"अशोक के शिलालेख- मानसेहरा": अवतरणों में अंतर
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|+ मानसेरा शिलालेख | |+ मानसेरा शिलालेख<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=प्राचीन भारत के प्रमुख अभिलेख|लेखक=डॉ. परमेश्वरीलाल गुप्त|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी|संकलन= |संपादन=|पृष्ठ संख्या=20-21|url=}}</ref> | ||
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13:09, 3 मई 2018 के समय का अवतरण
मानसेहरा अथवा 'मानसेरा', ज़िला हजारा, पश्चिमी पाकिस्तान में स्थित है। यहाँ से मौर्य सम्राट अशोक के 'चतुर्दश शिलालेख' (चौदह शिलालेख) प्राप्त हुए हैं।
- मौर्य सम्राट अशोक के चौदह मुख्य शिलालेख इस स्थान पर खरोष्ठी लिपि में एक चट्टान के ऊपर अंकित हैं।
क्रमांक | शिलालेख | अनुवाद |
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1. | देवनंप्रिय प्रियद्रशि रज एवं अह [।] कलणं दुकरं [।] ये अदिकरे कयणसे से दुकरं करोति [।] तं मय वहु कयणे कटे [।] तं मअ पुत्र | देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस प्रकार कहता है-कल्याण दुष्कर है। जो कल्याण का आदिकर्ता है, वह दुष्कर [कार्य] करता है। सो मेरे द्वारा बहुत कल्याण किया गया है। |
2. | नतरे [च] परं तेन ये अपतिये में अवकपं तथं अनुवटिशति से सुकट कषित [।] ये चु अत्र देश पि हपेशति से दुकट कषति [I] | इसलिए जो मेरे पुत्र और पौत्र हैं तथा आगे उनके द्वारा जो मेरे अपत्य (लड़के, वंशज) होंगे [वे] यावत्कल्प (कल्पांत तक) वैसा अनुसरण करेंगे, तब वे सुकृत (पुण्य) करेंगे। किंतु जो इसमें जो (यहाँ) [एक] देश (अंश) को भी हानि पहुँचायेगा, वह दुष्कृत (पाप) करेगा। |
3. | पपे हि नम सुपदरे व [I] से अतिक्रंत अंतरं न भुतप्रुव ध्रममहमत्र नम [I] से त्रेडशवषभिसितेन मय ध्रममहमत्र कट [I] से सवप्रषडेषु | पाप वस्तुत: सहज में फैलनेवाला (सुकर) है। बहुत काल बीत गया, पहले धर्ममहामात्र नहीं होते थे। सो तेरह वर्षों से अभिषिक्त मुझ द्वारा धर्ममहामात्र (नियुक्त) किये गये। |
4. | वपुट ध्रमधिथनये च ध्रमवध्रिय हिदसुखये च ध्रमयुत योन - कंबोज - गधरन रठिकपितिनिकन ये व पि अञे अपरत [I] भटमये- | वे सब पाषण्डों (पंथों) पर धर्माधिष्ठान और धर्मवृद्धि के लिए नियुक्त हैं। (वे) यवनों, कांबोजों, गांधारों, राष्ट्रिकों एवं पितिनिकों के बीच तथा अन्य भी जो अपरांत (के रहनेवाले) हैं उनके बीच धर्मायुक्तों या धर्मयुक्तों (धर्म विभाग के राजकर्मचारियों अथवा 'धर्म' के अनुसार आचरण करने वालों) के हित (और) सुख के लिए [नियुक्त हैं] |
5. | षु ब्रमणिम्येषु अन्धेषु वुध्रषु- हिदसुखये ध्रमयुत अपलिबोधये वियपुट ते [।] बधनबधस पटिविधनये अपलिबोधसे मोछये च इयं | वे भृत्यों (वेतनभोगी नौकरों), आर्यों (स्वामियों), ब्रह्मणों, इभ्यों (गृहपतियों, वैश्यों), अनाथों और वृद्ध (बड़ों) के बीच धर्मयुक्तों के हितसुख एवं अपरिबाधा के लिए नियुक्त हैं। वे बन्धनबद्धों (कैदियों) के प्रतिविधान (अर्थसाहाय्य, अपील) के लिए, अपरिबाधा के लिए एवं मोक्ष के लिए नियुक्त हैं, यदि वे [बन्धनबद्ध मनुष्य] अनुबद्धप्रजावान (अनुब्रद्धप्रज) (संतानों में अनुरक्त, संतानों वाले), कृताभिकार (विपत्तिग्रस्त) अथवा महल्लक (वयोवृद्ध) हों। वे यहाँ (पाटलिपुत्र में) और अब बाहरी नगरों में मेरे भ्राताओं के, [मेरी] बहनों (भागिनियों) के |
6. | अनुबध प्रजवति कट्रभिकर ति व महल के ति व वियप्रट ते [।] हिदं बहिरेषु च नगरेषु सव्रेषु ओरोधनेषु भतन च स्पसुन च | और अन्य जो [मेरे] सम्बन्धी हों उनके अवरोधनों (अंत:पुरों) पर सर्वत्र नियुक्त हैं। वे धर्महामात्र सर्वत्र मेरे विजित में (समस्त पृथ्वी पर) धर्मयुक्तों पर, यह निश्चय करने के लिए कि [मनुष्य] धर्मनिश्रित हैं अथवा धर्माधिष्ठित हैं अथवा दानसंयुक्त हैं, नियुक्त हैं। |
7. | येव पि अञे ञतिके सव्रत्र वियपट [।] ए इयं ध्रमनिशितो ति व ध्रमधिथने ति व दनसंयुते ति व सव्रत विजितसि मअ ध्रमयुतसि विपुट ते | इस अर्थ से यह धर्मलिपि लिखवायी गयी [कि वह] चिरस्थित (चिरस्थायिनी) हो और मेरी प्रजा (उसका) वैसा अनुवर्तन (अनुसरण) करे। |
8. | ध्रममहमत्र [।] एतये अथ्रये अयि ध्रमदिपि लिखित चिर-ठितिक होतु तथ च प्रज अनुवटतु [।] |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्राचीन भारत के प्रमुख अभिलेख |लेखक: डॉ. परमेश्वरीलाल गुप्त |प्रकाशक: विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी |पृष्ठ संख्या: 20-21 |
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