दक्षिणपथ

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स्थिति

मूलरूप से दक्षिण अथवा दक्षिणपथ का प्रयोग उस क्षेत्र के लिये किया जाता था, जो कि उत्तर में विन्ध्य पर्वत और नर्मदा से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक विस्तृत था। बाद में दक्षिण का अर्थ वह क्षेत्र माना जाने लगा, जो कि उत्तर में नर्मदा तक, दक्षिण में तुंगभद्रा तथा कृष्णा नदी के बीच स्थित है, अर्थात दक्षिणी पठार के मुख्य भाग को दक्षिण कहा जाने लगा, जिसके अंतर्गत आजकल का मध्यप्रदेश तथा महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश आता है। कृष्णा और तुंगभद्रा के दक्षिण के क्षेत्र को कभी-कभी 'तमिलहम्' अर्थात 'तमिल देश' कहा जाता था। यहाँ पर दक्षिण का अर्थ है नर्मदा और कृष्णा नदियों के बीच का दक्षिणी पठार। भूगर्भीय दृष्टि से सिन्धु और गंगा के मैदानों की अपेक्षा यह पठार बहुत प्राचीन माना जाता है।

पुरातात्विक इतिहास

दक्षिण में जो पुरातात्विक अवशेष मिले हैं, वे उत्तरी भारत (हिमालय के क्षेत्र को छोड़कर) में प्राप्त अवशेषों से अधिक प्राचीन हैं। दक्षिणी पठार वस्तुत: एक पर्वतीय त्रिकोण पर स्थित है। जिसका शीर्षबिन्दु नीलगिरि है। पश्चिमी घाट एवं पूर्वी घाट इस त्रिकोण की दो भुजाएँ हैं तथा विन्ध्य पर्वत श्रेणी इसका आधार है। विन्ध्य पर्वत श्रेणी के कारण कोई नदी उत्तर से दक्षिण की ओर नहीं बहती। चूंकि पश्चिमी घाट पूर्वीघाट की अपेक्षा अधिक ऊँचे हैं, अतएव दक्षिण की सभी नदियाँ सतपुड़ा पहाड़ियों के नीचे पश्चिम से पूर्व की ओर बहती हैं और बंगाल की खाड़ी में गिरती हैं।

पौराणिक मत

रामायण तथा महाभारत में सुरक्षित प्राचीन अनुश्रुतियों के अनुसार सर्वप्रथम अगस्त्य मुनि दक्षिण गये थे। वहाँ पर उन्होंने वानरों, असुरों तथा राक्षसों को प्रभावित किया और वहाँ पर अपना सम्माजनक एक स्थान बनाया। विश्वास किया जाता है कि दक्षिणवासी द्रविड़ थे, जिनकी भौतिक सभ्यता आर्यों की अपेक्षा काफ़ी ऊँची थी।

ऐतिहासिक मत

ऐतिहासिक दृष्टिकोण से हमें दक्षिण के सम्बन्ध में जो जानकारी मिलती है, वह उत्तर भारत की तुलना में काफ़ी अर्वाचीन है। नन्द वंश से पहले हमें दक्षिण के बारे में जानकारी नहीं मिलती। इन नंद राजाओं (ई. पू. चौथी शताब्दी) के साम्राज्य में कलिंग शामिल था। हो सकता है कि सम्पूर्ण दक्षिण उनेक साम्राज्य के अंतर्गत ही रहा हो। अशोक के साम्राज्य में यद्यपि कलिंग ही शामिल था, तथापि उसका साम्राज्य पेनार नदी तक फैला हुआ था। उसके साम्राज्य की दक्षिणी सीमाएँ चेर, चोल, पाण्ड्य तथा सातियपुत्र राज्यों को छूती थी। मौर्य वंश के पतन के पश्चात सातवाहनों ने, जो कि 'आंध्र' भी कहे जाते थे, एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की और ई. पू. 50 से 225 ई. तक शासन किया। इसी काल में शकों की एक शाखा ने दक्षिण पश्चिमी भाग पर अधिकार कर लिया।

सातवाहनों के पतन के पश्चात दक्षिण के विविध भागों में अनेक छोटे-छोटे राजवंशों का उदय हुआ। इनमें गंग, वाकाटक तथा कदम्ब मुख्य थे। गंग वंश की एक शाखा ने दूसरी से ग्यारहवीं शताब्दी तक मैसूर के एक बड़े क्षेत्र पर राज्य किया। श्रवण बेलगोला की पहाड़ी पर स्थापित 53॥ फ़ुट ऊँची गोमटेश्वर की विशाल प्रतिमा इन्हीं राजाओं की याद दिलाती है। गंग वंश की एक शाखा ने उड़ीसा में भी छठी से 16वीं शताब्दी तक शासन किया। इसी वंश के अनंत वर्मा चोड़गंग ने पुरी के विख्यात जगन्नाथ मन्दिर को बनवाया था। कदम्ब राजाओं ने तीसरी से छठी शताब्दी तक दक्षिण कर्नाटक और पश्चिमी मैसूर में शासन किया, जबकि वाकाटकों ने चतुर्थ से छठी शताब्दी तक मध्य प्रदेश तथा दक्षिण के पश्चिमी भाग पर शासन किया। चतुर्थ शताब्दी के मध्य में समुद्रगुप्त ने, जो गुप्त वंश द्वितीय सम्राट था, दक्षिण की ओर अभियान किया और वहाँ के अनेक राजाओं को अपने अधीन किया। जिसमें पल्लव राजा विष्णुगोप भी था, जिसकी राजधानी कांची थी, जिसे आजकाल कांजीवरम कहते हैं। गुप्त वंश के तृतीय सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने उज्जयिनी के शक क्षत्रप को पराजित कर सम्पूर्ण मालवा और गुजरात को अपने अधीन कर लिया।

गुप्त साम्राज्य के पतन के पश्चात उत्तर भारत दक्षिण से अलग हो गया तथा दक्षिण में चालुक्य वंश का राज्य स्थापित हुआ, जो कि कदाचित उत्तर भारत के किसी राजपूत वंश की एक शाखा थे। चालुक्यों की राजधानी वातापी अथवा बादामी थी, जो आजकल महाराष्ट्र के बीजापुर ज़िले में है। इस वंश ने लगभग दो सौ वर्ष तक शासन किया। इस वंश का सबसे प्रतापी राजा पुलकेशी द्वितीय था, जिसने 608-42 ई. तक शासन किया और 641 ई. में नर्मदा नदी के किनारे उत्तर भारत के सुप्रसिद्ध सम्राट हर्षवर्धन को पराजित किया तथा इस प्रकार उत्तर तथा दक्षिण के बीच नर्मदा नदी की प्राकृतिक सीमा को क़ायम रखा। पड़ोसी कांची के पल्लव उसके सबसे शक्तिशाली प्रतिद्वन्द्वी थे। पल्लव राजा नरसिंह देव वर्मा ने 642 ई. में चालुक्य नरेश पुलकेशी द्वितीय को पराजित कर मार डाला।

32 वर्ष पश्चात राष्ट्रकूट वंश के दंतिदुर्ग ने चालुक्य वंश का मूलोच्छेद कर दिया। राष्ट्रकूटों के नये वंश ने मान्यखेट (आधुनिक मालखेट) को अपनी राजधानी बनाकर दक्षिणी भारत पर शासन किया। इस वंश का सबसे प्रतापी राजा अमोघवर्ष (लगभग 815-77 ई.) था, जिसका उल्लेख अरब यात्रियों ने द्वितीय वल्लभराय के नाम से किया है। 973 ई. में द्वितीय चालुक्य वंश ने राष्ट्रकूट वंश का मूलोच्छेद कर दिया। इस द्वितीय चालुक्य वंश ने दक्षिणी भारत पर 1190 ई. तक शासन किया।

द्वितीय चालुक्य वंश के पतन के पश्चात दक्षिणपथ तीन राजवंशों में विभाजित हो गया। यादवों ने देवगिरि को अपनी राजधानी बनाकर दक्षिण के पश्चिमी भाग पर शासन किया। होयसल वंश ने द्वारसमुद्र को अपनी राजधानी बनाकर मैसूर पर शासन किया। काकतीय वंश ने बारंगल को अपनी राजधानी बनाकर दक्षिण के पूर्वी भाग (तेलंगाना) पर शासन किया। दक्षिण के इन राजाओं के बीच बराबर युद्ध होते रहे। फलत: दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन ख़िलजी ने एक-एक करके सभी को अपनी अधीन कर लिया। यादव राजा 1296 और 1313 ई. बीच में पराजित हुए, काकतीय राजा 1310 ई. में तथा होयसल नरेश 1311 ई. में। इसके बाद होयसलों ने नाम मात्र के लिए 1424-25 ई. तक शासन किया। इनके राज्य को बाद में बहमनी सुल्तानों ने अपने राज्यों में मिला लिया। इस प्रकार उत्तर भारत की भाँति दक्षिण में भी हिन्दू राज्य समाप्त हो गया।

सांस्कृतिक और धार्मिक पक्ष

यद्यपि राजनीतिक दृष्टि से नंदों, मौर्यों तथा गुप्तों को छोड़कर काल में दक्षिण उत्तर भारत से लगभग अलग ही रहा, तथापि सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से वह सदैव हिन्दू भारत का अभिन्न अंग रहा। यद्यपि दक्षिणवासी उत्तर भारतीयों से भिन्न भाषाएँ बोलते थे, तथापि उत्तर के हिन्दुओं की भाँति दक्षिण की भी राजभाषा संस्कृत ही रही। ब्राह्मण धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म का दक्षिण में उतना ही आदर हुआ, जितना उत्तर में। यदि दक्षिण ने उत्तर से बहुत कुछ प्राप्त किया, तो उसने उत्तर को बहुत कुछ दिया भी। आदि शंकराचार्य दक्षिण के ही थे। जिन्होंने वेदान्त दर्शन का प्रतिपादन किया। रामानुजाचार्य ने वैष्णव धर्म की स्थापना की। विख्यात स्मृतिकार विज्ञानेश्वर ने 'मिताक्षरा सिद्धान्त' प्रतिपादित किया जो बंगाल और असम को छोड़कर शेष भारत के सामाजिक जीवन का नियमन करता है। कला और वास्तुकला में दक्षिण ने हिन्दू परम्परा को जीवित रखां कला, वास्तुशिल्प, मूर्तिकला और चित्रकला के क्षेत्र में हिन्दुओं की उन्नति का परिचय दक्षिण जाने पर ही मिलता है। जहाँ पर विशाल मन्दिरों के रूप में अत्यन्त सुन्दर कलाकृतियाँ विद्यमान हैं। एलोरा-अजन्ता की गुफ़ाएँ और ये मन्दिर हिन्दुओं के कला वैभव का जो चित्र प्रस्तुत करते हैं, उसकी कल्पना उत्तर भारत के मन्दिरों को देखकर नहीं की जा सकती है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ