"राम शरण शर्मा": अवतरणों में अंतर
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'''राम शरण शर्मा''' (जन्म- [[26 नवम्बर]], [[1919]], बेगुसराय, [[बिहार]]; मृत्यु- [[20 अगस्त]], [[2011]], [[पटना]]) [[भारत]] के प्रसिद्ध इतिहासकार थे। वे समाज को हकीकत से रु-ब-रु कराने वाले, अन्तराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त भारतीय इतिहासकारों में से एक थे। | {{सूचना बक्सा साहित्यकार | ||
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'''राम शरण शर्मा''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Ram Sharan Sharma''; जन्म- [[26 नवम्बर]], [[1919]], बेगुसराय, [[बिहार]]; मृत्यु- [[20 अगस्त]], [[2011]], [[पटना]]) [[भारत]] के प्रसिद्ध [[इतिहासकार]] और शिक्षाविद थे। वे समाज को हकीकत से रु-ब-रु कराने वाले, अन्तराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त भारतीय इतिहासकारों में से एक थे। राम शरण शर्मा '[[भारतीय इतिहास]]' को वंशवादी कथाओं से मुक्त कर सामाजिक और आर्थिक इतिहास लेखन की प्रक्रिया की शुरुआत करने वालों में गिने जाते थे। वर्ष [[1970]] के दशक में '[[दिल्ली विश्वविद्यालय]]' के इतिहास विभाग के डीन के रूप में प्रोफेसर आर. एस. शर्मा के कार्यकाल के दौरान विभाग का व्यापक विस्तार किया गया था। विभाग में अधिकांश पदों की रचना का श्रेय भी प्रोफेसर शर्मा के प्रयासों को ही दिया जाता है। | |||
==जन्म तथा शिक्षा== | ==जन्म तथा शिक्षा== | ||
राम शरण शर्मा का जन्म 26 नवम्बर, 1919 ई. को [[बिहार]] (ब्रिटिश भारत) के बेगुसराय ज़िले के बरौनी फ्लैग गाँव के एक निर्धन परिवार में हुआ था।<ref name="ab">{{cite web |url=http://daayari.blogspot.in/2012/11/blog-post_19.html|title=सामाजिक परिवर्तन का इतिहासकार|accessmonthday=25 मई|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> इनके घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। राम शरण शर्मा के दादा और पिता बरौनी ड्योडी वाले के यहाँ चाकरी करते थे। इनके [[पिता]] को अपनी रोजी-रोटी के लिए काफ़ी संघर्ष करना पड़ा था। पिता ने बड़ी मुश्किल से अपने पुत्र की मैट्रिक तक की शिक्षा की व्यवस्था की थी। राम शरण शर्मा प्रारम्भ से ही मेधावी छात्र रहे थे और अपनी बुद्धिमत्ता से वे लगातार छात्रवृत्ति प्राप्त करते रहे। यहाँ तक कि अपनी शिक्षा में सहयोग के लिए उन्होंने निजी ट्यूशन भी पढ़ाई। उन्होंने [[1937]] में अपनी मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की और 'पटना कॉलेज' में दाखिला लिया। यहाँ उन्होंने इंटरमीडिएट से लेकर स्नातकोत्तर कक्षाओं में छ: वर्षों तक अध्ययन किया और वर्ष [[1943]] में इतिहास में एम.ए. की डिग्री प्राप्त की। राम शरण शर्मा ने पीएचडी की उपाधि 'लंदन विश्वविद्यालय' के 'स्कूल | राम शरण शर्मा का जन्म 26 नवम्बर, 1919 ई. को [[बिहार]] (ब्रिटिश भारत) के बेगुसराय ज़िले के बरौनी फ्लैग गाँव के एक निर्धन [[परिवार]] में हुआ था।<ref name="ab">{{cite web |url=http://daayari.blogspot.in/2012/11/blog-post_19.html|title=सामाजिक परिवर्तन का इतिहासकार|accessmonthday=25 मई|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> यह इलाका समृद्ध खेती के साथ-साथ 'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी' के नेतृत्व में सामंतवाद विरोधी संघर्ष के लिए भी जाना जाता था। इसे लोग "बिहार का लेनिनग्राद" कहते थे। इनके घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। राम शरण शर्मा के दादा और पिता बरौनी ड्योडी वाले के यहाँ चाकरी करते थे। इनके [[पिता]] को अपनी रोजी-रोटी के लिए काफ़ी संघर्ष करना पड़ा था। पिता ने बड़ी मुश्किल से अपने पुत्र की मैट्रिक तक की शिक्षा की व्यवस्था की थी। राम शरण शर्मा प्रारम्भ से ही मेधावी छात्र रहे थे और अपनी बुद्धिमत्ता से वे लगातार छात्रवृत्ति प्राप्त करते रहे। यहाँ तक कि अपनी शिक्षा में सहयोग के लिए उन्होंने निजी ट्यूशन भी पढ़ाई। उन्होंने [[1937]] में अपनी मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की और 'पटना कॉलेज' में दाखिला लिया। यहाँ उन्होंने इंटरमीडिएट से लेकर स्नातकोत्तर कक्षाओं में छ: वर्षों तक अध्ययन किया और वर्ष [[1943]] में इतिहास में एम.ए. की डिग्री प्राप्त की। राम शरण शर्मा ने पीएचडी की उपाधि 'लंदन विश्वविद्यालय' के 'स्कूल ऑफ़ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज' से प्रोफेसर आर्थर लेवेलिन बैशम के अधीन पूर्ण की थी। | ||
==इतिहास | ==इतिहास लेखन== | ||
[[इतिहास]] के जाने-माने लेखक राम शरण शर्मा ने पंद्रह भाषाओं में सौ से भी अधिक किताबें लिखीं। उनकी लिखी गयी प्राचीन इतिहास की किताबें देश की उच्च शिक्षा में काफ़ी अहमियत रखती हैं। प्राचीन इतिहास से जोड़कर हर सम-सामयिक घटनाओं को जोड़कर देखने में शर्मा जी को महारथ हासिल थी। रामशरण शर्मा के द्वारा लिखी गयी पुस्तक "प्राचीन भारत के इतिहास" को पढ़कर छात्र 'संघ लोक सेवा आयोग' जैसी प्रतिष्ठित परीक्षाओं की तैयारी करते हैं। | 'पटना विश्वविद्यालय' में पढ़ाते हुए राम शरण शर्मा ने अपनी पहली किताब 'विश्व साहित्य की भूमिका' [[हिन्दी]] में लिखी। एक नयी दृष्टि के बावजूद यह पुस्तक छात्रोपयोगी ही अधिक थी। वास्तविक याति और इतिहासकार के रूप में मान्यता उन्हें तब मिली, जब वे सन [[1954]]-[[1956]] के दौरान अध्ययन अवकाश लेकर [[लंदन]] के 'स्कूल ऑफ़ ओरिएंटल ऐंड अफ्रीकन स्टडीज़' में गये और लंदन विश्वविद्यालय से ही [[1956]] में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की।<ref name="ad">{{cite web |url=http://www.janjwar.com/society/1-society/1918-ramsharan-sharma-madan-kashyap|title=वंचितों के इतिहासकार|accessmonthday=25 मई|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> [[इतिहास]] के जाने-माने लेखक राम शरण शर्मा ने पंद्रह भाषाओं में सौ से भी अधिक किताबें लिखीं। उनकी लिखी गयी प्राचीन इतिहास की किताबें देश की उच्च शिक्षा में काफ़ी अहमियत रखती हैं। प्राचीन इतिहास से जोड़कर हर सम-सामयिक घटनाओं को जोड़कर देखने में शर्मा जी को महारथ हासिल थी। रामशरण शर्मा के द्वारा लिखी गयी पुस्तक "प्राचीन भारत के इतिहास" को पढ़कर छात्र 'संघ लोक सेवा आयोग' जैसी प्रतिष्ठित परीक्षाओं की तैयारी करते हैं। | ||
==उच्च पदों पर कार्य== | |||
राम शरण शर्मा ऐसे पहले भारतीय इतिहासकार थे, जिन्होंने पुरातात्विक अनुसंधानों से प्राप्त साक्ष्यों को अपने लेखन का आधार बनाया और वैदिक और अन्य प्राचीन ग्रंथों और भाषा विज्ञान की स्थापनाओं से उसे यथा संभव संपुष्ट करने की कोशिश की। सन [[1969]] में उन्हें नेहरू फेलोशिप मिली थी। 'पटना विश्वविद्यालय' के इतिहास विभाग के प्रमुख बनने के बाद राम शरण शर्मा ने [[1970]] के दशक में '[[दिल्ली विश्वविद्यालय]]' के इतिहास विभाग के डीन के रूप काम किया। वे [[1972]] से [[1977]] तक 'भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद'<ref>इंडियन काउंसिल ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च</ref> के संस्थापक अध्यक्ष भी रहे थे। राम शरण शर्मा ने 'टोरंटो विश्वविद्यालय' में भी अध्यापन कार्य किया। वे 'लंदन विश्वविद्यालय' के 'स्कूल ऑफ़ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज़' में एक सीनियर फेलो, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के नेशनल फेलो और [[1975]] में 'इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस' के अध्यक्ष भी रह चुके थे।<ref name="ac"/> | |||
====रचनाएँ==== | ====रचनाएँ==== | ||
राम शरण शर्मा ने इतिहास लेखन के क्षेत्र में अपना अमूल्य योगदान देकर उसे समृद्ध बनाया। उनकी इतिहास की रचनाएँ उच्च स्तर की प्रतियोगी परीक्षाओं में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। राम शरण शर्मा की कुछ प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं- | राम शरण शर्मा ने [[इतिहास]] लेखन के क्षेत्र में अपना अमूल्य योगदान देकर उसे समृद्ध बनाया। उनकी इतिहास की रचनाएँ उच्च स्तर की प्रतियोगी परीक्षाओं में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। राम शरण शर्मा की कुछ प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं- | ||
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|+राम शरण शर्मा की प्रमुख रचनाएँ | |+राम शरण शर्मा की प्रमुख रचनाएँ | ||
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|'आर्य एवं हड़प्पा संस्कृतियों की भिन्नता'<ref>{{cite web |url=http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2011/08/110821_ramshran_obit_ml.shtml|title=राम शरण शर्मा का निधन|accessmonthday=25 मई|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> | |'आर्य एवं हड़प्पा संस्कृतियों की भिन्नता'<ref name="ac">{{cite web |url=http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2011/08/110821_ramshran_obit_ml.shtml|title=राम शरण शर्मा का निधन|accessmonthday=25 मई|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> | ||
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==मार्क्सवाद का अध्ययन== | |||
राम शरण शर्मा किसी भी [[भारत के राजनीतिक दल|राजनीतिक दल]] के सदस्य नहीं थे, किन्तु मार्क्सवाद का अध्ययन, चिंतन, मनन इनके प्रमुख कार्यों में से एक था, जिसका सीधा प्रभाव उनके लेखन में देखने को मिलता है। '[[भारतीय इतिहास]]' के लेखन में [[1940]] में प्रकाशित 'आधे भारतीय एवं आधे स्वीडिश', ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव रजनी पाम दत्त की 'पुस्तक इंडिया टुडे', [[1956]] में दामोदर धर्मानंद कोसाम्बी की 'एन इंट्रोडक्शन टू द स्टडी ऑफ़ इडियन हिस्ट्री' एवं [[1958]] में रामशरण शर्मा की 'शुद्राज इन एनसिएंट इंडिया' और 'आस्पेक्ट्स ऑफ़ आइडियाज़ एंड इंस्टिट्यूशन इन एंशिएंट इंडिया' एवं [[1965]] में इरफान हबीब की [[औरंगज़ेब]] की कट्टर धार्मिकता पर केंद्रित 'द अग्रेरियान सिस्टम ऑफ़ मुग़ल्स' आदि पुस्तकों को 'भारतीय इतिहास' को मार्क्सवादी प्रभाव के परिपेक्ष में देखने का एक सफल प्रयास के रूप में माना जाता है, जिसकी पुरज़ोर स्थापना सन [[1965]] प्रकाशित रामशरण शर्मा की पुस्तक 'इंडियन फ्यूडलिज्म' से हो जाती है, ऐसा कई इतिहासकारों का मानना है।<ref name="ab"/> | |||
==विवाद== | |||
राम शरण शर्मा की रचना "प्राचीन भारत" को [[कृष्ण]] की ऐतिहासिकता और [[महाभारत]] [[महाकाव्य]] की घटनाओं की आलोचना के लिए [[1978]] में जनता पार्टी सरकार की ओर से प्रतिबंधित कर दिया गया था। [[अयोध्या]] के विवाद पर भी उन्होंने बहुत कुछ लिखा था, जिसको लेकर देश भर में बहस छिड़ गयी थी। वर्ष [[2002]] के [[गुजरात]] दंगों को युवाओं की समझ बढ़ाने के लिए 'सामाजिक रूप से प्रासंगिक विषय' बताते हुए इसे विद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल करने का समर्थन किया था। यह उनकी टिप्पणी ही थी, जब एनसीईआरटी ने गुजरात के दंगों और अयोध्या विवाद को [[1984]] के [[सिक्ख]] विरोधी दंगों के साथ बारहवी कक्षा की राजनीति विज्ञान की पुस्तकों में शामिल करने का फैसला किया, जिसका तर्क यह दिया गया कि इन घटनाओं ने आजादी के बाद देश में राजनीतिक प्रक्रिया को प्रभावित किया था।<ref name="ac"/> | |||
अपने शोध प्रबंधन 'शूद्राज इन एंशिएंट इंडिया' के प्रकाशित होते ही राम शरण शर्मा चर्चा में आ गये थे। उन्होंने ऐसे समय में वंचितों का इतिहास लिखा, जब 'सबाल्टर्न' की अवधारणा सामने नहीं आयी थी। 'शूद्रों का प्राचीन इतिहास' के अलावा उन्होंने आगे चलकर 'प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संस्थाएँ', 'भारत के प्राचीन नगरों का पतन' और 'प्राचीन भारत में भौतिक प्रगति और सामाजिक संरचनाएँ' जैसी पुस्तकें लिखीं, जिनमें नये-नये पुरातात्विक अनुसंधानों के आधार पर अपनी अवधारणा को विस्तार दिया गया था। सन [[1964]] में 'कलकत्ता विश्वविद्यालय' में उन्होंने 'भारतीय सामंतवाद' पर छह व्याख्यान दिये थे, जो [[1965]] में 'इंडियन फ्यूडलिज्म' नाम से [[अंग्रेज़ी]] में प्रकाशित हुए। तब इस पुस्तक का काफ़ी विरोध हुआ और उनके समकालीन इतिहासकारों में से एक हरबंस मुखिया ने लिखा कि [[भारत]] में किसी प्रकार का सामंतवाद था ही नहीं, यहाँ के किसान शुरू से ही स्वतंत्र थे। इसके बाद वामपंथी इतिहासकारों के दो खेमे हो गये। बाद के सबाल्टर्न इतिहासकारों ने स्थिति और स्पष्ट कर दी। प्रोफेसर शर्मा ने सन [[1996]] में प्रकाशित पुस्तक 'पूर्व मध्यकालीन भारत का सामंती समाज और संस्कृति' में अपने विरोधियों को करारा जवाब भी दिया। यह पुस्तक लिखी तो गयी थी अंग्रेज़ी में, किंतु छपी पहले [[हिन्दी]] में। उसके एक साल पहले ही उनकी मूल हिन्दी में लिखी दूसरी पुस्तक 'आर्य संस्कृति की खोज' आयी थी, जिसमें उन्होंने आर्यों के मूलतः भारतीय होने के भ्रम का निवारण किया था। सन [[1999]] में इसी श्रृंखला में एक और किताब आयी 'भारत में आर्यों का आगमन'।<ref name="ad"/> | |||
==व्यक्तित्व== | |||
[[इतिहासकार]] राम शरण शर्मा के घर के दरवाज़े किसी भी जिज्ञासू और ज्ञानपिपासु के लिए सदैव खुले रहते थे। वे स्वयं भी लोगों से मिलने-जुलने, उनसे बात करने का कोई मौका नहीं चुकते थे। सुबह टहलने के लिए भी ज़रा देर से जाते थे। किसी पार्क या कोई सुनसान जगह के वजाय भीड़भाड़ वाली सड़कों का चयन करते, जहाँ वो घूमते-टहलते लोगों से बातचीत भी करते रहते। विदेश से लौटते तो मज़े और सैर-सपाटों के किस्सों के बजाय वहाँ के आवाम के किस्से उनकी ज़बान पर होते थे। वे किताबी नहीं, बल्कि एक सक्रिय इतिहासकार थे, जिन्हें आपात काल, बाबरी मस्ज़िद विध्वंश, नरसंहारों जैसी घटनाएँ परेशान करती थी। जनता को प्रगतिशील चेतना से सुसजित करना उनके चिंतन का प्रमुख विषय होता था। वे अपने सामाजिक दायित्वों के प्रति जागरूक और एक कर्मठ शिक्षाविद थे। उनका साफ़ मानना था कि समाज सुधार के कार्यों या सामाजिक समस्याओं और उसके समाधान की गतिविधियों में संलग्न शिक्षाविद ही समाज के लिए कुछ कर रहें हैं, अन्यथा समाज को उनसे क्या लाभ। | |||
====पुरस्कार व सम्मान==== | |||
#भारत शास्त्रियों को दिया जाने वाला सर्वोत्तम 'केम्प्वेल मेमोरियल गोल्ड मेडल सम्मान' | |||
#एशियाटिक सोसायटी, [[कोलकाता]] द्वारा 'हेमचंद रायचौधरी जन्मशताब्दी स्वर्ण पदक सम्मान' | |||
#[[सारनाथ]] के 'उच्चतर तिब्बती अनुसन्धान संस्थान' एवं 'वर्धमान विश्वविद्यालय' द्वारा 'डी लिट' उपाधि | |||
#[[मुंबई]] की एशियाटिक सोसायटी द्वारा स्वर्ण पदक | |||
==निधन== | |||
एक इतिहासकार और शिक्षाविद के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त करने वाले राम शरण शर्मा का निधन [[20 अगस्त]], [[2011]] को [[पटना]], [[बिहार]] में हुआ। अपने तरह की सोच वाले इतिहासकारों को बढावा देने, वैदिक परम्पराओं को अनदेखा करने, [[हिन्दी]] के बजाय [[अंग्रेज़ी]] में अपने लेखन कार्य को अंजाम देने सहित कई आरोप शर्मा जी पर लगे थे, लेकिन इस सत्य से किसी का कोई इंकार नहीं हो सकता कि वे [[भारत]] के उन इतिहासकारों में से एक थे, जिन्होंने इतिहासकारों को खुद नए, तार्किक व वैज्ञानिक तरीके से सोचना सिखाया। साथ ही ये भी बताया कि [[इतिहास]] का अर्थ केवल बीती हुई कहानी कहना नहीं होता। इतिहास अथवा इतिहास लेखन का कर्म मात्र राजवंश, युद्ध और भारतीय साम्राज्य का इतिहास मात्र नहीं है। इतिहासकार यह एहसास करें कि इतिहास का विषय यह भी है कि इतिहास के वे सबक क्या हैं, जिनके सहारे आज की चुनौतियों का सामना कल्पनाशीलता और सूझबूझ के साथ किया जा सके। | |||
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राम शरण शर्मा
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पूरा नाम | राम शरण शर्मा |
जन्म | 26 नवम्बर, 1919 |
जन्म भूमि | बेगुसराय, बिहार |
मृत्यु | 20 अगस्त, 2011 |
मृत्यु स्थान | पटना |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | इतिहास और शिक्षा |
भाषा | हिन्दी, अंग्रेज़ी |
विद्यालय | 'पटना कॉलेज', बिहार; 'स्कूल ऑफ़ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज', लन्दन |
शिक्षा | एम.ए., पीएचडी |
पुरस्कार-उपाधि | 'केम्प्वेल मेमोरियल गोल्ड मेडल सम्मान', 'हेमचंद रायचौधरी जन्मशताब्दी स्वर्ण पदक सम्मान', 'डी लिट' |
प्रसिद्धि | इतिहासकार |
विशेष योगदान | शर्माजी ने इतिहास लेखन के क्षेत्र में अमूल्य योगदान देकर उसे समृद्ध बनाया। उनकी इतिहास की रचनाएँ उच्च स्तर की प्रतियोगी परीक्षाओं में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | 'पटना विश्वविद्यालय' में पढ़ाते हुए राम शरण शर्मा ने अपनी पहली किताब 'विश्व साहित्य की भूमिका' हिन्दी में लिखी थी। |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
राम शरण शर्मा (अंग्रेज़ी: Ram Sharan Sharma; जन्म- 26 नवम्बर, 1919, बेगुसराय, बिहार; मृत्यु- 20 अगस्त, 2011, पटना) भारत के प्रसिद्ध इतिहासकार और शिक्षाविद थे। वे समाज को हकीकत से रु-ब-रु कराने वाले, अन्तराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त भारतीय इतिहासकारों में से एक थे। राम शरण शर्मा 'भारतीय इतिहास' को वंशवादी कथाओं से मुक्त कर सामाजिक और आर्थिक इतिहास लेखन की प्रक्रिया की शुरुआत करने वालों में गिने जाते थे। वर्ष 1970 के दशक में 'दिल्ली विश्वविद्यालय' के इतिहास विभाग के डीन के रूप में प्रोफेसर आर. एस. शर्मा के कार्यकाल के दौरान विभाग का व्यापक विस्तार किया गया था। विभाग में अधिकांश पदों की रचना का श्रेय भी प्रोफेसर शर्मा के प्रयासों को ही दिया जाता है।
जन्म तथा शिक्षा
राम शरण शर्मा का जन्म 26 नवम्बर, 1919 ई. को बिहार (ब्रिटिश भारत) के बेगुसराय ज़िले के बरौनी फ्लैग गाँव के एक निर्धन परिवार में हुआ था।[1] यह इलाका समृद्ध खेती के साथ-साथ 'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी' के नेतृत्व में सामंतवाद विरोधी संघर्ष के लिए भी जाना जाता था। इसे लोग "बिहार का लेनिनग्राद" कहते थे। इनके घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। राम शरण शर्मा के दादा और पिता बरौनी ड्योडी वाले के यहाँ चाकरी करते थे। इनके पिता को अपनी रोजी-रोटी के लिए काफ़ी संघर्ष करना पड़ा था। पिता ने बड़ी मुश्किल से अपने पुत्र की मैट्रिक तक की शिक्षा की व्यवस्था की थी। राम शरण शर्मा प्रारम्भ से ही मेधावी छात्र रहे थे और अपनी बुद्धिमत्ता से वे लगातार छात्रवृत्ति प्राप्त करते रहे। यहाँ तक कि अपनी शिक्षा में सहयोग के लिए उन्होंने निजी ट्यूशन भी पढ़ाई। उन्होंने 1937 में अपनी मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की और 'पटना कॉलेज' में दाखिला लिया। यहाँ उन्होंने इंटरमीडिएट से लेकर स्नातकोत्तर कक्षाओं में छ: वर्षों तक अध्ययन किया और वर्ष 1943 में इतिहास में एम.ए. की डिग्री प्राप्त की। राम शरण शर्मा ने पीएचडी की उपाधि 'लंदन विश्वविद्यालय' के 'स्कूल ऑफ़ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज' से प्रोफेसर आर्थर लेवेलिन बैशम के अधीन पूर्ण की थी।
इतिहास लेखन
'पटना विश्वविद्यालय' में पढ़ाते हुए राम शरण शर्मा ने अपनी पहली किताब 'विश्व साहित्य की भूमिका' हिन्दी में लिखी। एक नयी दृष्टि के बावजूद यह पुस्तक छात्रोपयोगी ही अधिक थी। वास्तविक याति और इतिहासकार के रूप में मान्यता उन्हें तब मिली, जब वे सन 1954-1956 के दौरान अध्ययन अवकाश लेकर लंदन के 'स्कूल ऑफ़ ओरिएंटल ऐंड अफ्रीकन स्टडीज़' में गये और लंदन विश्वविद्यालय से ही 1956 में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की।[2] इतिहास के जाने-माने लेखक राम शरण शर्मा ने पंद्रह भाषाओं में सौ से भी अधिक किताबें लिखीं। उनकी लिखी गयी प्राचीन इतिहास की किताबें देश की उच्च शिक्षा में काफ़ी अहमियत रखती हैं। प्राचीन इतिहास से जोड़कर हर सम-सामयिक घटनाओं को जोड़कर देखने में शर्मा जी को महारथ हासिल थी। रामशरण शर्मा के द्वारा लिखी गयी पुस्तक "प्राचीन भारत के इतिहास" को पढ़कर छात्र 'संघ लोक सेवा आयोग' जैसी प्रतिष्ठित परीक्षाओं की तैयारी करते हैं।
उच्च पदों पर कार्य
राम शरण शर्मा ऐसे पहले भारतीय इतिहासकार थे, जिन्होंने पुरातात्विक अनुसंधानों से प्राप्त साक्ष्यों को अपने लेखन का आधार बनाया और वैदिक और अन्य प्राचीन ग्रंथों और भाषा विज्ञान की स्थापनाओं से उसे यथा संभव संपुष्ट करने की कोशिश की। सन 1969 में उन्हें नेहरू फेलोशिप मिली थी। 'पटना विश्वविद्यालय' के इतिहास विभाग के प्रमुख बनने के बाद राम शरण शर्मा ने 1970 के दशक में 'दिल्ली विश्वविद्यालय' के इतिहास विभाग के डीन के रूप काम किया। वे 1972 से 1977 तक 'भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद'[3] के संस्थापक अध्यक्ष भी रहे थे। राम शरण शर्मा ने 'टोरंटो विश्वविद्यालय' में भी अध्यापन कार्य किया। वे 'लंदन विश्वविद्यालय' के 'स्कूल ऑफ़ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज़' में एक सीनियर फेलो, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के नेशनल फेलो और 1975 में 'इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस' के अध्यक्ष भी रह चुके थे।[4]
रचनाएँ
राम शरण शर्मा ने इतिहास लेखन के क्षेत्र में अपना अमूल्य योगदान देकर उसे समृद्ध बनाया। उनकी इतिहास की रचनाएँ उच्च स्तर की प्रतियोगी परीक्षाओं में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। राम शरण शर्मा की कुछ प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
रचना | वर्ष |
---|---|
'आर्य एवं हड़प्पा संस्कृतियों की भिन्नता'[4] | |
'भारतीय सामंतवाद' | |
'शूद्रों का प्राचीन इतिहास' | |
'प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संस्थाएँ | |
'भारत के प्राचीन नगरों का इतिहास' | |
'आर्यों की खोज' | |
'प्रारंभिक मध्यकालीन भारतीय समाज: सामंतीकरण का एक अध्ययन' | |
'कम्युनल हिस्ट्री एंड रामा'ज अयोध्या' | |
'विश्व इतिहास की भूमिका'[1] | 1951-52 |
'सम इकानामिकल एस्पेक्ट्स ऑफ़ द कास्ट सिस्टम इन एंशिएंट इंडिया' | 1951 |
'रोल ऑफ़ प्रोपर्टी एंड कास्ट इन द ओरिजिन ऑफ़ द स्टेट इन एंशिएंट इंडिया' | 1951-52 |
'शुद्राज इन एनसिएंट इंडिया एवं आस्पेक्ट्स ऑफ़ आइडियाज़ एंड इंस्टिट्यूशन इन एंशिएंट इंडिया' | 1958 |
'आस्पेक्ट्स ऑफ़ पोलिटिकल आइडियाज एंड इंस्टीच्यूशन इन एंशिएंट इंडिया' | 1959 |
'इंडियन फयूडलीजम' | 1965 |
'रोल ऑफ़ आयरन इन ओरिजिन ऑफ़ बुद्धिज्म' | 1968 |
'प्राचीन भारत के पक्ष में' | 1978 |
'मेटेरियल कल्चर एंड सोशल फार्मेशन इन एंशिएंट इंडिया' | 1983 |
'पर्सपेक्टिव्स इन सोशल एंड इकोनौमिकल हिस्ट्री ऑफ़ अर्ली इंडिया' | 1983 |
'अर्बन डीके इन इंडिया-300 एडी से 1000 एडी' | 1987 |
'सांप्रदायिक इतिहास और राम की अयोध्या' | 1990-91 |
'राष्ट्र के नाम इतिहासकारों की रपट' | 1991 |
'लूकिंग फॉर द आर्यन्स' | 1995 |
'एप्लायड साइंसेस एंड टेक्नोलाजी' | 1996 |
'एडवेंट ऑफ़ द आर्यन्स इन इंडिया' | 1999 |
'अर्ली मेडीएवल इंडियन सोसाइटी:ए स्टडी इन फ्यूडलाईजेशन' | 2001 |
मार्क्सवाद का अध्ययन
राम शरण शर्मा किसी भी राजनीतिक दल के सदस्य नहीं थे, किन्तु मार्क्सवाद का अध्ययन, चिंतन, मनन इनके प्रमुख कार्यों में से एक था, जिसका सीधा प्रभाव उनके लेखन में देखने को मिलता है। 'भारतीय इतिहास' के लेखन में 1940 में प्रकाशित 'आधे भारतीय एवं आधे स्वीडिश', ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव रजनी पाम दत्त की 'पुस्तक इंडिया टुडे', 1956 में दामोदर धर्मानंद कोसाम्बी की 'एन इंट्रोडक्शन टू द स्टडी ऑफ़ इडियन हिस्ट्री' एवं 1958 में रामशरण शर्मा की 'शुद्राज इन एनसिएंट इंडिया' और 'आस्पेक्ट्स ऑफ़ आइडियाज़ एंड इंस्टिट्यूशन इन एंशिएंट इंडिया' एवं 1965 में इरफान हबीब की औरंगज़ेब की कट्टर धार्मिकता पर केंद्रित 'द अग्रेरियान सिस्टम ऑफ़ मुग़ल्स' आदि पुस्तकों को 'भारतीय इतिहास' को मार्क्सवादी प्रभाव के परिपेक्ष में देखने का एक सफल प्रयास के रूप में माना जाता है, जिसकी पुरज़ोर स्थापना सन 1965 प्रकाशित रामशरण शर्मा की पुस्तक 'इंडियन फ्यूडलिज्म' से हो जाती है, ऐसा कई इतिहासकारों का मानना है।[1]
विवाद
राम शरण शर्मा की रचना "प्राचीन भारत" को कृष्ण की ऐतिहासिकता और महाभारत महाकाव्य की घटनाओं की आलोचना के लिए 1978 में जनता पार्टी सरकार की ओर से प्रतिबंधित कर दिया गया था। अयोध्या के विवाद पर भी उन्होंने बहुत कुछ लिखा था, जिसको लेकर देश भर में बहस छिड़ गयी थी। वर्ष 2002 के गुजरात दंगों को युवाओं की समझ बढ़ाने के लिए 'सामाजिक रूप से प्रासंगिक विषय' बताते हुए इसे विद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल करने का समर्थन किया था। यह उनकी टिप्पणी ही थी, जब एनसीईआरटी ने गुजरात के दंगों और अयोध्या विवाद को 1984 के सिक्ख विरोधी दंगों के साथ बारहवी कक्षा की राजनीति विज्ञान की पुस्तकों में शामिल करने का फैसला किया, जिसका तर्क यह दिया गया कि इन घटनाओं ने आजादी के बाद देश में राजनीतिक प्रक्रिया को प्रभावित किया था।[4]
अपने शोध प्रबंधन 'शूद्राज इन एंशिएंट इंडिया' के प्रकाशित होते ही राम शरण शर्मा चर्चा में आ गये थे। उन्होंने ऐसे समय में वंचितों का इतिहास लिखा, जब 'सबाल्टर्न' की अवधारणा सामने नहीं आयी थी। 'शूद्रों का प्राचीन इतिहास' के अलावा उन्होंने आगे चलकर 'प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संस्थाएँ', 'भारत के प्राचीन नगरों का पतन' और 'प्राचीन भारत में भौतिक प्रगति और सामाजिक संरचनाएँ' जैसी पुस्तकें लिखीं, जिनमें नये-नये पुरातात्विक अनुसंधानों के आधार पर अपनी अवधारणा को विस्तार दिया गया था। सन 1964 में 'कलकत्ता विश्वविद्यालय' में उन्होंने 'भारतीय सामंतवाद' पर छह व्याख्यान दिये थे, जो 1965 में 'इंडियन फ्यूडलिज्म' नाम से अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुए। तब इस पुस्तक का काफ़ी विरोध हुआ और उनके समकालीन इतिहासकारों में से एक हरबंस मुखिया ने लिखा कि भारत में किसी प्रकार का सामंतवाद था ही नहीं, यहाँ के किसान शुरू से ही स्वतंत्र थे। इसके बाद वामपंथी इतिहासकारों के दो खेमे हो गये। बाद के सबाल्टर्न इतिहासकारों ने स्थिति और स्पष्ट कर दी। प्रोफेसर शर्मा ने सन 1996 में प्रकाशित पुस्तक 'पूर्व मध्यकालीन भारत का सामंती समाज और संस्कृति' में अपने विरोधियों को करारा जवाब भी दिया। यह पुस्तक लिखी तो गयी थी अंग्रेज़ी में, किंतु छपी पहले हिन्दी में। उसके एक साल पहले ही उनकी मूल हिन्दी में लिखी दूसरी पुस्तक 'आर्य संस्कृति की खोज' आयी थी, जिसमें उन्होंने आर्यों के मूलतः भारतीय होने के भ्रम का निवारण किया था। सन 1999 में इसी श्रृंखला में एक और किताब आयी 'भारत में आर्यों का आगमन'।[2]
व्यक्तित्व
इतिहासकार राम शरण शर्मा के घर के दरवाज़े किसी भी जिज्ञासू और ज्ञानपिपासु के लिए सदैव खुले रहते थे। वे स्वयं भी लोगों से मिलने-जुलने, उनसे बात करने का कोई मौका नहीं चुकते थे। सुबह टहलने के लिए भी ज़रा देर से जाते थे। किसी पार्क या कोई सुनसान जगह के वजाय भीड़भाड़ वाली सड़कों का चयन करते, जहाँ वो घूमते-टहलते लोगों से बातचीत भी करते रहते। विदेश से लौटते तो मज़े और सैर-सपाटों के किस्सों के बजाय वहाँ के आवाम के किस्से उनकी ज़बान पर होते थे। वे किताबी नहीं, बल्कि एक सक्रिय इतिहासकार थे, जिन्हें आपात काल, बाबरी मस्ज़िद विध्वंश, नरसंहारों जैसी घटनाएँ परेशान करती थी। जनता को प्रगतिशील चेतना से सुसजित करना उनके चिंतन का प्रमुख विषय होता था। वे अपने सामाजिक दायित्वों के प्रति जागरूक और एक कर्मठ शिक्षाविद थे। उनका साफ़ मानना था कि समाज सुधार के कार्यों या सामाजिक समस्याओं और उसके समाधान की गतिविधियों में संलग्न शिक्षाविद ही समाज के लिए कुछ कर रहें हैं, अन्यथा समाज को उनसे क्या लाभ।
पुरस्कार व सम्मान
- भारत शास्त्रियों को दिया जाने वाला सर्वोत्तम 'केम्प्वेल मेमोरियल गोल्ड मेडल सम्मान'
- एशियाटिक सोसायटी, कोलकाता द्वारा 'हेमचंद रायचौधरी जन्मशताब्दी स्वर्ण पदक सम्मान'
- सारनाथ के 'उच्चतर तिब्बती अनुसन्धान संस्थान' एवं 'वर्धमान विश्वविद्यालय' द्वारा 'डी लिट' उपाधि
- मुंबई की एशियाटिक सोसायटी द्वारा स्वर्ण पदक
निधन
एक इतिहासकार और शिक्षाविद के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त करने वाले राम शरण शर्मा का निधन 20 अगस्त, 2011 को पटना, बिहार में हुआ। अपने तरह की सोच वाले इतिहासकारों को बढावा देने, वैदिक परम्पराओं को अनदेखा करने, हिन्दी के बजाय अंग्रेज़ी में अपने लेखन कार्य को अंजाम देने सहित कई आरोप शर्मा जी पर लगे थे, लेकिन इस सत्य से किसी का कोई इंकार नहीं हो सकता कि वे भारत के उन इतिहासकारों में से एक थे, जिन्होंने इतिहासकारों को खुद नए, तार्किक व वैज्ञानिक तरीके से सोचना सिखाया। साथ ही ये भी बताया कि इतिहास का अर्थ केवल बीती हुई कहानी कहना नहीं होता। इतिहास अथवा इतिहास लेखन का कर्म मात्र राजवंश, युद्ध और भारतीय साम्राज्य का इतिहास मात्र नहीं है। इतिहासकार यह एहसास करें कि इतिहास का विषय यह भी है कि इतिहास के वे सबक क्या हैं, जिनके सहारे आज की चुनौतियों का सामना कल्पनाशीलता और सूझबूझ के साथ किया जा सके।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 सामाजिक परिवर्तन का इतिहासकार (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 25 मई, 2013।
- ↑ 2.0 2.1 वंचितों के इतिहासकार (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 25 मई, 2013।
- ↑ इंडियन काउंसिल ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च
- ↑ 4.0 4.1 4.2 राम शरण शर्मा का निधन (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 25 मई, 2013।