गवरी नृत्य
गवरी नृत्य सदियों से राजस्थान के अंचलों में किया जाता रहा है। यह भील लोगों द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली एक प्रसिद्ध लोक नृत्य नाटिका है। देवताओं को प्रसन्न करने के लिए गवरी नृत्य एक वृत्त बनाकर और समूह में किया जाता है। इस नृत्य के माध्यम से कथाएँ प्रस्तुत की जाती है। यह नृत्य 'रक्षा बंधन' के बाद से शुरू होता है। प्रतिवर्ष गाँव के लोग गवरी नृत्य का संकल्प करते हैं। अलग-अलग गाँवों में इसका मंचन होता है। नृत्य में महिला कलाकार कोई नहीं होती। महिला का किरदार भी पुरुष उसकी वेशभूषा धारण कर निभाते हैं। नृत्य में डाकू, चोर-पुलिस आदि कई तरह के खेल होते हैं। गवरी नृत्य करने वाले कलाकारों को गाँवों में आमंत्रित भी किया जाता है।
लोक नृत्य-नाटिका
राजस्थान की समृद्ध लोक परम्परा में कई 'लोक नृत्य' एवं 'लोक नाट्य प्रचलित' है। इन सबसे अनूठा है- 'गवरी' नामक 'लोक नृत्य-नाटिका'। यह भील जनजाति का नाट्य-नृत्यानुष्ठान है, जो सैकड़ों वर्षों से प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के एक दिन पश्चात् प्रारंभ होता है, और फिर सवा माह तक आयोजित होता है। इसका आयोजन मुख्यत: उदयपुर और राजसमन्द ज़िले में होता है। इसका कारण यह है कि इस खेल का उद्भव स्थल उदयपुर माना जाता है तथा आदिवासी भील जनजाति इस ज़िले में बहुतायत से पाई जाती है।[1] 'गवरी' भीलों का सामाजिक व धार्मिक नृत्य है। इस नृत्य का प्रचलन डूंगरपुर, भीलवाड़ा, उदयपुर व सिरोही आदि क्षेत्रों में प्रमुखता से देखने मिलता है। यह गौरी पूजा से सम्बंधित है। इसमें नाटकों के सदृश वेशभूषा होती है तथा अलग-अलग पात्र होते हैं।
अनुष्ठान संकल्प
'गवरी नृत्य' में जो गाथाएँ सुनने को मिलती हैं, उनके अनुसार- "देवी गौरजा[2] धरती पर आती हैं और धरती पुत्रों को खुशहाली का आशीर्वाद देकर जाती हैं। गौरजा भीलों की प्रमुख देवी हैं। वे मानते हैं कि यह देवी ही सर्वकल्याण तथा मंगल की प्रदात्री है। यह सभी प्रकार के संकटों से रक्षा करती हैं व विवादों-झगड़ों तथा दु:ख-दर्दों से मुक्ति दिलाती है। इसी देवी की आराधना में भील गवरी अनुष्ठान का संकल्प धारण करते हैं। भील लोग देवी गौरजा के मंदिर में जाकर गवरी लेने की इच्छा व्यक्त करते हैं और पाती[3] माँगते हैं। 'पाती माँगना' एक परम्परा है, जिसमे देवी की मूर्ति के समक्ष एक थाली रखकर विनती की जाती है। यदि मूर्ति से फूल या पत्तियाँ गिर कर थाली में आ जाती हैं तो इसे देवी की आज्ञा माना जाता है। मंदिर में भोपा[4] के शरीर में माता प्रकट होकर भी गवरी की इजाजत देती हैं। तब गाँव के प्रत्येक भील के घर से एक व्यक्ति सवा माह तक पूरे संयम के साथ गवरी नाचने के लिए घर से निकल जाता है। इन कलाकारों को 'खेल्ये' कहा जाता है।
नियम
गवरी के सवा मास दौरान ये खेल्ये मात्र एक समय भोजन करते हैं। ये नहाते भी नहीं हैं तथा हरी सब्जी, मांस-मदिरा का त्याग रखते हैं। पाँव में जूते नहीं पहनते हैं। एक बार घर से बाहर निकलने के बाद सवा माह तक अपने घर भी नहीं जाते हैं। एक गाँव का गवरी दल केवल अपने गाँव में ही नहीं नाचता है, अपितु हर दिन उस अन्य गाँव में जाता है, जहाँ उनके गाँव की बहन-बेटी ब्याही गई हैं। जिस गाँव में ये दल जाता है, उस गाँव के लोग इस दल के भोजन की व्यवस्था करते है तथा नृत्य के अंत में गवरी को न्यौतने वाली बहन-बेटी उन्हें कपड़े भी भेंट करते है, जिसे 'पहरावनी' कहते हैं।[1]
दल का गठन
'गवरी नृत्य' के लिए दल का गठन करते समय कलाकारों के लिए कपड़ों, गहनों और साज-सज्जा इत्यादि पर आने वाले खर्च को पूरे गाँव के सभी जातियों के लोग मिल-जुल कर वहन करते हैं। जो कलाकार गवरी में जिस पात्र का अभिनय करता है, अक्सर वह हर समय उसी की वेशभूषा पहने रहता है। गवरी का प्रदर्शन जहाँ कहीं भी चौराहा या खुला स्थान होता है, वहाँ किया जाता है। यह खेल प्रात: काल 8-9 बजे से सायंकाल 5-6 बजे तक चलता है। इसमें कम आयु से लेकर अधिक आयु वर्ग के चालीस या पचास लोग भाग लेते हैं। गाँव में हर तीसरे वर्ष गवरी ली जाती है। खम्मा के फटकारे लगते हैं। आनंद का उत्सव होता है।
मुख्य पात्र
गवरी में दो मुख्य पात्र होते है- 'राईबूढ़िया' और 'राईमाता'। राईबूढ़िया को शिव तथा राईमाता को पार्वती माना जाता है। इसलिए दर्शक इन पात्रों की पूजा भी करते है। गवरी का मूल कथानक भगवान शिव और भस्मासुर से संबंधित है। इसका नायक राईबूढ़िया होता है, जो शिव तथा भस्मासुर का प्रतीक है। राईबूड़िया की वेशभूषा विशिष्ट होती है। इसके हाथ में लकड़ी का खांडा, कमर में मोटे घुघरूओं की बंधी पट्टी, जांघिया तथा मुँह पर विचित्र कलात्मक मुखौटा होता है। जहाँ इसकी जटा तथा भगवा पहनावा शिवजी का प्रतीक है, वहीं हाथ का कड़ा तथा मुखौटा भस्मासुर का द्योतक है। यह बूढ़िया गवरी की गोल घेरे में नृत्य कर और उसके बाहर रहकर उसके विपरीत दिशा में उल्टे पांव नृत्य करता है। राईबूढ़िया परम्परागत पीढ़ी-दर-पीढ़ी पिता पुत्र के उत्तराधिकार के रूप में बनता है। राईमाता गवरी की नायिका होती है। प्रत्येक गवरी में राईमाता की संख्या दो होती हैं। दोनों शिव की पत्नियाँ हैं, जो शक्ति (सती) और पार्वती का प्रतिनिधित्व करती हैं। गवरी के अन्य पात्र शिवजी के गण होते हैं। नायक राईबूढ़िया महादेव शिव है।[1]
मान्यता
पुराण में कथा का नायक 'चूड़' मिलता है। यही चूड़ धीरे-धीरे 'बूड़' और फिर 'बूड' से 'बूढ़िया' बन गया है। इन ग्रामीणों में यह मान्यता है कि शिव हमारे जंवाई हैं और गौरजा अर्थात् पार्वती हमारी बहन-बेटी हैं। कैलाश पर्वत से गौरजा अपने पीहर मृत्यु लोक में मिलने आती हैं। गवरी खेलने के बहाने सवा माह तक अलग-अलग गाँव में यह सबसे मिलती हैं। गवरी में सभी कलाकार पुरुष होते हैं। महिला पात्रों की भूमिका भी पुरुष ही निभाते हैं। संपूर्ण गवरी में नायक बूड़िया पूरी गवरी का नेतृत्व करता है। दोनों राइयाँ लाल घाघरा, चूनरी, चोली तथा चूड़ा पहने होती हैं। इनका दाढ़ी-मूँछ वाले मुँह के भाग को कपड़े से ढँका रहता हैं। गवरी के विशिष्ट पात्रों में झामटिया पटकथा की प्रस्तुति देता है तथा कुटकड़िया अपनी कुटकड़ाई शैली से गवरी मे हास्य व्यंग्य का माहौल बनाए रखता है।
विभिन्न खेल
गवरी के मुख्य खेलों में मीणा-बंजारा, हठिया, कालका, कान्ह-गूजरी, शंकरिया, दाणी जी, बाणियाँ चपल्याचोर, देवी अंबाव, कंजर, खेतुड़ी, बादशाह की सवारी जैसे कई खेल अत्यंत आकर्षक व मनोरंजक होते हैं। भीलों के अनुसार शिव आदिदेव हैं। इन्हीं से सृष्टि बनी हैं। पृथ्वी पर पहला पेड़ 'बड़' अर्थात् 'वटवृक्ष' पाताल से लाया गया था। देवी अंबा और उसकी सहेली व अन्य देवियों के साथ यह वृक्ष लाया गया और पहली बार उदयपुर के पास प्रसिद्ध रणक्षेत्र हल्दीघाटी के पास ऊनवास गाँव में स्थापित किया गया था।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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