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'अज्ञेयवाद' 'संदेहवाद' से भिन्न है; 'संदेहवाद' या 'संशयवाद' के अनुसार विश्व के किसी भी पदार्थ का निश्चयात्मक ज्ञान संभव नहीं है। '[[दर्शन|भारतीय दर्शन]]' के संभवत किसी भी संप्रदाय को अज्ञेयवादी नहीं कहा जा सकता। वस्तुत [[भारत]] में कभी भी संदेहवाद एवं अज्ञेयवाद का व्यवस्थित प्रतिपादन नहीं हुआ। नैयायिक सर्वज्ञेयवादी हैं, और [[नागार्जुन बौद्धाचार्य|नागार्जुन]] तथा [[श्रीहर्ष]] जेसे मुक्तिवादी भी पारिश्रमिक अर्थ में 'संशयवादी' अथवा 'अज्ञेयवादी' नहीं कहे जा सकते।<ref>{{cite web |url=http://bharatkhoj.org/india/%E0%A4%85%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A5%87%E0%A4%AF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6 |title=अज्ञेयवाद |accessmonthday= 31 जनवरी|accessyear= 2014|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language= हिन्दी}}</ref>
 
==आधुनिक युग की विशेषता==
 
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यूरोपीय दर्शन में जहाँ संशयवाद का जन्म [[यूनान]] में ही हो चुका था, वहाँ अज्ञेयवाद आधुनिक युग की विशेषता है। अज्ञेयवादियों में पहला नाम जर्मन दार्शनिक 'कांट' (1724-1804) का है। कांट की मान्यता है कि जहाँ व्यवहार जगत<ref>फिनामिनल वर्ल्ड</ref> बुद्धि या प्रज्ञा की धारणाओं<ref>कैटेगीरीज ऑव अंडरस्टैंडिंग</ref> द्वारा निर्धार्य, अतएव ज्ञेय नहीं है। तत्व दर्शन द्वारा अतींद्रिय पदार्थों का ज्ञान संभव नहीं है। फ्रेंच विचारक 'कास्ट' (1798-1857) का भी, जिसने भाववाद<ref>पाजिटिविज्म</ref> का प्रवर्तन किया, यह मत है कि मानव ज्ञान का विषय केवल गोचर जगत्‌ है, अतींद्रिय पदार्थ नहीं। सर विलियम हैमिल्टन (1788-1856) तथा उनके शिष्य हेनरी लांग्यविल मैंसेल (1820-1871) का मत है कि हम केवल सकारण अर्थात्‌ कारणों द्वारा उत्पादित अथवा सीमित एवं सापेक्ष पदार्थों को ही जान सकते हैं, असीम, निरपेक्ष एवं कारणहीन<ref>अन्कंडिशंड</ref> तत्वों को नहीं। तात्पर्य यह कि हमारा ज्ञान सापेक्ष है, मानवीय अनुभव द्वारा सीमित है, और इसीलिए निरपेक्ष असीम को पकड़ने में असमर्थ है। ऐसा ही मंतव्य [[हरबर्ट स्पेन्सर]] (1820-1907) ने भी प्रतिपादित किया है।
 
यूरोपीय दर्शन में जहाँ संशयवाद का जन्म [[यूनान]] में ही हो चुका था, वहाँ अज्ञेयवाद आधुनिक युग की विशेषता है। अज्ञेयवादियों में पहला नाम जर्मन दार्शनिक 'कांट' (1724-1804) का है। कांट की मान्यता है कि जहाँ व्यवहार जगत<ref>फिनामिनल वर्ल्ड</ref> बुद्धि या प्रज्ञा की धारणाओं<ref>कैटेगीरीज ऑव अंडरस्टैंडिंग</ref> द्वारा निर्धार्य, अतएव ज्ञेय नहीं है। तत्व दर्शन द्वारा अतींद्रिय पदार्थों का ज्ञान संभव नहीं है। फ्रेंच विचारक 'कास्ट' (1798-1857) का भी, जिसने भाववाद<ref>पाजिटिविज्म</ref> का प्रवर्तन किया, यह मत है कि मानव ज्ञान का विषय केवल गोचर जगत्‌ है, अतींद्रिय पदार्थ नहीं। सर विलियम हैमिल्टन (1788-1856) तथा उनके शिष्य हेनरी लांग्यविल मैंसेल (1820-1871) का मत है कि हम केवल सकारण अर्थात्‌ कारणों द्वारा उत्पादित अथवा सीमित एवं सापेक्ष पदार्थों को ही जान सकते हैं, असीम, निरपेक्ष एवं कारणहीन<ref>अन्कंडिशंड</ref> तत्वों को नहीं। तात्पर्य यह कि हमारा ज्ञान सापेक्ष है, मानवीय अनुभव द्वारा सीमित है, और इसीलिए निरपेक्ष असीम को पकड़ने में असमर्थ है। ऐसा ही मंतव्य [[हरबर्ट स्पेन्सर]] (1820-1907) ने भी प्रतिपादित किया है।

12:24, 25 अक्टूबर 2017 का अवतरण

अज्ञेयवाद 'ज्ञान मीमांसा' का विषय है, यद्यपि उसका कई पद्धतियों में 'तत्व दर्शन' से भी संबंध जोड़ दिया गया है। इस सिद्धांत की मान्यता है कि जहाँ विश्व की कुछ वस्तुओं का निश्चयात्मक ज्ञान संभव है, वहाँ कुछ ऐसे तत्व या पदार्थ भी हैं, जो अज्ञेय हैं, अर्थात जिनका निश्चयात्मक ज्ञान संभव नहीं है।

भिन्नता

'अज्ञेयवाद' 'संदेहवाद' से भिन्न है; 'संदेहवाद' या 'संशयवाद' के अनुसार विश्व के किसी भी पदार्थ का निश्चयात्मक ज्ञान संभव नहीं है। 'भारतीय दर्शन' के संभवत किसी भी संप्रदाय को अज्ञेयवादी नहीं कहा जा सकता। वस्तुत भारत में कभी भी संदेहवाद एवं अज्ञेयवाद का व्यवस्थित प्रतिपादन नहीं हुआ। नैयायिक सर्वज्ञेयवादी हैं, और नागार्जुन तथा श्रीहर्ष जेसे मुक्तिवादी भी पारिश्रमिक अर्थ में 'संशयवादी' अथवा 'अज्ञेयवादी' नहीं कहे जा सकते।[1]

आधुनिक युग की विशेषता

यूरोपीय दर्शन में जहाँ संशयवाद का जन्म यूनान में ही हो चुका था, वहाँ अज्ञेयवाद आधुनिक युग की विशेषता है। अज्ञेयवादियों में पहला नाम जर्मन दार्शनिक 'कांट' (1724-1804) का है। कांट की मान्यता है कि जहाँ व्यवहार जगत[2] बुद्धि या प्रज्ञा की धारणाओं[3] द्वारा निर्धार्य, अतएव ज्ञेय नहीं है। तत्व दर्शन द्वारा अतींद्रिय पदार्थों का ज्ञान संभव नहीं है। फ्रेंच विचारक 'कास्ट' (1798-1857) का भी, जिसने भाववाद[4] का प्रवर्तन किया, यह मत है कि मानव ज्ञान का विषय केवल गोचर जगत्‌ है, अतींद्रिय पदार्थ नहीं। सर विलियम हैमिल्टन (1788-1856) तथा उनके शिष्य हेनरी लांग्यविल मैंसेल (1820-1871) का मत है कि हम केवल सकारण अर्थात्‌ कारणों द्वारा उत्पादित अथवा सीमित एवं सापेक्ष पदार्थों को ही जान सकते हैं, असीम, निरपेक्ष एवं कारणहीन[5] तत्वों को नहीं। तात्पर्य यह कि हमारा ज्ञान सापेक्ष है, मानवीय अनुभव द्वारा सीमित है, और इसीलिए निरपेक्ष असीम को पकड़ने में असमर्थ है। ऐसा ही मंतव्य हरबर्ट स्पेन्सर (1820-1907) ने भी प्रतिपादित किया है।

ज्ञान का विषय

सब प्रकार का ज्ञान संबंधमूलक अथवा सापेक्ष होता है; ज्ञान का विषय भी संबंधों वाली वस्तुएँ है। किसी पदार्थ को जानने का अर्थ है उसे दूसरी वस्तुओं से तथा अपने से संबंधित करना, अथवा उन स्थितियों का निर्देश करना जो उसमें परिवर्तन पैदा करती है। ज्ञान सीमित वस्तुओं का ही हो सकता है। चूँकि असीम तत्व संबंधहीन एवं निरपेक्ष है, इसलिए वह अज्ञेय है। तथापि स्पेंसर का एक ऐसी असीम शक्ति में विश्वास है जो गोचर जगत् को हमारे सामने उत्क्षिप्त करती है। सीमा की चेतना ही असीम की सत्ता का प्रमाण है। यद्यपि स्पेंसर असीम तत्व को अज्ञेय घोषित करता है, फिर भी उसे उसकी सत्ता में कोई संदेह नहीं है। वह यहाँ तक कहता है कि बाह्य वस्तुओं के रूप में कोई अज्ञात सत्ता हमारे सम्मुख अपनी शक्ति की अभिव्यंजना कर रही है। 'एग्नास्टिसिज्म' शब्द का सर्वप्रथम आविष्कार और प्रयोग सन 1870 में टॉमस हेनरी हक्सले (1825-1895) द्वारा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अज्ञेयवाद (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 31 जनवरी, 2014।
  2. फिनामिनल वर्ल्ड
  3. कैटेगीरीज ऑव अंडरस्टैंडिंग
  4. पाजिटिविज्म
  5. अन्कंडिशंड

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