"कालिदास": अवतरणों में अंतर
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कालिदास विश्ववन्द्य कवि हैं। उनकी कविता के स्वर देशकाल की परिधि को लाँघ कर सार्वभौम बन कर गूंजते रहे हैं। इसके साथ ही वे इस देश की धरती से गहरे अनुराग को पूरी संवेदना के साथ व्यक्त करने वाले कवियों में भी अनन्य हैं। कालिदास के समय तक भारतीय चिन्तन परिपक्व और विकसित हो चुका था, षड्दर्शन तथा अवैदिक दर्शनों के मत-मतान्तर और सिद्धान्त परिणत रूप में सामने आ चुके थे। दूसरी ओर आख्यान-उपाख्यान और पौराणिक वाङमय का जन-जन में प्रचार था। [[वैदिक धर्म]] और [[दर्शन]] की पुन: स्थापना का भी अभूतपूर्व समुद्यम उनके समय में या उसके कुछ पहले हो चुका था। ज्योतिष, गणित, आयुर्वेद आदि विभिन्न विद्याओं का भी अच्छा विकास कालिदास के काल तक हो चुका था। कालिदास की कवि चेतना ने चिन्तन तथा ज्ञान-विज्ञान की इस सारी परम्परा, विकास को आत्मसात किया, अपने समकालीन समाज और जीवन को भी देखा-परखा और इन सबको उन्होंने अपनी कालजयी प्रतिभा के द्वारा ऐसे रूप में अभिव्यक्त किया, जो अपने अद्वितीय सौन्दर्य और हृदयावर्जकता के कारण युग-युग तक आकर्षक ही नहीं बना रहा, उसमें अर्थों और व्याख्याओं की भी सम्भावनाएं कभी चुकने को नहीं आतीं। | कालिदास विश्ववन्द्य कवि हैं। उनकी कविता के स्वर देशकाल की परिधि को लाँघ कर सार्वभौम बन कर गूंजते रहे हैं। इसके साथ ही वे इस देश की धरती से गहरे अनुराग को पूरी संवेदना के साथ व्यक्त करने वाले कवियों में भी अनन्य हैं। कालिदास के समय तक भारतीय चिन्तन परिपक्व और विकसित हो चुका था, षड्दर्शन तथा अवैदिक दर्शनों के मत-मतान्तर और सिद्धान्त परिणत रूप में सामने आ चुके थे। दूसरी ओर आख्यान-उपाख्यान और पौराणिक वाङमय का जन-जन में प्रचार था। [[वैदिक धर्म]] और [[दर्शन]] की पुन: स्थापना का भी अभूतपूर्व समुद्यम उनके समय में या उसके कुछ पहले हो चुका था। ज्योतिष, गणित, आयुर्वेद आदि विभिन्न विद्याओं का भी अच्छा विकास कालिदास के काल तक हो चुका था। कालिदास की कवि चेतना ने चिन्तन तथा ज्ञान-विज्ञान की इस सारी परम्परा, विकास को आत्मसात किया, अपने समकालीन समाज और जीवन को भी देखा-परखा और इन सबको उन्होंने अपनी कालजयी प्रतिभा के द्वारा ऐसे रूप में अभिव्यक्त किया, जो अपने अद्वितीय सौन्दर्य और हृदयावर्जकता के कारण युग-युग तक आकर्षक ही नहीं बना रहा, उसमें अर्थों और व्याख्याओं की भी सम्भावनाएं कभी चुकने को नहीं आतीं। | ||
;संसार के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार | ;संसार के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार | ||
कविकुल गुरु महाकवि कालिदास की गणना भारत के ही नहीं वरन संसार के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकारों में की जाती है। उन्होंने नाट्य, महाकाव्य तथा गीतिकाव्य के क्षेत्र में अपनी अदभुत रचनाशक्ति का प्रदर्शन कर अपनी एक अलग ही पहचान बनाई। जिस कृति के कारण कालिदास को सर्वाधिक प्रसिद्धि मिली, वह है उनका नाटक '[[अभिज्ञान शाकुन्तलम]]' जिसका विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उनके दूसरे नाटक '[[विक्रमोर्वशीय]]' तथा '[[मालविकाग्निमित्र]]' भी उत्कृष्ट नाट्य साहित्य के उदाहरण हैं। उनके केवल दो महाकाव्य उपलब्ध हैं - '[[रघुवंश]]' और '[[कुमारसंभव]]' पर वे ही उनकी कीर्ति पताका फहराने के लिए पर्याप्त हैं। | कविकुल गुरु महाकवि कालिदास की गणना भारत के ही नहीं वरन संसार के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकारों में की जाती है। उन्होंने नाट्य, महाकाव्य तथा गीतिकाव्य के क्षेत्र में अपनी अदभुत रचनाशक्ति का प्रदर्शन कर अपनी एक अलग ही पहचान बनाई। जिस कृति के कारण कालिदास को सर्वाधिक प्रसिद्धि मिली, वह है उनका नाटक '[[अभिज्ञान शाकुन्तलम]]' जिसका विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उनके दूसरे नाटक '[[विक्रमोर्वशीय]]' तथा '[[मालविकाग्निमित्र]]' भी उत्कृष्ट नाट्य साहित्य के उदाहरण हैं। उनके केवल दो महाकाव्य उपलब्ध हैं - '[[रघुवंश महाकाव्य|रघुवंश]]' और '[[कुमारसंभव]]' पर वे ही उनकी कीर्ति पताका फहराने के लिए पर्याप्त हैं। | ||
==कालिदास द्वारा शूरसेन जनपद का वर्णन== | ==कालिदास द्वारा शूरसेन जनपद का वर्णन== | ||
महाकवि कालिदास [[चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य]] के समकालीन माने जाते हैं। रघुवंश में कालिदास ने [[शूरसेन]] जनपद, [[मथुरा]], [[वृन्दावन]], [[गोवर्धन]] तथा [[यमुना नदी|यमुना]] का उल्लेख किया है इंदुमती के स्वयंवर में विभिन्न प्रदेशों से आये हुए राजाओं के साथ उन्होंने शूरसेन राज्य के अधिपति [[सुषेण (शूरसेन नरेश)|सुषेण]] का भी वर्णन किया है <ref>रघुवंश,सर्ग 6,45-51</ref>। [[मगध]], अंसु, [[अवंती]], अनूप, [[कलिंग]] और [[अयोध्या]] के बड़े राजाओं के बीच शूरसेन - नरेश की गणना की गई है। कालिदास ने जिन विशेषणों का प्रयोग सुषेण के लिए किया है उन्हें देखने से ज्ञात होता है कि वह एक प्रतापी शासक था, जिसकी कीर्ति स्वर्ग के [[देवता]] भी गाते थे और जिसने अपने शुद्ध आचरण से माता-पिता दोनों के वंशों को प्रकाशित कर दिया था। <ref>सा शूरसेनाधिपतिं सुषेणमुद्दिश्य लोकन्तरगीतकीर्तिम्।</ref> इसके आगे सुषेण की विधिवत [[यज्ञ]] करने वाला, शांत प्रकृति का शासक बताया गया है, जिसके तेज़ से शत्रु लोग घबराते थे। यहाँ मथुरा और यमुना की चर्चा करते हुए कालिदास ने लिखा है कि जब राजा सुषेण अपनी प्रेयसियों के साथ मथुरा में यमुना-विहार करते थे तब यमुना-जल का कृष्णवर्ण [[गंगा नदी|गंगा]]की उज्ज्वल लहरों-सा प्रतीत होता था <ref>यस्यावरोधस्तनचन्दनानां प्रक्षालनाद्वारि-विहारकाले</ref>। यहाँ मथुरा का उल्लेख करते समय संभवत: कालिदास को समय का ध्यान नहीं रहा। इंदुमती (जिसका विवाह अयोध्या-नरेश अज के साथ हुआ) के समय में मथुरा नगरी नहीं थी। वह तो अज की कई पीढ़ी बाद [[शत्रुघ्न]] के द्वारा बसाई गई । टीकाकार मल्लिनाथ के उक्त [[श्लोक]] की टीका करते समय ठीक ही इस संबंध में आपत्ति की है <ref>कालिन्दीतीरे मथुरा लवणासुरवधकाले शत्रुघ्नेन निर्म्मास्यत इति वक्ष्यति तत्कथमधुना मथुरासम्भव, इति चिन्त्यम् ।</ref>। कालिदास ने अन्यत्र शत्रुघ्न के द्वारा यमुना-तट पर भव्य मथुरा नगरी के निर्माण का कथन किया है ।<ref> | महाकवि कालिदास [[चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य]] के समकालीन माने जाते हैं। रघुवंश में कालिदास ने [[शूरसेन]] जनपद, [[मथुरा]], [[वृन्दावन]], [[गोवर्धन]] तथा [[यमुना नदी|यमुना]] का उल्लेख किया है इंदुमती के स्वयंवर में विभिन्न प्रदेशों से आये हुए राजाओं के साथ उन्होंने शूरसेन राज्य के अधिपति [[सुषेण (शूरसेन नरेश)|सुषेण]] का भी वर्णन किया है <ref>रघुवंश,सर्ग 6,45-51</ref>। [[मगध]], अंसु, [[अवंती]], अनूप, [[कलिंग]] और [[अयोध्या]] के बड़े राजाओं के बीच शूरसेन - नरेश की गणना की गई है। कालिदास ने जिन विशेषणों का प्रयोग सुषेण के लिए किया है उन्हें देखने से ज्ञात होता है कि वह एक प्रतापी शासक था, जिसकी कीर्ति स्वर्ग के [[देवता]] भी गाते थे और जिसने अपने शुद्ध आचरण से माता-पिता दोनों के वंशों को प्रकाशित कर दिया था। <ref>सा शूरसेनाधिपतिं सुषेणमुद्दिश्य लोकन्तरगीतकीर्तिम्।</ref> इसके आगे सुषेण की विधिवत [[यज्ञ]] करने वाला, शांत प्रकृति का शासक बताया गया है, जिसके तेज़ से शत्रु लोग घबराते थे। यहाँ मथुरा और यमुना की चर्चा करते हुए कालिदास ने लिखा है कि जब राजा सुषेण अपनी प्रेयसियों के साथ मथुरा में यमुना-विहार करते थे तब यमुना-जल का कृष्णवर्ण [[गंगा नदी|गंगा]]की उज्ज्वल लहरों-सा प्रतीत होता था <ref>यस्यावरोधस्तनचन्दनानां प्रक्षालनाद्वारि-विहारकाले</ref>। यहाँ मथुरा का उल्लेख करते समय संभवत: कालिदास को समय का ध्यान नहीं रहा। इंदुमती (जिसका विवाह अयोध्या-नरेश अज के साथ हुआ) के समय में मथुरा नगरी नहीं थी। वह तो अज की कई पीढ़ी बाद [[शत्रुघ्न]] के द्वारा बसाई गई । टीकाकार मल्लिनाथ के उक्त [[श्लोक]] की टीका करते समय ठीक ही इस संबंध में आपत्ति की है <ref>कालिन्दीतीरे मथुरा लवणासुरवधकाले शत्रुघ्नेन निर्म्मास्यत इति वक्ष्यति तत्कथमधुना मथुरासम्भव, इति चिन्त्यम् ।</ref>। कालिदास ने अन्यत्र शत्रुघ्न के द्वारा यमुना-तट पर भव्य मथुरा नगरी के निर्माण का कथन किया है ।<ref> | ||
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कालिदास को सर्वाधिक प्रसिद्धि नाटक '[[अभिज्ञान शाकुन्तलम]]' से मिली है जिसका विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उनके दूसरे नाटक '[[विक्रमोर्वशीय]]' तथा '[[मालविकाग्निमित्र]]' भी उत्कृष्ट नाट्य साहित्य के उदाहरण हैं। उनके केवल दो महाकाव्य उपलब्ध हैं - '[[रघुवंश]]' और '[[कुमारसंभव]]' पर वे ही उनकी कीर्ति पताका फहराने के लिए पर्याप्त हैं। | कालिदास को सर्वाधिक प्रसिद्धि नाटक '[[अभिज्ञान शाकुन्तलम]]' से मिली है जिसका विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उनके दूसरे नाटक '[[विक्रमोर्वशीय]]' तथा '[[मालविकाग्निमित्र]]' भी उत्कृष्ट नाट्य साहित्य के उदाहरण हैं। उनके केवल दो महाकाव्य उपलब्ध हैं - '[[रघुवंश महाकाव्य|रघुवंश]]' और '[[कुमारसंभव]]' पर वे ही उनकी कीर्ति पताका फहराने के लिए पर्याप्त हैं। | ||
;कालिदास की काव्यकला | ;कालिदास की काव्यकला | ||
काव्यकला की दृष्टि से कालिदास का 'मेघदूत' अतुलनीय है। इसकी सुन्दर सरस [[भाषा]] प्रेम और विरह की अभिव्यक्ति तथा प्रकृति से पाठक मुग्ध और भावभिवोर हो उठते हैं। 'मेघदूत' का भी विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उनका 'ऋतु संहार' प्रत्येक ऋतु के प्रकृति चित्रण के लिए ही लिखा गया है। | काव्यकला की दृष्टि से कालिदास का 'मेघदूत' अतुलनीय है। इसकी सुन्दर सरस [[भाषा]] प्रेम और विरह की अभिव्यक्ति तथा प्रकृति से पाठक मुग्ध और भावभिवोर हो उठते हैं। 'मेघदूत' का भी विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उनका 'ऋतु संहार' प्रत्येक ऋतु के प्रकृति चित्रण के लिए ही लिखा गया है। |
10:13, 25 जुलाई 2011 का अवतरण
कालिदास
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जन्म | 150 वर्ष ई. पू. से 450 ईसवी के मध्य |
जन्म भूमि | उत्तर प्रदेश |
पति/पत्नी | विद्योत्तमा |
कर्म भूमि | संस्कृत कवि |
कर्म-क्षेत्र | श्रृंगार रस कवि |
मुख्य रचनाएँ | नाटक- अभिज्ञान शाकुन्तलम्, विक्रमोवशीर्यम् और मालविकाग्निमित्रम्, महाकाव्य- रघुवंशम् और कुमारसंभवम्, खण्डकाव्य- मेघदूतम् और ऋतुसंहार |
विषय | श्रृंगार रस |
भाषा | संस्कृत |
पुरस्कार-उपाधि | महाकवि |
विशेष योगदान | संस्कृत साहित्य |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
संस्कृत के प्रतिनिधि साहित्यकार
महाकवि कालिदास कब हुए और कितने हुए इस पर विवाद होता रहा है। विद्वानों के अनेक मत हैं। 150 वर्ष ई पू से 450 ईस्वी तक कालिदास हुए होंगे ऐसा माना जाता है। नये अनुसंधान से ज्ञात हुआ है कि इनका काल गुप्त काल रहा होगा। रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों की रचना के पश्चात संस्कृत साहित्य के आकाश में अनेक कवि - नक्षत्रों ने अपनी प्रभा प्रकट की, पर नक्षत्र - तारा - ग्रहसंकुला होते हुए भी कालिदास - चन्द्र के द्वारा ही भारतीय साहित्य की परम्परा सचमुच ज्योतिष्मयी कही जा सकती है। माधुर्य और प्रसाद का परम परिपाक, भाव की गम्भीरता तथा रसनिर्झरिणी का अमन्द प्रवाह, पदों की स्निग्धता और वैदिक काव्य परम्परा की महनीयता के साथ-साथ आर्ष काव्य की जीवनदृष्टि और गौरव-इन सबका ललित सन्निवेश कालिदास की कविता में हुआ है।
- सार्वभौमिक कवि
कालिदास विश्ववन्द्य कवि हैं। उनकी कविता के स्वर देशकाल की परिधि को लाँघ कर सार्वभौम बन कर गूंजते रहे हैं। इसके साथ ही वे इस देश की धरती से गहरे अनुराग को पूरी संवेदना के साथ व्यक्त करने वाले कवियों में भी अनन्य हैं। कालिदास के समय तक भारतीय चिन्तन परिपक्व और विकसित हो चुका था, षड्दर्शन तथा अवैदिक दर्शनों के मत-मतान्तर और सिद्धान्त परिणत रूप में सामने आ चुके थे। दूसरी ओर आख्यान-उपाख्यान और पौराणिक वाङमय का जन-जन में प्रचार था। वैदिक धर्म और दर्शन की पुन: स्थापना का भी अभूतपूर्व समुद्यम उनके समय में या उसके कुछ पहले हो चुका था। ज्योतिष, गणित, आयुर्वेद आदि विभिन्न विद्याओं का भी अच्छा विकास कालिदास के काल तक हो चुका था। कालिदास की कवि चेतना ने चिन्तन तथा ज्ञान-विज्ञान की इस सारी परम्परा, विकास को आत्मसात किया, अपने समकालीन समाज और जीवन को भी देखा-परखा और इन सबको उन्होंने अपनी कालजयी प्रतिभा के द्वारा ऐसे रूप में अभिव्यक्त किया, जो अपने अद्वितीय सौन्दर्य और हृदयावर्जकता के कारण युग-युग तक आकर्षक ही नहीं बना रहा, उसमें अर्थों और व्याख्याओं की भी सम्भावनाएं कभी चुकने को नहीं आतीं।
- संसार के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार
कविकुल गुरु महाकवि कालिदास की गणना भारत के ही नहीं वरन संसार के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकारों में की जाती है। उन्होंने नाट्य, महाकाव्य तथा गीतिकाव्य के क्षेत्र में अपनी अदभुत रचनाशक्ति का प्रदर्शन कर अपनी एक अलग ही पहचान बनाई। जिस कृति के कारण कालिदास को सर्वाधिक प्रसिद्धि मिली, वह है उनका नाटक 'अभिज्ञान शाकुन्तलम' जिसका विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उनके दूसरे नाटक 'विक्रमोर्वशीय' तथा 'मालविकाग्निमित्र' भी उत्कृष्ट नाट्य साहित्य के उदाहरण हैं। उनके केवल दो महाकाव्य उपलब्ध हैं - 'रघुवंश' और 'कुमारसंभव' पर वे ही उनकी कीर्ति पताका फहराने के लिए पर्याप्त हैं।
कालिदास द्वारा शूरसेन जनपद का वर्णन
महाकवि कालिदास चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समकालीन माने जाते हैं। रघुवंश में कालिदास ने शूरसेन जनपद, मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन तथा यमुना का उल्लेख किया है इंदुमती के स्वयंवर में विभिन्न प्रदेशों से आये हुए राजाओं के साथ उन्होंने शूरसेन राज्य के अधिपति सुषेण का भी वर्णन किया है [1]। मगध, अंसु, अवंती, अनूप, कलिंग और अयोध्या के बड़े राजाओं के बीच शूरसेन - नरेश की गणना की गई है। कालिदास ने जिन विशेषणों का प्रयोग सुषेण के लिए किया है उन्हें देखने से ज्ञात होता है कि वह एक प्रतापी शासक था, जिसकी कीर्ति स्वर्ग के देवता भी गाते थे और जिसने अपने शुद्ध आचरण से माता-पिता दोनों के वंशों को प्रकाशित कर दिया था। [2] इसके आगे सुषेण की विधिवत यज्ञ करने वाला, शांत प्रकृति का शासक बताया गया है, जिसके तेज़ से शत्रु लोग घबराते थे। यहाँ मथुरा और यमुना की चर्चा करते हुए कालिदास ने लिखा है कि जब राजा सुषेण अपनी प्रेयसियों के साथ मथुरा में यमुना-विहार करते थे तब यमुना-जल का कृष्णवर्ण गंगाकी उज्ज्वल लहरों-सा प्रतीत होता था [3]। यहाँ मथुरा का उल्लेख करते समय संभवत: कालिदास को समय का ध्यान नहीं रहा। इंदुमती (जिसका विवाह अयोध्या-नरेश अज के साथ हुआ) के समय में मथुरा नगरी नहीं थी। वह तो अज की कई पीढ़ी बाद शत्रुघ्न के द्वारा बसाई गई । टीकाकार मल्लिनाथ के उक्त श्लोक की टीका करते समय ठीक ही इस संबंध में आपत्ति की है [4]। कालिदास ने अन्यत्र शत्रुघ्न के द्वारा यमुना-तट पर भव्य मथुरा नगरी के निर्माण का कथन किया है ।[5] शत्रुघ्न के पुत्रों शूरसेन और सुबाहु का क्रमश: मथुरा तथा विदिशा के अधिकारी होने का भी वर्णन रघुवंश में मिलता है।[6]
वृन्दावन और गोवर्धन का वर्णन
कालिदास द्वारा उल्लिखित शूरसेन के अधिपति सुषेण का नाम काल्पनिक प्रतीत होता है। पौराणिक सूचियों या शिलालेखों आदि में मथुरा के किसी सुषेण राजा का नाम नहीं मिलता। कालिदास ने उन्हें 'नीप-वंश' का कहा है [7]। परंतु यह बात ठीक नहीं जँचती। नीप दक्षिण पंचाल के एक राजा का नाम था, जो मथुरा के यादव-राजा भीम सात्वत के समकालीन थे। उनके वंशज नीपवंशी कहलाये। कालिदास ने वृन्दावन और गोवर्धन का भी वर्णन किया है। वृन्दावन के वर्णन से ज्ञात होता है कि कालिदास के समय में इस वन का सौंदर्य बहुत प्रसिद्ध था और यहाँ अनेक प्रकार के फूल वाले लता-वृक्ष विद्यमान थे।
- कालिदास ने वृन्दावन की उपमा कुबेर के चैत्ररथ नाम उद्यान से दी है। [8]
- गोवर्धन की शोभा का वर्णन करते हुए महाकवि कहते है-'हे इंदुमति, तुम गोवर्धन पर्वत के उन शिलातलों पर बैठा करना जो वर्षा के जल से धोये जाते हैं। तथा जिनसें शिलाजीत जैसी सुगंधि निकलती रहती है। वहाँ तुम गोवर्धन की रमणीक कन्दराओं में वर्षा ऋतु में मयूरों का नृत्य देखा करना।[9] कालिदास के उपयुर्क्त वर्णनों से तत्कालीन शूरसेन जनपद की महत्त्वपूर्ण स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। आर्यावर्त के प्रसिद्ध राजवंशों के साथ उन्होंने शूरसेन के अधिपति का उल्लेख किया है। 'सुषेण' नाम काल्पनिक होते हुए भी कहा जा सकता है कि शूरसेन-वंश की गौरवपूर्ण परंपरा ई. पाँचवी शती तक अक्षुण्ण थी। वृन्दावन, गोवर्धन तथा यमुना संबंधी वर्णनों से ब्रज की तत्कालीन सुषमा भी का अनुमान लगाया जा सकता है। कालिदास के नाटक `मालविकाग्निमित्र' से ज्ञात होता है कि सिंधु नदी के तट पर अग्निमित्र के लड़के वसुमित्र की मुठभेड़ यवनों से हुई और भीषण संग्राम के बाद यवनों की पराजय हुई। यवनों के इस आक्रमण का नेता सम्भवत: मिनेंडर था। इस राजा का नाम प्राचीन बौद्ध साहित्य में 'मिलिंद' मिलता है।
महान कवि और नाटककार
कालिदास संस्कृत भाषा के सबसे महान कवि और नाटककार थे। कालिदास नाम का शाब्दिक अर्थ है, 'काली का सेवक'। कालिदास शिव के भक्त थे। उन्होंने भारत की पौराणिक कथाओं और दर्शन को आधार बनाकर रचनाएं की। कलिदास अपनी अलंकार युक्त सुंदर सरल और मधुर भाषा के लिये विशेष रूप से जाने जाते हैं। उनके ऋतु वर्णन अद्वितीय हैं और उनकी उपमाएं बेमिसाल। संगीत उनके साहित्य का प्रमुख अंग है और रस का सृजन करने में उनकी कोई उपमा नहीं। उन्होंने अपने श्रृंगार रस प्रधान साहित्य में भी साहित्यिक सौन्दर्य के साथ साथ आदर्शवादी परंपरा और नैतिक मूल्यों का समुचित ध्यान रखा है। उनका नाम अमर है और उनका स्थान वाल्मीकि और व्यास की परम्परा में है। कालिदास शक्लो - सूरत से सुंदर थे और विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों में एक थे । लेकिन कहा जाता है कि प्रारंभिक जीवन में कालिदास अनपढ़ और मूर्ख थे । कालिदास की शादी विद्योत्तमा नाम की राजकुमारी से हुई ।
- कालिदास संस्कृत साहित्य और भारतीय प्रतिभा के उज्ज्वल नक्षत्र हैं। कालिदास के जीवनवृत्त के विषय में अनेक मत प्रचलित हैं। कुछ लोग उन्हें बंगाली मानते हैं। कुछ का कहना है, वे कश्मीरी थे। कुछ उन्हें उत्तर प्रदेश का भी बताते हैं। परंतु बहुसंख्यक विद्वानों की धारणा है कि वे मालवा के निवासी और उज्जयिनी के सम्राट विक्रमादित्य के नव-रत्नों में से एक थे।
- विक्रमादित्य का समय ईसा से 57 वर्ष पहले माना जाता है। जो विक्रमी संवत का आरंभ भी है। इस वर्ष विक्रमादित्य ने भारत पर आक्रमण करनेवाले शकों को पराजित किया था।
- कालिदास के संबंध में यह किंवदंती भी प्रचलित है कि वे पहले निपट मूर्ख थे। कुछ धूर्त पंडितों ने षड्यंत्र करके उनका विवाह विद्योत्तमा नाम की परम विदुषी से करा दिया। पता लगने पर विद्योत्तमा ने कालिदास को घर से निकाल दिया। इस पर दुखी कालिदास ने भगवती की आराधना की और समस्त विद्याओं का ज्ञान अर्जित कर लिया।
रचनायें
कालिदास रचित ग्रंथों की तालिका बहुत लंबी है। पर विद्वानों का मत है कि इस नाम के और भी कवि हुए हैं जिनकी ये रचनाएं हो सकती हैं। विक्रमादित्य के नवरत्न कालिदास की सात रचनाएं प्रसिद्ध है।
- इनमें से चार काव्य-ग्रंथ हैं - रघुवंश, कुमारसंभव, मेघदूत और ऋतुसंहार।
- तीन नाटक हैं - अभिज्ञान शाकुंतलम्, मालविकाग्निमित्र और विक्रमोर्वशीय। इस रचनाओं के कारण कालिदास की गणना विश्व के सर्वश्रेष्ठ कवियों और नाटककारों में होती है। उनकी रचनाओं का साहित्य के साथ-साथ ऐतिहासिक महत्त्व भी है। संस्कृत साहित्य के 6 काव्य ग्रंथों की गणना सर्वोपरि की जाती है।
- इनमें अकेले कालिदास के तीन ग्रंथ - रघुवंश, कुमारसंभव और मेघदूत है। ये 'लघुत्रयी' के नाम से भी जाने जाते हैं।
- शेष तीन में भारवि कृत किरातर्जुनीय, माघ कृत शिशुपाल वध और श्रीहर्ष कृत नैषधीयचरित की रचनाएं आती हैं।
- इसके अतिरिक्त अनेक अन्य काव्यों के साथ भी कालिदास का नाम जोड़ा जाता रहा है- जैसे श्रृङ्गारतिलक, श्यामलादण्डक आदि। ये काव्य या तो कालिदास नामधारी परवर्ती कवियों ने लिखे अथवा परवर्ती कवियों ने अपना काव्य प्रसिद्ध कराने की इच्छा से उसके साथ कालिदास का नाम जोड़ दिया।
- पार्वती का सौंदर्य वर्णन
अपने कुमारसम्भव महाकाव्य में पार्वती के रूप का वर्णन करते हुए महाकवि कालिदास ने लिखा है कि संसार में जितने भी सुन्दर उपमान हो सकते हैं उनका समुच्चय इकट्ठा करके, फिर उसे यथास्थान संयोजित करके विधाता ने बड़े जतन से उस पार्वती को गढा था, क्योंकि वे सृष्टि का सारा सौन्दर्य एक स्थान पर देखना चाहते थे।[10]वास्तव में पार्वती के सम्बन्ध में कवि की यह उक्ति स्वयं उसकी अपनी कविता पर भी उतनी ही खरी उतरती है। 'एकस्थसौन्दर्यदिदृक्षा' उसकी कविता का मूल प्रेरक सूत्र है, जो सिसृक्षा को स्फूर्त करता है। इस सिसृक्षा के द्वारा कवि ने अपनी अद्वैत चैतन्य रूप प्रतिमा को विभिन्न रमणीय मूर्तियों में बाँट दिया है। जगत् की सृष्टि के सम्बन्ध में इस सिसृक्षा को अन्तर्निहित मूल तत्त्व बताकर महाकवि ने अपनी काव्यसृष्टि की भी सांकेतिक व्याख्या की है।[11]
कालिदास की प्रमुख रचनाएं
कालिदास को सर्वाधिक प्रसिद्धि नाटक 'अभिज्ञान शाकुन्तलम' से मिली है जिसका विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उनके दूसरे नाटक 'विक्रमोर्वशीय' तथा 'मालविकाग्निमित्र' भी उत्कृष्ट नाट्य साहित्य के उदाहरण हैं। उनके केवल दो महाकाव्य उपलब्ध हैं - 'रघुवंश' और 'कुमारसंभव' पर वे ही उनकी कीर्ति पताका फहराने के लिए पर्याप्त हैं।
- कालिदास की काव्यकला
काव्यकला की दृष्टि से कालिदास का 'मेघदूत' अतुलनीय है। इसकी सुन्दर सरस भाषा प्रेम और विरह की अभिव्यक्ति तथा प्रकृति से पाठक मुग्ध और भावभिवोर हो उठते हैं। 'मेघदूत' का भी विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उनका 'ऋतु संहार' प्रत्येक ऋतु के प्रकृति चित्रण के लिए ही लिखा गया है।
समय
कालिदास के काल के विषय में काफ़ी मतभेद हैं। पर अब विद्वानों की सहमति से उनका काल प्रथम शताब्दी ई. पू. माना जाता है। इस मान्यता का आधार यह है कि उज्जयिनी के राजा विक्रमादित्य के शासन काल में कालिदास का रचनाकाल सम्बद्ध है।
नाटक-
- अभिज्ञान शाकुन्तलम्,
- विक्रमोर्वशीयम् और
- मालविकाग्निमित्रम्।
महाकाव्य-
- रघुवंशम् और
- कुमारसंभवम्
खण्डकाव्य-
- मेघदूतम् और
- ऋतुसंहार
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रघुवंश,सर्ग 6,45-51
- ↑ सा शूरसेनाधिपतिं सुषेणमुद्दिश्य लोकन्तरगीतकीर्तिम्।
- ↑ यस्यावरोधस्तनचन्दनानां प्रक्षालनाद्वारि-विहारकाले
- ↑ कालिन्दीतीरे मथुरा लवणासुरवधकाले शत्रुघ्नेन निर्म्मास्यत इति वक्ष्यति तत्कथमधुना मथुरासम्भव, इति चिन्त्यम् ।
- ↑
"उपकूलं स कालिन्द्याः पुरी पौरुषभूषणः ।
निर्ममे निर्ममोसSर्थेषु मथुरां मधुराकृतिः ।।
या सौराज्यप्रकाशाभिर्वभौ पौरविभूतिभिः ।
स्वर्गाभिष्यन्दवमनं कृत्वेवोपनिवेशिता ।।" (रघु. 15,28-29) - ↑ "शत्रुघातिनी शत्रुघ्न सुबाहौ च बहुश्रुते ।
मथुराविदिशे सून्वोर्निदधे पूर्वजोत्सुकः ।।"
(रघु. 15,36) - ↑ रघुवंश, 6,46
- ↑ "संभाव्य भर्तारममुं युवानं मृदुप्रवालोत्तर पुष्पशय्ये ।
वृन्दावने चैत्ररथादनूने निर्विश्यतां सुन्दरि यौवनश्रीः ।।"
(रघु. 6,50) - ↑ 'अध्यास्य चाम्भः पृषतोक्षितानि शैलेयगन्धीनि शिलातलानि ।
कलापिनां प्रावृषि प्श्य नृत्यं कान्तासु गोवर्धनकन्दरासु ।।"
(रघु., 6,51) - ↑ सर्वोपमाद्रव्यसमुच्चयेन यथा प्रदेशं विनिवेशितेन। सा निर्मिता विश्वसृजा प्रयत्नादेकस्थसौन्दर्यदिदृक्षयेव॥ - कुमारसम्भव, 1.49
- ↑ स्त्रीपुंसावात्मभागौ ते भिन्न्मूर्ते: सिसृक्षया - कुमारसम्भव 2|7
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