चिकित्सा (भारतीय)
प्राचीन काल में चिकित्सा के क्षेत्र में भारत ने बड़ी उन्नति की थी। प्राचीन वाङ्मय ऐसे विवरणों से भरा हुआ है। चिकित्सा और शल्य क्रिया के प्रवर्तक काशिराज दिवोदास को उनकी प्रतिभा के कारण धन्वंतरि का अवतार माना गया।
चिकित्सा पद्धतियाँ
इस समय भारत में चार चिकित्सा पद्धतियां प्रचलित हैं-
- आयुर्वेदिक
- ऐलोपैथिक
- होमियोपैथिक
- यूनानी
प्राचीनता
प्राचीन काल में चिकित्सा के क्षेत्र में भी भारत ने बड़ी उन्नति की थी। प्राचीन वाङ्मय ऐसे विवरणों से भरा हुआ है। गणेश के सिर पर हाथी का मस्तक जोड़ देना, च्यवन ऋषि और राजा ययाति की कथा से यही सिद्ध होता है। देवताओं के वैद्य धन्वंतरि आयुर्वेद के प्रवर्तक माने जाते हैं। उनकी महत्ता सिद्ध करने के लिए उन्हें समुद्र से निकला हुआ बताया गया है। अश्विनीकुमारों और चरक तथा सुश्रुत का भी इसी के प्रसंग में उल्लेख मिलता है।[1]
चिकित्सा और शल्य क्रिया के प्रवर्तक काशिराज दिवोदास को उनकी प्रतिभा के कारण धन्वंतरि का अवतार माना गया। वे वानप्रस्थी रहकर राज्य का संचालन करने के साथ-साथ आयुर्वेद की शिक्षा देते तथा रोगियों की चिकित्सा किया करते थे। उनकी सफलता के कारण यह मान्यता हो गई थी कि काशी जाने से व्यक्ति के कष्ट दूर हो जाते हैं। तभी से काशी को मुक्तदायिनी नगरी का श्रेय मिला। दिवोदास के अनुसार रोगियों को रोग से मुक्त करना तथा स्वास्थ्य की रक्षा करना आयुर्वेद का मुख्य प्रयोजन है।
आयुर्वेद विभाजन
उस समय शिक्षा की सुविधा की दृष्टि से आयुर्वेद आठ खंडों में विभाजित था-
- शल्य तंत्र (सर्जरी)
- शलाक्य तंत्र (आंख, कान, नाक आदि की चिकित्सा)
- काय चिकित्सा (ज्वर आदि की चिकित्सा)
- भूत विद्या (मानसिक रोगों की चिकित्सा)
- कौमारभृत्य (धातु विज्ञान तथा शिशु चिकित्सा)
- अगत तंत्र (विष चिकित्सा)
- रसायन तंत्र (बुढ़ापे से बचने के उपाय)
- बाजीकरण (शरीर को दृढ़ एवं बलवान बनाने के उपाय)
यद्यपि राजनीतिक स्थिति तथा अन्य चिकित्सा प्रणालियों के प्रचलन से अब आयुर्वेद पद्धति की उतनी मान्यता नहीं रह गई है, फिर भी देश की जनता का एक बड़ा वर्ग इस पद्धति पर विश्वास करता है। इसे शासकीय स्वीकृति प्राप्त है और इसके अध्ययन-अध्यापन की भी व्यवस्था है।[1]
ऐलोपैथिक
ऐलोपैथिक पद्धति का विकास वैज्ञानिक क्रांति के साथ पश्चिमी देशों में हुआ और अंग्रेजों के भारत आगमन के साथ यह भारत आई। शासकीय प्रोत्साहन के कारण इसने भारत में जड़ें जमाई और निरंतर शोध और वैज्ञानिक उपकरणों के उपयोग से यह आज सर्वाधिक मान्य और प्रचलित पद्धति है। भारत के चिकित्सक इस पद्धति की शल्य क्रिया और चिकित्सा की उच्चतम विधियों का प्रयोग करने में सक्षम हैं। देश में बड़ी संख्या में मेडीकल कालेज हैं तथा अस्पतालों और निजी चिकित्सा सुविधाओं का जाल बिछा हुआ है।
होमियोपैथी
होमियोपैथी भी पश्चिम की देन है। इसका आविष्कार जर्मन ऐलोपैथिक चिकित्सक सेमुअल हनीमैन ने 1790 ई. के आसपास किया था। इसका सिद्धांत है- रोग उन्हीं दवाओं से निरापद रूप से ठीक होता है जिनमें उस रोग के लक्षणों को उत्पन्न करने की क्षमता होती है। यह अपेक्षाकृत सस्ती चिकित्सा पद्धति है और देश में इसका प्रचलन बढ़ रहा है। इसे भी शासकीय स्वीकृति प्राप्त है तथा इस पद्धति के नियमित अध्ययन अध्यापन की व्यवस्था है।
यूनानी
यूनानी चिकित्सा पद्धति मुसलमानों के शासनकाल में भारत आई और उस समय इसे प्रोत्साहन भी मिला। किंतु अब इसका प्रचलन बहुत सीमित है।[1]
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