भारिया मध्य प्रदेश की जनजातियों में से एक है। इस जाति का विस्तार क्षेत्र छिंदवाड़ा, सिवनी, मंडला और सरगुजा ज़िले हैं। अपेक्षाकृत बड़े भाग में फैली इस जनजाति का एक छोटा-सा समूह छिंदवाड़ा ज़िले के पातालकोट नामक स्थान में सदियों से निवास करता रहा है।
निवास स्थल
पातालकोट स्थल को देखकर ही समझा जा सकता है कि इस स्थान की प्रगति नहीं हो सकी है। इस क्षेत्र के निवासी शेष दुनिया से अलग-थलग एक ऐसा जीवन जीते हैं, जिसमें उनकी अपनी मान्यताएँ, संस्कृति और अर्थ-व्यवस्था है। जिसमें बाहर के लोग कभी-कभार पहुँचते रहते हैं। 'पातालकोट' का शाब्दिक अर्थ है- 'पाताल को घेरने वाला पर्वत' या 'क़िला'। यह नाम बाहरी दुनिया के लोगों ने छिंदवाड़ा के एक ऐसे स्थान को दिया, जिसके चारों ओर तीव्र ढाल वाली पहाड़ियाँ हैं। इन वृत्ताकार पहाड़ियों ने मानों सचमुच ही एक दुर्ग का रूप ले लिया है। इस अगम्य स्थल में विरले लोग ही जा पाते हैं। ऐसा नहीं है कि इस क्षेत्र में एक ही जनजाति रहती है। पातालकोट की 90 प्रतिशत आबादी भारिया जनजाति की है। शेष 10 प्रतिशत में दूसरे आदिवासी आते हैं। इस स्थल की दुर्गमता ने ही यहाँ आदिवासी जीवन और संस्कृति को यथावत रखने में सहायता दी है।[1]
मान्यता
सन 1981 की जनगणना में पातालकोट में भारिया को 'जंगलियों के भी जंगली' कहा गया था। भारिया शब्द का वास्तविक अर्थ ज्ञात नहीं है। कुछ लोगों का मत है कि अज्ञातवास में जब कौरवों के गुप्तचर, पांडवों को ढूंढ रहे थे, तब अर्जुन ने अभिमंत्रित र्भरूघास के शस्त्र देकर भारियों को गुप्तचरों से लड़ने को भेज दिया। इन्होंने विजय प्राप्त की और वहीं से इन्हें भारिया नाम मिला।
व्यवसाय
भारिया जनजाति का कृषि के उपरान्त खेतों में मज़दूरी करना प्रमुख कार्य है। पातालकोट के आसपास गोंडों के खेत फैले हुए हैं। भारिया पातालकोट से आकर इनके खेतों में भी काम करते हैं। एक अनुमान के अनुसार भारिया, गोंडों के खेतों में 60-70 दिनों से अधिक कार्य नहीं करते। शासकीय विकास कार्यों में भी वे मज़दूरी का काम कर लेते हैं।
कृषि
वर्ष 1881 से 1981 तक की शताब्दी में भारिया जनजाति में मामूली फ़र्क़ आया है। पिछले पच्चीस वर्षों से मध्य प्रदेश सरकार ने इस क्षेत्र की उन्नति के लिए लगातार प्रयास किए हैं। यहाँ तक कि पूरे पातालकोट क्षेत्र को विशेष पिछड़ा क्षेत्र घोषित कर दिया गया है। पातालकोट की कृषि आदिम स्थाई कृषि है। कुल कृषि भूमि का 15 प्रतिशत खरीफ फ़सलों के अन्तर्गत आता है। प्रमुख फ़सलें धान, कोदो और कुटकी हैं। इन फ़सलों की कटाई अक्टूबर तक हो जाती है। यद्यपि रबी यहाँ की फ़सल नहीं है, किन्तु घर के आसपास के ख़ाली क्षेत्र में चना बो दिया जाता है। आदिवासियों के अनुसार चने की यह छोटी फ़सलें भी अत्यंत श्रम साध्य हैं, क्योंकि पातालकोट में बंदरों का उत्पात काफ़ी अधिक है और मौका पाते ही वे फ़सल को तबाह कर देते हैं। गेहूँ भी बोया जाता है, लेकिन इसका उत्पादन नगण्य है। पातालकोट में गेहूँ और चना नक़दी फ़सलें हैं, क्योंकि इस पूरे उत्पाद को बेच दिया जाता है, ताकि कुछ नक़द हाथ आ सके तथा अन्य ज़रूरत की वस्तुएँ ख़रीदी जा सकें।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 मध्य प्रदेश की जनजातियाँ (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 28 अक्टूबर, 2012।
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