सूनी सूनी हैं अब बृज गलियाँ,
उपवन में न खिलती कलियाँ.
वृंदा सूख गयी अब वन में,
खड़ी उदास डगर पर सखियाँ.
जब से कृष्ण गये तुम बृज से,
अब मन बृज में लागत नाहीं.
माखन लटक रहा छींके पर,
नहीं कोई अब उसे चुराता.
खड़ीं उदास गाय खूंटे पर,
बंसी स्वर अब नहीं बुलाता.
तरस गयीं दधि की ये मटकी,
कान्हा है कंकड़ मारत नाहीं.
क्यों भूल गये बचपन की क्रीडा,
क्यों भूल गये बृज की माटी तुम?
एक बार तुम मिल कर जाते,
नहीं गोपियाँ होतीं यूँ गुमसुम.
अंसुअन से स्नान करत अब,
यमुना तट पर जावत नाहीं.