"चालुक्य साम्राज्य": अवतरणों में अंतर

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दक्षिणापथ [[मौर्य काल|मौर्य साम्राज्य]] के अंतर्गत था। जब मौर्य सम्राटों की शक्ति शिथिल हुई, और [[भारत]] में अनेक प्रदेश उनकी अधीनता से मुक्त होकर स्वतंत्र होने लगे, तो दक्षिणापथ में [[सातवाहन वंश]] ने अपने एक पृथक राज्य की स्थापना की। कालान्तर में इस सातवाहन वंश का बहुत ही उत्कर्ष हुआ, और इसने [[मगध]] पर भी अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। शकों के साथ निरन्तर संघर्ष के कारण जब इस राजवंश की शक्ति क्षीण हुई, तो दक्षिणापथ में अनेक नए राजवंशों का प्रादुर्भाव हुआ, जिसमें [[वाकाटक वंश|वाकाटक]], [[कदम्ब वंश|कदम्ब]] और [[पल्लव वंश]] के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।  
'''चालुक्यों''' की उत्पत्ति का विषय अत्यंत ही विवादास्पद है। [[वराहमिहिर]] की 'बृहत्संहिता' में इन्हें 'शूलिक' जाति का माना गया है, जबकि [[पृथ्वीराजरासो]] में इनकी उत्पति [[माउंट आबू|आबू पर्वत]] पर किये गये यज्ञ के अग्निकुण्ड से बतायी गयी है। 'विक्रमांकदेवचरित' में इस वंश की उत्पत्ति भगवान ब्रह्म के चुलुक से बताई गई है। इतिहासविद् 'विन्सेण्ट ए. स्मिथ' इन्हें विदेशी मानते हैं। 'एफ. फ्लीट' तथा 'के.ए. नीलकण्ठ शास्त्री' ने इस वंश का नाम 'चलक्य' बताया है। 'आर.जी. भण्डारकरे' ने इस वंश का प्रारम्भिक नाम 'चालुक्य' का उल्लेख किया है। [[ह्वेनसांग]] ने चालुक्य नरेश [[पुलकेशी द्वितीय]] को क्षत्रिय कहा है। इस प्रकार चालुक्य नरेशों की वंश एवं उत्पत्ति का कोई अभिलेखीय साक्ष्य नहीं मिलता है।
==वातापी का चालुक्य वंश==
{{Main|चालुक्य वंश}}
वाकाटक वंश के राजा बड़े प्रतापी थे, और उन्होंने विदेशी [[कुषाण|कुषाणों]] की शक्ति का क्षय करने में बहुत अधिक कर्तृत्व प्रदर्शित किया था। इन राजाओं ने अपनी विजयों के उपलक्ष्य में अनेक [[अश्वमेध यज्ञ|अश्वमेध यज्ञों]] का भी अनुष्ठान किया। पाँचवीं सदी के प्रारम्भ में गुप्तों के उत्कर्ष के कारण इस वंश के राज्य की स्वतंत्र सत्ता का अन्त हुआ। कदम्ब वंश का राज्य उत्तरी कनारा बेलगाँव और धारवाड़ के प्रदेशों में था। प्रतापी गुप्त सम्राटों ने इसे भी गुप्त साम्राज्य की अधीनता में लाने में सफलता प्राप्त की थी। पल्लव वंश की राजधानी [[कांची]] (काञ्जीवरम) थी, और सम्राट [[समुद्रगुप्त]] ने उसकी भी विजय की थी। [[गुप्त साम्राज्य]] के क्षीण होने पर उत्तरी भारत के समान दक्षिणापथ में भी अनेक राजवंशों ने स्वतंत्रतापूर्वक शासन करना प्रारम्भ किया। दक्षिणापथ के इन राज्यों में [[चालुक्य वंश|चालुक्य]] और [[राष्ट्र्कूट वंश|राष्ट्रकूट वंशों]] के द्वारा स्थापित राज्य प्रधान थे। उनके अतिरिक्त [[देवगिरि के यादव]], वारंगल के [[काकतीय वंश|काकतीय]], कोंकण के शिलाहार, बनवासी के [[कदम्ब वंश|कदम्ब]], तलकाड के [[गंग वंश|गंग]] और द्वारसमुद्र के [[होयसल वंश|होयसल वंशों]] ने भी इस युग में दक्षिणापथ के विविध प्रदेशों पर शासन किया। जिस प्रकार उत्तरी भारत में विविध राजवंशों के प्रतापी व महत्वाकांक्षी राजा विजय यात्राएँ करने और अन्य राजाओं को जीतकर अपना उत्कर्ष करने के लिए तत्पर रहते थे, वही दशा दक्षिणापथ में भी थी।
 
#[[पुलकेशी प्रथम]]
#[[कीर्तिवर्मा प्रथम|कीर्तिवर्मा]]
#[[पुलकेशी द्वितीय]]
#[[विक्रमादित्य प्रथम]] (655--681)
#[[विनयादित्य]]
#[[विजयादित्य]]
#[[विक्रमादित्य द्वितीय]]
#[[कीर्तिवर्मा द्वितीय]]
==चालुक्य शक्ति का अन्त==
{{tocright}}
[[विक्रमादित्य द्वितीय]] के बाद 744 ई. के लगभग [[कीर्तिवर्मा द्वितीय]] विशाल चालुक्य साम्राज्य का स्वामी बना। पर वह अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित साम्राज्य को क़ायम रखने में असमर्थ रहा। [[दन्तिदुर्ग]] नामक राष्ट्रकूट नेता ने उसे परास्त कर [[महाराष्ट्र]] में एक नए राजवंश की नींव डाली, और धीरे-धीरे राष्ट्रकूटों का यह वंश इतना शक्तिशाली हो गया, कि चालुक्यों का अन्त कर दक्षिणापथ पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। चालुक्यों के राज्य का अन्त 753 ई. के लगभग हुआ। [[वातापी कर्नाटक|वातापी]] के चालुक्य राजा न केवल वीर और विजेता थे, अपितु उन्होंने साहित्य, वास्तुकला आदि के संरक्षण व संवर्धन की ओर भी अपना ध्यान दिया।


==कल्याणी का चालुक्य वंश==
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
राष्ट्रकूटों से पहले दक्षिणापथ में चालुक्यों का आधिपत्य था। उन्हीं को परास्त कर राष्ट्रकूटों ने अपनी शक्ति को स्थापित किया था। पर अन्तिम राष्ट्रकूट राजा कर्क का उच्छेद कर चालुक्यों ने एक बार फिर अपनी शक्ति का पुनरुद्धार किया। राष्ट्रकूटों के शासन काल में चालुक्यों का मूलोन्मूलन नहीं हो गया था। अपने अपकर्ष के काल में [[चालुक्य वंश]] के राजा राष्ट्रकूटों के सामन्त रूप में अपने क्षेत्र में निवास करते रहे थे। जिस राजा [[तैलप]] ने कर्क या करक को परास्त कर अपने वंश का उत्कर्ष किया, शुरू में उसकी स्थिति भी सामन्त की ही थी। राष्ट्रकूटों की निर्बलता से लाभ उठाकर तैलप ने न केवल अपने को स्वतंत्र कर लिया, अपितु शीघ्र ही सारे दक्षिणापथ पर अपना शासन स्थापित कर लिया। पहले चालुक्यवंश की राजधानी वातापी थी, पर इस नये चालुक्य वंश ने कल्याणी को राजधानी बनाकर अपनी शक्ति का विस्तार किया। इसीलिए ये कल्याणी के चालुक्य कहलाते हैं।
#[[तैल चालुक्य|तैलप]]
#[[सत्याश्रय]]
#[[विक्रमादित्य पंचम]]
#[[जयसिंह जगदेकमल्ल]]
#[[सोमेश्वर प्रथम आहवमल्ल]]
#[[सोमेश्वर द्वितीय भुवनैकमल्ल]]
#[[विक्रमादित्य षष्ठ]]
#[[सोमेश्वर तृतीय]]
==चालुक्य वंश का अन्त==
[[सोमेश्वर तृतीय]] के बाद कल्याणी के चालुक्य वंश का क्षय शुरू हो गया। 1138 ई. में सोमेश्वर की मृत्यु हो जाने पर उसका पुत्र जगदेकमल्ल द्वितीय राजा बना। इस राजा के शासन काल में चालुक्यों में निर्बलता आ गई। अन्हिलवाड़ा कुमारपाल (1143-1171) के जगदेकमल्ल के साथ अनेक युद्ध हुए, जिनमें कुमारपाल विजयी हुआ।
 
1151 ई. में जगदेकमल्ल की मृत्यु के बाद [[तैलप तृतीय|तैल]] ने कल्याणी का राजसिंहासन प्राप्त किया। उसका मंत्री व सेनापति विज्जल था, जो [[कलचुरि वंश]] का था। विज्जल इतना शक्तिशाली व्यक्ति था, कि उसने राजा तैल को अपने हाथों में कठपुतली के समान बना रखा था। बहुत से सामन्त उसके हाथों में थे। उनकी सहायता से 1156 ई. के लगभग विज्जल ने तैल को राज्यच्युत कर स्वयं कल्याणी की राजगद्दी पर अपना अधिकार कर लिया, और वासव का अपना मंत्री नियुक्त किया।
 
भारत के धार्मिक इतिहास में वासव का बहुत अधिक महत्व है। वह लिंगायत सम्प्रदाय का प्रवर्तक था। जिसका दक्षिणी भारत में बहुत प्रचार हुआ। विज्जल स्वयं जैन था, अतः राजा और मंत्री में विरोध उत्पन्न हो गया। इसके परिणामस्वरूप वासव ने विज्जल की हत्या कर दी। विज्जल के बाद उसके पुत्र सोविदेव ने राज्य प्राप्त किया, और वासव की शक्ति को अपने क़ाबू में लाने में सफलता प्राप्त की। धार्मिक विरोध के कारण विज्जल और सोविदेव के समय में जो अव्यवस्था उत्पन्न हो गई थी, चालुक्य राजा तैल के पुत्र सोमेश्वर चतुर्थ ने उससे लाभ उठाया, और 1183 ई. में सोविदेव को परास्त कर चालुक्य कुल के गौरव को फिर से स्थापित किया। पर चालुक्यों की यह शक्ति देर तक स्थिर नहीं रह सकी। विज्जल और सोविदेव के समय में कल्याणी के राज्य में जो अव्यवस्था उत्पन्न हो गई थी, उसके कारण बहुत से सामन्त व अधीनस्थ राजा स्वतंत्र हो गए, और अन्य अनेक राजवंशों के प्रतापी व महत्वकांक्षी राजाओं ने विजय यात्राएँ कर अपनी शक्ति का उत्कर्ष शुरू कर दिया। इन प्रतापी राजाओं में देवगिरि के यादव राजा भिल्लम का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। 1187 ई. में भिल्लम ने चालुक्य राजा [[सोमेश्वर चतुर्थ]] को परास्त कर कल्याणी पर अधिकार कर लिया, और इस प्रकार प्रतापी चालुक्य वंश का अन्त हुआ।
 
 
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
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{{भारत के राजवंश}}
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[[Category:नया पन्ना]]
{{चालुक्य साम्राज्य}}
[[Category:इतिहास_कोश]]
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[[Category:दक्षिण भारत के साम्राज्य]]
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13:21, 26 सितम्बर 2014 के समय का अवतरण

चालुक्यों की उत्पत्ति का विषय अत्यंत ही विवादास्पद है। वराहमिहिर की 'बृहत्संहिता' में इन्हें 'शूलिक' जाति का माना गया है, जबकि पृथ्वीराजरासो में इनकी उत्पति आबू पर्वत पर किये गये यज्ञ के अग्निकुण्ड से बतायी गयी है। 'विक्रमांकदेवचरित' में इस वंश की उत्पत्ति भगवान ब्रह्म के चुलुक से बताई गई है। इतिहासविद् 'विन्सेण्ट ए. स्मिथ' इन्हें विदेशी मानते हैं। 'एफ. फ्लीट' तथा 'के.ए. नीलकण्ठ शास्त्री' ने इस वंश का नाम 'चलक्य' बताया है। 'आर.जी. भण्डारकरे' ने इस वंश का प्रारम्भिक नाम 'चालुक्य' का उल्लेख किया है। ह्वेनसांग ने चालुक्य नरेश पुलकेशी द्वितीय को क्षत्रिय कहा है। इस प्रकार चालुक्य नरेशों की वंश एवं उत्पत्ति का कोई अभिलेखीय साक्ष्य नहीं मिलता है।


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