"जैसलमेर के शासक": अवतरणों में अंतर

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जैसलमेर राज्य की स्थापना भारतीय इतिहास के मध्यकाल के प्रारंभ में 1178 ई. के लगभग यदुवंशी भाटी के वंशज '''[[रावल जैसल]]''' के द्वारा की गयी। भाटी मूलत: इस प्रदेश के निवासी नहीं थे। यह अपनी जाति की उत्पत्ति [[मथुरा]] व [[द्वारिका]] के यदुवंशी इतिहास पुरुष [[कृष्ण]] से मानते थे। कृष्ण के उपरांत द्वारिका के जलमग्न होने के कारण कुछ बचे हुए यदु लोग जाबुलिस्तान, गजनी, काबुल व लाहौर के आस-पास के क्षेत्रों में फैल गए थे। वहाँ इन लोगों ने बाहुबल से अच्छी ख्याति अर्जित की थी, परंतु मध्य एशिया से आने वाले तुर्क आक्रमणकारियों के सामने ये ज़्यादा नहीं टिक सके और [[लाहौर]] होते हुए [[पंजाब]] की ओर अग्रसर होते हुए भटनेर नामक स्थान पर अपना राज्य स्थापित किया। उस समय इस भू-भाग पर स्थानीय जातियों का प्रभाव था। अत: ये भटनेर से पुन: अग्रसर होकर सिंध मुल्तान की ओर बढ़े। अन्तोगत्वा मुमणवाह, मारोठ, तपोट, देरावर आदि स्थानों पर अपने मुकाम करते हुए थार के रेगिस्तान स्थित परमारों के क्षेत्र में लोद्रवा नामक शहर के शासक को पराजित यहाँ अपनी राजधानी स्थापित की थी। इस भू-भाग में स्थित स्थानीय जातियों जिनमें परमार, बराह, लंगा, भूटा, तथा सोलंकी आदि प्रमुख थे। इनसे सतत संघर्ष के उपरांत भाटी लोग इस भू-भाग को अपने आधीन कर सके थे। वस्तुत: भाटियों के इतिहास का यह संपूर्ण काल सत्ता के लिए संघर्ष का काल नहीं था वरन अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्ष था, जिसमें ये लोग सफल हो गए।<ref>{{cite web |url=http://tdil.mit.gov.in/CoilNet/IGNCA/rj017.htm |title=जैसलमेर के शासक तथा इनका संक्षिप्त इतिहास |accessmonthday=[[28  अक्टूबर]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format=एचटीएम |publisher= |language=हिंदी }}</ref>
{{जैसलमेर विषय सूची}}
सन 1175 ई. के लगभग [[मोहम्मद गौरी]] के निचले सिंध व उससे लगे हुए लोद्रवा पर आक्रमण के कारण इसका पतन हो गया और राजसत्ता रावल जैसल के हाथ में आ गई जिसने शीघ्र ही उचित स्थान देकर सन 1178 ई. के लगभग त्रिकूट नाम के पहाड़ी पर अपनी नई राजधानी की स्थापना की जो उसके नाम से '''जैसल-मेरु - जैसलमेर''' कहलाई गयी।
{{सूचना बक्सा पर्यटन
==अलाउद्दीन खिलजी==
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|चित्र का नाम=जैसलमेर का एक दृश्य
सन 1308 के लगभग [[दिल्ली]] सुल्तान [[अलाउद्दीन खिलजी]] की शाही सेना द्वारा यहाँ आक्रमण किया गया व राज्य की सीमाओं में प्रवेशकर दुर्ग के चारों ओर घेरा डाल दिया। यहाँ के राजपूतों ने पारंपरिक ढंग से युद्ध लड़ा। जिसके फलस्वरूप दुर्ग में एकत्र सामग्री के आधार पर यह घेरा लगभग 6 वर्षों तक रहा। इसी घेरे की अवधि में '''रावल जैतसिंह''' का देहांत हो गया तथा उसका ज्येष्ठ पुत्र '''मूलराज''' जैसलमेर के सिंहासन पर बैठा। मूलराज के छोटे भाई रत्नसिंह ने युद्ध की बागडोर अपने हाथ में लेकर अन्तत: खाद्य सामग्री को समाप्त होते देख युद्ध करने का निर्णय लिया। दुर्ग में स्थित समस्त स्त्रियों द्वारा रात्रि को [[अग्नि]] प्रज्वलित कर अपने सतीत्व की रक्षा हेतु जौहर कर लिया। प्रात: काल में समस्त पुरुष दुर्ग के द्वार खोलकर शत्रु सेना पर टूट पड़े। जैसा कि स्पष्ट था कि दीर्घकालीन घेरे के कारण रसद व युद्ध सामग्री विहीन दुर्बल थोड़े से योद्धा, शाही फौज जिसकी संख्या काफ़ी अधिक थी तथा ताजा दम तथा हर प्रकार के रसद तथा सामग्री से युक्त थी, के सामने अधिक समय तक नहीं टिक सके शीघ्र ही सभी वीरगति को प्राप्त हो गए।  
|विवरण=जैसलमेर शहर, पश्चिमी राजस्थान राज्य, पश्चिमोत्तर [[भारत]] में स्थित है। जैसलमेर पीले भूरे पत्थरों से निर्मित भवनों के लिए विख्यात है।
==मुहम्मद बिन तुगलक==
|राज्य=[[राजस्थान]]
सल्तनत काल में द्वितीय आक्रमण [[मुहम्मद बिन तुग़लक़]] (1325-1351 ई.) के शासन काल में हुआ था, इस समय यहाँ का शासक '''रावल दूदा''' (1319-1331 ई.) था, जो स्वयं विकट योद्धा था तथा जिसके मन में पूर्व युद्ध में जैसलमेर से दूर होने के कारण वीरगति न पाने का दु:ख था, वह भी मूलराज तथा रत्नसिंह की तरह अपनी कीर्ति को अमर बनाना चाहता था। फलस्वरूप उसकी सैनिक टुकड़ियों ने शाही सैनिक ठिकानों पर छुटपुट लूटमार करना प्रारंभ कर दिया था। इन सभी कारणों से दण्ड देने के लिए एक बार पुन: शाही सेना जैसलमेर की ओर अग्रसर हुई। भाटियों द्वारा पुन: उसी युद्ध नीति का पालन करते हुए अपनी प्रजा को शत्रुओं के सामने निरीह छोड़कर, रसद सामग्री एकत्र करके दुर्ग के द्वार बंद करके अंदर बैठ गए। शाही सैनिक टुकड़ी ने राज्य की सीमा में प्रवेश कर समस्त गाँवों में लूटपाट करते हुए पुन: दुर्ग के चारों ओर डेरा डाल दिया। यह घेरा भी एक लंबी अवधि तक चला। अंतत: स्त्रियों ने एक बार पुन: जौहर किया और रावल दूदा अपने साथियों सहित युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ। जैसलमेर दुर्ग और उसकी प्रजा सहित संपूर्ण-क्षेत्र वीरान हो गया।
|ज़िला=[[जैसलमेर ज़िला]]
 
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|प्रसिद्धि=जैसलमेर नक़्क़ाशीदार हवेलियाँ, रेगिस्तानी टीले, प्राचीन जैन मंदिरों, मेलों और उत्सवों के लिये प्रसिद्ध हैं।
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|क्या देखें=[[जैसलमेर का क़िला]], [[मरुभूमि राष्ट्रीय उद्यान]],  [[कलात्मक हवेलियाँ जैसलमेर|कलात्मक हवेलियाँ]], [[सोनार क़िला जैसलमेर|सोनार क़िला]], [[गडसीसर जलाशय एवं टीला की पोल जैसलमेर|गडसीसर जलाशय एवं टीला की पोल]], [[बादल विलास जैसलमेर|बादल विलास]], [[अमरसागर जैसलमेर|अमरसागर]] आदि
|कहाँ ठहरें=
|क्या खायें=
|क्या ख़रीदें= ख़रीददारी के लिए माणिक चौक विशेष तौर पर प्रसिद्ध है। सिला हुआ कंबल और शॉल, शीशे का काम किया हुआ कपड़ा, [[चाँदी]] के [[आभूषण]] और चित्रित कपड़ा, कशीदाकारी की गई वस्तुएँ आदि की ख़रीददारी कर सकते हैं।
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|अन्य जानकारी=जैसलमेर के प्रमुख ऐतिहासिक स्मारकों में सर्वप्रमुख यहाँ का क़िला है। यह 1155 ई. में निर्मित हुआ था। यह स्थापत्य का सुंदर नमूना है। इसमें बारह सौ घर भी हैं।
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'''[[जैसलमेर]]''' राज्य की स्थापना [[भारतीय इतिहास]] के [[मध्यकाल]] के प्रारंभ में 1178 ई. के लगभग यदुवंशी भाटी के वंशज '''[[रावल जैसल]]''' के द्वारा की गयी। भाटी मूलत: इस प्रदेश के निवासी नहीं थे। यह अपनी जाति की उत्पत्ति [[मथुरा]] व [[द्वारिका]] के यदुवंशी इतिहास पुरुष [[कृष्ण]] से मानते थे। कृष्ण के उपरांत द्वारिका के जलमग्न होने के कारण कुछ बचे हुए यदु लोग जाबुलिस्तान, [[ग़ज़नी]] , [[काबुल]] [[लाहौर]] के आस-पास के क्षेत्रों में फैल गए थे। वहाँ इन लोगों ने बाहुबल से अच्छी ख्याति अर्जित की थी, परंतु मध्य एशिया से आने वाले तुर्क आक्रमणकारियों के सामने ये ज़्यादा नहीं टिक सके और [[लाहौर]] होते हुए [[पंजाब]] की ओर अग्रसर होते हुए [[भटनेर]] नामक स्थान पर अपना राज्य स्थापित किया। उस समय इस भू-भाग पर स्थानीय जातियों का प्रभाव था। अत: ये भटनेर से पुन: अग्रसर होकर सिंध [[मुल्तान]] की ओर बढ़े। अन्तोगत्वा मुमणवाह, मारोठ, तपोट, देरावर आदि स्थानों पर अपने मुकाम करते हुए [[थार रेगिस्तान|थार के रेगिस्तान]] स्थित परमारों के क्षेत्र में लोद्रवा नामक शहर के शासक को पराजित यहाँ अपनी राजधानी स्थापित की थी। इस भू-भाग में स्थित स्थानीय जातियों जिनमें परमार, बराह, लंगा, भूटा, तथा सोलंकी आदि प्रमुख थे। इनसे सतत संघर्ष के उपरांत भाटी लोग इस भू-भाग को अपने आधीन कर सके थे। वस्तुत: भाटियों के इतिहास का यह संपूर्ण काल सत्ता के लिए संघर्ष का काल नहीं था वरन् अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्ष था, जिसमें ये लोग सफल हो गए।<ref>{{cite web |url=http://tdil.mit.gov.in/CoilNet/IGNCA/rj017.htm |title=जैसलमेर के शासक तथा इनका संक्षिप्त इतिहास |accessmonthday=[[28  अक्टूबर]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format=एचटीएम |publisher= |language=[[हिन्दी]] }}</ref> सन 1175 ई. के लगभग [[मोहम्मद गौरी]] के निचले सिंध व उससे लगे हुए [[लौद्रवा जैसलमेर|लोद्रवा]] पर आक्रमण के कारण इसका पतन हो गया और राजसत्ता रावल जैसल के हाथ में आ गई जिसने शीघ्र ही उचित स्थान देकर सन् 1178 ई. के लगभग त्रिकूट नाम के पहाड़ी पर अपनी नई राजधानी की स्थापना की जो उसके नाम से '''जैसल-मेरु - जैसलमेर''' कहलाई गयी।
==अलाउद्दीन ख़िलजी==
{{Main|अलाउद्दीन ख़िलजी}}
सन 1308 के लगभग [[दिल्ली]] सुल्तान [[अलाउद्दीन ख़िलजी]] की शाही सेना द्वारा यहाँ आक्रमण किया गया व राज्य की सीमाओं में प्रवेशकर दुर्ग के चारों ओर घेरा डाल दिया। यहाँ के राजपूतों ने पारंपरिक ढंग से युद्ध लड़ा। जिसके फलस्वरूप दुर्ग में एकत्र सामग्री के आधार पर यह घेरा लगभग 6 वर्षों तक रहा। इसी घेरे की अवधि में '''रावल जैतसिंह''' का देहांत हो गया तथा उसका ज्येष्ठ पुत्र '''मूलराज''' जैसलमेर के सिंहासन पर बैठा। मूलराज के छोटे भाई रत्नसिंह ने युद्ध की बागडोर अपने हाथ में लेकर अन्तत: खाद्य सामग्री को समाप्त होते देख युद्ध करने का निर्णय लिया। दुर्ग में स्थित समस्त स्त्रियों द्वारा रात्रि को [[अग्नि]] प्रज्वलित कर अपने सतीत्व की रक्षा हेतु जौहर कर लिया। प्रात: काल में समस्त पुरुष दुर्ग के द्वार खोलकर शत्रु सेना पर टूट पड़े। जैसा कि स्पष्ट था कि दीर्घकालीन घेरे के कारण रसद व युद्ध सामग्री विहीन दुर्बल थोड़े से योद्धा, शाही फ़ौज जिसकी संख्या काफ़ी अधिक थी तथा ताजा दम तथा हर प्रकार के रसद तथा सामग्री से युक्त थी, के सामने अधिक समय तक नहीं टिक सके शीघ्र ही सभी वीरगति को प्राप्त हो गए।  
==मुहम्मद बिन तुग़लक़==
{{Main|मुहम्मद बिन तुग़लक़}}
[[सल्तनत काल]] में द्वितीय आक्रमण [[मुहम्मद बिन तुग़लक़]] (1325-1351 ई.) के शासन काल में हुआ था, इस समय यहाँ का शासक '''रावल दूदा''' (1319-1331 ई.) था, जो स्वयं विकट योद्धा था तथा जिसके मन में पूर्व युद्ध में जैसलमेर से दूर होने के कारण वीरगति न पाने का दु:ख था, वह भी मूलराज तथा रत्नसिंह की तरह अपनी कीर्ति को अमर बनाना चाहता था। फलस्वरूप उसकी सैनिक टुकड़ियों ने शाही सैनिक ठिकानों पर छुटपुट लूटमार करना प्रारंभ कर दिया था। इन सभी कारणों से दण्ड देने के लिए एक बार पुन: शाही सेना जैसलमेर की ओर अग्रसर हुई। भाटियों द्वारा पुन: उसी युद्ध नीति का पालन करते हुए अपनी प्रजा को शत्रुओं के सामने निरीह छोड़कर, रसद सामग्री एकत्र करके दुर्ग के द्वार बंद करके अंदर बैठ गए। शाही सैनिक टुकड़ी ने राज्य की सीमा में प्रवेश कर समस्त गाँवों में लूटपाट करते हुए पुन: दुर्ग के चारों ओर डेरा डाल दिया। यह घेरा भी एक लंबी अवधि तक चला। अंतत: स्त्रियों ने एक बार पुन: जौहर किया और रावल दूदा अपने साथियों सहित युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ। जैसलमेर दुर्ग और उसकी प्रजा सहित संपूर्ण-क्षेत्र वीरान हो गया।
==मुग़ल काल==
==मुग़ल काल==
[[मुग़ल काल]] के आरंभ में जैसलमेर एक स्वतंत्र राज्य था। जैसलमेर मुग़लकालीन प्रारंभिक शासकों [[बाबर]] तथा [[हुमायूँ]] के शासन तक एक स्वतंत्र राज्य के रूप में रहा। जब हुमायूँ [[शेरशाह सूरी]] से हारकर निर्वासित अवस्था में जैसलमेर के मार्ग से 'रावमाल देव' से सहायता की याचना हेतु [[जोधपुर]] गया तो जैसलमेर के भट्टी शासकों ने उसे शरणागत समझकर अपने राज्य से शांति पूर्ण गुजर जाने दिया। [[अकबर]] के बादशाह बनने के उपरांत उसकी राजपूत नीति में व्यापक परिवर्तन आया जिसकी परणिति मुग़ल-राजपूत विवाह में हुई। सन 1570 ई. में जब अकबर ने नागौर में मुकाम किया तो वहाँ पर [[जयपुर]] के '''राजा भगवानदास''' के माध्यम से [[बीकानेर]] और जैसलमेर दोनों को संधि के प्रस्ताव भेजे गए। जैसलमेर शासक '''रावल हरिराज''' ने संधि प्रस्ताव स्वीकार कर अपनी पुत्री नाथीबाई के साथ अकबर के विवाह की स्वीकृति प्रदान कर राजनैतिक दूरदर्शिता का परिचय दिया। रावल हरिराज का छोटा पुत्र बादशाह दिल्ली दरबार में राज्य के प्रतिनिधि के रूप में रहने लगा। अकबर द्वारा उस फैलादी का परगना जागीर के रूप में प्रदान की गई। भाटी-मुग़ल संबंध समय के साथ-साथ और मजबूत होते चले गए। शहजादा [[सलीम]] को हरिराज के पुत्र भीम की पुत्री ब्याही गई जिसे 'मल्लिका-ए-जहांन' का खिताब दिया गया था। स्वयं [[जहाँगीर]] ने अपनी जीवनी में लिखा है - '''रावल भीम एक पद और प्रभावी व्यक्ति था, जब उसकी मृत्यु हुई थी तो उसका दो माह का पुत्र था, जो अधिक जीवित नहीं रहा। जब मैं राजकुमार था तब भीम की कन्या का विवाह मेरे साथ हुआ और मैने उसे 'मल्लिका-ए-जहांन' का खिताब दिया था। यह घराना सदैव से हमारा वफादार रहा है इसलिए उनसे संधि की गई।'''  
{{Main|मुग़ल काल}}
 
[[मुग़ल काल]] के आरंभ में जैसलमेर एक स्वतंत्र राज्य था। जैसलमेर मुग़लकालीन प्रारंभिक शासकों [[बाबर]] तथा [[हुमायूँ]] के शासन तक एक स्वतंत्र राज्य के रूप में रहा। जब हुमायूँ [[शेरशाह सूरी]] से हारकर निर्वासित अवस्था में जैसलमेर के मार्ग से 'रावमाल देव' से सहायता की याचना हेतु [[जोधपुर]] गया तो जैसलमेर के भट्टी शासकों ने उसे शरणागत समझकर अपने राज्य से शांति पूर्ण गुज़र जाने दिया। [[अकबर]] के बादशाह बनने के उपरांत उसकी राजपूत नीति में व्यापक परिवर्तन आया जिसकी परणिति मुग़ल-राजपूत विवाह में हुई। सन् 1570 ई. में जब अकबर ने नागौर में मुकाम किया तो वहाँ पर [[जयपुर]] के [[भगवानदास|राजा भगवानदास]] के माध्यम से [[बीकानेर]] और जैसलमेर दोनों को संधि के प्रस्ताव भेजे गए। जैसलमेर शासक '''रावल हरिराज''' ने संधि प्रस्ताव स्वीकार कर अपनी पुत्री नाथीबाई के साथ अकबर के विवाह की स्वीकृति प्रदान कर राजनीतिक दूरदर्शिता का परिचय दिया। रावल हरिराज का छोटा पुत्र बादशाह दिल्ली दरबार में राज्य के प्रतिनिधि के रूप में रहने लगा। अकबर द्वारा उस फैलादी का परगना जागीर के रूप में प्रदान की गई। भाटी-मुग़ल संबंध समय के साथ-साथ और मज़बूत होते चले गए। शहजादा [[सलीम]] को हरिराज के पुत्र भीम की पुत्री ब्याही गई जिसे 'मल्लिका-ए-जहांन' का खिताब दिया गया था। स्वयं [[जहाँगीर]] ने अपनी जीवनी में लिखा है - '''रावल भीम एक पद और प्रभावी व्यक्ति था, जब उसकी मृत्यु हुई थी तो उसका दो माह का पुत्र था, जो अधिक जीवित नहीं रहा। जब मैं राजकुमार था तब भीम की कन्या का विवाह मेरे साथ हुआ और मैने उसे 'मल्लिका-ए-जहांन' का खिताब दिया था। यह घराना सदैव से हमारा वफ़ादार रहा है इसलिए उनसे संधि की गई।''' <br />
मुग़ल सत्ता के क्षीण होते-होते कई स्थानीय शासक शक्तिशाली होते चले गए। जिनमें कई मुग़लों के गवर्नर थे, जिन्होंने केन्द्र के कमज़ोर होने के स्थिति में स्वतंत्र शासक के रूप में कार्य करना प्रारंभ कर दिया था। जैसलमेर से लगे हुए सिंध व मुल्तान प्रांत में मुग़ल सत्ता के कमज़ोर हो जाने से कई राज्यों का जन्म हुआ, सिंध में मीरपुर तथा बहावलपुर मुख्य थे। इन राज्यों ने जैसलमेर राज्य के सिंध से लगे हुए विशाल भू-भाग को अपने राज्य में शामिल कर लिया था। अन्य पड़ोसी राज्य [[जोधपुर]], [[बीकानेर]] ने भी जैसलमेर राज्य के कमज़ोर शासकों के काल में समीपवर्ती प्रदेशों में हमला संकोच नहीं करते थे। इस प्रकार जैसलमेर राज्य की सीमाएँ निरंतर कम होती चली गई थी। [[ईस्ट इंडिया कंपनी]] के [[भारत]] आगमन के समय जैसलमेर का क्षेत्रफल मात्र 16 हजार वर्गमील भर रह गया था। यहाँ यह भी वर्णन योग्य है कि मुग़लों के लगभग 300 वर्षों के लंबे शासन में जैसलमेर पर एक ही राजवंश के शासकों ने शासन किया तथा एक ही वंश के दीवानों ने प्रशासन भार संभालते हुए उस संझावत के काल में राज्य को सुरक्षित बनाए रखा।
मुग़ल सत्ता के क्षीण होते-होते कई स्थानीय शासक शक्तिशाली होते चले गए। जिनमें कई मुग़लों के गवर्नर थे, जिन्होंने केन्द्र के कमज़ोर होने के स्थिति में स्वतंत्र शासक के रूप में कार्य करना प्रारंभ कर दिया था। जैसलमेर से लगे हुए सिंध व मुल्तान प्रांत में मुग़ल सत्ता के कमज़ोर हो जाने से कई राज्यों का जन्म हुआ, सिंध में मीरपुर तथा बहावलपुर मुख्य थे। इन राज्यों ने जैसलमेर राज्य के सिंध से लगे हुए विशाल भू-भाग को अपने राज्य में शामिल कर लिया था। अन्य पड़ोसी राज्य [[जोधपुर]], [[बीकानेर]] ने भी जैसलमेर राज्य के कमज़ोर शासकों के काल में समीपवर्ती प्रदेशों में हमला संकोच नहीं करते थे। इस प्रकार जैसलमेर राज्य की सीमाएँ निरंतर कम होती चली गई थी। [[ईस्ट इंडिया कंपनी]] के [[भारत]] आगमन के समय जैसलमेर का क्षेत्रफल मात्र 16 हज़ार वर्गमील भर रह गया था। यहाँ यह भी वर्णन योग्य है कि मुग़लों के लगभग 300 वर्षों के लंबे शासन में जैसलमेर पर एक ही राजवंश के शासकों ने शासन किया तथा एक ही वंश के दीवानों ने प्रशासन भार संभालते हुए उस संझावत के काल में राज्य को सुरक्षित बनाए रखा।
 
==ब्रिटिश शासन==
==ब्रिटिश शासन==
{{Main|ब्रिटिश साम्राज्य}}
ब्रिटिश शासन से पूर्व तक शासक ही राज्य का सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। अधिकांश विवादों का जाति समूहों की पंचायते ही निबटा देती थी। बहुत कम विवाद पंचायतों के ऊपर राजकीय अधिकारी, हाकिम, क़िलेदार या दीवान तक पहुँचते थे। मृत्युदंड देने का अधिकार मात्र राजा को ही था। राज्य में कोई लिखित क़ानून का उल्लेख नहीं है। परंपराएँ एवं स्वविवेक ही क़ानून एवं निर्णयों का प्रमुख आधार होती थी। भू-राज के रूप में किसान की अपनी उपज का पाँचवाँ भाग से लेकर सातवें भाग तक लिए जाने की प्रथा राज्य में थी। लगान के रूप में जो अनाज प्राप्त होता था उसे उसी समय वणिकों को बेचकर नक़द प्राप्त धनराशि राजकोष में जमा होती थी। राज्य का लगभग पूरा भू-भाग रेतीला या पथरीला है एवं यहाँ वर्षा भी बहुत कम होती है। अत: राज्य को भू-राज से बहुत कम आय होती थी तथा यहाँ के शासकों तथा जनसाधारण का जीवन बहुत ही सादगी पूर्ण था।
ब्रिटिश शासन से पूर्व तक शासक ही राज्य का सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। अधिकांश विवादों का जाति समूहों की पंचायते ही निबटा देती थी। बहुत कम विवाद पंचायतों के ऊपर राजकीय अधिकारी, हाकिम, क़िलेदार या दीवान तक पहुँचते थे। मृत्युदंड देने का अधिकार मात्र राजा को ही था। राज्य में कोई लिखित क़ानून का उल्लेख नहीं है। परंपराएँ एवं स्वविवेक ही क़ानून एवं निर्णयों का प्रमुख आधार होती थी। भू-राज के रूप में किसान की अपनी उपज का पाँचवाँ भाग से लेकर सातवें भाग तक लिए जाने की प्रथा राज्य में थी। लगान के रूप में जो अनाज प्राप्त होता था उसे उसी समय वणिकों को बेचकर नक़द प्राप्त धनराशि राजकोष में जमा होती थी। राज्य का लगभग पूरा भू-भाग रेतीला या पथरीला है एवं यहाँ वर्षा भी बहुत कम होती है। अत: राज्य को भू-राज से बहुत कम आय होती थी तथा यहाँ के शासकों तथा जनसाधारण का जीवन बहुत ही सादगी पूर्ण था।


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==संबंधित लेख==
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07:40, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण

जैसलमेर विषय सूची
जैसलमेर के शासक
जैसलमेर का एक दृश्य
जैसलमेर का एक दृश्य
विवरण जैसलमेर शहर, पश्चिमी राजस्थान राज्य, पश्चिमोत्तर भारत में स्थित है। जैसलमेर पीले भूरे पत्थरों से निर्मित भवनों के लिए विख्यात है।
राज्य राजस्थान
ज़िला जैसलमेर ज़िला
निर्माण काल 1156 ई.
स्थापना राजपूतों के सरदार रावल जैसल द्वारा स्थापित
प्रसिद्धि जैसलमेर नक़्क़ाशीदार हवेलियाँ, रेगिस्तानी टीले, प्राचीन जैन मंदिरों, मेलों और उत्सवों के लिये प्रसिद्ध हैं।
क्या देखें जैसलमेर का क़िला, मरुभूमि राष्ट्रीय उद्यान, कलात्मक हवेलियाँ, सोनार क़िला, गडसीसर जलाशय एवं टीला की पोल, बादल विलास, अमरसागर आदि
क्या ख़रीदें ख़रीददारी के लिए माणिक चौक विशेष तौर पर प्रसिद्ध है। सिला हुआ कंबल और शॉल, शीशे का काम किया हुआ कपड़ा, चाँदी के आभूषण और चित्रित कपड़ा, कशीदाकारी की गई वस्तुएँ आदि की ख़रीददारी कर सकते हैं।
अन्य जानकारी जैसलमेर के प्रमुख ऐतिहासिक स्मारकों में सर्वप्रमुख यहाँ का क़िला है। यह 1155 ई. में निर्मित हुआ था। यह स्थापत्य का सुंदर नमूना है। इसमें बारह सौ घर भी हैं।

जैसलमेर राज्य की स्थापना भारतीय इतिहास के मध्यकाल के प्रारंभ में 1178 ई. के लगभग यदुवंशी भाटी के वंशज रावल जैसल के द्वारा की गयी। भाटी मूलत: इस प्रदेश के निवासी नहीं थे। यह अपनी जाति की उत्पत्ति मथुराद्वारिका के यदुवंशी इतिहास पुरुष कृष्ण से मानते थे। कृष्ण के उपरांत द्वारिका के जलमग्न होने के कारण कुछ बचे हुए यदु लोग जाबुलिस्तान, ग़ज़नी , काबुललाहौर के आस-पास के क्षेत्रों में फैल गए थे। वहाँ इन लोगों ने बाहुबल से अच्छी ख्याति अर्जित की थी, परंतु मध्य एशिया से आने वाले तुर्क आक्रमणकारियों के सामने ये ज़्यादा नहीं टिक सके और लाहौर होते हुए पंजाब की ओर अग्रसर होते हुए भटनेर नामक स्थान पर अपना राज्य स्थापित किया। उस समय इस भू-भाग पर स्थानीय जातियों का प्रभाव था। अत: ये भटनेर से पुन: अग्रसर होकर सिंध मुल्तान की ओर बढ़े। अन्तोगत्वा मुमणवाह, मारोठ, तपोट, देरावर आदि स्थानों पर अपने मुकाम करते हुए थार के रेगिस्तान स्थित परमारों के क्षेत्र में लोद्रवा नामक शहर के शासक को पराजित यहाँ अपनी राजधानी स्थापित की थी। इस भू-भाग में स्थित स्थानीय जातियों जिनमें परमार, बराह, लंगा, भूटा, तथा सोलंकी आदि प्रमुख थे। इनसे सतत संघर्ष के उपरांत भाटी लोग इस भू-भाग को अपने आधीन कर सके थे। वस्तुत: भाटियों के इतिहास का यह संपूर्ण काल सत्ता के लिए संघर्ष का काल नहीं था वरन् अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्ष था, जिसमें ये लोग सफल हो गए।[1] सन 1175 ई. के लगभग मोहम्मद गौरी के निचले सिंध व उससे लगे हुए लोद्रवा पर आक्रमण के कारण इसका पतन हो गया और राजसत्ता रावल जैसल के हाथ में आ गई जिसने शीघ्र ही उचित स्थान देकर सन् 1178 ई. के लगभग त्रिकूट नाम के पहाड़ी पर अपनी नई राजधानी की स्थापना की जो उसके नाम से जैसल-मेरु - जैसलमेर कहलाई गयी।

अलाउद्दीन ख़िलजी

सन 1308 के लगभग दिल्ली सुल्तान अलाउद्दीन ख़िलजी की शाही सेना द्वारा यहाँ आक्रमण किया गया व राज्य की सीमाओं में प्रवेशकर दुर्ग के चारों ओर घेरा डाल दिया। यहाँ के राजपूतों ने पारंपरिक ढंग से युद्ध लड़ा। जिसके फलस्वरूप दुर्ग में एकत्र सामग्री के आधार पर यह घेरा लगभग 6 वर्षों तक रहा। इसी घेरे की अवधि में रावल जैतसिंह का देहांत हो गया तथा उसका ज्येष्ठ पुत्र मूलराज जैसलमेर के सिंहासन पर बैठा। मूलराज के छोटे भाई रत्नसिंह ने युद्ध की बागडोर अपने हाथ में लेकर अन्तत: खाद्य सामग्री को समाप्त होते देख युद्ध करने का निर्णय लिया। दुर्ग में स्थित समस्त स्त्रियों द्वारा रात्रि को अग्नि प्रज्वलित कर अपने सतीत्व की रक्षा हेतु जौहर कर लिया। प्रात: काल में समस्त पुरुष दुर्ग के द्वार खोलकर शत्रु सेना पर टूट पड़े। जैसा कि स्पष्ट था कि दीर्घकालीन घेरे के कारण रसद व युद्ध सामग्री विहीन दुर्बल थोड़े से योद्धा, शाही फ़ौज जिसकी संख्या काफ़ी अधिक थी तथा ताजा दम तथा हर प्रकार के रसद तथा सामग्री से युक्त थी, के सामने अधिक समय तक नहीं टिक सके शीघ्र ही सभी वीरगति को प्राप्त हो गए।

मुहम्मद बिन तुग़लक़

सल्तनत काल में द्वितीय आक्रमण मुहम्मद बिन तुग़लक़ (1325-1351 ई.) के शासन काल में हुआ था, इस समय यहाँ का शासक रावल दूदा (1319-1331 ई.) था, जो स्वयं विकट योद्धा था तथा जिसके मन में पूर्व युद्ध में जैसलमेर से दूर होने के कारण वीरगति न पाने का दु:ख था, वह भी मूलराज तथा रत्नसिंह की तरह अपनी कीर्ति को अमर बनाना चाहता था। फलस्वरूप उसकी सैनिक टुकड़ियों ने शाही सैनिक ठिकानों पर छुटपुट लूटमार करना प्रारंभ कर दिया था। इन सभी कारणों से दण्ड देने के लिए एक बार पुन: शाही सेना जैसलमेर की ओर अग्रसर हुई। भाटियों द्वारा पुन: उसी युद्ध नीति का पालन करते हुए अपनी प्रजा को शत्रुओं के सामने निरीह छोड़कर, रसद सामग्री एकत्र करके दुर्ग के द्वार बंद करके अंदर बैठ गए। शाही सैनिक टुकड़ी ने राज्य की सीमा में प्रवेश कर समस्त गाँवों में लूटपाट करते हुए पुन: दुर्ग के चारों ओर डेरा डाल दिया। यह घेरा भी एक लंबी अवधि तक चला। अंतत: स्त्रियों ने एक बार पुन: जौहर किया और रावल दूदा अपने साथियों सहित युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ। जैसलमेर दुर्ग और उसकी प्रजा सहित संपूर्ण-क्षेत्र वीरान हो गया।

मुग़ल काल

मुग़ल काल के आरंभ में जैसलमेर एक स्वतंत्र राज्य था। जैसलमेर मुग़लकालीन प्रारंभिक शासकों बाबर तथा हुमायूँ के शासन तक एक स्वतंत्र राज्य के रूप में रहा। जब हुमायूँ शेरशाह सूरी से हारकर निर्वासित अवस्था में जैसलमेर के मार्ग से 'रावमाल देव' से सहायता की याचना हेतु जोधपुर गया तो जैसलमेर के भट्टी शासकों ने उसे शरणागत समझकर अपने राज्य से शांति पूर्ण गुज़र जाने दिया। अकबर के बादशाह बनने के उपरांत उसकी राजपूत नीति में व्यापक परिवर्तन आया जिसकी परणिति मुग़ल-राजपूत विवाह में हुई। सन् 1570 ई. में जब अकबर ने नागौर में मुकाम किया तो वहाँ पर जयपुर के राजा भगवानदास के माध्यम से बीकानेर और जैसलमेर दोनों को संधि के प्रस्ताव भेजे गए। जैसलमेर शासक रावल हरिराज ने संधि प्रस्ताव स्वीकार कर अपनी पुत्री नाथीबाई के साथ अकबर के विवाह की स्वीकृति प्रदान कर राजनीतिक दूरदर्शिता का परिचय दिया। रावल हरिराज का छोटा पुत्र बादशाह दिल्ली दरबार में राज्य के प्रतिनिधि के रूप में रहने लगा। अकबर द्वारा उस फैलादी का परगना जागीर के रूप में प्रदान की गई। भाटी-मुग़ल संबंध समय के साथ-साथ और मज़बूत होते चले गए। शहजादा सलीम को हरिराज के पुत्र भीम की पुत्री ब्याही गई जिसे 'मल्लिका-ए-जहांन' का खिताब दिया गया था। स्वयं जहाँगीर ने अपनी जीवनी में लिखा है - रावल भीम एक पद और प्रभावी व्यक्ति था, जब उसकी मृत्यु हुई थी तो उसका दो माह का पुत्र था, जो अधिक जीवित नहीं रहा। जब मैं राजकुमार था तब भीम की कन्या का विवाह मेरे साथ हुआ और मैने उसे 'मल्लिका-ए-जहांन' का खिताब दिया था। यह घराना सदैव से हमारा वफ़ादार रहा है इसलिए उनसे संधि की गई।
मुग़ल सत्ता के क्षीण होते-होते कई स्थानीय शासक शक्तिशाली होते चले गए। जिनमें कई मुग़लों के गवर्नर थे, जिन्होंने केन्द्र के कमज़ोर होने के स्थिति में स्वतंत्र शासक के रूप में कार्य करना प्रारंभ कर दिया था। जैसलमेर से लगे हुए सिंध व मुल्तान प्रांत में मुग़ल सत्ता के कमज़ोर हो जाने से कई राज्यों का जन्म हुआ, सिंध में मीरपुर तथा बहावलपुर मुख्य थे। इन राज्यों ने जैसलमेर राज्य के सिंध से लगे हुए विशाल भू-भाग को अपने राज्य में शामिल कर लिया था। अन्य पड़ोसी राज्य जोधपुर, बीकानेर ने भी जैसलमेर राज्य के कमज़ोर शासकों के काल में समीपवर्ती प्रदेशों में हमला संकोच नहीं करते थे। इस प्रकार जैसलमेर राज्य की सीमाएँ निरंतर कम होती चली गई थी। ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत आगमन के समय जैसलमेर का क्षेत्रफल मात्र 16 हज़ार वर्गमील भर रह गया था। यहाँ यह भी वर्णन योग्य है कि मुग़लों के लगभग 300 वर्षों के लंबे शासन में जैसलमेर पर एक ही राजवंश के शासकों ने शासन किया तथा एक ही वंश के दीवानों ने प्रशासन भार संभालते हुए उस संझावत के काल में राज्य को सुरक्षित बनाए रखा।

ब्रिटिश शासन

ब्रिटिश शासन से पूर्व तक शासक ही राज्य का सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। अधिकांश विवादों का जाति समूहों की पंचायते ही निबटा देती थी। बहुत कम विवाद पंचायतों के ऊपर राजकीय अधिकारी, हाकिम, क़िलेदार या दीवान तक पहुँचते थे। मृत्युदंड देने का अधिकार मात्र राजा को ही था। राज्य में कोई लिखित क़ानून का उल्लेख नहीं है। परंपराएँ एवं स्वविवेक ही क़ानून एवं निर्णयों का प्रमुख आधार होती थी। भू-राज के रूप में किसान की अपनी उपज का पाँचवाँ भाग से लेकर सातवें भाग तक लिए जाने की प्रथा राज्य में थी। लगान के रूप में जो अनाज प्राप्त होता था उसे उसी समय वणिकों को बेचकर नक़द प्राप्त धनराशि राजकोष में जमा होती थी। राज्य का लगभग पूरा भू-भाग रेतीला या पथरीला है एवं यहाँ वर्षा भी बहुत कम होती है। अत: राज्य को भू-राज से बहुत कम आय होती थी तथा यहाँ के शासकों तथा जनसाधारण का जीवन बहुत ही सादगी पूर्ण था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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