शेर जंग थापा
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पूरा नाम | ब्रिगेडियर शेर जंग थापा |
जन्म | 15 अप्रैल, 1907 |
जन्म भूमि | ज़िला एबटाबाद, अविभाजित भारत (अब खैबर पख्तूनख्वा, पाकिस्तान) |
मृत्यु | अगस्त, 1999 |
स्थान | दिल्ली, भारत |
सेना | भारतीय सेना |
बटालियन | 6 जम्मू और कश्मीर इन्फैन्ट्री |
रैंक | ब्रिगेडियर |
सेवा काल | 1930–1960 |
सम्मान | महावीर चक्र, 1948 |
नागरिकता | भारतीय |
विशेष योगदान | शेर जंग थापा ने 11 फरवरी, 1948 से 14 अगस्त, 1948 तक लगभग 6 महीने 3 दिन तक पाकिस्तानी सेना को स्कार्दू में रोके रखा, जिस कारण पाकिस्तान लद्दाख में कब्जा जमाने में असफल रहा। |
सेवा संख्या | एसएस-15920 (शॉर्ट सर्विस कमीशन) आईसी-10631 (नियमित कमीशन) |
ब्रिगेडियर शेर जंग थापा (अंग्रेज़ी: Sher Jung Thapa, जन्म- 15 अप्रैल, 1907; मृत्यु- अगस्त, 1999) भारतीय सेना अधिकारी थे। वे 'स्कार्दू के नायक' के रूप में सम्मानित थे। सन 1948 में उन्हें महावीर चक्र (एमवीसी) से सम्मानित किया गया था जो भारतीय सेना का दूसरा सर्वोच्च वीरता पुरस्कार है। 1947 में भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान बड़ी संख्या में मुजाहिदों को प्रशिक्षण देकर भारत में हमला करने के लिए तैयार कर रहा था। प्रशिक्षण देने के बाद पाकिस्तान ने उन्हीं हथियारबंद मुजाहिदों को लद्दाख पर कब्जा करने की नीयत से भेजा था। इन कबाइलियों के साथ पाकिस्तानी सेना भी शामिल थी; लेकिन पाकिस्तान अपने इस नापाक मंसूबे में कामयाब नहीं हो सका। ब्रिगेडियर शेर जंग थापा ने 11 फरवरी, 1948 से 14 अगस्त, 1948 तक लगभग 6 महीने 3 दिन तक पाकिस्तानी सेना को स्कार्दू में रोक रखा था। जिसके कारण पाकिस्तान लद्दाख में कब्जा जमाने में असफल रहा और लद्दाख आज भारतीय क्षेत्र में है।
इतिहास
11 फरवरी, 1948 के दिन पाकिस्तान की 600 सैनिकों वाली सेना ने स्कार्दू शहर पर हमला बोल दिया। उस वक्त कर्नल शेर जंग थापा स्कार्दू की रक्षा के लिए अपने 50 जवानों के साथ वहां पर तैनात थे। संयोग अच्छा था कि पाकिस्तान द्वारा हमला करने के एक दिन पहले 10 जनवरी को कैप्टन प्रभात सिंह के नेतृत्व में 90 जवानों की टुकड़ी स्कार्दू पहुंच चुकी थी। पाकिस्तान द्वारा हमला करने के बाद शेर जंग थापा ने 130 जवानों के साथ 6 घंटे लंबी लड़ाई लड़कर पाकिस्तानी सैनिकों को पीछे जाने पर मजबूर कर दिया था।[1]
स्कार्दू में तैनात भारतीय सेना को पाकिस्तान सैनिकों का मुकाबला करने के साथ ही वहां की मुस्लिम आबादी का भी मुकाबला करना पड़ रहा था, क्योंकि स्कार्दू की मुस्लिम आबादी पाकिस्तानी सैनिकों के साथ मिल गई थी और उनका सहयोग कर रही थी। पाकिस्तान द्वारा हमला किये अभी दो ही दिन हुए थे कि 13 फरवरी को कैप्टन अजीत सिंह के नेतृत्व में 70 सैनिकों की टोली और 15 फरवरी को भी लगभग इतने ही भारतीय सैनिकों की टोली स्कार्दू पहुंच गयी थी। सैनिकों के पहुंचने से शेर जंग थापा को थोड़ी राहत तो जरूर मिली थी, लेकिन उन्हें यह भी ज्ञात था कि लड़ाई अभी लंबी है। इसीलिए उन्होंने श्रीनगर की सैन्य छावनी से अतिरिक्त सेना भेजने का आग्रह किया। स्कार्दू की रक्षा के लिए चोटी प्वाइंट 8853 पर भारतीय सेना की तैनाती जरूरी थी, लेकिन कर्नल शेर जंग थापा के साथ मात्र 285 सैनिक होने के कारण यह संभव नहीं हो पा रहा था।
इसलिए कर्नल शेर जंग थापा ने चोटी प्वाइंट 8853 पर भारतीय सैनिकों की तैनात के लिए श्रीनगर सैन्य छावनी से लगातार कई बार आग्रह किया। लेकिन किसी कारण यह संभव नहीं हो पाया था। जिसके बाद कर्नल शेर जंग ने स्कार्दू के स्थानीय गैर मुस्लिम युवकों को इकठ्ठा किया, जिससे आगे चौकियों तक राशन और अन्य सामान पहुंचाये जा सके। कुछ दिनों के बाद पाकिस्तानी सैनिकों ने दोबारा हमला बोल दिया और चोटी प्वाइंट 8853 पर अपना कब्जा कर लिया। कब्जे के बाद पाकिस्तान सैनिकों ने भारतीय सेना की चौकियों को निशाना बनाकर गोलाबारी शुरू कर दी थी। पाकिस्तान सैनिकों की संख्या लगातार बढ़ा रहा था, जिससे वह स्कार्दू छावनी की घेराबंदी कर सके। पूरे मार्च महीने भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सैनिकों का डटकर मुकाबला किया था और उन्हें आगे नहीं बढ़ने दिया था।
16 फरवरी, 1948 को अपनी बटालियन के साथ निकले कर्नल पृथ्वीचंद भारी बर्फबारी के कारण 1 मार्च, 1948 को कारगिल पहुंचे थे। जहां उनकी मुलाकात कर्नल शेर जंग थापा की बटालियन से हुई। वहां उन्हें जानकारी मिली कि पाकिस्तानी सेना ने स्कार्दू पर अपना कब्जा जमा लिया है, यह सूचना मिलने के बाद कर्नल पृथ्वीचंद बिना देर किये लेह आ गये। जहां पर उन्होंने स्थानीय नागरिकों से मुलाकात की और तिरंगा फहराया। उस वक्त उन्होंने लेह के स्थानीय नागरिकों को संबोधित करते हुये कहा था कि 'मुझे यहां लद्दाख की रक्षा के लिए भेजा गया है। उन्होंने स्थानीय नागरिकों से कहा था कि हम आपको प्रशिक्षण देंगे, जिससे लद्दाख की रक्षा और मजबूती से की जा सकें।' पृथ्वीचंद ने वहां पर सबसे पहले इंजीनियर सोनम नोरबु के सहयोग से एक हवाई पट्टी बनवाई ताकि भारतीय सेना के और सैनिक लेह पहुंच सकें। जिसके बाद लेह में 22 मई के दिन वायु सेना का डकोटा विमान जनरन थिमैया और एयर कमांडर मेहर सिंह को लेकर पहुंचा था। जिसके बाद लेह और कारगिल में स्थिति लगभग भारतीय सेना के नियंत्रण में थी।[1]
स्कार्दू में बीते 6 महीने से पाकिस्तानी सैनिकों से लड़ रहे भारतीय सैनिकों के पास अब राशन लगभग खत्म हो चुका था, उनके लिए एक समय का भोजन करना भी मुश्किल हो चुका था। साथ ही हर एक राइफलमैन के पास सिर्फ लगभग 10 कारतूस ही बचे थे। बिना गोली और राशन के उनके लिए लड़ना बहुत चुनौतीपूर्ण था। कर्नल शेर जंग थापा लगातार श्रीनगर से मदद की मांग कर थे, लेकिन रास्ता बंद होने के कारण मदद पहुंचाना संभव नहीं हो पा रहा था। अगले दिन श्रीनगर डिवीजन के कर्नल राम ओबेरॉय ने आत्मसमर्पण करने का आदेश दे दिया था। 14 अगस्त, 1948 को आदेश के बाद कर्नल थापा, 4 अधिकारी, 1 जेसीओ और 35 अन्य रैंक के सैनिकों ने दुश्मनों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया।
मेजर जनरल के.एस. थिमय्या ने उस वक्त का वर्णन करते हुए बाद में कहा था कि 'मेरी रणनीति लद्दाख को बचाने की थी, हर कीमत पर स्कर्दू पर भारतीय सेना की पकड़ बनाये रखनी थी, ताकि पाकिस्तानी सैनिक कारगिल और लेह तक ना पहुंच सकें। सौभाग्य से इस मिशन को पूरा करने के लिए स्कर्दू में सही आदमी लेफ्टिनेंट कर्नल शेर जंग थापा था। कोई भी शब्द लेफ्टिनेंट कर्नल शेर जंग थापा की वीरता और नेतृत्व का वर्णन नहीं कर सकता है, जिन्होंने छह महीनों तक मुश्किल से 250 पुरुषों के साथ स्कार्दू पर कब्जा जमाया हुआ था। मैंने सैनिकों तक अधिक राशन और गोला बारूद छोड़ने पहुंचाने की कोशिश की थी, लेकिन अफसोस की वह राशन पहुंच नहीं पाया और सब कुछ दुश्मनों के हाथ लग गया। छह महीने के अंत में जब पूरी तरह से राशन और गोला-बारूद खत्म हो गया था, तब मैंने जवानों आत्मसमर्पण करने के लिए कहा। क्योंकि मुझे पता था कि राशन और गोला-बारूद के बिना नहीं रहा नहीं जा सकता। मुझे ये भी पता था मेरे सैनिक आत्मसमर्पण करने के बाद ही जिंदा वापस हमारे पास आ सकते हैं'।
शेर जंग थापा का साक्षात्कार
कई सालों के बाद एक इंटरव्यू में ब्रिगेडियर शेर जंग थापा ने उस वक्त के पिछले 24 घंटों के दृश्य का वर्णन करते हुये बताया था कि 'हमने अपने आखिरी बचे गोला बारूद का इस्तेमाल कर लिया था। हर कोई हमारी स्थिति को जानता था और चारों तरफ सिर्फ दहशत और अराजकता थी। महिलाओं ने सिंधु नदी में कूदकर आत्महत्या करना शुरू कर दिया और कई महिलाओं ने अपने सम्मान को बचाने के लिए जहर खा लिया था। एक उदाहरण था जब एक लड़की ने खुद को मारने के लिए सिंधु में तीन बार छलांग लगाई, लेकिन हर बार लहरें उसे किनारे तक पहुंचा देतीं। मेरे सैनिकों ने बहुत ही मुश्किलों के साथ लड़ाई लड़ी थी और 6 महीने 3 दिनों तक स्कार्दू पर कब्जा जमा कर रखा था। फिर आखिरी में आदेश के मुताबिक आत्मसमर्पण करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। आत्मसमर्पण के सभी सिक्खों की गोली मारकर हत्या कर दी गई। एकमात्र सिक्ख जो बच गया, वह था कल्याण सिंह, जो मेरी दल में था जो मेरे साथ रह रहा था'।[1]
सम्मान
पाकिस्तान सेना के कमांडर-इन-चीफ जनरल सर डगलस ग्रेस थे। उन्होंने धर्मशाला में युवा शेर जंग थापा के साथ हॉकी खेला था और उन्होंने ही सेना में शामिल होने के लिए उन्हें सलाह दी थी। उनके व्यवहार के कारण ही शेर जंग थापा को किसी ने नहीं मारा था। युद्ध के कुछ हफ्तों के बाद शेर जंग थापा और बाकि बचे सैनिक भारत वापस आये थे। शेर जंग थापा को उनकी वीरता के लिए 'महावीर चक्र' से सम्मानित किया गया।
मृत्यु
शेर जंग थापा ब्रिगेडियर के पद तक पहुंचे और 1961 में सेवानिवृत्त हो गये। उनका अगस्त 1999 में 92 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 जानिए लद्दाख-स्कार्दू युद्ध की कहानी (हिंदी) jammukashmirnow.com। अभिगमन तिथि: 27 अगस्त, 2021।
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