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हिन्दी और बांग्ला फ़िल्मों में सचिन देव बर्मन ऐसे संगीतकार थे जिनके गीतों में लोकधुनों, शास्त्रीय और रवीन्द्र संगीत का स्पर्श था, वहीं एस. डी. बर्मन पाश्चात्य संगीत का भी बेहतरीन मिश्रण करते थे।<ref name="आज तक">{{cite web |url=http://aajtak.intoday.in/content_mail.php?option=com_content&name=print&id=40423 |title=बर्मन दा |accessmonthday=[[24 अक्टूबर]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=आज तक |language=[[हिन्दी]] }}</ref>   
हिन्दी और बांग्ला फ़िल्मों में सचिन देव बर्मन ऐसे संगीतकार थे जिनके गीतों में लोकधुनों, शास्त्रीय और रवीन्द्र संगीत का स्पर्श था, वहीं एस. डी. बर्मन पाश्चात्य संगीत का भी बेहतरीन मिश्रण करते थे।<ref name="आज तक">{{cite web |url=http://aajtak.intoday.in/content_mail.php?option=com_content&name=print&id=40423 |title=बर्मन दा |accessmonthday=[[24 अक्टूबर]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=आज तक |language=[[हिन्दी]] }}</ref>   
==कला जगत के क्षेत्र में प्रवेश==
==कला जगत के क्षेत्र में प्रवेश==
बर्मन ने अपना कॅरियर [[1930]] के दशक के मध्य में कलकत्ता में [[संगीत]] निर्देशक के रूप में शिरू किया। एक गायक के रूप में उनकी पहली रिकॉर्डिंग [[पश्चिम बंगाल|बंगाल]] के क्रांतिकारी संगीतज्ञ [[कवि]] क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम की एक रचना थी। इसके बाद वर्षों तक दोनों का साथ बना रहा। [[1944]] में मुंबई आ गए और फ़िल्मों की गतिमान छवियों के प्रति असाधारण संवेदनशीलता के साथ एक अभिनव रचनाकार के रूप में स्वयं को शीघ्र ही स्थापित कर लिया। उनका संगीत दृश्यों की सशक्तता बढ़ाया था, जैसा कि ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है में हुआ। यह गीत प्यासा फ़िल्म में गुरुदत्त पर फ़िल्माया गया था।
बर्मन ने अपना कॅरियर [[1930]] के दशक के मध्य में कलकत्ता में [[संगीत]] निर्देशक के रूप में शुरू किया। एक गायक के रूप में उनकी पहली रिकॉर्डिंग [[पश्चिम बंगाल|बंगाल]] के क्रांतिकारी संगीतज्ञ [[कवि]] क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम की एक रचना थी। इसके बाद वर्षों तक दोनों का साथ बना रहा। [[1944]] में मुंबई आ गए और फ़िल्मों की गतिमान छवियों के प्रति असाधारण संवेदनशीलता के साथ एक अभिनव रचनाकार के रूप में स्वयं को शीघ्र ही स्थापित कर लिया। उनका संगीत दृश्यों की सशक्तता बढ़ाया था, जैसा कि ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है में हुआ। यह गीत प्यासा फ़िल्म में गुरुदत्त पर फ़िल्माया गया था।


==फ़िल्मी सफर==
==फ़िल्मी सफर==

05:48, 28 अक्टूबर 2015 का अवतरण

सचिन देव बर्मन
पूरा नाम सचिन देव बर्मन
अन्य नाम बर्मन दा
जन्म 1 अक्टूबर, 1906
जन्म भूमि त्रिपुरा, बांग्लादेश
मृत्यु 31 अक्टूबर, 1975
मृत्यु स्थान मुंबई
अभिभावक नबद्वीप चंद्र देव बर्मन, निर्मला देवी
पति/पत्नी गायिका मीरा
संतान राहुल देव बर्मन
कर्म भूमि मुंबई
कर्म-क्षेत्र संगीतकार और गायक
मुख्य फ़िल्में 'मशाल', 'प्यासा', 'गाइड', 'बंदिनी', 'टैक्सी ड्राइवर', 'बाज़ी' और 'अराधना'
विषय भारतीय शास्त्रीय संगीत, लोक संगीत, पाश्चात्य संगीत
शिक्षा बी. ए.
विद्यालय कलकत्ता विश्वविद्यालय
पुरस्कार-उपाधि 'पद्मश्री', राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार (सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक), फ़िल्म फेयर अवार्ड (सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक)
नागरिकता भारतीय
मुख्य गीत हम है राही प्यार के, तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना दे, छोड़ दो आंचल ज़माना क्या कहेगा, है अपना दिल तो आवारा

सचिन देव बर्मन (जन्म- 1 अक्टूबर, 1906 - मृत्यु- 31 अक्टूबर, 1975) हिन्दी और बांग्ला फ़िल्मों के प्रसिद्ध संगीतकार और गायक थे। सचिन देव बर्मन को एस. डी. बर्मन के नाम से भी जाना जाता है।[1] सचिन देव बर्मन भारतीय संगीतकार, जिन्होंने हिंदी फ़िल्म उद्योग पर अमिट प्रभाव छोड़ा है।

जीवन परिचय

एस. डी. बर्मन का जन्म 1 अक्टूबर, 1906 को त्रिपुरा में हुआ था, जो कि बांग्लादेश में है। एस. डी. बर्मन के पिता त्रिपुरा के राजा ईशानचन्द्र देव बर्मन के दूसरे पुत्र थे। एस. डी. बर्मन नौ भाई-बहन थे। एस. डी. बर्मन ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी. ए. की शिक्षा प्राप्त की। 1933 से 1975 तक बर्मन दा बंगाली व हिन्दी फ़िल्मों में सक्रिय रहे। 1938 में एस. डी. बर्मन ने गायिका मीरा से विवाह किया व एक वर्ष बाद राहुल देव बर्मन का जन्म हुआ। एस. डी. बर्मन ने हिन्दी फ़िल्मों में बहुत से दिल को छूने वाले कर्णप्रिय यादगार गीत दिये हैं।

अन्य नाम

एस. डी. बर्मन कोलकाता के संगीत प्रेमियों में 'सचिन कारता', मुम्बई के संगीतकारों के लिये 'बर्मन दा', बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल के रेडियो श्रोताओं में 'शोचिन देब बोर्मोन', सिने जगत में 'एस.डी. बर्मन' और 'जींस' फ़िल्मी फ़ैन वालों में 'एस.डी' के नाम से प्रसिद्ध थे। एस. डी. बर्मन के गीतों ने हर किसी के दिल में अमिट छाप छोड़ी है। एस. डी. बर्मन के गीतों में विविधता थी। उनके संगीत में लोक गीत की धुन झलकती थी, वहीं शास्त्रीय संगीत का स्पर्श भी था। उनका संगीत जीवंत अपरंपरागत लगता था।

संगीत की शिक्षा

संगीत में एस. डी. बर्मन की रुचि बचपन से ही थी और संगीत की एस. डी. बर्मन ने विधिवत शिक्षा भी ली थी। हालांकि एस. डी. बर्मन का मानना था कि फ़िल्म संगीत शास्त्रीय संगीत का कौशल दिखाने का माध्यम नहीं है। सचिन देव बर्मन चुने गए गीतों में ही बेहतरीन धुन देने में विश्वास रखते थे। वह धुनों के दोहराए जाने को भी पसंद नहीं करते थे।[2]

बंगाली गीतों व पूर्वोत्तर के लोकगीतों की उनकी विलक्षण प्रतिभा ही स्तंभ थे, जिन पर उन्होंने ताल और मधुर संगीत का चिरस्थायी संसार खड़ा किया।

शास्त्रीय संगीत की शिक्षा

शास्त्रीय संगीत की शिक्षा एस. डी. बर्मन ने अपने पिता व सितार-वादक नबद्वीप चंद्र देव बर्मन से ली। उसके बाद एस. डी. बर्मन उस्ताद बादल खान और भीष्मदेव चट्टोपाध्याय के यहाँ शिक्षित हुए और इसी शिक्षा से उनमें शास्त्रीय संगीत की जड़ें पक्की हुई यह शिक्षा उनके संगीत में बाद में दिखाई भी दी।[3]

लोक संगीत

एस. डी. बर्मन अपने पिता की मृत्यु के पश्चात घर से निकल गये और असम व त्रिपुरा के जंगलों में घूमें। जहाँ पर उनको बंगाल व आसपास के लोक संगीत के विषय में अपार जानकारी हुई।[3]

मुरली वादक

एस. डी. बर्मन ने उस्ताद आफ़्ताबुद्दीन ख़ान के शिष्य बनकर मुरली वादन की शिक्षा ली। और वह मुरली वादक बने।

पाश्चात्य संगीत

हिन्दी और बांग्ला फ़िल्मों में सचिन देव बर्मन ऐसे संगीतकार थे जिनके गीतों में लोकधुनों, शास्त्रीय और रवीन्द्र संगीत का स्पर्श था, वहीं एस. डी. बर्मन पाश्चात्य संगीत का भी बेहतरीन मिश्रण करते थे।[2]

कला जगत के क्षेत्र में प्रवेश

बर्मन ने अपना कॅरियर 1930 के दशक के मध्य में कलकत्ता में संगीत निर्देशक के रूप में शुरू किया। एक गायक के रूप में उनकी पहली रिकॉर्डिंग बंगाल के क्रांतिकारी संगीतज्ञ कवि क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम की एक रचना थी। इसके बाद वर्षों तक दोनों का साथ बना रहा। 1944 में मुंबई आ गए और फ़िल्मों की गतिमान छवियों के प्रति असाधारण संवेदनशीलता के साथ एक अभिनव रचनाकार के रूप में स्वयं को शीघ्र ही स्थापित कर लिया। उनका संगीत दृश्यों की सशक्तता बढ़ाया था, जैसा कि ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है में हुआ। यह गीत प्यासा फ़िल्म में गुरुदत्त पर फ़िल्माया गया था।

फ़िल्मी सफर

हम है राही प्यार के, हम से कुछ ना बोलिए।
जो भी प्यार से मिला, हम उसी के हो लिए॥

एस. डी. बर्मन सरल और सहज शब्दों से अपनी धुनों को कुछ इस तरह सजाते थे कि उनका गीत हर दिल में गहरे उतर जाता था। मृदुभाषी बर्मन दा ने अपनी इसी प्रवृति को अपने संगीत, गीत और गायिकी में भी ढाला था और यह अंदाज आज भी दर्शकों के दिल में उनके प्रति प्यार को ज़िंदा रखे हुए है।

एस. डी. बर्मन सरल और सहज शब्दों से अपनी धुनों को कुछ इस तरह सजाते थे कि उनका गीत हर दिल में गहरे उतर जाता था। मृदुभाषी बर्मन दा ने अपनी इसी प्रवृति को अपने संगीत, गीत और गायिकी में भी ढाला था और यह अंदाज आज भी दर्शकों के दिल में उनके प्रति प्यार को ज़िंदा रखे हुए है।

एस. डी. बर्मन ने अपने जीवन के शुरुआती दौर में रेडियो द्वारा प्रसारित पूर्वोत्तर लोक संगीत के कार्यक्रमों में संगीतकार और गायक दोनों के रूप में काम किया। एस. डी. बर्मन 10 वर्ष तक लोक संगीत के गायक के रूप में अपनी पहचान बना चुके थे। सन 1944 में फ़िल्मिस्तान के शशाधर मुखर्जी के आग्रह पर 'बर्मन दा' अपनी इच्छा के विरुद्ध दो फ़िल्म, 'शिकारी' व 'आठ दिन' करने के लिये मुम्बई चले गये। लेकिन मुम्बई में काम करना आसान नहीं था। 'शिकारी' और 'आठ दिन' व बाद में 'दो भाई', 'विद्या' और 'शबनम' की सफलता के बाद भी दादा को पहचान बनाने में वक़्त लगा। बर्मन ने इससे हताश होकर वापस कोलकाता जाने का निश्चय किया लेकिन अशोक कुमार ने उन्हें जाने से रोक लिया। और उन्होंने कहा-मशाल का संगीत दो, और फ़िर तुम आज़ाद हो

इसके बाद दादा ने फ़िर मोर्चा संभाला। 'मशाल' का संगीत सुपरहिट हुआ। उसी वक़्त देव आनंद, जिनकी सिने जगत में अच्छी पहचान थी व रुत्बा था, उन्होंने 'नवकेतन बैनर' की शुरुआत की और एस.डी.बर्मन को 'बाज़ी' का संगीत देने को कहा। 1951 की 'बाज़ी' हिट फ़िल्म थी, और फिर 'जाल' (1952), 'बहार' और 'लड़की' के संगीत ने बर्मन दा की सफलता की नींव रखी। बर्मन दा ने उसके बाद तो 1974 तक लगातार संगीत दिया।[3] दर्जनों हिन्दी फ़िल्मों में कर्णप्रिय यादगार धुन देने वाले सचिन देव बर्मन के गीतों में जहाँ रूमानियत है वहीं विरह, आशावाद और दर्शन की भी झलक मिलती है। भारतीय सिनेमा जगत में सचिन देव बर्मन को सर्वाधिक प्रयोगवादी एवं संगीतकारों में शुमार किया जाता है। 'प्यासा', 'गाइड', 'बंदिनी', 'टैक्सी ड्राइवर', 'बाज़ी' और 'अराधना' जैसी फ़िल्मों के मधुर संगीत के जरिए एसडी बर्मन आज भी लोगों के दिलों दिमाग पर छाए हुए हैं। अपने क़रीब तीन दशक के फ़िल्मी जीवन में सचिन देव बर्मन ने लगभग 90 फ़िल्मों के लिये संगीत दिया।

समरूप

बर्मन ने अपना अधिकतर कार्य देव आनंद की नवकेतन फ़िल्म्स (टैक्सी ड्राइवर, फ़टूश, गाइड, पेइंग गेस्ट, जुएल थीफ़ और प्रेम पुजारी), गुरुदत्त की फ़िल्मों (बाज़ी, जाल, प्यासा, काग़ज़ के फूल) और बिमल रॉय की फ़िल्में (देवदास, सुजाता, बंदिनी) के लिए किया। बहुमुखी प्रतिभा के पार्श्वगायक किशोर कुमार के साथ उनके लंबे और सफल संबंध ने अनगिनत लोकप्रिय संगीत रचनाएं दीं। नौ दो ग्यारह, चलती का नाम गाड़ी, मुनीमजी और प्रेम पुजारी जैसी फ़िल्मों के गीत-संगीत कार और गायक, दोनों के लिए महत्त्वपूर्ण थे। आराधना की सहज सफलता के साथ बर्मन ने फ़िल्म संगीत के आधुनिक दौर में आसानी से प्रवेश किया, यद्यपि पाश्चात्य धुनों के साथ पहला सफल प्रयोग उन्होंने 1950 के दशक के अंतिम वर्षों में फ़िल्म चलती का नाम गाड़ी में ही कर लिया था। जीवन के अंतिम वर्षों में ऋषिकेश मुखर्जी की फ़िल्म अभिमान और उन्हीं की कुछ दूसरी फ़िल्मों के लिए (चुपके-चुपके और मिली) अद्भुत संगीत रचना उनकी महानतम उपलब्धि थी।

साहिर लुधियानवी के साथ

बर्मन ने अपने फ़िल्मी सफर में सबसे यादा फ़िल्में गीतकार साहिर लुधियानवी के साथ की। सिने सफर में बर्मन दा की जोड़ी प्रसिद्ध संगीतकार साहिर लुधियानवी के साथ खूब जमी और उनके लिखे गीत ज़बर्दस्त हिट हुए। इस जोड़ी ने सबसे पहले फ़िल्म 'नौजवान' के गीत ठंडी हवाएँ लहरा के आए... के जरिए लोगो का मन मोहा। इसके बाद ही गुरुदत्त की पहली निर्देशित फ़िल्म 'बाज़ी' के गीत तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना दे... में एसडी बर्मन और साहिर की जोड़ी ने संगीत प्रेमियों का दिल जीत लिया। इसके बाद साहिर लुधियानवी और एस. डी. बर्मन की जोड़ी ने ये रात ए चांदनी फ़िर कहाँ.., जाएँ तो जाएँ कहाँ.., तेरी दुनिया में जीने से बेहतर हो कि मर जाएँ.. और जीवन के सफर में राही.., जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला.. जैसे गानों के जरिए दर्शकों को भावविभोर कर दिया। लेकिन एस. डी. बर्मन और साहिर लुधियानवी की यह सुपरहिट जोड़ी फ़िल्म 'प्यासा' के बाद अलग हो गई।[3]

मजरूह सुल्तानपुरी के साथ

एक समय था जब त्रिपुरा का शाही परिवार उनके राजसी ठाठ छोड़ संगीत चुनने के ख़िलाफ़ था। दादा इससे दुखी हुए और बाद में त्रिपुरा से नाता तोड़ लिया। आज त्रिपुरा का शाही परिवार एस. डी. बर्मन के लिये जाना जाता है।

एस. डी. बर्मन की जोड़ी गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी के साथ भी ख़ूब जमी। एस. डी. बर्मन और मजरूह सुल्तानपुरी की जोड़ी वाले गीत में कुछ माना जनाब ने पुकारा नहीं.., छोड़ दो आंचल ज़माना क्या कहेगा.., है अपना दिल तो आवारा..साहिर लुधियानवी और मजरूह सुल्तानपुरी के अलावा एस. डी. बर्मन के पसंदीदा गीतकारों में आनंद बख्शी, नीरज, गुलज़ार आदि प्रमुख रहे हैं जबकि उनके गीतों को स्वर देने में लता मंगेशकर, मोहम्मद रफी, किशोर कुमार और आशा भोंसले प्रमुख गायक रहे हैं।[3]

गायक

बर्मन दा ने संगीत निर्देशन के अलावा कई फ़िल्मों के लिए गाने भी गाए। इन फ़िल्मों में सुन मेरे बंधु रे सुन मेरे मितवा, मेरे साजन है उस पार, अल्लाह मेघ दे छाया दे, जैसे गीत आज भी दर्शकों को भाव विभोर करते हैं। एस. डी. बर्मन ने फ़िल्म अभिनेता निर्माता और निर्देशक देवानंद की फ़िल्मों के लिए सदाबहार संगीत देकर उनकी फ़िल्मो को सफल बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थीं।

पुरस्कार

प्रसिद्ध संगीतकार और गायक एस. डी. बर्मन जी को उनके जीवन में कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था।

सन् पुरस्कार
1934 'गोल्ड मैडल' अखिल बंगाल शास्त्रीय संगीत समारोह (कोलकाता)।
1954 फ़िल्म फेयर अवार्ड, सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक, 'टैक्सी ड्राइवर'।
1958 संगीत 'नाटक अकादमी अवार्ड'।
1958 एशिया फ़िल्म सोसायटी अवार्ड।
1959 फ़िल्म फेयर अवार्ड, सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक, 'सुजाता' (नामांकन)।
1965 फ़िल्म फेयर अवार्ड, सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक, 'गाइड' (नामांकन)।
1969 फ़िल्म फेयर अवार्ड, सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक, 'अराधना' (नामांकन)।
1970 नेशनल फ़िल्म अवार्ड, सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक, 'अराधना' (सफल होगी तेरी अराधना)।
1970 फ़िल्म फेयर अवार्ड, सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक, 'तलाश' (नामांकन)।
1973 फ़िल्म फेयर अवार्ड, सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक, 'अभिमान'।
1974 नेशनल फ़िल्म अवार्ड, सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशन, 'ज़िंदगी ज़िंदगी'।
1974 फ़िल्म फेयर अवार्ड, सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक, 'प्रेम नगर' (नामांकन)।

प्रसिद्ध संगीत

बर्मन दादा ने अपने बेटे पंचम और नासिर हुसैन के साथ सबसे अधिक हिट गानों में संगीत दिया है। बर्मन दादा का स्वयं में अटूट विश्वास था और बर्मन दादा अपने गीत चुनने के लिये जाने जाते थे। वे हमेशा कहते-

मैं केवल अच्छे गाने निर्देशित करता हूँ।

बर्मन दा अधिक मात्रा में संगीत देने की बजाय खुद चुने हुए गीतों में संगीत देते थे और इसी बात के लिये वे जाने भी जाते थे। एक समय था जब संगीत गाने के बोल के आधार पर दिया जाता था। इस तरीके को दादा ने बदला। अब गीत के बोल संगीत की धुन पर लिखे जाने लगे। दादा तुरंत धुने तैयार करने में माहिर थे, और इन धुनों में लोक व शास्त्रीय दोनों प्रकार के संगीत का मिश्रण था। बर्मन दादा व्यवसायीकरण में हिचकते थे पर वे ये भी चाहते थे कि गाने की धुन ऐसी हो कि कोई भी इसे आसानी से गा सके। जहाँ ज़रूरत पड़ी उन्होंने सुंदर शास्त्रीय संगीत भी दिया। लेकिन वे कहते थे कि फ़िल्म संगीत वो माध्यम नहीं है जहाँ आप शास्त्रीय संगीत का कौशल दिखाये। लता मंगेशकर ने बर्मन दादा के साथ रिकार्ड करने के लिये मना किया उसके बाद उन्होंने आशा भोंसले व गीता दत्त के साथ एक के बाद एक कईं हिट गाने दिये। बर्मन दादा ने आशा भोंसले, किशोर कुमार और हेमंत कुमार को भी बतौर गायक तैयार किया। उन्होंने रफी से सॉफ्ट गाने गवाये जब अन्य संगीतकार रफी से हाई पिच गीत गाने को कह रहे थे। बर्मन दा की हमेशा कोशिश रहती कि एक बार जो संगीत उन्होंने दिया उसको अगले किसी भी गाने में दोहराया न जाये। इसी वजह से उनके किसी भी गाने में ऐसा कभी नहीं लगा कि पहले भी किसी गाने में दिया गया हो।

संगीत विद्यालय की स्थापना

सन 1930 के दशक में उन्होंने कोलकाता में "सुर मंदिर" नाम से अपने संगीत विद्यालय की स्थापना की। वहाँ बर्मन दादा गायक के तौर पर प्रसिद्ध हुए और के.सी. डे की सान्निध्य में काफ़ी कुछ सीखने को मिला। उन्होंने राज कुमार निर्शोने के लिये 1940 में एक बंगाली फ़िल्म में संगीत भी दिया।[3]

मृत्यु

दादा को 1974 में लकवे का आघात लगा जिसके बाद 31 अक्टूबर, 1975 को बर्मन दादा का निधन हो गया। एक समय था जब त्रिपुरा का शाही परिवार उनके राजसी ठाठ छोड़ संगीत चुनने के ख़िलाफ़ था। दादा इससे दुखी हुए और बाद में त्रिपुरा से नाता तोड़ लिया। आज त्रिपुरा का शाही परिवार एस. डी. बर्मन के लिये जाना जाता है।[3]

स्मारक

अगरतला में एक पुल एस. डी. बर्मन की याद में समर्पित किया गया है। एस.डी. बर्मन के नाम से अगरतला में हर साल उभरते हुए कलाकारों को अवार्ड दिये जाते हैं। और मुम्बई की सुर सिंगार अकादमी भी फ़िल्म संगीतकारों को एस. डी. बर्मन अवार्ड देती है।


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टीका टिप्पणी और संदंर्भ

  1. सचिन देव बर्मन (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 24 अक्टूबर, 2010
  2. 2.0 2.1 बर्मन दा (हिन्दी) आज तक। अभिगमन तिथि: 24 अक्टूबर, 2010
  3. 3.0 3.1 3.2 3.3 3.4 3.5 3.6 यादें एस. डी. बर्मन (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) आवाज़। अभिगमन तिथि: 24 अक्टूबर, 2010सन्दर्भ त्रुटि: <ref> अमान्य टैग है; "आवाज़" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है

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