ये जो है हुक़्म मेरे पास न आए कोई इसलिए रूठ रहे हैं कि मनाए कोई। ये न पूछो कि ग़मे-हिज्र में कैसी गुज़री दिल दिखाने का हो तो दिखाए कोई। हो चुका ऐश का जलसा तो मुझे ख़त पहुँचा आपकी तरह से मेहमान बुलाए कोई। तर्के-बेदाद की तुम दाद न पाओ मुझसे करके एहसान, न एहसान जताए कोई। क्यों वो मय-दाख़िले-दावत ही नहीं ऐ वाइज़ मेहरबानी से बुलाकर जो पिलाए कोई। सर्द-मेहरी से ज़माने के हुआ है दिल सर्द रखकर इस चीज़ को क्या आग लगाए कोई। आपने दाग़ को मुँह भी न लगाया, अफ़सोस उसको रखता था कलेजे से लगाए कोई।