"तुम्हारे शहर से जाने का मन है -दिनेश रघुवंशी": अवतरणों में अंतर
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बुझेगी अब कहाँ पर तिश्नगी ये किसलिए सोचें | बुझेगी अब कहाँ पर तिश्नगी ये किसलिए सोचें | ||
चलो खुद सौंप आएँ ज़िन्दगी के हाथ में खुद को | चलो खुद सौंप आएँ ज़िन्दगी के हाथ में खुद को | ||
कहाँ ले जाएगी फिर | कहाँ ले जाएगी फिर ज़िंदगी ये किसलिए सोचें | ||
नये रस्ते, नये हमदम, नई मंजिल, नई दुनिया | नये रस्ते, नये हमदम, नई मंजिल, नई दुनिया | ||
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हमें खामोश रखता है बहुत अन्दर का सन्नाटा | हमें खामोश रखता है बहुत अन्दर का सन्नाटा | ||
किसी को | किसी को फ़र्क़ क्या पड़ता है जो हम खुद में तन्हा हैं | ||
किसी दिन शाख से पत्ते की तरह टूट भी जाएँ | किसी दिन शाख से पत्ते की तरह टूट भी जाएँ | ||
किसी से भी कभी ये सोच करके हम नहीं रूठे | किसी से भी कभी ये सोच करके हम नहीं रूठे |
17:10, 30 दिसम्बर 2013 के समय का अवतरण
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तुम्हारे शहर से जाने का मन है |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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