काका कालेलकर
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पूरा नाम | दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर |
अन्य नाम | काका साहब, आचार्य कालेलकर |
जन्म | 1 दिसम्बर, 1885 |
जन्म भूमि | सतारा, महाराष्ट्र |
मृत्यु | 21 अगस्त, 1981 |
मृत्यु स्थान | नई दिल्ली |
नागरिकता | भारतीय |
प्रसिद्धि | गांधीवादी स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षाविद, पत्रकार और लेखक |
जेल यात्रा | गांधी जी के नेतृत्व में जितने भी आन्दोलन हुए, काका कालेलकर ने सब में भाग लिया और कुल मिलाकर 5 वर्ष क़ैद में बिताए। |
विद्यालय | फ़र्ग्यूसन कॉलेज', पुणे |
पुरस्कार-उपाधि | पद्म विभूषण, साहित्य अकादमी पुरस्कार |
भाषा | गुजराती, मराठी, हिन्दी और अंग्रेज़ी |
काका कालेलकर (अंग्रेज़ी: Kaka Kalelkar, जन्म: 1 दिसम्बर, 1885; मृत्यु: 21 अगस्त, 1981) भारत के प्रसिद्ध गांधीवादी स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षाविद, पत्रकार और लेखक थे। काका कालेलकर देश की मुक्ति के लिए सशस्त्र संघर्ष के पक्षपाती थे। 1915 ई. में गाँधी जी से मिलने के बाद ही इन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन गाँधी जी के कार्यों को समर्पित कर दिया। गुजराती भाषा पर भी इनका अच्छा ज्ञान था। 1922 में ये गुजराती पत्र 'नवजीवन' के सम्पादक भी रहे थे।
जन्म और शिक्षा
काका कालेलकर का जन्म सतारा (महाराष्ट्र) में 1 दिसम्बर, 1885 ई. को हुआ था। उनका पूरा नाम 'दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर' था। उन्होंने 'फ़र्ग्यूसन कॉलेज', पुणे में शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने एक शिक्षक के रूप में अपना जीवन आरम्भ किया। 1990 में वे बेलगांव के गणेश विद्यालय के प्रधानाध्यापक के रूप में बड़ौदा चले गए, परन्तु राजनीतिक कारणों से एक वर्ष बाद ही यह विद्यालय बन्द हो गया।
सशस्त्र संघर्ष के पक्षपाती
काका कालेलकर देश की पराधीनता से मुक्ति के लिए सशस्त्र संघर्ष के पक्षपाती थे और इस दिशा में काम कर रहे युवकों के समर्थक थे। साथ ही सांसारिक मोह-माया से मुक्त होने की भावना भी उनके अन्दर थी। अत: विद्यालय के बन्द होने पर वे मोक्ष की खोज में हिमालय की ओर चल पड़े। उन्होंने तीन वर्ष तक देश के विभिन्न भागों की 2500 मील की पैदल यात्रा की। उन्होंने अनुभव किया कि देश की स्वतंत्रता के लिए प्रयत्न करना ही सबसे उत्तम मार्ग है और इसके लिए नई पीढ़ी को तैयार करना चाहिए। कुछ दिन हरिद्वार और कुछ दिन हैदराबाद (सिंध) में अध्यापन करने के बाद वे शिक्षक के रूप में शांति निकेतन पहुँचे।
गाँधीजी से भेंट
1915 में शांति निकेतन में काका कालेलकर की भेंट गांधी जी से हुई और उन्होंने अपना जीवन गांधी जी के कार्यों को समर्पित कर दिया। उनके राजनीतिक विचार भी बदल गये। वे साबरमती आश्रम के विद्यालय के प्राचार्य बने और बाद में उनके अनुभवों के आधार पर 'बेसिक शिक्षा' की योजना बनी। फिर वे 1928 से 1935 तक 'गुजरात विद्यापीठ' के कुलपति रहे। 1935 में काका साहब गांधी जी के साथ साबरमती से वर्धा चले गए और हिन्दी के प्रचार में लग गए।
इन्हें भी देखें: संयम की सीख -महात्मा गाँधी
सम्पादन तथा लेखन कार्य
गांधी जी के नेतृत्व में जितने भी आन्दोलन हुए, काका कालेलकर ने सब में भाग लिया और कुल मिलाकर 5 वर्ष क़ैद में बिताए। गांधी जी की गिरफ्तारी के बाद वे गुजराती पत्र 'नवजीवन' के सम्पादक भी रहे। मातृभाषा मराठी होने पर भी वे गुजराती के प्रसिद्ध लेखक माने गए। उन्होंने गुजराती, मराठी, हिन्दी और अंग्रेज़ी में विविध विषयों पर 30 से अधिक पुस्तकों की रचना की। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के साहित्य का मराठी और गुजराती में अनुवाद भी किया।
गुजराती के प्रसिद्ध लेखक
मराठी भाषी होने पर भी काकासाहेब ने मराठी से अधिक गुजराती और राष्ट्रभाषा हिन्दी की सेवा की है। शिक्षा, साहित्य, संस्कृति, भाषा आदि के क्षेत्रों में उनका योगदान अनुपम है। वे सही मायने में विश्वकोश थे। राजनीति, समाजशास्त्र, विज्ञान, इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, अध्यात्म आदि कोई भी ऐसा विषय नहीं है जिस पर उन्होंने प्रामाणिक लेखन न किया हो। वे किसी बात का ज्ञान प्राप्त करने मात्र से संतुष्ट नहीं होते। उसके बारे में मौलिक दृष्टि से चित्रन करते हैं। उनकी स्मरण की क्षमता बड़ी अद्भुत है। स्थानों, व्यक्तियों, संस्थाओं के नाम उन्हें याद रहते हैं। काकासाहेब कलासक्त और सौंदर्यप्रेमी हैं। उनकी भव्य आकृति उनकी कलाशक्ति के दर्शन कराती है। उनके हर काम में सहज सुधरी कला होती है। उनके द्वारा निर्मित साहित्य प्रेरक विचारों का एक विशाल भंडार है। विभिन्न क्षेत्रों में उन्होंने इतना कार्य किया है कि वे एक संस्था बन गये थे। उनके प्रेरक और कलापूर्ण साहित्य के चुने हुए अंशों का अनुवाद सभी भारतीय भाषाओं में होना चाहिए। बीसवीं शताब्दी के दो महापुरुषों – महात्मा गांधी और गुरुदेव टैगोर के निकट संपर्क में आये और उनसे प्रेरणा प्राप्त करने का अवसर काकासाहेब को प्राप्त हुआ था। उनके कार्य और चिंतन पर गांधी और टैगोर की छाप स्पष्ट रुप से लक्षित होती है।[1]
रचनाएँ
काकासाहेब की लिखी पुस्तकों की सूची से स्पष्ट हो जाता है कि वे स्वतंत्र चिंतक, साहित्य के प्रणेता, गांधी विचार-धारा के व्याख्याता तथा भारतीय संस्कृति के परिव्राजक हैं।
हिन्दी ग्रंथ | मराठी पुस्तकें | गुजराती पुस्तकें |
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सम्मान एवं पुरस्कार
काका कालेलकर 1952 से 1964 तक संसद के सदस्य भी रहे। 1964 में उन्हें 'पद्म विभूषण' से सम्मानित किया गया। वे 'पिछड़ा वर्ग आयोग', 'बेसिक एजुकेशन बोर्ड', 'हिन्दुस्तानी प्रचार सभा', 'गांधी विचार परिषद' के अध्यक्ष तथा 'गांधी स्मारक संग्रहालय' के निदेशक रहे। काका कालेलकर ने विश्व के अनेक देशों की यात्रा की और गांधीवादी विचारों का प्रचार किया। वे ग्रामीण और कुटीर उद्योगों के समर्थक थे। सामाजिक स्तर पर वे भेदभाव के विरोधी थे।
संपूर्ण गांधीसाहित्य के लिए नियुक्त परामर्शदायी समिति के काकासाहेब एक सदस्य रहे। 1949 में काकासाहेब ने गुजराती साहित्य परिषद के अधिवेशन की अध्यक्षता की। 1979 में 76वीं वर्षगांठ के अवसर पर अहमदाबाद में उन्हें गुजराती में कालेलकर-अध्ययन-ग्रंथ समर्पित कर सम्मानित किया गया। कृतज्ञ राष्ट्र द्वारा 1965 में 81वीं वर्षगांठ पर ‘संस्कृति के परिव्राजक’ तथा 95वें जन्मदिन पर ‘समन्वय के साधक’ अभिनन्दन ग्रंथ अर्पित किये गये। सन् 1965 में ही भारतीय साहित्य अकादमी ने, राष्ट्रपति के हाथों, काकासाहेब को उनके ‘जीवन-व्यवस्था’ शीर्षक गुजराती लेख-संकलन पर रुपये पाँच हजार का पुरस्कार देकर सम्मानित किया था। स्वातंत्र्य के सेनानी, लोकशिक्षक, पंडित, देश के सांस्कृतिक दूत, साहित्य सेवक आदि सभी दृष्टियों से उनका व्यक्तित्व महान् है। सरदार पटेल विश्वविद्यालय, आणंद, गुजरात विश्वविद्यालय और काशी विद्यापीठ ने उन्हें मानद् डी. लिट्. से और साहित्य अकादमी, नई दिल्ली ने ‘फ़ैलो’ से अलंकृत किया।[1]
निधन
आचार्य काकासाहेब कालेलकर का निधन 21 अगस्त, 1981 को नई दिल्ली में उनके ‘संनिधि’ आश्रम में हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 145 |
- ↑ 1.0 1.1 1.2 आचार्य काकासाहेब कालेलकर (हिंदी) गुजराती विद्यापीठ। अभिगमन तिथि: 19 अप्रॅल, 2013।
बाहरी कड़ियाँ
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