"महाश्वेता देवी": अवतरणों में अंतर

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|प्रसिद्धि=सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका
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'''महाश्वेता देवी''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Mahasweta Devi'', जन्म- [[14 जनवरी]], [[1926]], [[ढाका]]; मृत्यु- [[28 जुलाई]], [[2016]], [[कोलकाता]]) [[भारत]] की प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका थीं। उन्होंने [[बांग्ला भाषा]] में बेहद संवेदनशील तथा वैचारिक लेखन के माध्यम से [[उपन्यास]] तथा [[कहानी|कहानियों]] से [[साहित्य]] को समृद्धशाली बनाया। अपने लेखन कार्य के साथ-साथ महाश्वेता देवी ने समाज सेवा में भी सदैव सक्रियता से भाग लिया और इसमें पूरे मन से लगी रहीं। स्त्री अधिकारों, दलितों तथा आदिवासियों के हितों के लिए उन्होंने जूझते हुए व्यवस्था से संघर्ष किया तथा इनके लिए सुविधा तथा न्याय का रास्ता बनाती रहीं। [[1996]] में उन्हें '[[ज्ञानपीठ पुरस्कार]]' से सम्मानित किया गया था। महाश्वेता जी ने कम उम्र में ही लेखन कार्य शुरू कर दिया था और विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं के लिए लघु कथाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
==परिचय==
14 जनवरी, 1926 को महाश्वेता देवी का जन्म [[ भारत|अविभाजित भारत]] के [[ढाका]] में जिंदाबहार लेन में हुआ था। उनके जन्म के समय माँ धरित्री देवी मायके में थीं। [[माँ]] की उम्र तब 18 [[वर्ष]] और [[पिता]] मनीष घटक की 25 वर्ष थी। पिता मनीष घटक ख्याति प्राप्त [[कवि]] और साहित्यकार थे। माँ धरित्री देवी भी [[साहित्य]] की गंभीर अध्येता थीं। वे समाज सेवा में भी संलग्न रहती थीं। महाश्वेता ने जब बचपन में साफ-साफ बोलना शुरू किया तो उन्हें जो जिस नाम से पुकारता, वे भी उसी नाम से उसे पुकारतीं। पिता उन्हें 'तुतुल' कहते थे तो ये भी पिता को तुतुल ही कहतीं। आजीवन पिता उनके लिए 'तुतुल' ही रहे।<ref name="a">{{cite web |url=http://literaturepoint.com/mahashweta-tribute/#sthash.AbOwLJAp.U726MF9R.dpbs |title=महाश्वेता देवी का जीवन और साहित्य |accessmonthday=30 जुलाई|accessyear= 2016|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=literaturepoint.com |language= हिन्दी}}</ref> [[भारत विभाजन|भारत के विभाजन]] के समय किशोर अवस्था में ही उनका [[परिवार]] [[पश्चिम बंगाल]] में आकर रहने लगा था। इसके उपरांत उन्होंने '[[विश्वभारती विश्वविद्यालय]]', [[शांतिनिकेतन]] से बी.ए. [[अंग्रेज़ी]] विषय के साथ किया। फिर '[[कलकत्ता विश्वविद्यालय]]' से एम.ए. भी [[अंग्रेज़ी]] में किया। महाश्वेता देवी ने [[अंग्रेज़ी साहित्य]] में मास्टर की डिग्री प्राप्त की थी। इसके बाद एक शिक्षक और पत्रकार के रूप में उन्होंने अपना जीवन प्रारम्भ किया। इसके तुरंत बाद ही [[कलकत्ता विश्वविद्यालय]] में अंग्रेज़ी व्याख्याता के रूप में आपने नौकरी प्राप्त कर ली। सन [[1984]] में उन्होंने सेवानिवृत्ति ले ली।
==प्रारम्भिक शिक्षा तथा नटखट स्वभाव==
बचपन से ही महाश्वेता मातृभक्त रहीं। थोड़ी बड़ी हुईं तो ढाका के 'इंडेन मांटेसरी स्कूल' में भर्ती कराया गया। चार वर्ष की उम्र में ही [[बांग्ला भाषा|बांग्ला]] लिखना-पढ़ना सीख गई थीं। पिता को नौकरी मिल गई थी। कई बार बदली हुई। तबादले पर उन्हें ढाका, मनमनसिंह, जलपाईगुड़ी, दिनाजपुर और फरीदपुर जाना पड़ा। ढाका के जिंदाबहार लेन में महाश्वेता का ननिहाल था और नतून भोरेंगा में पिता का [[गाँव]]। ननिहाल आना-जाना लगा रहता था। दुर्गा पूजा की छुट्टियाँ तो ननिहाल में ही कटतीं। बचपन में महाश्वेता नटखट थीं। इतनी कि एक बार ननिहाल में रहते हुए भोरेंगा की दुर्गा पूजा देखने गई थीं। चार [[भाई]]-[[बहन|बहनों]] के साथ। भाई बहनों को लेकर वे एक स्नान घाट से उतरीं। [[स्नान]] करने और तैरने का मज़ा काफूर हो गया, जब चारों बच्चे डूबने से बचे। उस [[दिन]] [[सप्तमी]] की [[पूजा]] थी। घर आईं तो खूब डाँट पड़ी थी।
;शांतिनिकेतन में शिक्षा
[[1935]] में महाश्वेता जी के [[पिता]] का तबादला मेदिनीपुर हुआ तो महाश्वेता का वहाँ के मिशन स्कूल में दाखिला कराया गया, लेकिन उसके अगले [[वर्ष]] ही मेदिनीपुर से नाता टूट गया; क्योंकि उन्हें [[शांतिनिकेतन]] भेजने का फैसला किया गया। तब वे दस [[वर्ष]] की थीं। शांतिनिकेतन के नियमानुसार [[लाल रंग]] के किनारे वाली [[साड़ी]], बिस्तर, लोटा, गिलास वगैरह ख़रीदा गया। शांतिनिकेतन में मिली नई जगह, सुंदर भवन, लाइब्रेरी आदि में महाश्वेता को उन्मुक्त प्रकृति मिली। नई सहेलियाँ मिलीं। आश्रम की दिनचर्या ऐसी थी कि सभी छात्र सुबह से देर रात तक व्यस्त रहते। शिक्षा का माध्यम बांग्ला होने के बावजूद [[अंग्रेज़ी]] अनिवार्य थी।


'''महाश्वेता देवी''' (जन्म- [[14 जनवरी]], [[1926]], [[ढाका]], ब्रिटिश भारत) [[भारत]] की प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका हैं। इन्होंने [[बांग्ला भाषा]] में बेहद संवेदनशील तथा वैचारिक लेखन के माध्यम से उपन्यास तथा कहानियों से [[साहित्य]] को समृद्धशाली बनाया है। अपने लेखन के कार्य के साथ-साथ महाश्वेता देवी ने समाज सेवा में भी सदैव सक्रियता से भाग लिया और इसमें पूरे मन से लगी रहीं। स्त्री अधिकारों, दलितों तथा आदिवासियों के हितों के लिए उन्होंने जूझते हुए व्यवस्था से संघर्ष किया तथा इनके लिए सुविधा तथा न्याय का रास्ता बनाती रहीं। [[1996]] में इन्हें '[[ज्ञानपीठ पुरस्कार]]' से सम्मानित किया गया। महाश्वेता जी ने कम उम्र में ही लेखन कार्य शुरु कर दिया था और विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं के लिए लघु कथाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
शांतिनिकेतन में महाश्वेता का जल्दी ही मन लग गया। वहाँ उन्हें श्रेष्ठ शिक्षक मिले। बकौल महाश्वेता, ‘[[हज़ारीप्रसाद द्विवेदी|आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी]] [[हिंदी]] पढ़ाते थे। सभी आश्रमवासी उन्हें 'छोटा पंडित' जी कहते थे। [[1937]] में [[रवींद्रनाथ ठाकुर|गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर]] ने भी बांग्ला की कक्षा ली थी। तब सातवीं कक्षा की छात्रा महाश्वेता के लिए यह अविस्मरणीय घटना थी। गुरुदेव ने पाठ परिचय से बलाई पढ़ाया था। इसके पहले [[1936]] में बंकिम शतवार्षिकी समारोह में रवींद्रनाथ का भाषण सुना था महाश्वेता ने।<ref name="a"/>
==जीवन परिचय==
==कलकत्ता आगमन==
14 जनवरी, 1926 को महाश्वेता देवी का जन्म अविभाजित [[भारत]] के [[ढाका]] में हुआ था। इनके [[पिता]], जिनका नाम मनीष घटक था, वे एक [[कवि]] और उपन्यासकार के रूप में प्रसिद्ध थे। महाश्वेता जी की [[माता]] धारीत्री देवी भी एक लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता थीं। महाश्वेता देवी ने अपनी स्कूली शिक्षा ढाका में ही प्राप्त की। भारत के विभाजन के समय किशोर अवस्था में ही इनका परिवार [[पश्चिम बंगाल]] में आकर रहने लगा था। इसके उपरांत इन्होंने 'विश्वभारती विश्वविद्यालय', शांतिनिकेतन से बी.ए. अंग्रेज़ी विषय के साथ किया। इसके बाद 'कलकत्ता विश्वविद्यालय' से एम.ए. भी [[अंग्रेज़ी]] में किया। महाश्वेता देवी ने अंग्रेज़ी साहित्य में मास्टर की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद एक शिक्षक और पत्रकार के रूप में इन्होंने अपना जीवन प्रारम्भ किया। इसके तुरंत बाद ही [[कलकत्ता विश्वविद्यालय]] में अंग्रेज़ी व्याख्याता के रूप में आपने नौकरी प्राप्त कर ली। सन [[1984]] में इन्होंने सेवानिवृत्त ले ली।
महाश्वेता शांतिनिकेतन में तीन साल ही रह सकीं, क्योंकि [[1939]] में उन्हें [[कलकत्ता]] बुला लिया गया। शांतिनिकेतन जाने पर वे जितना रोई थीं, उससे ज्यादा उसके छूटने पर रोई थीं। 1939 में शांतिनिकेतन से लौटने के बाद कलकत्ता के 'बेलतला बालिका विद्यालय' में आठवीं कक्षा में महाश्वेता का दाखिला हुआ। उसी साल उनके काका ऋत्विक घटक भी घर आकर रहने लगे। वे [[1941]] तक यहाँ रहे। [[1939]] में बेलतला स्कूल में महाश्वेता की शिक्षिका थीं अपर्णा सेन। उनके बड़े भाई खेगेंद्रनाथ सेन ‘रंगमशाल’ निकालते थे। उन्होंने एक दिन रवींद्रनाथ की पुस्तक ‘छेलेबेला’ देते हुए महाश्वेता से उस पर कुछ लिखकर देने को कहा। महाश्वेता ने लिखा और वह ‘रंगमशाल’ में छपा भी। यह महाश्वेता की पहली रचना थी। स्कूली जीवन में ही महाश्वेता ने राजलक्ष्मी और धीरेश भट्टाचार्य के साथ मिलकर एक अल्पायु स्वहस्तलिखित पत्रिका निकाली – ‘छन्नछाड़ा।’
==लेखन कार्य==
 
महाश्वेता जी ने कम उम्र में ही लेखन का कार्य शुरु कर दिया था, और विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं के लिए लघु कथाओं आदि का योगदान दिया। इनका प्रथम उपन्यास 'नाती' [[1957]] में प्रकाशित किया गया था। 'झाँसी की रानी' महाश्वेता देवी की प्रथम रचना है, जो [[1956]] में प्रकाशित हुई। उन्होंने स्वयं ही अपने शब्दों में कहा है- "इसको लिखने के बाद मैं समझ पाई कि मैं एक कथाकार बनूँगी।" इस पुस्तक को महाश्वेता जी ने [[कोलकाता]] में बैठकर नहीं, बल्कि [[सागर]], [[जबलपुर]], [[पूना]], [[इंदौर]] और [[ललितपुर ज़िला|ललितपुर]] के जंगलों; साथ ही [[झाँसी]], [[ग्वालियर]] और [[कालपी]] में घटित तमाम घटनाएँ यानी [[1857]]-[[1858]] में [[इतिहास]] के मंच पर जो कुछ भी हुआ, सबको साथ लेकर लिखा। अपनी नायिका के अलावा लेखिका ने क्रांति के तमाम अग्रदूतों और यहाँ तक कि [[अंग्रेज़]] अफ़सर तक के साथ न्याय करने का प्रयास किया है। महाश्वेता जी कहती हैं- "पहले मेरी मूल विधा कविता थी, अब कहानी और उपन्यास हैं।" उनकी कुछ महत्त्वपूर्ण कृतियों में 'अग्निगर्भ', 'जंगल के दावेदार' और '1084 की माँ', 'माहेश्वर' और 'ग्राम बांग्ला' आदि हैं। पिछले चालीस वर्षों में इनकी छोटी-छोटी कहानियों के बीस संग्रह प्रकाशित किये जा चुके हैं और सौ उपन्यासों के क़रीब प्रकाशित हो चुके हैं।<ref name="mcc">{{cite web |url=http://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A4%E0%A4%BE_%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A5%80 |title=महाश्वेता देवी |accessmonthday=20 सितम्बर |accessyear=2012 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=[[हिन्दी]]}}</ref>
[[नानी]], [[दादी]] व [[माँ]] ने महाश्वेता को अच्छे [[साहित्य]] पढ़ने के [[संस्कार]] दिए। कोई क़िताब पढ़ने के बाद कोई प्रसंग दादी माँ पूछ भी लेती थीं। बचपन में दादी की लाइब्रेरी से ही लेकर महाश्वेता ने ‘टम काकार कुटीर’ पढ़ा था। घर का पूरा माहौल ही शिक्षा और संस्कृतमय था। इसलिए लिखने-पढ़ने का एक नियमित अभ्यास छुटपन में ही हो गया। हेम-बंधु-बंकिम-नवीन-रंगलाल को उन्होंने 12 वर्ष की उम्र में ही पढ़ लिया।
====रचनाएँ====
 
महाश्वेता देवी की कुछ प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
माँ देश प्रेम और [[इतिहास]] की पुस्तकें पढ़ने को देतीं और कहतीं- "अभी इन पुस्तकों को पढ़ना ज़रूरी है। बाद में अपनी इच्छा से पढ़ना।" [[पिता]] की भी बड़ी समृद्ध लाइब्रेरी थी। तब के '[[नोबेल पुरस्कार]]' प्राप्त कई लेखकों की रचनाएँ महाश्वेता ने पिता की लाइब्रेरी से ही लेकर पढ़ी थीं। [[1939]]-[[1944]] के दौरान महाश्वेता के पिता ने कलकत्ता में सात बार घर बदले। [[1942]] में घर के सारे कामकाज करते हुए महाश्वेता ने मैट्रिक की परीक्षा पास की। उस वर्ष ([[1942]]) '[[भारत छोड़ो आंदोलन]]' ने महाश्वेता के किशोर मन को बहुत उद्वेलित किया। [[1943]] में [[अकाल]] पड़ा। तब 'महिला आत्मरक्षा समिति' के नेतृत्व में उन्होंने राहत और सेवा कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। अकाल के बाद महाश्वेता ने कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र ‘पीपुल्स वार’ और ‘जनयुद्ध’ की बिक्री भी की थी, पर पार्टी की सदस्य वे कभी नहीं हुईं।<ref name="a"/>
==व्यावसायिक शुरुआत==
किशोरवय में ही कंधे पर आ चुके पारिवारिक दायित्व को निभाने के प्रति भी महाश्वेता सदा सजग रहतीं। [[माँ]] के जीवन के आखिरी वर्षों में महाश्वेता ने पुरानी सिलाई मशीन चलाकर कपड़ों की सिलाई की। [[1944]] में महाश्वेता ने कलकत्ता के 'आशुतोष कॉलेज' से इंटरमीडिएट किया। पारिवारिक दायित्व से कुछ मुक्ति मिली यानी वह भार छोटी बहन मितुल ने सँभाला तो महाश्वेता फिर शांतिनिकेतन गईं कॉलेज की पढ़ाई करने। वहाँ ‘देश’ के संपादक सागरमय घोष आते-जाते थे। उन्होंने महाश्वेता से ‘देश’ में लिखने को कहा। तब महाश्वेता बी.ए. तृतीय वर्ष में थीं। उस दौरान उनकी तीन [[कहानी|कहानियाँ]] ‘देश’ में छपीं। हर [[कहानी]] पर दस [[रुपया|रुपये]] का पारिश्रमिक मिला था। तभी उन्हें बोध हुआ कि लिख-पढ़कर भी गुजारा संभव है। उन्होंने शांतिनिकेतन से [[1946]] में [[अंग्रेज़ी]] में ऑनर्स के साथ स्नातक किया।
 
उसके साल भर बाद [[1947]] में प्रख्यात रंगकर्मी विजन भट्टाचार्य से उनका [[विवाह]] हुआ। [[1948]] में पदमपुकुर इंस्टीट्यूशन में अध्यापन कर महाश्वेता ने घर का खर्चा चलाया। उसी वर्ष पुत्र नवारुण भट्टाचार्य का जन्म हुआ। [[1949]] में महाश्वेता को केंद्र सरकार के डिप्टी एकाउंटेट जनरल, पोस्ट एंड टेलीग्राफ ऑफिस में अपर डिवीजन क्लर्क की नौकरी मिली। लेकिन एक वर्ष के भीतर ही, चूँकि पति कम्युनिस्ट थे, सो उनकी नौकरी चली गई। महाश्वेता अतुल गुप्त के पास गईं। उनकी नोटिस के दबाव में महाश्वेता की फिर बहाली हुई लेकिन इस बार महाश्वेता की दराज में मार्क्स और लेनिन की किताबें रखकर कम्युनिस्ट होने का आरोप लगाकर और अस्थायी होने के चलते दुबारा नौकरी से उन्हें हटा दिया गया। नौकरी जाने के बाद जीवन-संग्राम ज्यादा कठिन हो गया। महाश्वेता ने कपड़ा साफ करने के साबुन की बिक्री से लेकर ट्यूशन करके घर का खर्चा चलाया। यह क्रम [[1957]] में रमेश मित्र बालिका विद्यालय में मास्टरी मिलने तक चला। विजन भट्टाचार्य से विवाह होने से ही महाश्वेता जीवन संग्राम का यह पक्ष महसूस कर सकीं और एक सुशिक्षित, सुसंस्कृत [[परिवार]] की लड़की होने के बावजूद स्वेच्छा से संग्रामी जीवन का रास्ता चुन सकीं।
=='झाँसी की रानी' की रचना==
संघर्ष के इन दिनों ने ही लेखिका महाश्वेता को भी तैयार किया। उस दौरान उन्होंने खूब रचनाएँ पढ़ीं। विश्व के मशहूर लेखकों-चिंतकों की रचनाएँ, इलिया एरेनबर्ग, एलेक्सी टॉलस्टॉय, मैक्सिम गोर्की, चेख़व, सोल्झेनित्सिन, मायकोवॅस्की और [[रूस]] के कई अन्य लेखकों की पुस्तकें पढ़ीं। उसी समय विजन भट्टाचार्य को एक [[हिंदी]] फ़िल्म की [[कहानी]] लिखने के सिलसिले में [[मुंबई]] जाना पड़ा। उनके साथ महाश्वेता भी गईं। मुंबई में महाश्वेता के [[मामा|बड़े मामा]] सचिन चौधरी थे। मामा के यहाँ ही महाश्वेता ने पढ़ा – वी.डी. सावरकर, 1857। उससे इतनी प्रभावित हुईं कि उनके मन में भी इसी तरह का कुछ लिखने का विचार आया। तय किया कि 'झाँसीर रानी' ([[झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई|झाँसी की रानी]]) पर वे किताब लिखेंगी। उन पर जितनी किताबें थीं, सब जुटाकर पढ़ा। मुंबई से आने के बाद ट्यूशन वगैरह तो चल ही रहा था, लेखन को भी जीविका का साधन बनाने का विचार दृढ़ होता गया।
 
महाश्वेता ने प्रतुल गुप्त को अपने मन की बात बताई कि वे झाँसी की रानी पर लिखना चाहती हैं। महाश्वेता ने झाँसी की रानी के भतीजे गोविंद चिंतामणि से पत्र व्यवहार शुरू किया। सामग्री जुटाने और पढ़ने के साथ-साथ उत्साहित होकर महाश्वेता ने लिखना भी शुरू कर दिया। फटाफट चार सौ पेज लिख डाले। पर इतना लिखने के बाद उनके मन ने कहा – यह तो कुछ भी नहीं हुआ। उन्होंने उसे फाड़कर फेंक दिया। झाँसी की रानी के बारे में और जानना पड़ेगा। तो इसके लिए छह [[वर्ष]] के बेटे नवारुण भट्टाचार्य और पति को [[कलकत्ता]] में छोड़कर अंततः [[झाँसी]] ही चली गईं। तब न पति के पास नौकरी थी और न ही उनके पास। जैसे-तैसे शुभचिंतकों से पैसे लेकर वे [[1954]] में झाँसी की यात्रा पर निकलीं। अकेले उन्होंने [[बुंदेलखंड]] के चप्पे-चप्पे को अपने कदमों से नापा। वहाँ के लोकगीतों को क़लमबद्ध किया। तब झाँसी की रानी की जीवनी लिखने वाले [[वृन्दावनलाल वर्मा]] [[झाँसी]] कंटोनमेंट में रहते थे। उनसे भी वे मिलीं। उनके परामर्श के मुताबिक़ झाँसी की रानी से जुड़े कई स्थानों का दौरा किया। '''बुंदेलखंड से लौटकर महाश्वेता ने नए सिरे से ‘झाँसी की रानी’ लिखी और ‘देश’ में यह रचना धारावाहिक छपने लगी। न्यू एज ने इसे पुस्तक के रूप में छापने के लिए महाश्वेता को पाँच सौ रुपये दिए। इस तरह महाश्वेता की पहली क़िताब [[1956]] में आई।'''<ref name="a"/> ‘झाँसी की रानी’ (1956) के बाद महाश्वेता की दूसरी पुस्तक ‘नटी’ [[1957]] में आई। उसी कड़ी में ‘जली थी अग्निशिखा’ आई। ये तीनों किताबें [[1857]] के महासंग्राम पर केंद्रित हैं। ह्यूरोज ने ही कहा है कि- "समय और युग की सभी रूढ़ियों को तोड़कर [[लक्ष्मीबाई]] ने अपने को एक योग्य व सक्षम सेनानायक सिद्ध किया था।" ह्यूरोज के इस कथन को महाश्वेता ने ‘जली थी अग्निशिखा’ में भी उद्धृत किया है।<ref name="a"/>
;पति से सम्बंध विच्छेद
साठ का दशक महाश्वेता के जीवन के लिए बड़ा उथल-पुथल वाला रहा। [[1962]] में विजन भट्टाचार्य से उनका विवाह-विच्छेद हो गया। असीत गुप्त से दूसरा [[विवाह]] हुआ। किंतु उनसे भी [[1975]] में विवाह-विच्छेद हो गया। उसके बाद उन्होंने लेखन और आदिवासियों के बीच कार्य कर हमेशा सृजनात्मक कार्यों में अपने को व्यस्त रखा। यह भी गौर करने योग्य है कि महाश्वेता कभी कर्तव्य से च्युत नहीं हुईं। घर में बेटी, दीदी, पत्नी, माँ और दादी माँ की भूमिका उन्होंने बखूबी निभाई। महाश्वेता आरंभ से ही अलग किस्म की महिला रहीं। इसलिए दो-दो बार विवाह-विच्छेद होने के बावजूद उनके सम्मान पर कोई आँच नहीं आई। वे वही महाश्वेता रहीं। महाश्वेता का उनके पति भी बहुत सम्मान करते थे। इसलिए विवाह-विच्छेद के बाद भी विजन या असीत ने महाश्वेता के विरुद्ध या महाश्वेता ने उन दोनों के विरुद्ध कभी कुछ नहीं कहा। विजन की मुत्यु के बाद महाश्वेता दिन भर वहाँ रहीं। वहाँ महाश्वेता की उपस्थिति को बहुत सम्मान दिया गया।
==उपन्यास 'अरण्येर अधिकार' का लेखन==
अपने [[उपन्यास]] ‘अरण्येर अधिकार’ (जंगल के दावेदार) में महाश्वेता देवी समाज में व्याप्त मानवीय शोषण और उसके विरुद्ध उबलते विद्रोह को उम्दा तरीके से रखांकित करती हैं। ‘अरण्येर अधिकार’ में उस [[बिरसा मुंडा]] की [[कथा]] है, जिसने सदी के मोड़ पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध जनजातीय विद्रोह का बिगुल बजाया। [[मुंडा जनजाति]] में समानता, न्याय और आजादी के आंदोलन का सूत्रपात बिरसा ने [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] के खिलाफ किया था। ‘अरण्येर अधिकार’ आदिवासियों के सशक्त विद्रोह की महागाथा है जो मानवीय मूल्यों से सराबोर है। महाश्वेता ने मुख्य मुद्दे पर उँगली रखी है। मसलन बिरसा का विद्रोह सिर्फ अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध नहीं था, अपितु समकालीन सामंती व्यवस्था के विरुद्ध भी था। बिरसा मुंडा के इन पक्षों को सहेजकर [[साहित्य]] और [[इतिहास]] में प्रकाशित करने का श्रेय महाश्वेता को ही है। ‘अरण्येर अधिकार’ लिखने के पीछे की [[कहानी]] ये है कि [[1974]] में फिल्म निर्माता शांति चौधरी ने महाश्वेता से [[बिरसा मुंडा]] पर कुछ लिखकर देने को कहा। श्री चौधरी, बिरसा पर फिल्म बनाना चाहते थे। बिरसा पर लिखने के लिए महाश्वेता ने पहले तो कुमार सुरेश सिंह की किताब पढ़ी। फिर दक्षिण [[बिहार]] गईं, वहाँ के लोगों से मिलीं। कई तथ्य संग्रह किए। फिर लिखा ‘अरण्येर अधिकार’। [[1979]] में जब इस किताब पर [[साहित्य अकादमी पुरस्कार]] मिला तो आदिवासियों ने जगह-जगह ढाक बजा-बजाकर गाया था- ‘हमें साहित्य अकादमी मिला है।’ तब मुंडा नाम से ही उनमें असीम गौरव बोध जगा था। जो मुंडा भूमिज नाम से सरकारी रेकार्ड में दर्ज थे, उन्होंने उपने को मुंडा नाम से दर्ज करने की प्रशासन से दरखास्त की थी। साहित्य अकादमी मिलने पर मुंडाओं ने महाश्वेता का अभिनंदन करने के लिए उन्हें अपने यहाँ (मेदिनीपुर में) बुलाया। [[1979]] की उस सभा में आदिवासी वक्ताओं ने कहा था- "मुख्यधारा ने हमें कभी स्वीकृति नहीं दी। हम [[इतिहास]] में नहीं थे। तुम्हारे लिखने से हमें स्वीकृति मिली।" साहित्य अकादमी पाने पर महाश्वेता को जितनी खुशी नहीं हुई, उससे ज्यादा इन आदिवासियों की प्रसन्नता से हुई। महाश्वेता को लगा, आदिवासियों के बारे में उनका दायित्व और बढ़ गया है। उन्होंने आदिवासियों के लिए यथासंभव काम करते जाने और उनके बारे में और भी जानने की कोशिश जारी रखी।<ref name="a"/>
==रचनाएँ==
महाश्वेता देवी ने विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं के लिए लघु कथाओं आदि का योगदान दिया। उनका प्रथम [[उपन्यास]] 'नाती' [[1957]] में प्रकाशित किया गया था। 'झाँसी की रानी' महाश्वेता देवी की प्रथम रचना है, जो [[1956]] में प्रकाशित हुई। उन्होंने स्वयं ही अपने शब्दों में कहा था कि- "इसको लिखने के बाद मैं समझ पाई कि मैं एक कथाकार बनूँगी।" इस पुस्तक को महाश्वेता जी ने [[कोलकाता]] में बैठकर नहीं, बल्कि [[सागर]], [[जबलपुर]], [[पूना]], [[इंदौर]] और [[ललितपुर ज़िला|ललितपुर]] के जंगलों; साथ ही [[झाँसी]], [[ग्वालियर]] और [[कालपी]] में घटित तमाम घटनाएँ यानी [[1857]]-[[1858]] में [[इतिहास]] के मंच पर जो कुछ भी हुआ, सबको साथ लेकर लिखा। अपनी नायिका के अलावा लेखिका ने क्रांति के तमाम अग्रदूतों और यहाँ तक कि [[अंग्रेज़]] अफ़सर तक के साथ न्याय करने का प्रयास किया है। महाश्वेता जी कहती थीं- "पहले मेरी मूल विधा [[कविता]] थी, अब [[कहानी]] और [[उपन्यास]] हैं।" उनकी कुछ महत्त्वपूर्ण कृतियों में 'अग्निगर्भ', 'जंगल के दावेदार' और '1084 की माँ', 'माहेश्वर' और 'ग्राम बांग्ला' आदि हैं। पिछले चालीस वर्षों में उनकी छोटी-छोटी कहानियों के बीस संग्रह प्रकाशित किये जा चुके हैं और सौ उपन्यासों के क़रीब प्रकाशित हो चुके हैं।<ref name="mcc">{{cite web |url=http://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A4%E0%A4%BE_%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A5%80 |title=महाश्वेता देवी |accessmonthday=20 सितम्बर |accessyear=2012 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=[[हिन्दी]]}}</ref> उनकी कृतियों पर फिल्में भी बनीं। [[1968]] में 'संघर्ष', [[1993]] में 'रूदाली', [[1998]] में 'हजार चौरासी की माँ', [[2006]] में 'माटी माई'।<ref>{{cite web |url=http://www.cmindia.in/2010/02/cmquiz-26_22.html |title=महाश्वेता देवी  |accessmonthday=6 जनवरी |accessyear=2014 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिंदी }}</ref> महाश्वेता देवी की कुछ प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-


:'''लघुकथाएँ''' - मीलू के लिए, मास्टर साब<br />
:'''लघुकथाएँ''' - मीलू के लिए, मास्टर साब<br />
पंक्ति 45: पंक्ति 66:
:'''उपन्यास''' - नटी, अग्निगर्भ, झाँसी की रानी, मर्डरर की माँ, 1084 की माँ, मातृछवि, जली थी अग्निशिखा, जकड़न<br />
:'''उपन्यास''' - नटी, अग्निगर्भ, झाँसी की रानी, मर्डरर की माँ, 1084 की माँ, मातृछवि, जली थी अग्निशिखा, जकड़न<br />
:'''आत्मकथा''' उम्रकैद, अक्लांत कौरव<br />
:'''आत्मकथा''' उम्रकैद, अक्लांत कौरव<br />
:'''आलेख''' - कृष्ण द्वादशी, अमृत संचय, घहराती घटाएँ, भारत में बंधुआ मजदूर, उन्तीसवीं धारा का आरोपी, ग्राम बांग्ला, जंगल के दावेदार, आदिवासी कथा<br />
:'''आलेख''' - कृष्ण द्वादशी, अमृत संचय, घहराती घटाएँ, भारत में बंधुआ मज़दूर, उन्तीसवीं धारा का आरोपी, ग्राम बांग्ला, जंगल के दावेदार, आदिवासी कथा<br />
:'''यात्रा संस्मरण''' - श्री श्री गणेश महिमा, ईंट के ऊपर ईंट<br />
:'''यात्रा संस्मरण''' - श्री श्री गणेश महिमा, ईंट के ऊपर ईंट<br />
:'''नाटक''' - टेरोडैक्टिल, दौलति<ref name="mcc"/><br />
:'''नाटक''' - टेरोडैक्टिल, दौलति<ref name="mcc"/><br />
==प्रमुख रचनाओं की कथावस्तु==
*महाश्वेता देवी ने ‘शालगिरह की पुकार पर’ कृति में [[संथाल]] जीवन और [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] के विरुद्ध उनके ऐतिहासिक संग्राम को दर्ज किया है।
*‘चोट्टि मुंडा और उसका तीर’ में आदिवासी समाज की हकीकत को दर्शाया गया है।
*‘अमृत संचय’ [[उपन्यास]] [[1857]] से थोड़ा पहले प्रारंभ होता है। 'अमृत संचय’ में प्रतिकूल स्थितियों में भी जीवन के प्रति जो ललक है और प्रतिरोध की जो चेतना है, उस चेतना पर महाश्वेता की बराबर नजर रही है। गौरों के विरुद्ध ही वह चेतना नहीं थी, बल्कि आज़ाद [[भारत]] में भी प्रतिरोध की चेतना रही है, जिसे महाश्वेता पूरे साहस के साथ अभिव्यक्त करती हैं।
*‘आपरेशन बसाईटुडु’, 'जगमोहन की मृत्यु' में महाश्वेता की वेदना और संघर्ष की स्मृति भी संचित है। महाश्वेता [[इतिहास]], मिथक और वर्तमान राजनैतिक यथार्थ के ताने-बाने को संजोते हुए सामाजिक परिवेश की मानवीय पीड़ा को स्वर देती हैं।
*‘अग्निगर्भ’ में महाश्वेता देवी पूछती हैं- "जब बटाईदारी-अधिया जैसी घृणित प्रथा में किसान पिस रहे हों, खेतिहर मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी न मिले, बीज-खाद-पानी-बिजली के लाले पड़े हों, उनका अस्तित्व दाँव पर हो, ऐसे में वह सामंती हिंसा के विरुद्ध हिंसा को चुन ले तो क्या आश्चर्य? 'अग्निगर्भ' में उन संघर्षशील लोगों की [[कथा]] है, जिन्होंने सामाजिक न्याय के लिए अपने प्राण उत्सर्ग कर दिए।
*सर्कस की पृष्ठभूमि पर लिखा ‘प्रेमतारा’ प्रेम की [[कथा]] है, फिर भी उसकी पृष्ठभूमि में सिपाही विद्रोह रहता है।
*‘अक्लांत कौरव’ की कथा छोटी है, लेकिन अपने गर्भ में विस्फोटक तथ्य छिपाए है।
*शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ निरंतर संघर्ष करने वाले ग़रीब और समर्पित स्कूल मास्टर की कथा के जरिए साठ-सत्तर के दशक में अपने नक्सल आंदोलन के वैचारिक सरोकारों और लोगों में आती प्रतिरोध की चेतना को लेखिका ने ‘मास्टर साब’ [[उपन्यास]] में दर्शाया है। यह एक जीवनीपरक, विचारोत्तेजक और मार्मिक [[उपन्यास]] है।
*महाश्वेता ने ‘हजार चौरासी की माँ’ में नक्सल आंदोलन को माँ की नजर से देखा। नक्सल आंदोलन की वे साक्षी रही थीं। जनसंघर्षों ने उनके जीवन को भी परिवर्तित किया और लेखन को भी। ‘हजार चौरासी की माँ’ उस माँ की मर्मस्पर्शी [[कहानी]] है, जिसने जान लिया है कि उसके पुत्र का शव पुलिस हिरासत में कैसे और क्यों है।
*अपने [[उपन्यास]] ‘नील छवि’ में उन्होंने रोचक ढंग से बताया है कि ड्रग्स और ब्लू फिल्में किस तरह समाज को भीतर से खोखला कर रही हैं और कला-जगत, पत्रकारिता और उच्च व निम्न मध्य वर्ग किन विडंबनाओं का शिकार है? पूरी और बुरी तरह उपभोक्ता संस्कृति में जकड़ा समाज किस तरह अपनी विलासिता और महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए सारे मानवीय और नैतिक मूल्यों को तिलांजलि दे चुका है।
*‘कवि वैद्यघोटी गइनेर जीवन और मृत्यु’ में महाश्वेता ने निचली जाति के युवक के मानवाधिकार हासिल करने के संघर्ष को वाणी दी है।<ref name="a"/>
==समाज सेवा==
==समाज सेवा==
[[बिहार]], [[मध्य प्रदेश]] तथा [[छत्तीसगढ़]] के आदिवासी इलाके महाश्वेता देवी के कार्यक्षेत्र रहे। वहाँ इनका ध्यान लोढ़ा तथा शबरा आदिवासियों की दीन दशा की ओर अधिक रहा। इसी तरह बिहार के [[पलामू]] क्षेत्र के आदिवासी भी इनके सरोकार का विषय बने। इनमें स्त्रियों की दशा और भी दयनीय थी। महाश्वेता देवी ने इस स्थिति में सुधार करने का संकल्प लिया। [[1970]] से महाश्वेता देवी ने अपने उद्देश्य के हित में व्यवस्था से सीधा हस्तक्षेप शुरू किया। उन्होंने पश्चिम बंगाल की औद्योगिक नीतियों के ख़िलाफ़ भी आंदोलन छेड़ा तथा विकास के प्रचलित कार्य को चुनौती दी।
[[बिहार]], [[मध्य प्रदेश]] तथा [[छत्तीसगढ़]] के आदिवासी इलाके महाश्वेता देवी के कार्यक्षेत्र रहे। वहाँ उनका ध्यान लोढ़ा तथा शबरा आदिवासियों की दीन दशा की ओर अधिक रहा। इसी तरह बिहार के [[पलामू]] क्षेत्र के आदिवासी भी उनके सरोकार का विषय बने। इनमें स्त्रियों की दशा और भी दयनीय थी। महाश्वेता देवी ने इस स्थिति में सुधार करने का संकल्प लिया। [[1970]] से महाश्वेता देवी ने अपने उद्देश्य के हित में व्यवस्था से सीधा हस्तक्षेप शुरू किया। उन्होंने [[पश्चिम बंगाल]] की औद्योगिक नीतियों के ख़िलाफ़ भी आंदोलन छेड़ा तथा विकास के प्रचलित कार्य को चुनौती दी।
====पुरस्कार====
==आदिवासियों की संघर्ष गाथाएँ==
[[1977]] में महाश्वेता देवी को '[[मेग्सेसे पुरस्कार]]' प्रदान किया गया। [[1979]] में उन्हें '[[साहित्य अकादमी पुरस्कार हिन्दी|साहित्य अकादमी पुरस्कार]]' मिला। [[1996]] में '[[ज्ञानपीठ पुरस्कार]]' से वह सम्मानित की गईं। [[1986]] में '[[पद्मश्री]]' तथा फिर [[2006]] में उन्हें '[[पद्मविभूषण]]' सम्मान प्रदान किया गया।
महाश्वेता देवी ने अपने कई उपन्यासों की तरह अपनी अनेक कहानियों में भी सदियों से मुख्यधारा से बाहर धकेली गई आदिवासी अस्मिता के प्रश्न को शिद्दत से उठाया है। महाश्वेता की कई कहानियाँ आदिवासियों की प्रामाणिक संघर्ष गाथाएँ हैं बल्कि उन्हें महागाथाएँ कहना ज्यादा उचित होगा। इन महागाथाओं में आदिवासी समाज की चिंता कदाचित पहली बार बेचैनी के साथ प्रकट हुई। अपनी कथाकृतियों में हाशिए पर धकेले गए आदिवासी को नायक बनाकर महाश्वेता देवी [[हिंदी]] में [[प्रेमचंद]] तो [[बांग्ला भाषा|बांग्ला]] में [[ताराशंकर बंद्योपाध्याय]] और मानिक बंद्योपाध्याय से भी आगे निकल गईं। प्रेमचंद और ताराशंकर किसान को नायक बना चुके थे तो मानिक बाबू मछुआरों को। उससे काफ़ी आगे जाकर महाश्वेता ने जनजातियों और आदिवासियों के विद्रोही नायकों को अपनी कथाकृतियों का नायक बनाया। महाश्वेता अपनी कहानियों में समाज को शोषण, दोहन और उत्पीड़न से मुक्त कराते संघर्षशील नायकों का संधान करती हैं। इन संघर्षशील आदिवासी नायकों का संधान महाश्वेता की [[कहानी]] ‘बाढ़’ में बागदी के रूप में ‘बांयेन’ में डोम ‘शाम सवेरे की माँ’ में पाखमारा ‘शिकार’ में ओरांव ‘बीज’ में गंजू ‘मूल अधिकार और भिखारी दुसाध’ में दुसाध ‘बेहुला’ में माल या ओझा और ‘द्रौपदी’ में संथाल के रूप में सहज ही हो जाता है।
 
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
सन [[1984]] में प्रकाशित अपने श्रेष्ठ गल्प की भूमिका में महाश्वेता देवी ने लिखा है- "[[साहित्य]] को केवल [[भाषा]]-[[शैली]] और शिल्प की कसौटी पर रखकर देखने के मापदंड गलत हैं। साहित्य का मूल्यांकन [[इतिहास]] के परिप्रेक्ष्य में होना चाहिए। किसी लेखक के लेखन को उसके समय और इतिहास के परिप्रेक्ष्य में रखकर न देखने से उसका वास्तविक मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है। मैं पुराकथा पौराणिक चरित्र और घटनाओं को वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में फिर से यह बताने के लिए लिखती हूँ कि वास्तव में लोक-कथाओं में अतीत और वर्तमान एक अविच्छिन्न धारा के रूप में प्रवाहित होते हैं। यह अविच्छिन्न धारा भी वायवीय नहीं है बल्कि जात-पांत खेत और जंगल पर अधिकार और सबसे ऊपर सत्ता के विस्तार तथा उसके कायम रखने की पद्धति को केंद्र में रखकर निम्न वर्ग के मनुष्य के शोषण का क्रमिक इतिहास है।"
;कहानियों के विषय
महाश्वेता की कहानियों में सामंती ताकतों के शोषण, उत्पीड़न, चल-छद्म के विरुद्ध पीड़ितों और शोषितों का संघर्ष अनवरत जारी रहता है। संघर्ष में वह मार भी खाता है पर थककर बैठ नहीं जाता। क्रूरता और बर्बरता में भी पीड़ित तबका टिके रहता है। कई उपन्यासों की तरह उनकी कहानियों में भी आदिम जनजातीय स्रोतों से प्राप्त [[कथा]] तो है ही, जीवन और समाज के दूसरे ज्वलंत मुद्दों को भी उन्होंने साधिकार स्पर्श किया है। ‘रुदाली’ की [[कहानी]] में महाश्वेता ने औरत की अस्मिता का प्रश्न उम्दा तरीके से उठाया तो ‘अक्लांत कौरव’ में विकास और छद्म प्रगतिवाद की तीखी आलोचना की।
=='वर्तिका' का सम्पादन==
पलामू के बंधुआ मजदूरों के बीच काम करते हुए महाश्वेता ने कई तथ्य एकत्रित किए थे। उसी के आधार पर निर्मल घोष के साथ मिलकर उन्होंने ‘भारत के बंधुआ मजदूर’ नामक पुस्तक लिखी थी। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आदिवासी अंचलों के सुख-दु:ख के बारे में उन्होंने समय-समय पर जो लिखा, वे भी संकलित होकर पुस्तक रूप में छाप चुकी हैं- ‘डस्ट आन रोड’। महाश्वेता की टिप्पणियों के इस संकलन को मैत्रेई घटक (महाश्वेता के छोटे भाई) ने संपादित किया है। [[1980]] में उन्होंने पत्रिका ‘वर्तिका’ का संपादन शुरू किया था। उसके पहले उनके पिता मनीष घटक उसे संपादित करते थे। पिता का [[1979]] में निधन हो गया तो महाश्वेता ने [[पत्रिका]] का चरित्र ही बदल डाला। वर्तिका एक ऐसा मंच बन गया, जिसमें छोटे किसान, खेत मजदूर, आदिवासी, कारखानों में काम करने वाले मजदूर, रिक्शा चालक अपनी समस्याओं और जीवन के बारे में लिखते। अब भी लिखते हैं। ‘वर्तिका’ में मेदिनीपुर के लोधा और पुरुलिया के खेड़िया शबर आदिवासियों ने बहुत कुछ लिखा। इसके जरिए आदिवासियों ने जीवन में पहली बार किसी प्रकाशन में लिखा। पहली लोधा स्नातक लड़की चुनी कोटाल ने भी [[1982]] में वर्तिका में लिखा था अपने जीवन संघर्ष के बारे में। इस तरह वर्तिका के जरिए महाश्वेता ने [[बांग्ला भाषा|बांग्ला]] में वैकल्पिक साहित्यिक पत्रकारिता की दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रयास किए। महाश्वेता ने बंधुआ मजदूर, किसान, फैक्टरी मजदूर, ईंट भट्ठा मजदूर, आदिवासियों को जमीन से बेदख़ल किए जाने और [[बंगाल]] के हरेक आदिवासी समुदाय पर वर्तिका के विशेष अंक निकाले। उन्होंने [[बांग्ला देश]] और [[अमेरिका]] के आदिवासियों पर भी विशेष अंक निकाले। वर्तिका ने अपनी गहरी संपादकीय दृष्टि और संपादकीय विवेक का परिचय दिया।
==पुरस्कार व सम्मान==
[[चित्र:Mahasweta-Devi-Google-Doodle.png|thumb|250px|महाश्वेता देवी के सम्मान में गूगल-डूडल ([[2018]])]]
[[1977]] में महाश्वेता देवी को '[[मेग्सेसे पुरस्कार]]' प्रदान किया गया। [[1979]] में उन्हें '[[साहित्य अकादमी पुरस्कार]]' मिला। [[1996]] में '[[ज्ञानपीठ पुरस्कार]]' से वह सम्मानित की गईं। [[1986]] में '[[पद्मश्री]]' तथा फिर [[2006]] में उन्हें '[[पद्मविभूषण]]' सम्मान प्रदान किया गया।
====गूगल डूडल====
साहित्यकार महाश्वेता देवी के जन्मदिन ([[14 जनवरी]]) पर गूगल ने उन्हें डूडल के जरिये सम्मान दिया। महाश्वेता देवी पूरी जिंदगी लेखन के साथ महिलाओं, दलितों और आदिवासियों के अधिकारों के लिए जमीन पर संघर्ष करती रहीं। [[14 जनवरी]], [[1926]] को आज के [[बांग्लादेश]] की राजधानी [[ढाका]] में पैदा हुईं महाश्वेता देवी को गूगल ने अपने शानदार डूडल के जरिये श्रद्धांजलि दी है। गूगल द्वारा पेश डूडल में बंगाली शैली में धोती यानी [[साड़ी]] पहने महाश्वेता देवी कुछ लिखती नजर आ रही हैं। डूडल में उनके पीछे अलग-अलग सभ्यता, [[संस्कृति]], [[भाषा]], परिवेश के लोगों का चेहरा नजर आ रहा है। जो इस बात को इंगित करता है कि महाश्वेता देवी ना सिर्फ अपनी लेखनी में बल्कि धरातल पर भी पूरी जिंदगी समाज के हर तबके के लिए संघर्ष करती रहीं।
==निधन==
महाश्वेता देवी का निधन [[28 जुलाई]], [[2016]] को [[कोलकाता]] में हुआ। उन्हें [[22 मई]] को कोलकाता के बेल व्यू नर्सिंग होम में भर्ती कराया गया था। उनके [[मानव शरीर|शरीर]] के कई महत्वपूर्ण अंगों ने काम करना बंद कर दिया था। दिल का दौरा पड़ने के बाद उनका निधन हो गया।
 
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक2|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
<references/>
==बाहरी कड़ियाँ==
*[http://rmaward.asia/awardees/devi-mahasweta/ Devi, Mahasweta]
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
{{रेमन मैग्सेसे पुरस्कार}}{{पद्म विभूषण}} {{सामाजिक कार्यकर्ता}}
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10:07, 11 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

महाश्वेता देवी
महाश्वेता देवी
महाश्वेता देवी
जन्म 14 जनवरी, 1926
जन्म भूमि ढाका
मृत्यु 28 जुलाई, 2016
मृत्यु स्थान कोलकाता
अभिभावक पिता- मनीष घटक, माता- धरित्री देवी
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र साहित्यकार, उपन्यासकार, निबन्धकार
मुख्य रचनाएँ 'अग्निगर्भ', 'जंगल के दावेदार', '1084 की माँ', 'माहेश्वर', 'ग्राम बांग्ला', 'झाँसी की रानी', 'मातृछवि' और 'जकड़न' आदि।
भाषा हिन्दी, बांग्ला
विद्यालय 'विश्वभारती विश्वविद्यालय', शांतिनिकेतन; कलकत्ता विश्वविद्यालय
शिक्षा बी.ए., एम.ए., अंग्रेज़ी साहित्य में मास्टर डिग्री
पुरस्कार-उपाधि 'मेग्सेसे पुरस्कार' (1977), 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' (1979), 'पद्मश्री' (1986), 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' (1996), 'पद्म विभूषण' (2006)
प्रसिद्धि सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी महाश्वेता देवी की कृतियों पर कई फ़िल्मों का निर्माण भी हुआ, जैसे- 1968 में 'संघर्ष', 1993 में 'रुदाली', 1998 में 'हजार चौरासी की माँ' तथा 2006 में 'माटी माई' आदि।
अद्यतन‎ 12:30, 30 जुलाई, 2016 (IST)
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

महाश्वेता देवी (अंग्रेज़ी: Mahasweta Devi, जन्म- 14 जनवरी, 1926, ढाका; मृत्यु- 28 जुलाई, 2016, कोलकाता) भारत की प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका थीं। उन्होंने बांग्ला भाषा में बेहद संवेदनशील तथा वैचारिक लेखन के माध्यम से उपन्यास तथा कहानियों से साहित्य को समृद्धशाली बनाया। अपने लेखन कार्य के साथ-साथ महाश्वेता देवी ने समाज सेवा में भी सदैव सक्रियता से भाग लिया और इसमें पूरे मन से लगी रहीं। स्त्री अधिकारों, दलितों तथा आदिवासियों के हितों के लिए उन्होंने जूझते हुए व्यवस्था से संघर्ष किया तथा इनके लिए सुविधा तथा न्याय का रास्ता बनाती रहीं। 1996 में उन्हें 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' से सम्मानित किया गया था। महाश्वेता जी ने कम उम्र में ही लेखन कार्य शुरू कर दिया था और विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं के लिए लघु कथाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

परिचय

14 जनवरी, 1926 को महाश्वेता देवी का जन्म अविभाजित भारत के ढाका में जिंदाबहार लेन में हुआ था। उनके जन्म के समय माँ धरित्री देवी मायके में थीं। माँ की उम्र तब 18 वर्ष और पिता मनीष घटक की 25 वर्ष थी। पिता मनीष घटक ख्याति प्राप्त कवि और साहित्यकार थे। माँ धरित्री देवी भी साहित्य की गंभीर अध्येता थीं। वे समाज सेवा में भी संलग्न रहती थीं। महाश्वेता ने जब बचपन में साफ-साफ बोलना शुरू किया तो उन्हें जो जिस नाम से पुकारता, वे भी उसी नाम से उसे पुकारतीं। पिता उन्हें 'तुतुल' कहते थे तो ये भी पिता को तुतुल ही कहतीं। आजीवन पिता उनके लिए 'तुतुल' ही रहे।[1] भारत के विभाजन के समय किशोर अवस्था में ही उनका परिवार पश्चिम बंगाल में आकर रहने लगा था। इसके उपरांत उन्होंने 'विश्वभारती विश्वविद्यालय', शांतिनिकेतन से बी.ए. अंग्रेज़ी विषय के साथ किया। फिर 'कलकत्ता विश्वविद्यालय' से एम.ए. भी अंग्रेज़ी में किया। महाश्वेता देवी ने अंग्रेज़ी साहित्य में मास्टर की डिग्री प्राप्त की थी। इसके बाद एक शिक्षक और पत्रकार के रूप में उन्होंने अपना जीवन प्रारम्भ किया। इसके तुरंत बाद ही कलकत्ता विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी व्याख्याता के रूप में आपने नौकरी प्राप्त कर ली। सन 1984 में उन्होंने सेवानिवृत्ति ले ली।

प्रारम्भिक शिक्षा तथा नटखट स्वभाव

बचपन से ही महाश्वेता मातृभक्त रहीं। थोड़ी बड़ी हुईं तो ढाका के 'इंडेन मांटेसरी स्कूल' में भर्ती कराया गया। चार वर्ष की उम्र में ही बांग्ला लिखना-पढ़ना सीख गई थीं। पिता को नौकरी मिल गई थी। कई बार बदली हुई। तबादले पर उन्हें ढाका, मनमनसिंह, जलपाईगुड़ी, दिनाजपुर और फरीदपुर जाना पड़ा। ढाका के जिंदाबहार लेन में महाश्वेता का ननिहाल था और नतून भोरेंगा में पिता का गाँव। ननिहाल आना-जाना लगा रहता था। दुर्गा पूजा की छुट्टियाँ तो ननिहाल में ही कटतीं। बचपन में महाश्वेता नटखट थीं। इतनी कि एक बार ननिहाल में रहते हुए भोरेंगा की दुर्गा पूजा देखने गई थीं। चार भाई-बहनों के साथ। भाई बहनों को लेकर वे एक स्नान घाट से उतरीं। स्नान करने और तैरने का मज़ा काफूर हो गया, जब चारों बच्चे डूबने से बचे। उस दिन सप्तमी की पूजा थी। घर आईं तो खूब डाँट पड़ी थी।

शांतिनिकेतन में शिक्षा

1935 में महाश्वेता जी के पिता का तबादला मेदिनीपुर हुआ तो महाश्वेता का वहाँ के मिशन स्कूल में दाखिला कराया गया, लेकिन उसके अगले वर्ष ही मेदिनीपुर से नाता टूट गया; क्योंकि उन्हें शांतिनिकेतन भेजने का फैसला किया गया। तब वे दस वर्ष की थीं। शांतिनिकेतन के नियमानुसार लाल रंग के किनारे वाली साड़ी, बिस्तर, लोटा, गिलास वगैरह ख़रीदा गया। शांतिनिकेतन में मिली नई जगह, सुंदर भवन, लाइब्रेरी आदि में महाश्वेता को उन्मुक्त प्रकृति मिली। नई सहेलियाँ मिलीं। आश्रम की दिनचर्या ऐसी थी कि सभी छात्र सुबह से देर रात तक व्यस्त रहते। शिक्षा का माध्यम बांग्ला होने के बावजूद अंग्रेज़ी अनिवार्य थी।

शांतिनिकेतन में महाश्वेता का जल्दी ही मन लग गया। वहाँ उन्हें श्रेष्ठ शिक्षक मिले। बकौल महाश्वेता, ‘आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी हिंदी पढ़ाते थे। सभी आश्रमवासी उन्हें 'छोटा पंडित' जी कहते थे। 1937 में गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने भी बांग्ला की कक्षा ली थी। तब सातवीं कक्षा की छात्रा महाश्वेता के लिए यह अविस्मरणीय घटना थी। गुरुदेव ने पाठ परिचय से बलाई पढ़ाया था। इसके पहले 1936 में बंकिम शतवार्षिकी समारोह में रवींद्रनाथ का भाषण सुना था महाश्वेता ने।[1]

कलकत्ता आगमन

महाश्वेता शांतिनिकेतन में तीन साल ही रह सकीं, क्योंकि 1939 में उन्हें कलकत्ता बुला लिया गया। शांतिनिकेतन जाने पर वे जितना रोई थीं, उससे ज्यादा उसके छूटने पर रोई थीं। 1939 में शांतिनिकेतन से लौटने के बाद कलकत्ता के 'बेलतला बालिका विद्यालय' में आठवीं कक्षा में महाश्वेता का दाखिला हुआ। उसी साल उनके काका ऋत्विक घटक भी घर आकर रहने लगे। वे 1941 तक यहाँ रहे। 1939 में बेलतला स्कूल में महाश्वेता की शिक्षिका थीं अपर्णा सेन। उनके बड़े भाई खेगेंद्रनाथ सेन ‘रंगमशाल’ निकालते थे। उन्होंने एक दिन रवींद्रनाथ की पुस्तक ‘छेलेबेला’ देते हुए महाश्वेता से उस पर कुछ लिखकर देने को कहा। महाश्वेता ने लिखा और वह ‘रंगमशाल’ में छपा भी। यह महाश्वेता की पहली रचना थी। स्कूली जीवन में ही महाश्वेता ने राजलक्ष्मी और धीरेश भट्टाचार्य के साथ मिलकर एक अल्पायु स्वहस्तलिखित पत्रिका निकाली – ‘छन्नछाड़ा।’

नानी, दादीमाँ ने महाश्वेता को अच्छे साहित्य पढ़ने के संस्कार दिए। कोई क़िताब पढ़ने के बाद कोई प्रसंग दादी माँ पूछ भी लेती थीं। बचपन में दादी की लाइब्रेरी से ही लेकर महाश्वेता ने ‘टम काकार कुटीर’ पढ़ा था। घर का पूरा माहौल ही शिक्षा और संस्कृतमय था। इसलिए लिखने-पढ़ने का एक नियमित अभ्यास छुटपन में ही हो गया। हेम-बंधु-बंकिम-नवीन-रंगलाल को उन्होंने 12 वर्ष की उम्र में ही पढ़ लिया।

माँ देश प्रेम और इतिहास की पुस्तकें पढ़ने को देतीं और कहतीं- "अभी इन पुस्तकों को पढ़ना ज़रूरी है। बाद में अपनी इच्छा से पढ़ना।" पिता की भी बड़ी समृद्ध लाइब्रेरी थी। तब के 'नोबेल पुरस्कार' प्राप्त कई लेखकों की रचनाएँ महाश्वेता ने पिता की लाइब्रेरी से ही लेकर पढ़ी थीं। 1939-1944 के दौरान महाश्वेता के पिता ने कलकत्ता में सात बार घर बदले। 1942 में घर के सारे कामकाज करते हुए महाश्वेता ने मैट्रिक की परीक्षा पास की। उस वर्ष (1942) 'भारत छोड़ो आंदोलन' ने महाश्वेता के किशोर मन को बहुत उद्वेलित किया। 1943 में अकाल पड़ा। तब 'महिला आत्मरक्षा समिति' के नेतृत्व में उन्होंने राहत और सेवा कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। अकाल के बाद महाश्वेता ने कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र ‘पीपुल्स वार’ और ‘जनयुद्ध’ की बिक्री भी की थी, पर पार्टी की सदस्य वे कभी नहीं हुईं।[1]

व्यावसायिक शुरुआत

किशोरवय में ही कंधे पर आ चुके पारिवारिक दायित्व को निभाने के प्रति भी महाश्वेता सदा सजग रहतीं। माँ के जीवन के आखिरी वर्षों में महाश्वेता ने पुरानी सिलाई मशीन चलाकर कपड़ों की सिलाई की। 1944 में महाश्वेता ने कलकत्ता के 'आशुतोष कॉलेज' से इंटरमीडिएट किया। पारिवारिक दायित्व से कुछ मुक्ति मिली यानी वह भार छोटी बहन मितुल ने सँभाला तो महाश्वेता फिर शांतिनिकेतन गईं कॉलेज की पढ़ाई करने। वहाँ ‘देश’ के संपादक सागरमय घोष आते-जाते थे। उन्होंने महाश्वेता से ‘देश’ में लिखने को कहा। तब महाश्वेता बी.ए. तृतीय वर्ष में थीं। उस दौरान उनकी तीन कहानियाँ ‘देश’ में छपीं। हर कहानी पर दस रुपये का पारिश्रमिक मिला था। तभी उन्हें बोध हुआ कि लिख-पढ़कर भी गुजारा संभव है। उन्होंने शांतिनिकेतन से 1946 में अंग्रेज़ी में ऑनर्स के साथ स्नातक किया।

उसके साल भर बाद 1947 में प्रख्यात रंगकर्मी विजन भट्टाचार्य से उनका विवाह हुआ। 1948 में पदमपुकुर इंस्टीट्यूशन में अध्यापन कर महाश्वेता ने घर का खर्चा चलाया। उसी वर्ष पुत्र नवारुण भट्टाचार्य का जन्म हुआ। 1949 में महाश्वेता को केंद्र सरकार के डिप्टी एकाउंटेट जनरल, पोस्ट एंड टेलीग्राफ ऑफिस में अपर डिवीजन क्लर्क की नौकरी मिली। लेकिन एक वर्ष के भीतर ही, चूँकि पति कम्युनिस्ट थे, सो उनकी नौकरी चली गई। महाश्वेता अतुल गुप्त के पास गईं। उनकी नोटिस के दबाव में महाश्वेता की फिर बहाली हुई लेकिन इस बार महाश्वेता की दराज में मार्क्स और लेनिन की किताबें रखकर कम्युनिस्ट होने का आरोप लगाकर और अस्थायी होने के चलते दुबारा नौकरी से उन्हें हटा दिया गया। नौकरी जाने के बाद जीवन-संग्राम ज्यादा कठिन हो गया। महाश्वेता ने कपड़ा साफ करने के साबुन की बिक्री से लेकर ट्यूशन करके घर का खर्चा चलाया। यह क्रम 1957 में रमेश मित्र बालिका विद्यालय में मास्टरी मिलने तक चला। विजन भट्टाचार्य से विवाह होने से ही महाश्वेता जीवन संग्राम का यह पक्ष महसूस कर सकीं और एक सुशिक्षित, सुसंस्कृत परिवार की लड़की होने के बावजूद स्वेच्छा से संग्रामी जीवन का रास्ता चुन सकीं।

'झाँसी की रानी' की रचना

संघर्ष के इन दिनों ने ही लेखिका महाश्वेता को भी तैयार किया। उस दौरान उन्होंने खूब रचनाएँ पढ़ीं। विश्व के मशहूर लेखकों-चिंतकों की रचनाएँ, इलिया एरेनबर्ग, एलेक्सी टॉलस्टॉय, मैक्सिम गोर्की, चेख़व, सोल्झेनित्सिन, मायकोवॅस्की और रूस के कई अन्य लेखकों की पुस्तकें पढ़ीं। उसी समय विजन भट्टाचार्य को एक हिंदी फ़िल्म की कहानी लिखने के सिलसिले में मुंबई जाना पड़ा। उनके साथ महाश्वेता भी गईं। मुंबई में महाश्वेता के बड़े मामा सचिन चौधरी थे। मामा के यहाँ ही महाश्वेता ने पढ़ा – वी.डी. सावरकर, 1857। उससे इतनी प्रभावित हुईं कि उनके मन में भी इसी तरह का कुछ लिखने का विचार आया। तय किया कि 'झाँसीर रानी' (झाँसी की रानी) पर वे किताब लिखेंगी। उन पर जितनी किताबें थीं, सब जुटाकर पढ़ा। मुंबई से आने के बाद ट्यूशन वगैरह तो चल ही रहा था, लेखन को भी जीविका का साधन बनाने का विचार दृढ़ होता गया।

महाश्वेता ने प्रतुल गुप्त को अपने मन की बात बताई कि वे झाँसी की रानी पर लिखना चाहती हैं। महाश्वेता ने झाँसी की रानी के भतीजे गोविंद चिंतामणि से पत्र व्यवहार शुरू किया। सामग्री जुटाने और पढ़ने के साथ-साथ उत्साहित होकर महाश्वेता ने लिखना भी शुरू कर दिया। फटाफट चार सौ पेज लिख डाले। पर इतना लिखने के बाद उनके मन ने कहा – यह तो कुछ भी नहीं हुआ। उन्होंने उसे फाड़कर फेंक दिया। झाँसी की रानी के बारे में और जानना पड़ेगा। तो इसके लिए छह वर्ष के बेटे नवारुण भट्टाचार्य और पति को कलकत्ता में छोड़कर अंततः झाँसी ही चली गईं। तब न पति के पास नौकरी थी और न ही उनके पास। जैसे-तैसे शुभचिंतकों से पैसे लेकर वे 1954 में झाँसी की यात्रा पर निकलीं। अकेले उन्होंने बुंदेलखंड के चप्पे-चप्पे को अपने कदमों से नापा। वहाँ के लोकगीतों को क़लमबद्ध किया। तब झाँसी की रानी की जीवनी लिखने वाले वृन्दावनलाल वर्मा झाँसी कंटोनमेंट में रहते थे। उनसे भी वे मिलीं। उनके परामर्श के मुताबिक़ झाँसी की रानी से जुड़े कई स्थानों का दौरा किया। बुंदेलखंड से लौटकर महाश्वेता ने नए सिरे से ‘झाँसी की रानी’ लिखी और ‘देश’ में यह रचना धारावाहिक छपने लगी। न्यू एज ने इसे पुस्तक के रूप में छापने के लिए महाश्वेता को पाँच सौ रुपये दिए। इस तरह महाश्वेता की पहली क़िताब 1956 में आई।[1] ‘झाँसी की रानी’ (1956) के बाद महाश्वेता की दूसरी पुस्तक ‘नटी’ 1957 में आई। उसी कड़ी में ‘जली थी अग्निशिखा’ आई। ये तीनों किताबें 1857 के महासंग्राम पर केंद्रित हैं। ह्यूरोज ने ही कहा है कि- "समय और युग की सभी रूढ़ियों को तोड़कर लक्ष्मीबाई ने अपने को एक योग्य व सक्षम सेनानायक सिद्ध किया था।" ह्यूरोज के इस कथन को महाश्वेता ने ‘जली थी अग्निशिखा’ में भी उद्धृत किया है।[1]

पति से सम्बंध विच्छेद

साठ का दशक महाश्वेता के जीवन के लिए बड़ा उथल-पुथल वाला रहा। 1962 में विजन भट्टाचार्य से उनका विवाह-विच्छेद हो गया। असीत गुप्त से दूसरा विवाह हुआ। किंतु उनसे भी 1975 में विवाह-विच्छेद हो गया। उसके बाद उन्होंने लेखन और आदिवासियों के बीच कार्य कर हमेशा सृजनात्मक कार्यों में अपने को व्यस्त रखा। यह भी गौर करने योग्य है कि महाश्वेता कभी कर्तव्य से च्युत नहीं हुईं। घर में बेटी, दीदी, पत्नी, माँ और दादी माँ की भूमिका उन्होंने बखूबी निभाई। महाश्वेता आरंभ से ही अलग किस्म की महिला रहीं। इसलिए दो-दो बार विवाह-विच्छेद होने के बावजूद उनके सम्मान पर कोई आँच नहीं आई। वे वही महाश्वेता रहीं। महाश्वेता का उनके पति भी बहुत सम्मान करते थे। इसलिए विवाह-विच्छेद के बाद भी विजन या असीत ने महाश्वेता के विरुद्ध या महाश्वेता ने उन दोनों के विरुद्ध कभी कुछ नहीं कहा। विजन की मुत्यु के बाद महाश्वेता दिन भर वहाँ रहीं। वहाँ महाश्वेता की उपस्थिति को बहुत सम्मान दिया गया।

उपन्यास 'अरण्येर अधिकार' का लेखन

अपने उपन्यास ‘अरण्येर अधिकार’ (जंगल के दावेदार) में महाश्वेता देवी समाज में व्याप्त मानवीय शोषण और उसके विरुद्ध उबलते विद्रोह को उम्दा तरीके से रखांकित करती हैं। ‘अरण्येर अधिकार’ में उस बिरसा मुंडा की कथा है, जिसने सदी के मोड़ पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध जनजातीय विद्रोह का बिगुल बजाया। मुंडा जनजाति में समानता, न्याय और आजादी के आंदोलन का सूत्रपात बिरसा ने अंग्रेज़ों के खिलाफ किया था। ‘अरण्येर अधिकार’ आदिवासियों के सशक्त विद्रोह की महागाथा है जो मानवीय मूल्यों से सराबोर है। महाश्वेता ने मुख्य मुद्दे पर उँगली रखी है। मसलन बिरसा का विद्रोह सिर्फ अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध नहीं था, अपितु समकालीन सामंती व्यवस्था के विरुद्ध भी था। बिरसा मुंडा के इन पक्षों को सहेजकर साहित्य और इतिहास में प्रकाशित करने का श्रेय महाश्वेता को ही है। ‘अरण्येर अधिकार’ लिखने के पीछे की कहानी ये है कि 1974 में फिल्म निर्माता शांति चौधरी ने महाश्वेता से बिरसा मुंडा पर कुछ लिखकर देने को कहा। श्री चौधरी, बिरसा पर फिल्म बनाना चाहते थे। बिरसा पर लिखने के लिए महाश्वेता ने पहले तो कुमार सुरेश सिंह की किताब पढ़ी। फिर दक्षिण बिहार गईं, वहाँ के लोगों से मिलीं। कई तथ्य संग्रह किए। फिर लिखा ‘अरण्येर अधिकार’। 1979 में जब इस किताब पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला तो आदिवासियों ने जगह-जगह ढाक बजा-बजाकर गाया था- ‘हमें साहित्य अकादमी मिला है।’ तब मुंडा नाम से ही उनमें असीम गौरव बोध जगा था। जो मुंडा भूमिज नाम से सरकारी रेकार्ड में दर्ज थे, उन्होंने उपने को मुंडा नाम से दर्ज करने की प्रशासन से दरखास्त की थी। साहित्य अकादमी मिलने पर मुंडाओं ने महाश्वेता का अभिनंदन करने के लिए उन्हें अपने यहाँ (मेदिनीपुर में) बुलाया। 1979 की उस सभा में आदिवासी वक्ताओं ने कहा था- "मुख्यधारा ने हमें कभी स्वीकृति नहीं दी। हम इतिहास में नहीं थे। तुम्हारे लिखने से हमें स्वीकृति मिली।" साहित्य अकादमी पाने पर महाश्वेता को जितनी खुशी नहीं हुई, उससे ज्यादा इन आदिवासियों की प्रसन्नता से हुई। महाश्वेता को लगा, आदिवासियों के बारे में उनका दायित्व और बढ़ गया है। उन्होंने आदिवासियों के लिए यथासंभव काम करते जाने और उनके बारे में और भी जानने की कोशिश जारी रखी।[1]

रचनाएँ

महाश्वेता देवी ने विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं के लिए लघु कथाओं आदि का योगदान दिया। उनका प्रथम उपन्यास 'नाती' 1957 में प्रकाशित किया गया था। 'झाँसी की रानी' महाश्वेता देवी की प्रथम रचना है, जो 1956 में प्रकाशित हुई। उन्होंने स्वयं ही अपने शब्दों में कहा था कि- "इसको लिखने के बाद मैं समझ पाई कि मैं एक कथाकार बनूँगी।" इस पुस्तक को महाश्वेता जी ने कोलकाता में बैठकर नहीं, बल्कि सागर, जबलपुर, पूना, इंदौर और ललितपुर के जंगलों; साथ ही झाँसी, ग्वालियर और कालपी में घटित तमाम घटनाएँ यानी 1857-1858 में इतिहास के मंच पर जो कुछ भी हुआ, सबको साथ लेकर लिखा। अपनी नायिका के अलावा लेखिका ने क्रांति के तमाम अग्रदूतों और यहाँ तक कि अंग्रेज़ अफ़सर तक के साथ न्याय करने का प्रयास किया है। महाश्वेता जी कहती थीं- "पहले मेरी मूल विधा कविता थी, अब कहानी और उपन्यास हैं।" उनकी कुछ महत्त्वपूर्ण कृतियों में 'अग्निगर्भ', 'जंगल के दावेदार' और '1084 की माँ', 'माहेश्वर' और 'ग्राम बांग्ला' आदि हैं। पिछले चालीस वर्षों में उनकी छोटी-छोटी कहानियों के बीस संग्रह प्रकाशित किये जा चुके हैं और सौ उपन्यासों के क़रीब प्रकाशित हो चुके हैं।[2] उनकी कृतियों पर फिल्में भी बनीं। 1968 में 'संघर्ष', 1993 में 'रूदाली', 1998 में 'हजार चौरासी की माँ', 2006 में 'माटी माई'।[3] महाश्वेता देवी की कुछ प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-

लघुकथाएँ - मीलू के लिए, मास्टर साब
कहानियाँ - स्वाहा, रिपोर्टर, वान्टेड
उपन्यास - नटी, अग्निगर्भ, झाँसी की रानी, मर्डरर की माँ, 1084 की माँ, मातृछवि, जली थी अग्निशिखा, जकड़न
आत्मकथा उम्रकैद, अक्लांत कौरव
आलेख - कृष्ण द्वादशी, अमृत संचय, घहराती घटाएँ, भारत में बंधुआ मज़दूर, उन्तीसवीं धारा का आरोपी, ग्राम बांग्ला, जंगल के दावेदार, आदिवासी कथा
यात्रा संस्मरण - श्री श्री गणेश महिमा, ईंट के ऊपर ईंट
नाटक - टेरोडैक्टिल, दौलति[2]

प्रमुख रचनाओं की कथावस्तु

  • महाश्वेता देवी ने ‘शालगिरह की पुकार पर’ कृति में संथाल जीवन और अंग्रेज़ों के विरुद्ध उनके ऐतिहासिक संग्राम को दर्ज किया है।
  • ‘चोट्टि मुंडा और उसका तीर’ में आदिवासी समाज की हकीकत को दर्शाया गया है।
  • ‘अमृत संचय’ उपन्यास 1857 से थोड़ा पहले प्रारंभ होता है। 'अमृत संचय’ में प्रतिकूल स्थितियों में भी जीवन के प्रति जो ललक है और प्रतिरोध की जो चेतना है, उस चेतना पर महाश्वेता की बराबर नजर रही है। गौरों के विरुद्ध ही वह चेतना नहीं थी, बल्कि आज़ाद भारत में भी प्रतिरोध की चेतना रही है, जिसे महाश्वेता पूरे साहस के साथ अभिव्यक्त करती हैं।
  • ‘आपरेशन बसाईटुडु’, 'जगमोहन की मृत्यु' में महाश्वेता की वेदना और संघर्ष की स्मृति भी संचित है। महाश्वेता इतिहास, मिथक और वर्तमान राजनैतिक यथार्थ के ताने-बाने को संजोते हुए सामाजिक परिवेश की मानवीय पीड़ा को स्वर देती हैं।
  • ‘अग्निगर्भ’ में महाश्वेता देवी पूछती हैं- "जब बटाईदारी-अधिया जैसी घृणित प्रथा में किसान पिस रहे हों, खेतिहर मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी न मिले, बीज-खाद-पानी-बिजली के लाले पड़े हों, उनका अस्तित्व दाँव पर हो, ऐसे में वह सामंती हिंसा के विरुद्ध हिंसा को चुन ले तो क्या आश्चर्य? 'अग्निगर्भ' में उन संघर्षशील लोगों की कथा है, जिन्होंने सामाजिक न्याय के लिए अपने प्राण उत्सर्ग कर दिए।
  • सर्कस की पृष्ठभूमि पर लिखा ‘प्रेमतारा’ प्रेम की कथा है, फिर भी उसकी पृष्ठभूमि में सिपाही विद्रोह रहता है।
  • ‘अक्लांत कौरव’ की कथा छोटी है, लेकिन अपने गर्भ में विस्फोटक तथ्य छिपाए है।
  • शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ निरंतर संघर्ष करने वाले ग़रीब और समर्पित स्कूल मास्टर की कथा के जरिए साठ-सत्तर के दशक में अपने नक्सल आंदोलन के वैचारिक सरोकारों और लोगों में आती प्रतिरोध की चेतना को लेखिका ने ‘मास्टर साब’ उपन्यास में दर्शाया है। यह एक जीवनीपरक, विचारोत्तेजक और मार्मिक उपन्यास है।
  • महाश्वेता ने ‘हजार चौरासी की माँ’ में नक्सल आंदोलन को माँ की नजर से देखा। नक्सल आंदोलन की वे साक्षी रही थीं। जनसंघर्षों ने उनके जीवन को भी परिवर्तित किया और लेखन को भी। ‘हजार चौरासी की माँ’ उस माँ की मर्मस्पर्शी कहानी है, जिसने जान लिया है कि उसके पुत्र का शव पुलिस हिरासत में कैसे और क्यों है।
  • अपने उपन्यास ‘नील छवि’ में उन्होंने रोचक ढंग से बताया है कि ड्रग्स और ब्लू फिल्में किस तरह समाज को भीतर से खोखला कर रही हैं और कला-जगत, पत्रकारिता और उच्च व निम्न मध्य वर्ग किन विडंबनाओं का शिकार है? पूरी और बुरी तरह उपभोक्ता संस्कृति में जकड़ा समाज किस तरह अपनी विलासिता और महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए सारे मानवीय और नैतिक मूल्यों को तिलांजलि दे चुका है।
  • ‘कवि वैद्यघोटी गइनेर जीवन और मृत्यु’ में महाश्वेता ने निचली जाति के युवक के मानवाधिकार हासिल करने के संघर्ष को वाणी दी है।[1]

समाज सेवा

बिहार, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाके महाश्वेता देवी के कार्यक्षेत्र रहे। वहाँ उनका ध्यान लोढ़ा तथा शबरा आदिवासियों की दीन दशा की ओर अधिक रहा। इसी तरह बिहार के पलामू क्षेत्र के आदिवासी भी उनके सरोकार का विषय बने। इनमें स्त्रियों की दशा और भी दयनीय थी। महाश्वेता देवी ने इस स्थिति में सुधार करने का संकल्प लिया। 1970 से महाश्वेता देवी ने अपने उद्देश्य के हित में व्यवस्था से सीधा हस्तक्षेप शुरू किया। उन्होंने पश्चिम बंगाल की औद्योगिक नीतियों के ख़िलाफ़ भी आंदोलन छेड़ा तथा विकास के प्रचलित कार्य को चुनौती दी।

आदिवासियों की संघर्ष गाथाएँ

महाश्वेता देवी ने अपने कई उपन्यासों की तरह अपनी अनेक कहानियों में भी सदियों से मुख्यधारा से बाहर धकेली गई आदिवासी अस्मिता के प्रश्न को शिद्दत से उठाया है। महाश्वेता की कई कहानियाँ आदिवासियों की प्रामाणिक संघर्ष गाथाएँ हैं बल्कि उन्हें महागाथाएँ कहना ज्यादा उचित होगा। इन महागाथाओं में आदिवासी समाज की चिंता कदाचित पहली बार बेचैनी के साथ प्रकट हुई। अपनी कथाकृतियों में हाशिए पर धकेले गए आदिवासी को नायक बनाकर महाश्वेता देवी हिंदी में प्रेमचंद तो बांग्ला में ताराशंकर बंद्योपाध्याय और मानिक बंद्योपाध्याय से भी आगे निकल गईं। प्रेमचंद और ताराशंकर किसान को नायक बना चुके थे तो मानिक बाबू मछुआरों को। उससे काफ़ी आगे जाकर महाश्वेता ने जनजातियों और आदिवासियों के विद्रोही नायकों को अपनी कथाकृतियों का नायक बनाया। महाश्वेता अपनी कहानियों में समाज को शोषण, दोहन और उत्पीड़न से मुक्त कराते संघर्षशील नायकों का संधान करती हैं। इन संघर्षशील आदिवासी नायकों का संधान महाश्वेता की कहानी ‘बाढ़’ में बागदी के रूप में ‘बांयेन’ में डोम ‘शाम सवेरे की माँ’ में पाखमारा ‘शिकार’ में ओरांव ‘बीज’ में गंजू ‘मूल अधिकार और भिखारी दुसाध’ में दुसाध ‘बेहुला’ में माल या ओझा और ‘द्रौपदी’ में संथाल के रूप में सहज ही हो जाता है।

सन 1984 में प्रकाशित अपने श्रेष्ठ गल्प की भूमिका में महाश्वेता देवी ने लिखा है- "साहित्य को केवल भाषा-शैली और शिल्प की कसौटी पर रखकर देखने के मापदंड गलत हैं। साहित्य का मूल्यांकन इतिहास के परिप्रेक्ष्य में होना चाहिए। किसी लेखक के लेखन को उसके समय और इतिहास के परिप्रेक्ष्य में रखकर न देखने से उसका वास्तविक मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है। मैं पुराकथा पौराणिक चरित्र और घटनाओं को वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में फिर से यह बताने के लिए लिखती हूँ कि वास्तव में लोक-कथाओं में अतीत और वर्तमान एक अविच्छिन्न धारा के रूप में प्रवाहित होते हैं। यह अविच्छिन्न धारा भी वायवीय नहीं है बल्कि जात-पांत खेत और जंगल पर अधिकार और सबसे ऊपर सत्ता के विस्तार तथा उसके कायम रखने की पद्धति को केंद्र में रखकर निम्न वर्ग के मनुष्य के शोषण का क्रमिक इतिहास है।"

कहानियों के विषय

महाश्वेता की कहानियों में सामंती ताकतों के शोषण, उत्पीड़न, चल-छद्म के विरुद्ध पीड़ितों और शोषितों का संघर्ष अनवरत जारी रहता है। संघर्ष में वह मार भी खाता है पर थककर बैठ नहीं जाता। क्रूरता और बर्बरता में भी पीड़ित तबका टिके रहता है। कई उपन्यासों की तरह उनकी कहानियों में भी आदिम जनजातीय स्रोतों से प्राप्त कथा तो है ही, जीवन और समाज के दूसरे ज्वलंत मुद्दों को भी उन्होंने साधिकार स्पर्श किया है। ‘रुदाली’ की कहानी में महाश्वेता ने औरत की अस्मिता का प्रश्न उम्दा तरीके से उठाया तो ‘अक्लांत कौरव’ में विकास और छद्म प्रगतिवाद की तीखी आलोचना की।

'वर्तिका' का सम्पादन

पलामू के बंधुआ मजदूरों के बीच काम करते हुए महाश्वेता ने कई तथ्य एकत्रित किए थे। उसी के आधार पर निर्मल घोष के साथ मिलकर उन्होंने ‘भारत के बंधुआ मजदूर’ नामक पुस्तक लिखी थी। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आदिवासी अंचलों के सुख-दु:ख के बारे में उन्होंने समय-समय पर जो लिखा, वे भी संकलित होकर पुस्तक रूप में छाप चुकी हैं- ‘डस्ट आन रोड’। महाश्वेता की टिप्पणियों के इस संकलन को मैत्रेई घटक (महाश्वेता के छोटे भाई) ने संपादित किया है। 1980 में उन्होंने पत्रिका ‘वर्तिका’ का संपादन शुरू किया था। उसके पहले उनके पिता मनीष घटक उसे संपादित करते थे। पिता का 1979 में निधन हो गया तो महाश्वेता ने पत्रिका का चरित्र ही बदल डाला। वर्तिका एक ऐसा मंच बन गया, जिसमें छोटे किसान, खेत मजदूर, आदिवासी, कारखानों में काम करने वाले मजदूर, रिक्शा चालक अपनी समस्याओं और जीवन के बारे में लिखते। अब भी लिखते हैं। ‘वर्तिका’ में मेदिनीपुर के लोधा और पुरुलिया के खेड़िया शबर आदिवासियों ने बहुत कुछ लिखा। इसके जरिए आदिवासियों ने जीवन में पहली बार किसी प्रकाशन में लिखा। पहली लोधा स्नातक लड़की चुनी कोटाल ने भी 1982 में वर्तिका में लिखा था अपने जीवन संघर्ष के बारे में। इस तरह वर्तिका के जरिए महाश्वेता ने बांग्ला में वैकल्पिक साहित्यिक पत्रकारिता की दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रयास किए। महाश्वेता ने बंधुआ मजदूर, किसान, फैक्टरी मजदूर, ईंट भट्ठा मजदूर, आदिवासियों को जमीन से बेदख़ल किए जाने और बंगाल के हरेक आदिवासी समुदाय पर वर्तिका के विशेष अंक निकाले। उन्होंने बांग्ला देश और अमेरिका के आदिवासियों पर भी विशेष अंक निकाले। वर्तिका ने अपनी गहरी संपादकीय दृष्टि और संपादकीय विवेक का परिचय दिया।

पुरस्कार व सम्मान

महाश्वेता देवी के सम्मान में गूगल-डूडल (2018)

1977 में महाश्वेता देवी को 'मेग्सेसे पुरस्कार' प्रदान किया गया। 1979 में उन्हें 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' मिला। 1996 में 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' से वह सम्मानित की गईं। 1986 में 'पद्मश्री' तथा फिर 2006 में उन्हें 'पद्मविभूषण' सम्मान प्रदान किया गया।

गूगल डूडल

साहित्यकार महाश्वेता देवी के जन्मदिन (14 जनवरी) पर गूगल ने उन्हें डूडल के जरिये सम्मान दिया। महाश्वेता देवी पूरी जिंदगी लेखन के साथ महिलाओं, दलितों और आदिवासियों के अधिकारों के लिए जमीन पर संघर्ष करती रहीं। 14 जनवरी, 1926 को आज के बांग्लादेश की राजधानी ढाका में पैदा हुईं महाश्वेता देवी को गूगल ने अपने शानदार डूडल के जरिये श्रद्धांजलि दी है। गूगल द्वारा पेश डूडल में बंगाली शैली में धोती यानी साड़ी पहने महाश्वेता देवी कुछ लिखती नजर आ रही हैं। डूडल में उनके पीछे अलग-अलग सभ्यता, संस्कृति, भाषा, परिवेश के लोगों का चेहरा नजर आ रहा है। जो इस बात को इंगित करता है कि महाश्वेता देवी ना सिर्फ अपनी लेखनी में बल्कि धरातल पर भी पूरी जिंदगी समाज के हर तबके के लिए संघर्ष करती रहीं।

निधन

महाश्वेता देवी का निधन 28 जुलाई, 2016 को कोलकाता में हुआ। उन्हें 22 मई को कोलकाता के बेल व्यू नर्सिंग होम में भर्ती कराया गया था। उनके शरीर के कई महत्वपूर्ण अंगों ने काम करना बंद कर दिया था। दिल का दौरा पड़ने के बाद उनका निधन हो गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 1.5 1.6 महाश्वेता देवी का जीवन और साहित्य (हिन्दी) literaturepoint.com। अभिगमन तिथि: 30 जुलाई, 2016।
  2. 2.0 2.1 महाश्वेता देवी (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 20 सितम्बर, 2012।
  3. महाश्वेता देवी (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 6 जनवरी, 2014।

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