"तुम्हारे शहर से जाने का मन है -दिनेश रघुवंशी": अवतरणों में अंतर
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! दिनेश रघुवंशी की रचनाएँ | |||
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{{दिनेश रघुवंशी की रचनाएँ}} | {{दिनेश रघुवंशी की रचनाएँ}} | ||
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कोई चेहरे नहीं हैं ये मुखौटे ही मुखौटे हैं | कोई चेहरे नहीं हैं ये मुखौटे ही मुखौटे हैं | ||
हमेशा ही बड़ी बातें तो करते रहते हैं हरदम | हमेशा ही बड़ी बातें तो करते रहते हैं हरदम | ||
पर इनकी सोच के भी | पर इनकी सोच के भी क़द इन्हीं के क़द से छोटे हैं | ||
कभी लगता है सारे लोग बाजीगर नहीं तो क्या | कभी लगता है सारे लोग बाजीगर नहीं तो क्या | ||
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शिकायत हमसे करते हैं कि दुनिया की तरह हमको | शिकायत हमसे करते हैं कि दुनिया की तरह हमको | ||
समझदारी नहीं आती, | समझदारी नहीं आती, वफ़ादारी नहीं आती | ||
हमें कुछ भी | हमें कुछ भी नहीं आता, मगर इतना तो आता है | ||
जमाने की तरह हमको अदाकारी नहीं आती | जमाने की तरह हमको अदाकारी नहीं आती | ||
न जाने शहर है कैसा, न जाने लोग हैं कैसे | न जाने शहर है कैसा, न जाने लोग हैं कैसे | ||
किसी की चुप्पियों को भी ये | किसी की चुप्पियों को भी ये कमज़ोरी समझते हैं | ||
बहुत बचकर, बहुत बचकर, बहुत बचकर चलो तो भी | बहुत बचकर, बहुत बचकर, बहुत बचकर चलो तो भी | ||
बिना मतलब, बिना मतलब, बिना मतलब उलझते हैं | बिना मतलब, बिना मतलब, बिना मतलब उलझते हैं | ||
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मिलेंगे अब कहाँ अपने, जगेंगे क्या नए सपने | मिलेंगे अब कहाँ अपने, जगेंगे क्या नए सपने | ||
बुझेगी अब कहाँ पर तिश्नगी ये किसलिए सोचें | बुझेगी अब कहाँ पर तिश्नगी ये किसलिए सोचें | ||
चलो खुद सौंप आएँ | चलो खुद सौंप आएँ ज़िन्दगी के हाथ में खुद को | ||
कहाँ ले जाएगी फिर | कहाँ ले जाएगी फिर ज़िंदगी ये किसलिए सोचें | ||
नये रस्ते, नये हमदम, नई मंजिल, नई दुनिया | नये रस्ते, नये हमदम, नई मंजिल, नई दुनिया | ||
भले हो इम्तिहां कितने, कोई अब गम नहीं होंगे | भले हो इम्तिहां कितने, कोई अब गम नहीं होंगे | ||
सफ़र यूँ | सफ़र यूँ ज़िन्दगी का रोज कम होता रहे तो भी | ||
सफ़र | सफ़र ज़िन्दादिली का उम्रभर अब कम नहीं होगा | ||
यहाँ नफ़रत के दरिया हैं, यहाँ | यहाँ नफ़रत के दरिया हैं, यहाँ ज़हरीले बादल हैं | ||
यहाँ हम प्यार की एक बूँ द तक को भी तरसते हैं | यहाँ हम प्यार की एक बूँ द तक को भी तरसते हैं | ||
यहाँ से दूर, थोड़ी दूर, थोड़ी दूर जाने दो | यहाँ से दूर, थोड़ी दूर, थोड़ी दूर जाने दो | ||
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हमें खामोश रखता है बहुत अन्दर का सन्नाटा | हमें खामोश रखता है बहुत अन्दर का सन्नाटा | ||
किसी को | किसी को फ़र्क़ क्या पड़ता है जो हम खुद में तन्हा हैं | ||
किसी दिन शाख से पत्ते की तरह टूट भी जाएँ | किसी दिन शाख से पत्ते की तरह टूट भी जाएँ | ||
किसी से भी कभी ये सोच करके हम नहीं रूठे | किसी से भी कभी ये सोच करके हम नहीं रूठे | ||
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<references/> | <references/> | ||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
{{समकालीन कवि}} | |||
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17:10, 30 दिसम्बर 2013 के समय का अवतरण
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तुम्हारे शहर से जाने का मन है |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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