चहुँ ओर गहन अँधियारा है,
विश्वास सुबह का पर बाक़ी.
हो रहा अधर्म है आच्छादित,
है स्थापन धर्म वचन बाक़ी.
अब नहीं धर्म का राज्य यहाँ,
अपने स्वारथ में सभी व्यस्त.
दुर्योधन जाग उठा फिर से,
बेबस द्रोपदी फिर आज त्रस्त.
द्वापर में आये तुम कान्हा,
कलियुग में आना अब बाक़ी.
ब्रज में अब सूनापन पसरा,
गोपियाँ सुरक्षित नहीं कहीं.
हर जगह दु:शासन घूम रहे,
पर चीर बढ़ाने कृष्ण नहीं.
विश्वास न टूटे इनका गिरधर,
अब विश्वास दिलाना है बाक़ी.
अब भक्ति तेरी व्यवसाय हुई,
निष्काम कर्म को भूल गए.
प्रवचन करते हैं जो गीता पर,
वह घृणित कर्म में लिप्त हुए.
भर गया पाप का घड़ा बहुत,
आओ अब समय नहीं बाक़ी.