षक | ग़बन |
प्रकाशक | राजपाल एंड सन्स |
प्रकाशन तिथि | 1930 |
ISBN | 81-7028-336-1 |
देश | भारत |
पृष्ठ: | 256 |
भाषा | हिन्दी |
विषय | सामाजिक, यथार्थवादी |
प्रकार | उपन्यास |
प्रेमचंद का उपन्यास 'ग़बन' सन् 1930 ई. में प्रकाशित हुआ। मध्यवर्गीय जीवन और मनोवृत्ति का जितना सफल चित्रण प्रेमचन्द ने 'ग़बन' में किया है, उतना उनके साहित्य में अन्यत्र नहीं मिलता। औपन्यासिक कला की दृष्टि से भी यह उनकी एक सुन्दर रचना है।
कथानक
इसमें दो कथानक हैं - एक प्रयाग से सम्बद्ध और दूसरा कोलकाता से सम्बद्ध। दोनों कथानक जालपाकी मध्यस्थता द्वारा जोड़ दिए गये हैं। कथानक में अनावश्यक घटनाओं और विस्तार का अभाव है। प्रयाग के छोटे से गाँव के ज़मींदार के मुख़्तार महाशय दीनदयाल और मानकी की इकलौती पुत्री जालपा को बचपन से ही आभूषणों, विशेषत: चन्द्रहार की लालसा लग गयी थी। वह स्वप्न देखती थी कि विवाह के समय उसके लिए चन्द्रहार ज़रूर चढ़ेगा। जब उसका विवाह कचहरी में नौकर मुंशी दयानाथ के बेकार पुत्र रमानाथ से हुआ तो चढ़ावे में और गहने तो थे, चन्द्रहार न था। इससे जालपा को घोर निराशा हुई।
प्रयाग से सम्बद्ध
दीनदयाल और दयानाथ दोनों ने अपनी- अपनी बिसात से ज़्यादा विवाह में खर्च किया। दयानाथ ने कचहरी में रहते हुए रिश्वत की कमाई से मुँह मोड़ रखा था। पुत्र के विवाह में वे कर्ज़ से लद गये। दयानाथ तो चन्द्रहार भी चढ़ाना चाहते थे लेकिन उनकी पत्नी जागेश्वरी ने उनका प्रस्ताव रद्द कर दिया था। जालपा की एक सखी शहजादी उसे चन्द्रहार प्राप्त करने के लिए और उत्तेजित करती है। जालपा चन्द्रहार की टेक लेकर ही ससुराल गयी। घर की हालत तो खस्ता थी, किंतु रमानाथ ने जालपा के सामने अपने घराने की बड़ी शान मार रखी थी। कर्ज़ उतारने के लिए जब पिता ने जालपा के कुछ गहने चुपके से लाने के लिए कहा तो रमानाथ कुछ मानसिक संघर्ष के बाद आभूषणों का सन्दूक चुपके से उठाकर उन्हें दे आते है और जालपा से चोरी हो जाने का बहाना कर देते हैं किंतु अपने इस कपटपूर्ण व्यवहार से उन्हें आत्मग्लानि होती है, विशेषत: जब कि वे अपनी पत्नी से अत्यधिक प्रेम करते हैं। जालपा का जीवन तो क्षुब्ध हो उठता है। अब रमानाथ को नौकरी की चिंता होती है। वे अपने शतरंज के साथी विधुर और चुंगी में नौकरी करने वाले रमेश बाबू की सहायता से चुंगी में तीस रुपये की मासिक नौकरी पा जाते हैं। जालपा को वे अपना वेतन चालीस रुपये बताते हैं। इसी समय जालपा को अपनी माता का भेजा हुआ चन्द्रहार मिलता है, किंतु दया में दिया हुआ दान समझकर वह उसे स्वीकार नहीं करती। अब रमानाथ में जालपा के लिए गहने बनवाने का हौसला पैदा होता है। इस हौसले को को वे सराफों के कर्ज़ से लद जाने पर भी पूरा है। इन्दुभूषण वकील की पत्नी रतन को जालपा के जड़ाऊ कंगन बहुत अच्छे लगते हैं। वैसे ही कंगन लाने के लिए वह रमानाथ को 600 रुपये देती है। सर्राफ इन रुपयों को कर्जखाते में जमाकर रमानाथ को कंगन उधार देने से इंकार कर देता हैं। रतन कंगनों के लिए बराबर तकाज़ा करती रहती है। अंत में वह अपने रुपये ही वापस लाने के लिए कहती है। उसके रुपये वापस करने के ख्याल से रमानाथ चुंगी के रुपये ही घर ले आते हैं। उनकी अनुपस्थिति में जब रतन अपने रुपये माँगने आती हैं तो जालपा उन्हीं रुपयों को उठाकर दे देती हैं। घर आने पर जब रमानाथ को पता लगा तो उन्हें बड़ी चिंता हुई। ग़बन के मामले में उनकी सज़ा हो सकती थी। सारी परिस्थिति का स्पष्टीकरण करते हुए उन्होंने अपनी पत्नी के नाम एक पत्र लिखा। वे उसे अपनी पत्नी को देने या न देने के बारे में सोच ही रहे थे, कि वह पत्र जालपा को मिल जाता हैं। उसे पत्र पढ़ते देखकर उन्हें इतनी आत्म- ग्लानि होती है कि वे घर से भाग जाते हैं जालपा अपने गहने बेचकर चुंगी के रुपये लौटा देती है। इसके पश्चात् कथा कलकत्ते की ओर मुड़ती है।
कलकत्ते से सम्बद्ध
कलकत्ते में रमानाथ अपने हितैषी देवीदीन खटिक के यहाँ कुछ दिनों तक गुप्त रूप से रहने के बाद चाय की दुकान खोल लेते हैं। वे अपनी वास्तविकता छिपाए रहते हैं। एक दिन जब वे नाटक देखकर लौट रहे थे, पुलिस उन्हें शुबहे में पकड़ लेती है। घबराहट में रमानाथ अपने ग़बन आदि के बारे में सारी कथा सुना देते हैं। पुलिसवाले अपनी तहकीकात द्वारा उन्हें निर्दोष पाते हुए भी नहीं छोड़ते और उन्हें क्रांतिकारियों पर चल रहे एक मुक़दमें के गवाह के रूप में पेश कर देते हैं। जेल- जीवन से भयभीत होने के कारण रमानाथ पुलिसवालों की बात मान लेते हैं। पुलिस ने उन्हें एक बँगले में बड़े आराम से रखा और ज़ोहरा नामक एक वेश्या उनके मनोरंजन के लिए नियुक्त की गयी। उधर जालपा रतन के परामर्श से शतरंज- सम्बन्धी 50/- का एक विज्ञापन प्रकाशित करती है। जिस व्यक्ति ने वह विज्ञापन जीता, वह रमानाथ ही थे और इससे जालपा को मालूम हो गया कि वे कलकत्ते में हैं। खोजते- खोजते वह देवीदीन खटिक के यहाँ पहुँच जाती है और रमानाथ को पुलिस के कुचक्र से निकालने की असफल चेष्टा करती है। रतन भी उन्हीं दिनों अपने बूढ़े पति का इलाज कराने के लिए कलकत्ते आती है। पति की मृत्यु के बाद वह जालपा की सहायता करने में किसी प्रकार का संकोच प्रकट नहीं करती। क्रांतिकारियों के विरुद्ध गवाही देने के पश्चात् उन्हें जालपा का एक पत्र मिला, जिसने उनके भाव बदल दिये। उन्होंने जज के सामने सारी वास्तविकता प्रकट कर दी, जिससे उसको विश्वास हो गया कि निरपराध व्यक्तियों को दण्ड दिया गया है। जज ने अपना पहला निर्णय वापस ले लिया। रमानाथ, जालपा, जोहरा आदि वापस आकर प्रयाग के समीप रहने लगे।
उपसंहार
जालपा के कारण रमानाथ में आत्म- सम्मान का फिर से उदय हो जाता है। ज़ोहरा वेश्या- जीवन छोड़कर सेवा- व्रत धारण करती है। रमानाथ और जालपा भी सेवा- मार्ग का अनुसरण करते हैं। जोहरा ने अपनी सेवा, आत्म- त्याग और सरल स्वाभाव से सभी को मुग्ध कर लिया था। रतन मृत्यु को प्राप्त हुई। एक बार प्रयाग के समीप गंगा में डूबते हुए यात्री को बचाते समय भी बह गयी। रमानाथ ने कोशिश की कि उसे बचाने लिए आगे बढ़ जाय। जालपा भी पानी में कूद पड़ी थी। रमानाथ आगे न बढ़ सके। एक शक्ति आगे खींचती थी, एक पीछे। आगे की शक्ति में अनुराग था, निराशा थी, बलिदान था। बन्धन ने रोक लिया। कलकत्ते में जोहरा विलास की वस्तु थी। प्रयाग में उसके घर के प्राणी- जैसा व्यवहार होता था। दयानाथ और रामेश्वरी को यह कह कर शांत कर दिया गया था कि वह देवीदीन की विधवा बहू है। जोहरा में आत्मशुद्धि की ज्योति जगमगा उठी थी। अपनी क्षीण आशा लेये रमानाथ और जालपा घर लौट गये। उनकी आँखों के सामने जोहरा की तस्वीर खड़ी हो जाती थी।
आलोचना
- प्रसिद्ध आलोचनाकार डॉ. नामवर सिंह के अनुसार - 'ग़बन' उपन्यास की आलोचना करते हुए 'प्रेमचंद की कला' शीर्षक निबंध में जैनेंद्र कुमार ने लिखा है कि '
बात को ऐसा सुलझाकर कहने की आदत मैं नहीं जानता, मैंने और कहीं देखी है। बड़ी से बड़ी बात को बहुत उलझन के अवसर पर ऐसे सुलझाकर थोड़े से शब्दों में भरकर, कुछ इस तरह कह जाते हैं, जैसे यह गूढ़, गहरी, अप्रत्यक्ष बात उनके लिए नित्य-प्रति घरेलू व्यवहार की जानी पहचानी चीज़ हो। उनकी क़लम सब जगह पहुँचती है, लेकिन अंधेरे से अंधेरे में भी वह कभी धोखा नहीं देती। वह वहाँ भी सरलता से अपना मार्ग बनाती चली जाती है। स्पष्टता के मैदान में प्रेमचंद अविजय हैं। उनकी बात निर्णीत, खुली, निश्चित होती है।'[1]
- गद्य साहित्य की वर्तमान गति : तृतीय उत्थान में वर्णित है -
प्रेमचंद की सी चलती और पात्रों के अनुरूप रंग बदलनेवाली भाषा भी पहले नहीं देखी गई थी। अंत:प्रकृति या शील के उत्तरोत्तर उद्घाटन का कौशल भी प्रेमचंदजी के दो एक उपन्यासों में, विशेषत: 'ग़बन' में देखने में आया। सत् और असत् भला और बुरा दो सर्वथा भिन्न वर्ग करके पात्र निर्माण करने की अस्वाभाविक प्रथा भी इस तृतीय उत्थान में बहुत कुछ कम हुई है, पर मनोवृत्ति की अस्थिरता का वह चित्र अभी बहुत कम दिखाई पड़ा है जिसके अनुसार कुछ परिस्थितियों में मनुष्य अपने शील स्वभाव के सर्वथा विरुद्ध आचरण कर जाता है।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आलोचना की कसौटी (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 15 जून, 2011।
- ↑ गद्य साहित्य की वर्तमान गति : तृतीय उत्थान (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 15 जून, 2011।