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'''शाहशुजा''' [[अफ़ग़ानिस्तान]] का शासक था। उसने 1803 ई. से 1809 ई. तक राज्य किया, किन्तु 1809 ई. में ही पराजित होकर वह गद्दी से हाथ धो बैठा। उसे बन्दी बनाकर [[कश्मीर]] में रखा गया।
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'''शाह शुजा दुर्रानी''' [[अफ़ग़ानिस्तान]] का शासक था। उसने 1803 ई. से 1809 ई. तक राज्य किया, किन्तु 1809 ई. में ही पराजित होकर वह गद्दी से हाथ धो बैठा। बाद में वह [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] की शरण में चला गया, जहाँ अंग्रेज़ों ने उसे अफ़ग़ानिस्तान का अमीर बनाने का आश्वासन दिया। [[प्रथम आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध]] में [[दोस्त मुहम्मद]] को पराजित कर अंग्रेज़ों ने उसे फिर से अफ़ग़ानिस्तान का अमीर बना दिया। लेकिन [[अफ़ग़ान|अफ़ग़ानों]] ने 1842 ई. में उसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया और शाह शुजा दुर्रानी की हत्या कर दी।
'''शाहशुजा को''' [[रणजीत सिंह]] ने कारागार से मुक्त कराया। इसके पश्चात् 1813 ई. से 1815 ई. तक अर्थात् दो वर्षों तक वह रणजीत सिंह के दरबार में रहा। रणजीत सिंह की सक्रिय सहायता प्राप्त करने के लिए शाहशुजा ने [[कोहिनूर हीरा|कोहिनूर]] नामक प्रसिद्ध हीरा भी उनको भेंट किया। किन्तु अफ़ग़ानिस्तान के सिंहासन को पुन: प्राप्त कराने में रणजीत सिंह की सहायता उपलब्ध होते न देखकर वह [[लाहौर]] से भागकर [[लुधियाना]] पहुँचा और 1816 ई. में वहाँ उसने अपने को [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] के संरक्षण में सौंप दिया।
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शाह शुजा दुर्रानी को [[रणजीत सिंह]] ने बंदी जीवन से मुक्त कराया था। इसके पश्चात् 1813 ई. से 1815 ई. तक अर्थात् दो वर्षों तक वह रणजीत सिंह के दरबार में रहा। रणजीत सिंह की सक्रिय सहायता प्राप्त करने के लिए शाह शुजा दुर्रानी ने [[कोहिनूर हीरा|कोहिनूर]] नामक प्रसिद्ध [[हीरा]] भी उनको भेंट किया। किन्तु अफ़ग़ानिस्तान के सिंहासन को पुन: प्राप्त कराने में रणजीत सिंह की सहायता उपलब्ध होते न देखकर वह [[लाहौर]] से भागकर [[लुधियाना]] पहुँचा और 1816 ई. में वहाँ उसने अपने को [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] के संरक्षण में सौंप दिया।
 
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====त्रिपक्षीय सन्धि====
'''अंग्रेज़ों के संरक्षण में''' शाहशुजा को अंग्रेज़ों द्वारा पेंशन भी मिली। 1833 ई. में रणजीत सिंह की सहायता से उसने पुन: अपना सिंहासन प्राप्त करने का असफल प्रयास किया। इस क्रम में महाराज रणजीत सिंह ने [[पेशावर]] पर अधिकार कर लिया। चार वर्षों के उपरान्त 1837 ई. में तत्कालीन [[गवर्नर-जनरल]] [[लॉर्ड आकलैण्ड]] ने उसी माध्यम से अफ़ग़ानिस्तान पर ब्रिटिश नियंत्रण स्थापित करने का प्रयत्न किया। उसके प्रोत्साहन से शाहशुजा ने 1838 ई. में ब्रिटिश सरकार और रणजीत सिंह से एक त्रिपक्षीय सन्धि की, जिसकी शर्तों के अनुसार [[सिक्ख]] और अंग्रेज़ों ने अफ़ग़ानिस्तान के तत्कालीन शासक [[दोस्त मुहम्मद]] को हटाने तथा शाहशुजा को वहाँ का सिंहासन प्राप्त करने में सहायता देने का वचन दिया।
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अंग्रेज़ों के संरक्षण में शाह शुजा दुर्रानी को अंग्रेज़ों द्वारा पेंशन भी मिली। 1833 ई. में रणजीत सिंह की सहायता से उसने पुन: अपना सिंहासन प्राप्त करने का असफल प्रयास किया। इस क्रम में महाराज रणजीत सिंह ने [[पेशावर]] पर अधिकार कर लिया। चार वर्षों के उपरान्त 1837 ई. में तत्कालीन [[गवर्नर-जनरल]] [[लॉर्ड आकलैण्ड]] ने उसी माध्यम से अफ़ग़ानिस्तान पर ब्रिटिश नियंत्रण स्थापित करने का प्रयत्न किया। उसके प्रोत्साहन से शाह शुजा दुर्रानी ने 1838 ई. में ब्रिटिश सरकार और रणजीत सिंह से एक त्रिपक्षीय सन्धि की, जिसकी शर्तों के अनुसार [[सिक्ख]] और अंग्रेज़ों ने [[अफ़ग़ानिस्तान]] के तत्कालीन शासक [[दोस्त मुहम्मद]] को हटाने तथा शाह शुजा दुर्रानी को वहाँ का सिंहासन प्राप्त करने में सहायता देने का वचन दिया।
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==प्रथम अफ़ग़ान युद्ध==
'''अंग्रेज़ों द्वारा दोस्त मुहम्मद''' को हटाने तथा शाहशुजा को मदद देने के कारण प्रथम अफ़ग़ान युद्ध का सूत्रपात हुआ। तदनुसार अगस्त 1839 ई. में भारतीयों और अंग्रेज़ों की सम्मिलित सेनाओं ने बोलन दर्रे के मार्ग से शाहशुजा को [[अफ़ग़ानिस्तान]] की राजधानी [[काबुल]] पहुँचाया। किन्तु वहाँ [[अफ़ग़ान|अफ़ग़ानों]] ने शाहशुजा को अपना शासक मानने से इन्कार कर दिया।
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अंग्रेज़ों द्वारा दोस्त मुहम्मद को हटाने तथा शाह शुजा दुर्रानी को मदद देने के कारण प्रथम अफ़ग़ान युद्ध का सूत्रपात हुआ। तदनुसार [[अगस्त]], 1839 ई. में भारतीयों और अंग्रेज़ों की सम्मिलित सेनाओं ने [[बोलन दर्रा|बोलन दर्रे]] के मार्ग से शाह शुजा दुर्रानी को अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी [[काबुल]] पहुँचाया। किन्तु वहाँ [[अफ़ग़ान|अफ़ग़ानों]] ने शाह शुजा दुर्रानी को अपना शासक मानने से इन्कार कर दिया।
 
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Disamb2.jpg शाह शुजा एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- शाह शुजा (बहुविकल्पी)

शाह शुजा दुर्रानी अफ़ग़ानिस्तान का शासक था। उसने 1803 ई. से 1809 ई. तक राज्य किया, किन्तु 1809 ई. में ही पराजित होकर वह गद्दी से हाथ धो बैठा। बाद में वह अंग्रेज़ों की शरण में चला गया, जहाँ अंग्रेज़ों ने उसे अफ़ग़ानिस्तान का अमीर बनाने का आश्वासन दिया। प्रथम आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध में दोस्त मुहम्मद को पराजित कर अंग्रेज़ों ने उसे फिर से अफ़ग़ानिस्तान का अमीर बना दिया। लेकिन अफ़ग़ानों ने 1842 ई. में उसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया और शाह शुजा दुर्रानी की हत्या कर दी।

कारागार से मुक्ति

शाह शुजा दुर्रानी को रणजीत सिंह ने बंदी जीवन से मुक्त कराया था। इसके पश्चात् 1813 ई. से 1815 ई. तक अर्थात् दो वर्षों तक वह रणजीत सिंह के दरबार में रहा। रणजीत सिंह की सक्रिय सहायता प्राप्त करने के लिए शाह शुजा दुर्रानी ने कोहिनूर नामक प्रसिद्ध हीरा भी उनको भेंट किया। किन्तु अफ़ग़ानिस्तान के सिंहासन को पुन: प्राप्त कराने में रणजीत सिंह की सहायता उपलब्ध होते न देखकर वह लाहौर से भागकर लुधियाना पहुँचा और 1816 ई. में वहाँ उसने अपने को अंग्रेज़ों के संरक्षण में सौंप दिया।

त्रिपक्षीय सन्धि

अंग्रेज़ों के संरक्षण में शाह शुजा दुर्रानी को अंग्रेज़ों द्वारा पेंशन भी मिली। 1833 ई. में रणजीत सिंह की सहायता से उसने पुन: अपना सिंहासन प्राप्त करने का असफल प्रयास किया। इस क्रम में महाराज रणजीत सिंह ने पेशावर पर अधिकार कर लिया। चार वर्षों के उपरान्त 1837 ई. में तत्कालीन गवर्नर-जनरल लॉर्ड आकलैण्ड ने उसी माध्यम से अफ़ग़ानिस्तान पर ब्रिटिश नियंत्रण स्थापित करने का प्रयत्न किया। उसके प्रोत्साहन से शाह शुजा दुर्रानी ने 1838 ई. में ब्रिटिश सरकार और रणजीत सिंह से एक त्रिपक्षीय सन्धि की, जिसकी शर्तों के अनुसार सिक्ख और अंग्रेज़ों ने अफ़ग़ानिस्तान के तत्कालीन शासक दोस्त मुहम्मद को हटाने तथा शाह शुजा दुर्रानी को वहाँ का सिंहासन प्राप्त करने में सहायता देने का वचन दिया।

प्रथम अफ़ग़ान युद्ध

अंग्रेज़ों द्वारा दोस्त मुहम्मद को हटाने तथा शाह शुजा दुर्रानी को मदद देने के कारण प्रथम अफ़ग़ान युद्ध का सूत्रपात हुआ। तदनुसार अगस्त, 1839 ई. में भारतीयों और अंग्रेज़ों की सम्मिलित सेनाओं ने बोलन दर्रे के मार्ग से शाह शुजा दुर्रानी को अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल पहुँचाया। किन्तु वहाँ अफ़ग़ानों ने शाह शुजा दुर्रानी को अपना शासक मानने से इन्कार कर दिया।

मृत्यु

अफ़ग़ानों ने शाह शुजा दुर्रानी के अंग्रेज़ संरक्षकों के विरुद्ध 1842 ई. में विद्रोह कर दिया और एक देशभक्त अफ़ग़ान ने शाह शुजा दुर्रानी की हत्या कर दी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

भट्टाचार्य, सच्चिदानन्द भारतीय इतिहास कोश, द्वितीय संस्करण-1989 (हिन्दी), भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, 448।

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