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'''त्रिपक्षीय सन्धि''' 1838 ई. में [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]], [[अफ़ग़ानिस्तान]] के भगोड़े अमीर [[शाहशुजा]] और [[पंजाब]] के महाराज [[रणजीत सिंह]] में [[लॉर्ड ऑकलैण्ड]] के शासनकाल में सम्पन्न हुई थी। इसके अनुसार शाहशुजा को [[सिक्ख]] सेना और ब्रिटिश आर्थिक सहायता से [[काबुल]] की गद्दी पर पुन: बैठाने की बात तय हुई। इसके बदले में रणजीत सिंह ने जितना प्रदेश जीता था, वह उसके अधिकार में रहने देना और [[सिंध]] को अफ़गानिस्तान के अमीर शाहशुजा को सौंप देना स्वीकार कर लिया गया। यह आशा की जाती थी कि शाहशुजा अंग्रेज़ों के हाथों की कठपुतली बन जाएगा। इस आक्रमक सन्धि ने अन्तत: लॉर्ड ऑकलैण्ड की सरकार को 1838-42 ई. के विनाशकारी अफ़ग़ान युद्ध में फँसा दिया।
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

13:51, 19 अक्टूबर 2011 का अवतरण

त्रिपक्षीय सन्धि 1838 ई. में अंग्रेज़ों, अफ़ग़ानिस्तान के भगोड़े अमीर शाहशुजा और पंजाब के महाराज रणजीत सिंह में लॉर्ड ऑकलैण्ड के शासनकाल में सम्पन्न हुई थी।

इस सन्धि के अनुसार शाहशुजा को सिक्ख सेना और ब्रिटिश आर्थिक सहायता से क़ाबुल की गद्दी पर पुन: बैठाने की बात तय हुई। इसके बदले में रणजीत सिंह ने जितना प्रदेश जीता था, वह उसके अधिकार में रहने देना और सिंध को अफ़गानिस्तान के अमीर शाहशुजा को सौंप देना स्वीकार कर लिया गया। यह आशा की जाती थी कि शाहशुजा अंग्रेज़ों के हाथों की कठपुतली बन जाएगा। इस आक्रमक सन्धि ने अन्तत: लॉर्ड ऑकलैण्ड की सरकार को 1838-42 ई. के विनाशकारी अफ़ग़ान युद्ध में फँसा दिया।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

भारतीय इतिहास कोश |लेखक: सच्चिदानन्द भट्टाचार्य |प्रकाशक: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |पृष्ठ संख्या: 193 |


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