रामानुज

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रामानुज
रामानुजाचार्य
रामानुजाचार्य
पूरा नाम रामानुजाचार्य
जन्म 1017 ई.[1]
जन्म भूमि पेरुम्बुदूर गाँव, मद्रास (अब चेन्नई)
मृत्यु 1137 ई.[1]
मृत्यु स्थान श्रीरंगम, तमिलनाडु
अभिभावक पिता- आसूरि केशव दीक्षित
गुरु यादव प्रकाश
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र धर्म प्रवर्तक और संत, दार्शनिक
मुख्य रचनाएँ 'श्रीभाष्य', 'वेदान्त संग्रह', 'वेदान्त द्वीप', 'गीता भाष्य', 'वेदान्त सार' आदि।
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी रामानुज की बुद्धि इतनी कुशाग्र थी कि ये अपने गुरु की व्याख्या में भी दोष निकाल दिया करते थे। इनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत 'विशिष्टाद्वैत' कहलाता है।

रामानुजाचार्य (अंग्रेज़ी: Ramanujacharya) वेदान्त दर्शन परम्परा में विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक हैं। उपनिषद, भगवदगीता एवं ब्रह्मसूत्र के श्री शंकराचार्य की अद्वैतपरक व्याख्या के प्रतिपाद के रूप में रामानुज ने विशिष्टाद्वैत का प्रतिपादन किया है। इनके समय में जैन और बौद्ध धर्मों के प्रचार के कारण वैष्णव धर्म संकट ग्रस्त था। रामानुज ने इस संकट का सफलतापूर्वक प्रतिकार किया। साथ ही इन्होंने शंकर के अद्वैत मत का खंडन किया और अपने मत के प्रवर्तन के लिए अनेक ग्रंथों की रचना की।

जीवन परिचय

वैष्णव मत की पुन: प्रतिष्ठा करने वालों में रामानुज या रामानुजाचार्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनका जन्म 1017 ई. में मद्रास के समीप पेरुबुदूर गाँव में हुआ था। श्रीरामानुजाचार्य के पिता का नाम केशव भट्ट था। जब श्रीरामानुजाचार्य की अवस्था बहुत छोटी थी, तभी इनके पिता का देहावसान हो गया। इन्होंने कांची में यादव प्रकाश नामक गुरु से वेदाध्ययन किया। इनकी बुद्धि इतनी कुशाग्र थी कि ये अपने गुरु की व्याख्या में भी दोष निकाल दिया करते थे। फलत: इनके गुरु ने इन पर प्रसन्न होने के बदले ईर्ष्यालु होकर इनकी हत्या की योजना बना डाली, किन्तु भगवान की कृपा से एक व्याध और उसकी पत्नी ने इनके प्राणों की रक्षा की। इन्होंने कांचीपुरम जाकर वेदांत की शिक्षा ली। रामानुज के गुरु ने बहुत मनोयोग से शिष्य को शिक्षा दी। वेदांत का इनका ज्ञान थोड़े समय में ही इतना बढ़ गया कि इनके गुरु यादव प्रकाश के लिए इनके तर्कों का उत्तर देना कठिन हो गया। रामानुज की विद्वत्ता की ख्याति निरंतर बढ़ती गई। वैवाहिक जीवन से ऊब कर ये संन्यासी हो गए। अब इनका पूरा समय अध्ययन, चिंतन और भगवत-भक्ति में बीतने लगा। इनकी शिष्य-मंडली भी बढ़ने लगी। यहाँ तक कि इनके पहले के गुरु यादव प्रकाश भी इनके शिष्य बन गए। रामानुज द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत 'विशिष्टाद्वैत' कहलाता है।

श्रीरामानुचार्य गृहस्थ थे, किन्तु जब इन्होंने देखा कि गृहस्थी में रहकर अपने उद्देश्य को पूरा करना कठिन है, तब इन्होंने गृहस्थ आश्रम को त्याग दिया और श्रीरंगम जाकर यतिराज नामक संन्यासी से सन्न्यास धर्म की दीक्षा ले ली। इनके गुरु यादव प्रकाश को अपनी पूर्व करनी पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ और वे भी सन्न्यास की दीक्षा लेकर श्रीरंगम चले आये और श्रीरामानुजाचार्य की सेवा में रहने लगे। आगे चलकर आपने गोष्ठीपूर्ण से दीक्षा ली। गुरु का निर्देश था कि रामानुज उनका बताया हुआ मन्त्र किसी अन्य को न बताएं। किंतु जब रामानुज को ज्ञात हुआ कि मन्त्र के सुनने से लोगों को मुक्ति मिल जाती है तो वे मंदिर की छत पर चढ़कर सैकड़ों नर-नारियों के सामने चिल्ला-चिल्लाकर उस मन्त्र का उच्चारण करने लगे। यह देखकर क्रुद्ध गुरु ने इन्हें नरक जाने का शाप दिया। इस पर रामानुज ने उत्तर दिया- यदि मन्त्र सुनकर हज़ारों नर-नारियों की मुक्ति हो जाए तो मुझे नरक जाना भी स्वीकार है।

चरित्र

श्रीरामानुजाचार्य बड़े ही विद्वान, सदाचारी, धैर्यवान और उदार थे। चरित्रबल और भक्ति में तो ये अद्वितीय थे। इन्हें योग सिद्धियाँ भी प्राप्त थीं। ये श्रीयामुनाचार्य की शिष्य-परम्परा में थे। जब श्रीयामुनाचार्य की मृत्यु सन्निकट थी, तब उन्होंने अपने शिष्य के द्वारा श्रीरामानुजाचार्य को अपने पास बुलवाया, किन्तु इनके पहुँचने के पूर्व ही श्रीयामुनाचार्य की मृत्यु हो गयी। वहाँ पहुँचने पर इन्होंने देखा कि श्रीयामुनाचार्य की तीन अंगुलियाँ मुड़ी हुई थीं। श्रीरामानुजाचार्य को समझ लिया कि श्रीयामुनाचार्य इनके माध्यम से 'ब्रह्मसूत्र', 'विष्णुसहस्त्रनाम' और अलवन्दारों के 'दिव्य प्रबन्धम्' की टीका करवाना चाहते हैं। इन्होंने श्रीयामुनाचार्य के मृत शरीर को प्रणाम किया और कहा- 'भगवन्! मैं आपकी इस अन्तिम इच्छा को अवश्य पूरी करूँगा।'

रामानुज के द्वारा चलाये गये सम्प्रदाय का नाम भी श्रीसम्प्रदाय है। इस सम्प्रदाय की आद्यप्रवर्ति का श्रीमहालक्ष्मी जी मानी जाती हैं। श्रीरामानुजाचार्य ने देश भर में भ्रमण करके लाखों नर-नारियों को भक्तिमार्ग में प्रवृत्त किया। इनके चौहत्तर शिष्य थे। इन्होंने महात्मा पिल्ललोका चार्य को अपना उत्तराधिकारी बनाकर एक सौ बीस वर्ष की अवस्था में इस संसार से प्रयाण किया। इनके सिद्धान्त के अनुसार भगवान विष्णु ही पुरुषोत्तम हैं। वे ही प्रत्येक शरीर में साक्षी रूप से विद्यमान हैं। भगवान नारायण ही सत हैं, उनकी शक्ति महा लक्ष्मी चित हैं और यह जगत उनके आनन्द का विलास है। भगवान श्रीलक्ष्मीनारायण इस जगत के माता-पिता हैं और सभी जीव उनकी संतान हैं।

रामानुज की रचनाएँ

रामानुज ने श्रीरंगम् नामक स्थान पर रहकर भी शास्त्रों का अध्ययन किया और वहाँ पर अपने जीवन के परवर्ती वर्ष बिताकर ग्रंथों की रचना की। श्रीरामानुजाचार्य ने भक्तिमार्ग का प्रचार करने के लिये सम्पूर्ण भारत की यात्रा की। इन्होंने भक्तिमार्ग के समर्थ में गीता और ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा। वेदान्त सूत्रों पर इनका भाष्य श्रीभाष्य के नाम से प्रसिद्ध है।

रामानुज-विरचित सर्वप्रथम ग्रंथ 'वेदान्त संग्रह' है, जिसमें उन्होंने उन श्रंति वाक्यों की रचना की है, जो अद्वैतवादियों के अनुसार अभेद की स्थापना करते हैं। इसके बाद उन्होंने अपने प्रमुख ग्रन्थ 'श्रीभाष्य' की रचना की जो ब्रह्मसूत्र पर भाष्य है। तत्पश्चात् उन्होंने ब्रह्मसूत्र पर 'वेदान्त द्वीप' और 'वेदान्त सार' नामक दो छोटी टीकाएं लिखी, जो 'श्रीभाष्य' पर आधारित हैं। अन्त में उन्होंने 'गीता भाष्य' की रचना की। उन्होंने प्रस्थानत्रयी में से उपनिषदों पर कोई स्वतंत्र टीकाएं नहीं लिखी, परन्तु प्रमुख औपनिवेशिक वाक्यों की वेदार्थ संग्रह में व्याख्या की है। इन ग्रन्थों के अलावा दो अन्य ग्रन्थ- 'गद्यत्रयम' और 'नित्य ग्रन्थ' रामानुज के नाम से सम्बद्ध हैं, परन्तु इनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है। वे दार्शनिक न होकर भक्तिपरक रचनाएं हैं।

रामानुज की समस्त रचनाओं में उनके पांडित्य का उत्कृष्ट प्रदर्शन मिलता है। ये उनके प्रौढ़ मस्तिष्क की उपज तथा सूक्ष्म चिन्तन, गहन अध्ययन एवं प्रगाढ़ अनुभव के प्रमाण हैं। इनमें मुख्यत: उन्होंने पहले अद्वैतवाद के इन आधारभूत सिद्धांतों का खंडन किया कि ब्रह्म निर्विशेष चिन्मात्र है, एक्मेव सत्ता है और नानात्वमय जगत् मिथ्या है। इसके उपरान्त उन्होंने बड़े विद्वत्तापूर्ण ढंग से अपने दार्शनिक पक्ष का निरूपण किया है और साथ ही यह भी बताया है कि किस तरह वह श्रुति-सम्मत है।

शंकराचार्य और रामानुज

शंकर के निर्विशेषाद्वैत की इस तात्विक स्थापना का मूल आधार यह मान्यता है कि सत् और चित् (संवित्) में पूर्ण तादात्म्य है और मूलत: चित् निर्विशेष है। परन्तु रामानुज का कहना है कि चित् का निर्विशेषत्व किसी भी प्रमाण के द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता है, क्योंकि सभी प्रमाण अनुभूति पर आधारित होते हैं और अनुभूति सदैव सविशेष होती है। निर्विशेषाद्वैत के प्रवर्तक भी चित् में 'स्वयं प्रकाशता' आदि के विशेषणों को स्वीकार करते हैं। वे ये तर्क नहीं कर सकते कि ये विशेषण मूलत: चित् ही हैं, क्योंकि इनमें मौलिक भेद हैं। चित् का सत् से तादात्म्य मानना भी अप्रामाणिक है। चित् अनिवार्यत: ज्ञाता और ज्ञेय को अपने से पृथक् मानकर चलता है। यदि चित् एवं ज्ञेय में पूर्ण तादात्म्य होता तो समस्त ज्ञान निरर्थक एवं पुनरावृत्ति मात्र होता। यह सही है कि ज्ञान संबंध दो पूर्णत: पृथक् पदों में स्थापित नहीं हो सकता, पर दो तादात्म्युक्त पदों में ऐसे संबंधों की चर्चा करना भी निरर्थक है। यद्यपि प्रत्येक अभिकथन अभेद का निरूपक है, तथापि यह विशुद्ध तादात्म्य न होकर भिन्नत्व से अनुस्युत है। ज्ञान सत्ता का विशेषण है और उससे अभेद एवं भेद दोनों के समन्वित रूप से संबंधित है। रामानुज ने इस मान्यता को सुव्यवस्थित एवं प्रभावकक रूप से प्रतिपादित किया कि समस्त ज्ञान सविशेष होते हैं। अविशिष्टग्राही ज्ञान होता ही नहीं। ज्ञान की ही तरह ज्ञेय सत्ता भी निर्विशेष एकत्व नहीं बल्कि ऐसा एकत्व है, जिसमें नानात्व के अंश विशेषण रूप से अंतर्निहित हैं। ज्ञान के समस्त उपकरण प्रत्यक्ष, अनुमानादि सविशेष एकत्व, या विशिष्टाद्वैत का ही बोध कराते हैं। प्रत्यक्ष चाहे वह निर्विकल्पक हो या सविकल्पक सन्मात्रग्राही नहीं होता, बल्कि उन्हीं विषयों को ग्रहण करता है, जो सविशेष हैं। निर्विकल्प प्रत्यक्ष अनिश्चित एवं अस्पष्ट होता है, पर निर्विशेष नहीं। अनुमित ज्ञान की सविशेषता तो सुस्पष्ट है ही। श्रुति भी निर्विशेषत्व का प्रतिपादन नहीं करती है। जिन श्रुति वाक्यों से चरम तत्व से गुणों का निषेध हुआ है, वे यथार्थ में हेय गुणों का ही निषेध करते हैं। समस्त गुणों का नहीं। इस तरह रामानुज ने ज्ञान एवं सत्ता के क्षेत्र में एकत्व एवं नानात्व में समन्वय स्थापित कर वेदान्त में नई मान्यताएं स्थापित की हैं। रामानुज शंकर की ही तरह अद्वैतवादी हैं, परन्तु जगत् के नाना जड़-चेतन तत्वों को मायिक माने बिना उसी उद्वय तत्व ब्रह्म के अंश मानते हैं। समस्त नानात्वमय परिणामी जगत् ब्रह्म में ही समाविष्ट है। ब्रह्म चित् और अचित् दोनों से विशिष्ट है और उसकी अद्वैतावस्था सविशिष्ट है। वह एक ऐसा विशिष्ट है, जो संश्लिष्ट स्वरूप में एकत्व और नानात्व को समाविष्ट करता है। इस तरह जहाँ शंकर के केवलाद्वैत में पारमार्थिक दृष्टि से ब्रह्म के अतिरिक्त सब कुछ का निषेध किया गया है। वहाँ रामानुज के विशिष्टाद्वैत में ब्रह्म में ही सब कुछ को स्वीकार किया गया है। वे शंकर की ही तरह इस बात पर ज़ोर देते हैं कि ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य कोई तत्व नहीं है, पर उनका 'अन्य' से तात्पर्य केवल विजातीय एवं सजीतीय भेद है, स्वगत नहीं है। रामानुज के द्वारा मान्य एक एकानेकरूप इस चरम तत्व की तुलना एक ऐसे सजीव देह से की जा सकती है, जो भेदविहीन विशुद्ध एकत्व न होकर एक ऐसा एकत्व है, जिसमें नानात्व निहित है और जो नानात्व में ही अपनी अभिव्यक्ति करता है। इस दार्शनिक स्थिति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें जीव के पृथक् व्यक्तित्व और जगत् की सत्यता को पूर्णत: स्वीकार किया गया है तथा सर्वव्यापी चरमतत्व में उसकी पूर्णता को हानि पहुँचाए बिना उनको समुचित स्थान एवं मूल्य प्रदान किया गया है।

देहात्म भाव

यदि ब्रह्म एक विशिष्ट है, जिसमें जीव और जगत् विशेषण रूप से स्थित हैं तो प्रश्न यह उपस्थित होता है कि इनका पारस्परिक संबंध किस प्रकार का है। इसकी व्याख्या के लिए रामानुज देहात्म भाव की सहायता लेते हैं। ब्रह्म आत्मा या केन्द्रीभूत तत्व है। जीव और जगत् ब्रह्म के देह हैं। ब्रह्म, जीव और जगत् तीनों सत्य हैं, भिन्न हैं, परन्तु केवल ब्रह्म स्वाधीन है तथा जीव और जगत् ब्रह्मधीन एवं ब्रह्म नियंत्रित हैं। जीव और जगत् किस अर्थ में ब्रह्म के देह हैं, यह स्पष्ट करने के लिए रामानुज देह की निम्नलिखित परिभाषा देते हैं-

'देह वह द्रव्य है, जिसे एक चेतन आत्मा अपने प्रयोजन हेतु धारण करती है, नियंत्रित करती है, कार्य में प्रवृत्त करती है और जो पूर्णतया उस आत्मा के अधीनस्थ रहती है।'

इस दृष्टि से समस्त जीव-जगत् ब्रह्म के देह हैं, क्योंकि वे ब्रह्म पर आधारित, ब्रह्म के द्वारा नियंत्रित एवं ब्रह्म के अधीनस्थ रहते हैं। ब्रह्म और जीव-जगत् के इस विशिष्ट संबंध को रामानुज अपृथक्सिद्ध के नाम से पुकारते हैं, जिसमें पूर्ण तादात्म्य और पूर्ण भेद दोनों का निषेध किया गया है। इसमें संबंधियों के तादात्म्य पर ज़ोर तो दिया ही गया है, पर यह तादात्म्य संबंध और फलत: किसी एक संबंधी को ही समाप्त न कर दे, इस दृष्टि से भेद पर भी बल देकर संबंध के अस्तित्व की रक्षा की गई है।

सामानाधिकरण्य के सिद्धांत

सामानाधिकरण्य के आधार पर ही रामानुज उपनिषदों के 'तत्वमसि' आदि महावाक्यों की व्याख्या करते हैं। इसमें 'त्वं' शब्द, जो साधारणत: जीव के लिए आता है, वस्तुत: ब्रह्म का बोधक है, जो जीव में अंतर्यामी रूप से स्थित है और जिसका जीव अंश रूप है। 'तत्' शब्द भी ब्रह्म का ही द्योतक है, परन्तु यह उसके उस पक्ष का ही द्योतक है, जो जगत् का कारण रूप है। इस तरह इस महावाक्य में ब्रह्म के दो पृथक् पक्षों की एकता का निरूपण है। इसका फलितार्थ यह है कि यद्यपि जीव जगत वास्तविक एवं भिन्न है, तथापि जिस ब्रह्म में अंतर्भूत हैं, वह एक ही हैं।

एकत्व और नानात्व

रामानुज से पूर्व शंकर ने एकत्व एवं नानात्व को परस्पर विरुद्ध स्वभाव वाले मानकर विशुद्ध चैतन्य के एकत्व को ही चरम तत्व के रूप में स्वीकार किया था और पारस्परिक दृष्टि से जगत् के नानात्व को मिथ्या घोषित कर दिया था। रामानुज ने शंकर द्वारा प्रतिपादित निर्विशैषाद्वैत के इन आधारभूत सिद्धांतों का सबल प्रतिवाद कर कि चरम तत्व निर्विशेष चिन्मात्र है तथा नानात्वमय जगत् मायाजनित एवं मिथ्या है, वेदान्त की सगुणवादी धारा को तार्किक आधार पर पुष्ट करने का प्रयास किया है।

एक चरम तत्व किस तरह नानात्वमय जगत् से अपृथक् रूपेण संबंधित होता है और किस तरह वह अनेक बिन्दुओं में व्यक्त होते हुए भी एकत्व को बनाये रख सकता है, इस मान्यता का समाधान रामानुज व्याकरण में प्रयुक्त सामानाधिकरण्य के सिद्धांत की सहायता से करते हैं। उन्होंने अद्वैत के एकत्व में ही अनुस्युत भेद का सजीव तत्व स्वीकार किया, जिसमें नानात्व को एकत्व का विरोधी नहीं बल्कि विशेषण माना गया। जिस तरह एक वाक्य में भिन्नार्थक शब्दों का समुच्चय एकीकृत हो एकार्थ का द्योतक होता है, उसी तरह एकत्व और नानात्व मिलकर एक समन्वयात्मक एकता में समाविष्ट होते हैं। इस सिद्धांत के द्वारा रामानुज न केवल ब्रह्म एवं जीव जगत् के संबंध की ही व्याख्या करते हैं, अपितु इसके साथ साथ ब्रह्म के सविशेष स्वरूप तथा जीव जगत् की वास्तविकता की भी सिद्धि करते हैं।

रामानुज द्वारा मान्य इस अपृथक्सिद्ध संबंध को अंगीय एकता की अवधारणा से समझा जा सकता है, जिसमें ब्रह्म प्रधान तत्व है और जीव जगत् उस पर आश्रित गौण तत्व है। एकता की इस अवधारणा को 'नीलकमल' इस संयुक्त पद के अर्थ-बोध से जाना जा सकता है। यहाँ 'नील' गुण 'कमल' द्रव्य से भिन्न है, लेकिन साथ ही 'नील' गुण अपने अस्तित्व के लिए 'कमल' पर आश्रित है और उससे पृथक् उसका अस्तित्व नहीं है। कमल नामक पदार्थ को इस अर्थ में एकत्व कहा गया है कि उसमें नीलत्व का गुण अंतर्भूत है। नील गुण और कमल द्रव्य में वास्तविक भेद है। मात्र आभास रूप नहीं, पर यह भेद बाह्य न होकर आंतरिक है।

दृष्टिकोण

रामानुज चरम तत्व को अनन्त गुण सम्पन्न परम पुरुष के रूप में स्वीकार करते हैं। शंकर ने ब्रह्म या चरम तत्व के निर्गुण परक और सगुण परक, द्विविध वर्णन कर एक को पारमार्थिक दृष्टि और दूसरे को व्यावहारिक दृष्टि कहकर दोनों में वैचारिक भेद किया है। सगुण ब्रह्म की सत्ता औपाधिक तथा जागतिक प्रपंच तक ही सीमित मानी गई है। रामानुज इस वर्गीकरण के पूर्ण विरोधी हैं। उनके अनुसार ब्रह्म के सम्बन्ध में एक ही दृष्टिकोण हो सकता है और वह है सगुणता का। ब्रह्म में गुणों का बाहुल्य उनके स्वरूप के नानात्व का बोध नहीं कराता, क्योंकि पृथक् होते हुए भी समस्त गुण एक ही ब्रह्म में अस्तित्व रखते हैं और उसकी उद्वयता को हानि नहीं पहुँचाते।

वेदान्त दर्शन

जगत की तात्विक प्रस्थिति के बारे में वेदान्त दर्शन में मायावाद एवं लीलावाद की दो पृथक् एवं पूर्णत: विरोधी परम्पराएं रही हैं। इन दोनों परम्पराओं में मौलिक भेद सत्ता के प्रति दृष्टिकोण में है। दोनों यह मानते हैं कि सृष्टि प्रक्रिया का मूल सृजन की चाह है और उस चाह को चरमतत्व (ब्रह्म) पर आरोपित एवं मिथ्या माना गया है, जबकि लीलावाद में उसे ब्रह्म की स्वाभाविक शक्ति एवं वास्तविक माना गया है। दोनों के अनुसार जगत् ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है, पर एक में वह आभास मात्र है, जबकि दूसरे में वास्तविक। रामानुज मायावाद का प्रबल प्रतिवाद कर लीलावाद का समर्थन करते हुए जगत् के प्रति वास्तवलक्षी दृष्टिकोण अपनाते हैं। वे जगत् को उतना ही वास्तविक मानते हैं, जितना की ब्रह्म है। ब्रह्म जगत की सृष्टि का निमित्त एवं उपादान कारण है। किन्तु इस प्रक्रिया में ब्रह्म निर्विकार रहता है। क्रिया शक्ति उसकी सत्ता या स्वरूप में बाधा नहीं पहुँचाती। प्रलय की अवस्था में चित् और अचित् अव्यक्त रूप में ब्रह्म में रहते हैं। ब्रह्म को इस अवस्था में 'कारण-ब्रह्म' कहते हैं। जब सृष्टि होती है, तब ब्रह्म में चित् एवं अचित् व्यक्त रूप में प्रकट होते हैं। इस अवस्था को कार्य ब्रह्म कहते हैं। ब्रह्म अपनी दोनों विशिष्ट अवस्थाओं में अद्वैत रूप है। केवल भेद यह है कि पहले में अद्वैत एकविध है तो दूसरे में अनेकविध हो जाता है। दोनों अवस्थाएं समान रूप से सत्य हैं। अभेद-श्रुतियां कारण-ब्रह्म की बोधक हैं और और भेद-श्रुतियां कार्य-ब्रह्म की।

मायावाद का खंडन

अद्वैत वेदांत में सत्ता के प्रति जो दृष्टिकोण अपनाया गया है, उसमें यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि ब्रह्म एकमेव सत्ता है तो वैविध्यमय जगत की, जिसका हम अनुभव करते हैं, कैसे व्याख्या की जाये। इसका उत्तर माया के सिद्धांत को प्रस्तुत कर अवश्य दिया गया, परन्तु माया अपने आप में अनिर्वचनीय है, जो वास्तविक समाधान की अपेक्षा वैचारिक रहस्य या पहेली सी लगती है। यह एकत्व और नानात्व के विरोध को दूर करने के लिए प्रस्तुत की गई है। परन्तु स्वयं इसमें सत् और असत् के निषेध[2] का आत्मविरोध है। रामानुज सत्ता के प्रति सजीव दृष्टिकोण रखते हैं। अत: उनके लिए एकत्व और नानात्व के समन्वय का प्रश्न ही नहीं उठता। वे इन दोनों को विभक्त न मानकर मात्र पृथक् या एक ही तत्व के दो पक्ष मानते हैं। उनके मतानुसार एकमेव सत्ता अपने सविशेष स्वरूप में जगत के नाना चराचर तत्वों का अंग के रूप में समावेश कर लेती हैं। तार्किक दृष्टि से यह आवश्यक भी है कि यदि ब्रह्म में अभिव्यक्ति को स्वीकार कर लिया जाये, चाहे वह अभिव्यक्ति आरोपित हो या वास्तविक, तो उन नाना रूपों को भी ब्रह्म में स्वीकार करना पड़ेगा, जिनमें ब्रह्म की अभिव्यक्ति हुई है। अद्वैतवादी इस अभिव्यक्त नानात्व को मिथ्या घोषित करते हैं और मायावाद का प्रवर्तन करते हैं, जो रामानुज को पूर्णत: श्रुति, युक्ति एवं अनुभव के साक्ष्य के विपरीत लगता है। अत: वे सात तर्कों को प्रस्तुत कर मायावाद का खंडन करने का प्रयास करते हैं, जो निम्नलिखित हैं-

आश्रयानुपपत्ति

रामानुज यह प्रश्न उपस्थित करते हैं कि जिस अविद्या से संसार की उत्पत्ति होती है, उसका आधार क्या है। यदि यह कहा जाये कि वह जीवाश्रित है,[3] तो यह शंका होती है कि जब जीव स्वयं अविद्या का कार्य है तो फिर जो कारण है, वह कार्य पर कैसे निर्भर रह सकता है। यदि यह कहा जाये कि अविद्या ब्रह्माश्रित है,[4] तो फिर ब्रह्म को विशुद्ध चैतन्य कैसे कह सकते हैं। और न अविद्या को एक पृथक् स्वाश्रयी तत्व ही माना जा सकता है, क्योंकि इससे अद्वैत के सिद्धांत की हानि होती है।

तिरोधानानुपपत्ति

अद्वैत के अनुसार अविद्या ब्रह्म को आच्छादित कर अध्यारोपण द्वारा जगत को अभिव्यक्त करती है। परन्तु ब्रह्म, जो प्रकाश है, अध्यारोप का अधिष्ठान या विषय कैसे हो सकता है। यदि फिर भी उसे ऐसा माना गया तो इससे ब्रह्म के स्वप्रकाशत्व की हानि होगी।

स्वरूपानुपपत्ति

यदि हम अविद्या की सत्ता और उसमें अध्यारोप की क्षमता स्वीकार करें भी, तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि उसका स्वरूप क्या है। उसके स्वरूप को न तो सत् माना जा सकता है और न ही असत्। अद्वैतवादी उसे सत् मानते ही नहीं। पर उसे असत् भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि तब यह प्रश्न होगा कि क्या वह सत् (दृशि) रूप में असत् है या चित् (दृष्टा) रूप में असत् है। वह सत् रूप में असत् नहीं हो सकती, क्योंकि ब्रह्म ही सत् है और वह नित्य है। यदि उसे चित् रूप में असत् माना जाये तो सत् चित् (ब्रह्म) के अलावा असत् चित् की कल्पना करनी होगी। इसके अलावा इस प्रस्थापना में अनवस्था दोष होगा, क्योंकि यदि असत् जगत के कारण के रूप में अविद्या को माना जाए और अविद्या स्वयं भी असत् हो तो इसके भी कारण के रूप में किसी अन्य सत् तत्व को मानना पड़ेगा। यदि इस दोष के निवारण हेतु यह माना जाए कि सत् चित् जो स्वयं ब्रह्म है, अविद्या है तो इसका अर्थ यह होगा कि ब्रह्म स्वयं ही कारण है। ऐसी स्थिति में ब्रह्मेतर किसी तत्व को मानना आवश्यक होगा। फिर ब्रह्म शाश्वत होने से उसका कार्यरूप जगत भी शाश्वत होगा। अत: अविद्या को ब्रह्म से पृथक् तथा सत् माने बिना जगत की व्याख्या नहीं हो सकती।

अनिर्वचनीयानुपपत्ति

अविद्या को न तो सत् और न ही असत् मानते हुए अद्वैत वेदान्ति उसे अनिर्वचनीय कहते हैं। इसके स्वरूप को वे भावरूप अज्ञान मानते हैं। परन्तु ऐसा कहने का कुछ अर्थ नहीं निकलता। अज्ञान का अर्थ ज्ञान का अभाव है। तब फिर वह भावरूप कैसे माना जा सकता है। अविद्या का ज्ञान न तो प्रत्यक्ष और न अनुमान होता है। कोई भी अनुभव भ्रामक नहीं होता है। भ्रम में भी अर्धज्ञान ही होता है। उसे अज्ञान नहीं कहा जा सकता। इस तरह न तो सिद्धांतत: और न व्यवहार से अविद्या की सिद्धि होती है।

प्रमाणानुपपत्ति

अविद्या की सिद्धि के लिए शास्त्रों में भी कोई प्रमाण नहीं है। प्रकृति को 'माया' कहकर उपनिषदों ने उल्लेख किया है, परन्तु वहाँ माया का तात्पर्य अज्ञान नहीं बल्कि ब्रह्म की विशिष्ट शक्ति है।

निवर्तकानुपपत्ति

अविद्या का कोई निवर्तक नहीं हो सकता, क्योंकि अद्वैतवादियों के अनुसार निर्विशेष ज्ञान ही अविद्या का निवारण कर सकता है और ऐसा ज्ञान कदापि संभव नहीं, क्योंकि सभी ज्ञान अनिवार्यत: सविशेष होते हैं।

निवर्त्यापपत्ति

अविद्या का निवारण भी संभव नहीं है, क्योंकि वह भाव रूप है और भाव रूप सत्ता का कभी विनाश नहीं होता। इस तरह मायावाद का खंडन कर रामानुज यह प्रतिपादित करते हैं कि सृष्टि वास्तविक है। जगत के पदार्थ परिणामी हैं, नश्वर हैं। पर इस आधार पर उन्हें मिथ्या नहीं माना जा सकता।

रामानुज के दार्शनिक विचार

रामानुज के अनुसार समस्त भौतिक पदार्थ अचित् या प्रकृति के ही परिणाम हैं। यह मान्यता सांख्य दर्शन में भी है। परन्तु उससे रामानुज का यह मतभेद है कि ये प्रकृति को ब्रह्म का अंश एवं ब्रह्म द्वारा परिचालित मानते हैं। ब्रह्म की इच्छा (विमर्श) से प्रकृति तेज, जल एवं पृथ्वी में विभक्त होती है, जो क्रमश: सत्य, रजस् एवं तमस् रूप हैं। इन्हीं तीन तत्वों के नाना प्रकार के सम्मिश्रण से जगत के स्थूल पदार्थों की उत्पत्ती होती है। यह सम्मिश्रण क्रिया त्रिवृतकरण कहलाती है।

ब्रह्म

यदि ब्रह्म को जगत का कारण माना जाए तो यह प्रश्न उठता है कि पूर्ण एवं निर्विकारी ब्रह्म इस अपूर्ण एवं विकारशील जगत को क्यों उत्पन्न करता है। इसी तरह चित् एवं अचित् ब्रह्म के वास्तविक अंश है तो क्या उनके दोष एवं विकार अंशी ब्रह्म में दोष एवं विकार उत्पन्न नहीं करते। इस विषम स्थिति से बचने के लिए रामानुज देहात्म संबंध को अधिक स्पष्ट करते हैं। जिस तरह यथार्थ में शरीरिक विकारों से आत्मा प्रभावित नहीं होती। उसी तरह देह रूपी जगत के विकारों से ब्रह्म प्रभावित नहीं होता है। परन्तु यह विचारणीय है कि क्या इस तरह की व्याख्या संतोषजनक है। रामानुज जगत और ब्रह्म के संबंध को द्रव्य-गुण भाव के आधार पर भी समझाने का प्रयास करते हैं। उनके अनुसार द्रव्य सदैव गुणयुक्त होता है। द्रव्य गुण संबंध द्रव्य और उसके गुणों से ही नहीं अपितु दो द्रव्यों के बीच भी होता है। उदाहरण के तौर पर किसी दंडधारी व्यक्ति के प्रसंग में व्यक्ति गुणी है और दंड उसका गुण है, परन्तु दंड अपने आप में भी एक द्रव्य है, जिसके अपने विशिष्ट गुण हैं। द्रव्य का गुण से भेद भी है और अभेद भी। भेद के ही कारण ब्रह्म की निर्विकारता एवं जगत की सविकारता सिद्ध की जा सकती है, क्योंकि कोई भी वस्तु किसी द्रव्य का गुण होती है तो इस आधार पर नहीं कि वह द्रव्य के समान स्वभाव वाली है, बल्कि इस आधार पर कि वह द्रव्य पर पूर्णतया आधारित होती है। इस तरह रामानुज जगत का ब्रह्म से पार्थक्य भी सिद्ध करते हैं और जगत की ब्रह्म पर निर्भरता भी प्रतिपादित करते है।

जीव

रामानुज के अनुसार जीव ब्रह्म का अंश है, ब्रह्म पर पूर्णत: आश्रित है और ब्रह्म उसमें अंतर्यामी के रूप में स्थित है। मोक्ष की दशा में जीव ब्रह्म से एकाकार नहीं होता बल्कि एकरूप होता है। अर्थात् जीव अपना पृथक् अस्तित्व रखते हुए ब्रह्म की तरह अनंत ज्ञान और अनंत आनन्द से युक्त हो जाता है। यह जीव की पूर्णता की स्थिति है, पर यह ब्रह्म के प्रभुत्व का हनन नहीं करती, क्योंकि तब भी वह ब्रह्म के पर्याय एवं अंश के रूप में ही रहता है।

मोक्ष

मोक्ष के साधन के रूप में रामानुज कर्म, ज्ञान एवं भक्ति के समुच्चय का सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं। ये तीनों एक दूसरे के पूरक एवं अंतरंग रूप से संबंधित हैं। वे भक्ति की इस साधना में सर्वाधिक महत्त्व देते हैं, पर यह भाव प्रधान न होकर चिंतन प्रधान है, जिसे वे 'ध्रुवानुस्मृति' से पुकारते हैं। वे भक्ति और ज्ञान को अभिन्न मानते हैं। उनके अनुसार सच्चा ज्ञान भक्तिरूप है और सच्ची भक्ति ज्ञानरूप।

रामानुज दर्शन की सबसे बड़ी विशेषता समन्वयवादी दृष्टिकोण है। ईश्वरवाद एवं ब्रह्मवाद, धार्मिक भावना एवं नानात्व आदि की एकांगी स्थापनाओं के व्यवस्थित समन्वय का प्रयास यहाँ मिलता है। इसके अलावा लीलावाद का सशक्त समर्थन तथा मायावाद का प्रबल विरोध कर जीव जगत की वास्तविकता की स्थापना करना उनके दर्शन की एक अन्य विशेषता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

भट्ट, डॉ. एस.आर. विश्व के प्रमुख दार्शनिक (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, नई दिल्ली, 465।

  1. 1.0 1.1 वेबदुनिया हिंदी 14 मई 3013
  2. या समन्वय?
  3. वाचस्पति का मत
  4. सर्वज्ञात्ममुनि का मत

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