रास नृत्य

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रास नृत्य ब्रज (उत्तर प्रदेश) में रासलीला के दौरान किया जाता है। इसी नृत्य को भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी कला से सजाया था, इसीलिए यह 'रास' नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस नृत्य को सुकरता व नागरता प्रदान करने के कारण ही आज तक श्रीकृष्ण 'नटनागर' की उपाधि से विभूषित किए जाते हैं।

लोकप्रियता

द्वारका के राज दरबार में रास नृत्य के प्रतिष्ठित हो जाने के उपरान्त उषा ने इस नृत्य में मधुर भाव-भंगिमाओं को विशेष रूप से जोड़ा व इसे समाज को सिखाया और देश देशांतरों में इसे लोकप्रिय बनाया। शारंगदेव ने अपने 'संगीतरत्नाकर' में इस तथ्य की पुष्टि की है। उनके अनुसार-

पार्वतीत्वनु शास्रिस्म, लास्यं वाणात्मामुवाम्।
तथा द्वारावती गोप्यस्तामि सोराष्योषित:।।
तामिस्तु शिक्षितानार्यो नाना जनपदास्पदा:।
एवं परम्यराप्राहामेतलोके प्रतिष्ठितम्।।

इस प्रकार रास नृत्य की परम्परा ब्रज में जन्मी तथा द्वारका से यह पूरे देश में फैली।[1]

जैन धर्म से सम्बन्ध

जैन धर्म में रास का विशेष रुप से प्रचार हुआ और उसे मन्दिरों में भी किया जाने लगा। क्योंकि जैनियों के 23वें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ भी द्वारका के ही यदुवंशी थे। रास उन्हें प्रसन्न करने का एक प्रधान साधन माना गया, परन्तु बाद में अश्लीलता बढ़ जाने के कारण जैन मुनियों ने इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया।

प्रकार

ब्रज का रास भारत के प्राचीनतम नृत्यों में अग्रगण्य है। अत: भरतमुनि ने अपने 'नाट्यशास्त्र' में रास को 'रासक' नाम से उप-रूपकों में रखकर इसके तीन रुपों का उल्लेख किया-

  1. मंडल रासक
  2. ताल रासक
  3. दंडक रासक या लकुट रासक

देश में आज जितने भी नृत्य रूप विद्यमान हैं, उन पर रास का प्रभाव किसी-न-किसी रूप में पड़ा है। गुजरात का 'गरबा' आदि तथा मणिपुर का रास नृत्य तथा संत ज्ञानदेव के द्वारा स्थापित 'अंकिया नाट' तो पूरी तरह रास से ही प्रभावित नृत्य व नाट्य रूप है।[1]

वर्तमान रास नृत्य

वर्तमान समय में ब्रज में जो रास नृत्य प्रचलित हैं, उन्हें दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-

  1. मंच पर प्रस्तुत किए जाने वाले नृत्य
  2. लोक जीवन में विभिन्न अवसरों पर किए जाने वाले नृत्य

आज के रास मंच को भक्ति काल में पुनर्गठित किया गया था। इस काम में 'वल्लभ' नामक नर्तक का प्रमुख योगदान था। वल्लभ नर्तक ब्रज के संत श्रीनारायण मट्टजी का सहयोगी था और उन्हीं की प्रेरणा से उसने इन रास के नृत्यों को नवीन रस दिया था। वल्लभ का पूरा नाम 'ब्रज वल्लभ' था, जो जयपुर राज दरबार से संबंधित था और वहाँ से अवकाश लेकर ब्रज में आ बसा था। उसने श्रीनारायण भट्टजी के सहयोग से वर्तमान रास नृत्यों को गढ़ा था। वह स्वयं भी रास में नृत्य करता था और इन नृत्यों का निर्देशक भी था। वल्लभ ने रास के नृत्यों का जो रूप दिया, वही परम्परा रास में आज भी चली आ रही है।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 ब्रज के लोकनृत्य (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 10 अक्टूबरaccessyear=2012, {{{accessyear}}}।
  2. वर्तमान रास नृत्य (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 10 अक्टूबर, 2012।

बाहरी कड़ियाँ

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