ऋचा

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ऋचा छंदोबद्ध वैदिक मंत्र। ऋक या ऋचा एक ही शब्द के दो रूप हैं। जिसके द्वारा किसी देवविशेष की, क्रियाविशेष की अथवा क्रिया के साधनविशेष की अर्चना या प्रशंसा की जाए, उसे ऋक कहते हैं। 'ऋक' या 'ऋचा' का यही व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है।[1] ऋचा का एक दूसरा नाम 'शक्वरी' भी है। यह शब्द शक्‌ धातु से निष्पन्न होता है और अर्थ है वह मंत्र जिसके द्वारा इंद्र अपने शत्रु वृत्र को मारने में समर्थ हुआ[2] जैमिनि ने अपने मीमांसादर्शन में ऋक्‌ के लक्षण प्रसंग में लिखा है-तेषामृक्‌ यत्रार्थवशेन पादव्यवस्था; मीमांसा सूत्र[3] अर्थात्‌ जिन मंत्रों में अर्थ के वश से पादों की व्यवस्था रहती है वे ऋक्‌ कहलाते हैं। ऋचाओं के पादों की व्यवस्था अर्थ के अनुसार होती है; यह एक बड़ा ही महत्वपूर्ण नियम वैदिक छंदों के विषय में है। इसे समझने के लिए एक उदाहरण पर्याप्त होगा। वेद की एक प्रख्यात ऋचा है :

अग्नि: पूर्वेभिऋर्षिभिरीडयो नूतनैरुत।

स देवाँ एह वक्षति।[4]

यह त्रिपदा गायत्री ऋचा है। इसमें तीन पाद हैं और प्रत्येक पाद में आठ अक्षर। सामान्य दृष्टि से विचार करने पर प्रथम पाद का अंत 'ऋषिभि:' पद पर होगा, परंतु क्रियापद के अभाव में वह पाद अर्थ की दृष्टि से अपूर्ण है। फलत: 'रीडयो' तक प्रथम पाद 10 अक्षरों का होगा और द्वितीय पाद केवल पाँच अक्षरों का होगा। ऐसी व्यवस्था निदानसूत्र में पतंजलि के मतानुसार है कि गायत्री का अष्टाक्षर पाद पाँच या चार अक्षरों तक न्यून होकर हो सकता है तथा बढ़कर दस अक्षरों तक वह जा सकता है। इन ऋचाओं का संग्रह ऋग्वेद के नाम से प्रख्यात है। ऋग्वेद को छोड़कर कुछ ऋचाएँ यजुर्वेद में और अधिक ऋचाएँ अर्थर्ववेद में उपलब्ध होती हैं।

'त्रयी' के उत्पादक तीन अंश हैं-ऋक्‌, यजु: तथा साम। इन तीनों में ऋक्‌ विशेष अभ्यर्हित या पूजनीय माना जाती है, क्योंकि उसकी उत्पत्ति दोनों की अपेक्षा पहले हुई थी। इसका स्पष्ट उल्लेख वेद के अनेक स्थलों पर मिलता है। पुरुषसूक्त के मंत्र में ऋचाओं की ऋचाओं की उत्पत्ति प्रथमत: मानी गई है:

तस्माद् यज्ञात्‌ सर्वहुत ऋच: सामानि यज्ञिरे।

छंदांसि जज्ञिरे तस्मात्‌ यजुस्तस्मादजायत।।[5]

इनकी पूजनीयता का एक दूसरा भी कारण है। तैत्तिरीय संहिता के अनुसार ऋचाओं के द्वारा संपादित यज्ञांग दृढ होता है-यद् वै यज्ञस्य साम्ना यजुषा क्रियते शिथिलं तद्। यद् ऋचा तद् दृढमिति[6] इसका अर्थ है कि साम तथा यजुष्‌ के द्वारा संपन्न यज्ञ का अंग शिथिल ही रहता है। परंतु ऋक्‌ के द्वारा निष्पन्न अंग दृढ़ होता है। इस प्रकार यज्ञांग की दृढ़ता के कारण भी ऋचाएँ पूजनीय मानी जाती हैं। साम तो ऋचाओं के ऊपर ही आश्रित रहते हैं। ऋचाओं के अभाव में साम की अवस्थिति ही निराधार रहेगी। फलत: सामों की प्रतिष्ठा के लिए भी ऋचाएँ आवश्यक होती हैं।[7]

सब वेदों के ब्राह्मण अपने कथनों में विश्वास की दृढ़ता उत्पन्न करने के लिए 'ऋचा अभ्युक्तम्‌' ऐसा निर्देश कर ऋचाओं को उद्धृत करते हैं। अध्ययन के क्रम में भी ऋग्वेद प्रथम माना जाता है। छांदोग्य उपनिषद्[8]में नारद ने अपनी अधीत विद्याओं में ऋग्वेद का ही प्रथम निर्देश किया है-ऋग्वेदं भगवोऽध्येमि। इसी प्रकार मुंडक[9] में तथा नृसिंहतापनीय उपनिषद्[10]में ऋचाओं का वेद के प्रथम पाठय के रूप में उल्लेख किया गया है। इस प्रकार ऋचाएँ विशेष आदर तथा श्रद्धा से संपन्न मानी जाती हैं। ऋचाओं की विशिष्ट संज्ञाएँ भी होती हैं जो कभी आदि पद के कारण और कभी विनियोग की दृष्टि से दी जाती हैं। 'महानाम्नी' पद के कारण कई ऋचाएँ महानाम्नी कहलाती हैं, तो अग्निसमिंधन के लिए प्रयुक्त होने से अन्य ऋचाएँ 'सामधनी' तथा कूश्मांड के संमिधन के लिए प्रयुक्त होने से अन्य ऋचाएँ 'सामधनी' तथा कूश्मांड के साथ अनुष्ठान में प्रयुक्त होने से 'कूश्मांडी' कहलाती हैं।[11][12]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (अर्च्यते प्रशस्यतेऽनया देवविशेष: क्रियाविशेष: तत्साधनविशेषा वा इत्यृक्‌ शब्द व्युत्पत्ते:-सायण की ऋक्‌भाष्य की उपक्रमणिका)
  2. (यदाभिर्वृत्रमशकद् हन्तुं तच्छक्वरीणां शक्वरीत्वमिति विज्ञायते-कौषीतकि ब्रा. 23।2)।
  3. (2।1।35)
  4. (ऋग्वेद 1।1।2)
  5. (ऋग्वेद 10।90।9)
  6. (तैति. सं.6।5।10।3)
  7. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 193 |
  8. (7।1।2)
  9. (1।1।5)
  10. (1।1।2)
  11. (शुक्ल यजुर्वेद 20।14-16)
  12. सं.ग्रं.-युधिष्ठिर मीमांसक : वैदिक छंदोमीमांसा, अमृतसर, 1959; पिंगल: छंद:शास्त्रम्‌, निर्णयसागर प्रेस, बंबई, 1938

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