"पंचास्तिकाय मीमांसा -जैन दर्शन": अवतरणों में अंतर
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[[जैन दर्शन]] में उक्त द्रव्य, [[तत्त्व]] और पदार्थ के अलावा अस्तिकायों का निरूपण किया गया है। कालद्रव्य को छोड़कर शेष पांचों द्रव्य (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और जीव) अस्तिकाय हैं<ref>द्रव्य सं. गा. 23, 24, 25</ref> क्योंकि ये 'हैं' इससे इन्हें 'अस्ति' ऐसी [[संज्ञा]] दी गई है और काय (शरीर) की तरह बहुत प्रदेशों वाले हैं, इसलिए ये 'काय' हैं। इस तरह ये पांचों द्रव्य 'अस्ति' और 'काय' दोनों होने से 'अस्तिकाय' कहे जाते हैं। पर कालद्रव्य 'अस्ति' सत्तावान होते हुए भी 'काय' (बहुत प्रदेशों वाला) नहीं है। उसके मात्र एक ही प्रदेश हैं। इसका कारण यह है कि उसे एक-एक अणुरूप माना गया है और वे अणुरूप काल द्रव्य असंख्यात हैं, क्योंकि वे लोकाकाश के, जो असंख्यात प्रदेशों वाला है, एक-एक प्रदेश पर एक-एक जुदे-जुदे रत्नों की राशि की तरह अवस्थित हैं। जब कालद्रव्य अणुरूप है तो उसका एक ही प्रदेश है इससे अधिक नहीं। अन्य पाँचों द्रव्यों में प्रदेश बाहुल्य है, इसी से उन्हें 'अस्तिकाय' कहा गया है और कालद्रव्य को अनस्तिकाय। | [[जैन दर्शन और उसका उद्देश्य|जैन दर्शन]] में उक्त द्रव्य, [[तत्त्व]] और पदार्थ के अलावा अस्तिकायों का निरूपण किया गया है। कालद्रव्य को छोड़कर शेष पांचों द्रव्य (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और जीव) अस्तिकाय हैं<ref>द्रव्य सं. गा. 23, 24, 25</ref> क्योंकि ये 'हैं' इससे इन्हें 'अस्ति' ऐसी [[संज्ञा]] दी गई है और काय (शरीर) की तरह बहुत प्रदेशों वाले हैं, इसलिए ये 'काय' हैं। इस तरह ये पांचों द्रव्य 'अस्ति' और 'काय' दोनों होने से 'अस्तिकाय' कहे जाते हैं। पर कालद्रव्य 'अस्ति' सत्तावान होते हुए भी 'काय' (बहुत प्रदेशों वाला) नहीं है। उसके मात्र एक ही प्रदेश हैं। इसका कारण यह है कि उसे एक-एक अणुरूप माना गया है और वे अणुरूप काल द्रव्य असंख्यात हैं, क्योंकि वे लोकाकाश के, जो असंख्यात प्रदेशों वाला है, एक-एक प्रदेश पर एक-एक जुदे-जुदे रत्नों की राशि की तरह अवस्थित हैं। जब कालद्रव्य अणुरूप है तो उसका एक ही प्रदेश है इससे अधिक नहीं। अन्य पाँचों द्रव्यों में प्रदेश बाहुल्य है, इसी से उन्हें 'अस्तिकाय' कहा गया है और कालद्रव्य को अनस्तिकाय। | ||
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12:44, 22 अगस्त 2011 के समय का अवतरण
जैन दर्शन में उक्त द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ के अलावा अस्तिकायों का निरूपण किया गया है। कालद्रव्य को छोड़कर शेष पांचों द्रव्य (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और जीव) अस्तिकाय हैं[1] क्योंकि ये 'हैं' इससे इन्हें 'अस्ति' ऐसी संज्ञा दी गई है और काय (शरीर) की तरह बहुत प्रदेशों वाले हैं, इसलिए ये 'काय' हैं। इस तरह ये पांचों द्रव्य 'अस्ति' और 'काय' दोनों होने से 'अस्तिकाय' कहे जाते हैं। पर कालद्रव्य 'अस्ति' सत्तावान होते हुए भी 'काय' (बहुत प्रदेशों वाला) नहीं है। उसके मात्र एक ही प्रदेश हैं। इसका कारण यह है कि उसे एक-एक अणुरूप माना गया है और वे अणुरूप काल द्रव्य असंख्यात हैं, क्योंकि वे लोकाकाश के, जो असंख्यात प्रदेशों वाला है, एक-एक प्रदेश पर एक-एक जुदे-जुदे रत्नों की राशि की तरह अवस्थित हैं। जब कालद्रव्य अणुरूप है तो उसका एक ही प्रदेश है इससे अधिक नहीं। अन्य पाँचों द्रव्यों में प्रदेश बाहुल्य है, इसी से उन्हें 'अस्तिकाय' कहा गया है और कालद्रव्य को अनस्तिकाय।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ द्रव्य सं. गा. 23, 24, 25
बाहरी कड़ियाँ
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